भारत बहुवचन में बदल जायेगा : कश्मीर को बनाया जा रहा है, प्रेत-प्रश्न

कश्मीर को बनाया जा रहा है, प्रेत-प्रश्न
-प्रभु जोशी




अब हमें यह स्वीकारने में कोई शर्म नहीं अनुभव होना चाहिए कि भारत एक निहायत ही कमजोर बौद्धिक आधार वाला बावला समाज है, जिसे इन दिनों ‘उदारीकरण‘ के उन्माद ने ऐसे गुब्बारे में बदल दिया है, जिसकी हवा किसी भी दिन आसानी से निकाली जा सकती है। बस इतना भर मान लेना चाहिए कि चूँकि अमेरिका उसे एक बड़े बाजार के रूप में देख रहा है, इसलिए उसका ‘फुगावा‘, हाथी के उन दाँतों की तरह बाहर दिख रहा है, जिनसे खाने का काम लेना असंभव है।


यहाँ यह नहीं भूल जाना चाहिए कि ‘रिंग-काम्बिनेशन‘ की तरह ख्यात सूचना के निर्माण, विपणन और वितरण वाली कम्पनियों द्वारा धीरे-धीरे उसे एक खोखले मुगालते में उतार दिया गया है कि वह इस भूमण्डलीकृत विश्व में स्वयं को सूचना-प्रौद्योगिकी का महारथी समझने लगा है, जबकि हकीकतन उसकी हैसियत स्वर्णाभूषणों की दूकानों के बाहर बैठे रहने वाले उन कारीगरों की-सी है, जो गहने चमकाने का काम करते हैं। दरअस्ल, माइक्रोसाफ्ट उत्पाद बनाता है और भारत उसको महज अपडेट कने की कारीगरी करता है। जहाँ तक चीन का सवाल है, उसके सामने इसकी हैसियत उस आत्मग्रस्त ऊँट की तरह है, जिसमें पहाड़ की तरफ देखने वाली सहज बुद्धि का अकाल पड़ गया है। उसकी सरकार भी देश की भूख और भूगोल को भूल कर भुलावे को ऐसी भोंगली में घुस गयी है, जहाँ से वह सिर्फ स्टाक एक्सचेंज के ग्राफ में डुंकरते साण्ड के सींगों के सहारे अर्थ-व्यवस्था में उछाल की उम्मीद करती रहती है। उसकी सफलता के सारे सूत्र ‘विकास दर‘ के दरदराते नांदीपाठ में समाहित है। वह लगातार ‘बाजार-निर्मित आशावाद‘ के आधार पर यह प्रचारित कर रही है कि जल्दी ही आंकड़ा दस के पार हुआ कि भारत मंदी की मारामारी में भी महाबली हो जायेगा, लेकिन असलियत यह कि वह बली नहीं, निर्बली है। इसका प्रमाण कश्मीर के मुद्दे पर उसकी सत्ता के कर्णधारों के वे उद्गार हैं, जो सांध्यभाषा में मूलतः लीपापोती की लीला में लगे हुए हैं।


अब यह समूचे देश को यह बात समझ में आ चुकी है कि केन्द्र के कर्णधारों ने अपनी भू-राजनीतिक समझ को ताक पर रखकर घाटी में फैलती आग के आगे पर्दा खींच दिया है- और उस पर्दे पर वह ‘गरीब भारत‘ के हिस्से की पूँजी को फूँकते वे, इण्डिया के जश्न, जोश और जुनून में है। उनके कानों में अभी तक एक ही धुन गूँजती रही है, जिसमें इंडिया के बुलाये जाने का खेलराग है। जबकि कूटनीति के कुरूक्षेत्र में असली खेल चीन का चल रहा है, जिसकी तरफ उनका ध्यान ही नहीं है।


पिछले दिनों जब कश्मीर की राजनीति के युवराज ने लगभग ‘हड़काऊ‘ शैली में यह कह दिया कि ‘कश्मीर को बार-बार भारत का अभिन्न अंग बताने के होहल्ले की जरूरत नहीं है, कश्मीर का भारत में ‘विलय‘ नहीं हुआ है‘, तो सत्ताधीशों द्वारा उल्टे मीडिया को कोसना शुरू हो गया कि ‘वे उमर की सहज-सरल बात को बतंगड़ बनाये दे रहे हैं ताकि वह ‘भड़काऊ‘ बन सके‘। वे तो विलय संबंधी ऐतिहासिक करार की तरफ इशारा भर कर रहे हैं। निश्चय ही यह समझ से परे है कि वे ऐसी भोली भाषा के आवरण में उमर की एक नादान नहीं बल्कि खतरनाक टिप्पणी के भीतर लपट बन सकने वाली चिनगारी को क्यों छुपा रहे हैं ? जबकि, उमर ‘इतिहास के प्रेत‘ को फिर से जगाने की कपटपूर्ण कोशिश कर रहे हैं। यह उनके दादा की आँख में जीवन भर ‘अर्द्धमृत से दफ्न स्वप्न‘ में पूर्ण प्राण  फूँकने की दबी हुई दुर्दान्त इच्छा का सिर उठाना ही है। क्योंकि उनके दादा में भी नेहरू से मैत्री के बावजूद सन् तिरेपन के आसपास ‘आजाद कश्मीर‘ का उमाला उठ पड़ा था।


कहने की जरूरत नहीं कि यह ऐसे ही नहीं हो गया क्योंकि उमर के दो वर्षीय शासन के दौरान ही ऐसा पहली बार हुआ कि छोटे-छोटे मासूम से दिखाई देने वाले किशारों तक के हाथों में पत्थर आ गये। उमर ने अपनी टिप्पणी में साफ लफ्जों में यह कह दिया कि कश्मीर के युवाओं द्वारा हिंस्र रास्ता चुन लेने के पीछे आर्थिक बदहाली या बेरोजगारी जैसे कारण नहीं है। यह शत-प्रतिशत सही भी है कि क्योंकि कश्मीर को पैकेज के रूप में केन्द्र अपना खजाना उदारता से उलीचता रहा है। सन् 89 से अभी तक वह अस्सी हजार करोड़ रूपये दे चुका है, जिसमें से लगभग सत्तर हजार करोड़ के खर्च का राज्य के पास कोई हिसाब-किताब ही नहीं है कि वह कहाँ और कैसे खर्च किया गया। और सर्वदलीय प्रतिनिधि मण्डल की अनुशंसा पर प्रधानमंत्री सौ करोड़ के पैकेज की घोषणा पहले ही कर चुके हैं।


कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘कन्ज्यूमरिज्म‘ की वकालत करने वाली हमारी इस सरकार को यह इलहाम हो चुका हो कि वह कश्मीर में शांति और साम्प्रदायिक-सौहार्द्र का इस तरह से पूँजी के बल पर ‘सुरक्षित सौदा‘ पटा लेगी। वह कदाचित यह भूल चुकी है कि कश्मीर अब देश का परम्परागत अर्थों में राज्य नहीं बल्कि अलगाववादियों की सुनियोजित रणनीति ने उसे एक ‘इस्लामिक इथनोस्केप‘ में बदल दिया है। कश्मीर से गैर-मुस्लिम आबादी के प्रतिशत को हिंसात्मक कार्यवाही से नृशंस अलगाववादियों ने जैसे ही कम किया, उसके अंदर शत-प्रतिशत की उतावली इतनी बढ़ चुकी है कि वे ‘कश्मीरी पण्डितों‘ के पश्चात् अब ‘सिक्खों‘ को भी कश्मीर से खदेड़ कर बाहर कर देना चाहते हैं। उन्हें अब किसी किस्म का कोई पैकेज नहीं ‘भूगोल के बंटवारे‘ के साथ ‘पूरी आजादी‘ चाहिए। अब वे जर्जर हो चुके पाकिस्तान के बलबूते पर नहीं, चीन के पाकिस्तान पर बढ़े वरदहस्त में संभावना देख रहे हैं। क्योंकि, चीन ने ‘पाक अधिकृत कश्मीर‘ में करोड़ों नहीं, अरबों डॉलर का निवेश किया है और उसे वह ‘उत्तरी पाकिस्तान‘ कहता है। हाल ही में अमेरिका ने वहाँ  लगभग दस हजार चीनी सैनिकों की उपस्थिति के बारे में सूचना दी थी।  हालाँकि चीन ने इसके प्रति-उत्तर में कहा कि वह वहाँ बाढ़ की संकटग्रस्त स्थिति में मानवीय मदद के लिए पहुँचा  है, लेकिन ये शत-प्रतिशत कूटनीतिक झूठ हैं। उसकी पूरी रूचि सामरिक आधार की वजह से है। उन्होंने पाकिस्तान और चीन के बीच आमदरफ्त के लिए कराकोरम राजमार्ग पूरा कर लिया है- स्मरण रहे यह वही इलाका है, जिसे पाकिस्तान ने जंग के जरिये हमसे हथियाया और सड़क निर्माण हेतु चीन के जिम्मे कर दिया। यह एक तरह से उस क्षेत्र का ‘सामरिक हस्तान्तरण‘ है।


बेचारे जाॅर्ज फर्नांडिस ने केन्द्र में रक्षामंत्री रहते हुए एक दफा यह कह भर दिया था, जो कि सौ-फीसदी सही भी था कि ‘पाकिस्तान नहीं, हमारा पहले नम्बर का शत्रु तो चीन है।‘ लेकिन, इस वक्तव्य से हंगामा मच गया। हालाँकि यह एक रक्षामंत्री की कूटनीतिक दृष्टि से एक असावधान टिप्पणी थी, लेकिन वही हमारी सीमाओं का कटु सत्य भी था, और है भी। उसने पिछले एक दशक में अपनी कूटनीतिक हैसियत ऐसी बना ली है कि हमारे सारे पड़ोसी अर्थात् नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और म्यांमार भी पूरी तरह से चीन की छत्रछाया में जा चुके हैं। आज स्थिति यह है कि सामरिक स्तर पर भारत एकदम अकेला है और परिणामस्वरूप वह बार-बार कश्मीर के बारे में जबानी जमा खर्च से ज्यादा कुछ नहीं कर सकता। कश्मीर के मुद्दे पर अभी तक रूस की तरह कोई मुल्क स्पष्ट पक्षधरता के साथ सामने नहीं है।


मुझे याद है, बीबीसी आज तक के हमारे कश्मीर को औपनिवेशिक धूर्तता के चलते अपने प्रसारणों में ‘भारत अधिकृत कश्मीर‘ कहता है। एकदफा दिल्ली की एक कार्यशाला में आये बीबीसी के एक प्रोड्यूसर से मैंने बीबीसी की बहु-प्रचारित तटस्थता की नीति के विरूद्ध टिप्पणी करते हुए अपनी आपत्ति दर्ज की कि जिस निष्पक्ष प्रसारण की आप बार-बार बढ़-चढ़ कर बात करते हैं, मैं पूछना चाहता हूँ कि फ़ॉकलैण्ड के युद्ध के समय बीबीसी ने फ़ॉकलैण्ड में श्रीमती मार्गरेट थेचर द्वारा की कार्यवाही के विरोध में एक भी शब्द नहीं कहा। कश्मीर के मामले में बीबीसी हमेशा थोड़ा बहुत भू-भाग ले देकर झगड़ा निपटाने की बात करता है, लेकिन क्या आपने अभी तक फ़ॉकलैण्ड के बारे में सोचा, जिस पर आपने अब तक अपना कब्जा नहीं छोड़ा है, जबकि वह ब्रिटेन से लगभग ढाई हजार किलोमीटर दूर अर्जेन्टाइना के निकट है। और आप साढ़े सात सौ साल से वहाँ लड़ रहे हैं ? कश्मीर के संदर्भ में जब-तब इमनेस्टी इंटरनेशनल के बहाने से भारत की भर्त्सना की जाती रही है।


बहरहाल, कश्मीर में जिस तरह की स्थिति बन चुकी है, भारत को पश्चिम के नैतिकतावाद के झाँसे में आकर मुल्क को एक बार फिर विखण्डन की ओर धकेलने की सोचना भी नहीं चाहिए। ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल‘ भारत को अपनी रिपोर्ट में मानवाधिकार उल्लंघन के लिए धिक्कारती रहे, लेकिन हमने उसे यह तय करने का अधिकार कतई नहीं दिया है कि वह मानवतावाद का प्रश्न उठाते हुए हमारी भू-राजनीति समस्या को बढ़ा कर अधिक विराट बनाते हुए, पाकिस्तान के पक्ष में परोक्ष आधार गढ़ती रहे।


पश्चिम की प्रेस में जख्मी जहन और आँसूतोड़ भाषा में लिखे गये लेखों से जो मानवतावादी रूदन भारत की भर्त्सना में चलता चला आ रहा है, उसमें ढेर सारे भारतीय भी हैं, और ये ही लोग है, जिन्होंने भारत के इस अभिन्न भूभाग को ग्रीस-तुर्की, जर्मनी-चेकोस्लोवाकिया, पौलेण्ड-जर्मनी, बोसनिया-सर्बिया ही नहीं, क्यूबा और अमेरिका की तरह व्याख्यायित करने की धूर्तता शुरू कर रखी है। हमें इस तरह की व्याख्याओं के दबाव में आकर भारतीय सेना को कश्मीर से हटाये जाने के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोचना चाहिए। क्योंकि कश्मीर एक बहुत संवेदनशील राज्य नहीं बल्कि खासा विस्फोटक सीमावर्ती राज्य है, जहां से सेना के हटाने का अर्थ कश्मीर को भारत से अलग करने की पूरी गारंटी दे देना है। यहाँ तक कि वहाँ सीमित स्वायत्ता की बात करना यानी दृष्टिहीन राजनीति के द्वारा रचा जाने वाला ‘पैराडाइज लास्ट‘ ही होगा।


अंत में मुझे एल्विन टाॅफलर द्वारा सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में बड़े राष्ट्रों के विघटन की जो भविष्योक्ति अपनी पुस्तक ‘तीसरी लहर‘ में की गयी थी, उसकी याद आ रही है, कश्मीर से सेना के हराते ही वह सच सिद्ध हो जायेगी। क्योंकि, रूस में सबसे पहले आर्मेनिया में ही उथल-पुथल शुरू हुई थी। तब किसी पता था कि एक दिन महाशक्ति की तरह जाना-जाने वाला रूस मात्र दस वर्षों के भीतर सोलह टुकड़ों में विखण्डित हो जायेगा। लेकिन नब्बे के दशक में अचानक गोर्बाचोव नामक एक जनप्रिय नेता का उदय होता है और वह ‘ग्लासनोस्त‘ तथा ‘पेरोस्त्रोइका‘ जैसी उदारवादी धारणाओं को नवोन्मेष के नाम पर लागू करता है, जिसके चलते ‘आधार‘ (बेस) में परिवर्तन होता है और ‘अधिरचना‘ (सुपर स्ट्रक्चर) ढह जाती है। हमारे यहाँ भी परिवर्तन की शुरूआत ‘आधार‘ में की गई और अभी हमारी सारी ‘अधिरचना‘ की चूलें हिल चुकी हैं। एक चैतरफा बदहवासी है, भूख है, बढ़ती बेरोजगारी है, खाद्य सामग्री महँगाई है- भ्रष्टाचार की दर ऊँची है और विकास के ग्राफ की असमानता है, इसीलिए अब हमें हमारा बुन्देलखण्ड, हमारा बघेलखण्ड चाहिए। ऐसी माँगों के बीच यदि कश्मीर को स्वायत्ता देने की ओर हम बढ़ते हैं तो बहुत जल्दी भारत भी बहुवचन में बदल जायेगा।


निश्चय ही इसके टुकड़े रूस से कहीं ज्यादा होंगे। हम चाहेंगे कि ऐसे सोच से हमारी सरकार दूर ही रहे। क्योंकि, हम कभी नहीं चाहेंगे कि एक दिन इतिहास के सफों पर वक्त हमारे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को पगड़ी में गोर्बाचोव कहने को मजबूर हो जाये।



- 4, संवाद नगर
इन्दौर
prabhu.joshi@gmail.com

यह चुस्ती .....


यह चुस्ती फिर कब दिखाई देगी? 
 -  राजकिशोर 



दूसरे सभी बुखारों की तरह आखिरकार कॉमनवेल्थ खेलों का बुखार उतर गया। दिल्ली के राजा लोग अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि वे एक कठिन परीक्षा में खरे उतरे हैं। जैसे ज्यादातर छात्र साल भर मौज-मस्ती करते हैं और आखिरी दिनों में परीक्षा की तैयारी जोर-शोर से करने लगते हैं, वैसे ही भारत सरकार शुरू में तो इस उम्मीद पर लगभग हाथ पर हाथ धरे बैठी रही कि ईश्वर की कृपा से सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन जब परीक्षा की तारीखें नजदीक आने लगीं और सब कुछ गलत ही गलत होता नजर आने लगा, तब आला वजीर को खुद हस्तक्षेप करना पड़ा और तैयारी की गाड़ी टॉप स्पीड से चलने लगी। अब हम संतोष की सांस ले सकते हैं और यह दावा कर सकते हैं कि हम उतने जाहिल या काहिल नहीं हैं जितना अखबारों में काम करने वाले, जो व्यवस्था के जन्मजात आलोचक हैं, हमें बता रहे थे। अखबार हार गए, सरकार जीत गई। 


क्या यह प्रधानमंत्री की अचानक पैदा हुई नाराजगी का नतीजा था कि कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारी समय पर पूरी हो गई और हम अपनी ही आंखों में गिरने से बच गए? विचार करने की बात यह है कि विशेषज्ञ वही थे, अमलाशाही वही थी, ठेकेदार और मजदूर वही थे, लेकिन वे तब तक कछुए की चाल से चलते रहे जब तक इन सभी पर ऊपर से एक अदृश्य मुक्का पड़ा। क्या इस मुक्के की थाप न लगने तक वे अपना-अपना काम संतोषप्रद रफ्तार से नहीं कर सकते थे? मुक्का खाने के बाद इन सब की कार्य कुशलता अचानक बढ़ गई और जो समय पर होता हुआ नहीं दिख रहा था, वह अचानक रास्ते पर आ गया। इससे क्या पता चलता है? 



पता यह चलता है कि भारत की अमलाशाही वास्तव में उतनी काहिल या कामचोर नहीं है जितनी आम तौर पर समझी जाती है। वह चाहे तो अपनी हर ड्यूटी को ठीक से और समय पर निपटा सकती है। लेकिन इसके लिए उसे चाबुक की फटकार चाहिए। चाबुक का डर न हो, तो सब कुछ बिखरा-बिखरा-सा पड़ा रहता है – फर्श की धूल, सड़कों के गड्ढे, शौचालयों की गंदगी, पेशाबखानों के दाग और दफ्तर की उद्देश्यहीन अस्तव्यस्तता। जब पता चलता है कि साहब दौरा करने वाले हैं, तब अचानक सभी अधीनस्थों की इंद्रियां – छठी इंद्रिय सहित - जाग उठती हैं और साहब जहां-जहां से गुजर सकते हैं, वहां-वहां सुंदरीकरण का अभियान शुरू हो जाता है। यह चुस्ती अचानक आसमान से टपक नहीं पड़ती, बल्कि भीतर सोई रहती है। जागती वह तब है जब निलंबित या बरखास्त होने का डर पैदा हो जाता है। शायद हमारा राष्ट्रीय चरित्र यही है। 



बेशक सरकारी दफ्तरों और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की तुलना में निजी क्षेत्र के काम-काज में मजबूरी होने पर ही काम करने की प्रवृति बहुत कम दिखाई पड़ती है। इसका मुख्य कारण यह है कि सरकारी कर्मचारियों को नौकरी की सुरक्षा का अभेद्य कवच मिला हुआ है। उन्हें स्थानांतरित या मुअत्तल तो कभी भी किया जा सकता है, पर बरखास्त करना नाकों तले चने चबाना है। मंत्री आते-जाते रहते हैं, संत्री बने रहते हैं। दूसरी तरफ, निजी क्षेत्र में एक मिनट में छुट्टी हो जा सकती है – कर्मचारी की गलती हो चाहे न हो। यहां हर कर्मचारी अपनी पीठ पर चाबुक की छाया महसूस करता है और चाबुक की मार से नहीं, बल्कि मार के भय से सरपट दौड़ता रहता है - उसके पेट में पूरे दाने हों या नहीं। 



निश्चय ही, यह कोई अच्छी हालत नहीं है। इसी आधार पर निजी क्षेत्र को सार्वजनिक क्षेत्र से ज्यादा चुस्त और कार्यकुशल बताया जाता है। प्रतिद्वंद्विता को सहकार से ज्यादा कारगर भावना माना जाता है। सवाल उठता है कि मनुष्य क्या हमेशा डर से ही परिचालित होता रहेगा? क्या लोभ ही उसकी कार्यकुशलता का स्तर ऊंचा रख सकता है? बेशक साधारण आदमी के लिए संत होना कठिन है (सच तो यह है कि संतों के लिए भी संत होना कम कठिन नहीं है)। बेहतर से बेहतर संस्कृति में भी डर और लोभ की कुछ न कुछ भूमिका बनी रहेगी। इसके बावजूद उत्पादन के पूरे तंत्र की परिचालिका शक्ति अगर यही तत्व बने रहते हैं, तो ऐसे समाज को कोई सभ्य समाज नहीं कहा जा सकता। यह तो एक तरह से दास प्रथा की वापसी है। 



कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारी का पूरापन एक और तथ्य की याद दिलाता है। वह तथ्य यह है कि भारत सरकार आम तौर पर भले ही लद्धड़ और सुस्त दिखाई देती हो, किसी बड़ी चुनौती का सामना करना हो, तो वह चीते की-सी फुर्ती के साथ टूट पड़ती है। कुछ ऐसी ही घटनाओं को याद कीजिए। तेलंगाना में सशस्त्र क्रांति के प्रयास को कितना जल्द कुचल गया था। इमरजेंसी में सरकारी तंत्र कितना चुस्त और कार्यकुशल हो गया था। बाबू दफ्तर में समय पर पहुंचने लगे थे और रेलें एकदम समय पर चलने लगी थीं। जब पंजाब में आतंकवाद पर निर्णायक चोट करनी थी और भिंडरांवाले को खत्म करना था, तब अकाल तख्त पर कितनी त्वरित कार्रवाई की गई थी। जब करगिल में भारतीय जमीन को पाकिस्तानी घुसपैठियों से आजाद कराना था, तो इस काम को कितनी जल्द और कितनी बहादुरी के साथ अंजाम दे दिया गया था। लेकिन यही फुर्ती माओवादियों का सफाया करने में (यह उचित है या नहीं, यह अलग सवाल है), दिखाई नहीं पड़ रही है। इसका प्रमुख कारण यही है कि सरकार ने घोषणा भले ही कर दी हो, पर वह अपनी पूरी ऊर्जा के साथ इस अजेंडा पर काम नहीं कर पा रही है। अगर सरकार सचमुच ठान ले, तो यह काम दो-तीन महीने से ज्यादा का नहीं है। 



इसीलिए यह प्रश्न करना जायज है कि कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन में जिस तरह की सक्रियता दिखाई दी, क्या वैसी ही सक्रियता अन्य सरकारी परियोजनाओं के क्रियावन्यन में क्यों दिखाई नहीं दे सकती? गरीबों के लिए सरकारी अनाज देर से पहुंचता है, बीपीएल कार्ड जारी करने में महीनों लग जाते हैं, सड़कें मरम्मत के इंतजार में बरसों बिलखती रहती हैं, बिजली के खंबे लग जाते हैं, पर बिजली को पहुंचने में कई साल लग जाते हैं, आदमी आज रिटायर होता है और उसकी पेंशन अगले या अगले के अगले साल शुरू हो पाती है आदि-आदि। स्पष्ट है कि सरकार ने खेलों के आयोजन में जैसी चुस्ती दिखाई, क्या वैसी ही चुस्ती वह अन्यत्र क्यों नहीं दिखा सकती है। लेकिन किसी को इसकी जरूरत ही क्या है? क्या इसके बिना भी देश ठीकठाक नहीं चल रहा है और दुनिया भारत में लोकतंत्र की सफलता के गीत नहीं गा रही है?



खबरों के आगे खिंचता नेपथ्य



खबरों के आगे खिंचता नेपथ्य
-प्रभु जोशी




दुनिया भर में, ‘विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र‘ की तरह ख्यात भारत ने, जब एक ‘नव-स्वतंत्र राष्ट्र‘ की तरह, विश्व-‘राजनीति में जन्म लिया, तब निश्चय ही न केवल ‘पराजित‘ बल्कि, लगभग हकाल कर बाहर कर दी गयी ‘औपनिवेशिक-सत्ता‘ के कर्णधारों की आँखें, इसकी ‘असफलता‘ को देखने के लिए बहुत आतुर थीं। चर्चिल की बौखलाहटों को व्यक्त करती हुई, तब की कई उक्तियाँ इतिहास के सफों पर आज भी दर्ज हैं। अलबत्ता, उनकी ‘अपशगुनी उम्मीदों‘ के बार-खिलाफ, जब-जब इस ‘महादेश‘ में संसदीय चुनाव हुए, तब-तब इस बात की पुष्टि काफी दृढ़ता के साथ हुई कि बावजूद ‘सदियों की पराधीनता‘ के, भारतीय-जनमानस में एक अदम्य ‘लोकतांत्रिक-आस्था‘ है, जो केवल उसके सोच भर में स्पंदित नहीं है, बल्कि, उसकी तमाम संस्थाओं में, वह लगभग ‘दहाड़ती‘ हुई उपस्थित है। कहने की जरूरत नहीं कि उसके ‘चौथे खंभे‘ में तो ‘नृसिंह‘ की-सी शक्ति है, जो सत्ता के पेट को चीर सकती है। आपातकाल में तो उसने यह पूरी शिद्दत से प्रमाणित कर दिया था कि न केवल ‘लिख कर‘ बल्कि इसके विपरीत ‘न लिखकर‘ भी वह अपनी आवाज को इस तरह बुलन्द कर सकती है, जो हजारों-हजार लिखे गए लफ्जों से कहीं ज्यादा प्रखर प्रतिरोध का रूप रख सकती है। सम्पादकीय की जगह खाली छोड़ने से ‘मौन की तीखी अनुगूँज‘ राष्ट्रव्यापी बन गयी थी।





बहरहाल, इन्दौर नगर में पिछले सप्ताह ‘गाँधी-प्रतिमा स्थल‘ पर कतिपय बुद्धिजीवियों ने देश भर के कोई बीस-बाईस हिन्दी समाचार पत्रों की एक-एक प्रति जुटाकर, तमाम अखबारों के द्वारा ‘अकारण‘ ही तेजी से किये जा रहे हिन्दी के हिंग्लिशीकरण बनाम ‘क्रिओलीकरण’ के जरिए, जिस ‘बखड़ैली भाषा‘ को जन्म देने में लगे है, उसके प्रति हिन्दी भाषाभाषी पाठकों की पीड़ा और प्रतिकार को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करने के लिए, उनकी होली जलायी। निश्चय ही प्रतिकार की इस ‘प्रतीकात्मकता‘ से जो लोग असहमत थे, वे इसमें शामिल नहीं हुए। उनके पास अपने तर्क और अपनी स्पष्ट मान्यताएँ थीं, जबकि अखबारों की ‘होली‘ जलाने वालों के पास अपनी सिद्धान्तिकी थी। दोनों के पक्ष-विपक्ष में एक गंभीर विमर्श भी बन सकता था। 





बहरहाल, घटना छोटी-सी और निर्विघ्न सी थी, लेकिन भारतीय पत्रकारिता के विगत तिरेसठ साल के इतिहास में पहली बार घट रही थी। लेकिन देश के किसी भी हिन्दी अखबार ने (नईदुनिया को छोड़कर। हालांकि, जनसत्ता ने खबर तो नहीं, लेकिन, राजकिशोर के लेख में इस खबर को यथावत और विस्तार से दिया है।) यह खबर प्रकाशित नहीं की। इण्टरनेट के ब्लागों और ‘फेस बुक‘ पर अवश्य इस पर बहस के लिए अवकाश (स्पेस) निकला, लेकिन, आरंभ में उसका रूप जिस तरह की गंभीरता लिए हुए शुरू हुआ था, दूसरे दिन वह ‘भर्त्सना‘ और ‘भड़ास‘ की शक्ल अख्तियार कर चुका था। उसमें मनोरंजन और मसखरी भी शामिल हो चुकी थी। अतः पूरी बात विचार के दायरे से ही लगभग बाहर हो गयी। यहाँ यह बात गौर करने लायक है कि कदाचित् सम्पूर्ण हिन्दी समाचार-पत्रों ने, इस कार्यवाही को अपनी सत्ता के प्रति एक ‘बदअखलाक चुनौती‘ की तरह लिया है। हो सकता है समाचार-पत्रों ने, चूंकि वे समय और समाज में विचार के लिए वाजिब जगह बनाने की जिम्मेदारी अपने ही हिस्से में समझते हैं, अतः वे इस कार्यवाही के खिलाफ निस्संदेह ठोस बौद्धिक-असहमति रखते हैं। लेकिन प्रश्न उठता है कि जो समाचार पत्र, वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिन, ’समय और समाज’ की खाल खींच कर उसमें नैतिकता का नमक डालने पर तत्पर रहता है, क्या वह तिरेसठ वर्ष के अपने जीवनकाल में मात्र एक दिन किसी एक शहर में अपने पाठक की असहमति और उसका प्रतीकात्मक प्रदर्शन तक बरदाश्त नहीं कर सकता? जबकि, वह इस महाकाय जनतंत्र की रक्षा का एक सर्वाधिक शक्तिशाली कवच है? क्या समूचा समाचार-जगत ’विचार’ के स्तर पर, व्यक्ति की सी स्वभावगत ’एकरूपता’ रखता है ? जबकि, वह व्यक्ति नहीं संस्था है। मुझे यहाँ याद आता है कि नेहरू के विषय में कहा जाता रहा है कि उनका अहम् काफी अदम्य था और वे अमूमन अपनी असहमति की अवमानना पर तिक्त हो जाते थे। एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है। ’टाइम्स आॅफ इण्डिया’ के तब के ख्यात सम्पादक मुलगांवकर प्रधानमंत्री आवास पर स्वल्पाहार हेतु आमंत्रित थे और जिस सुबह वे आमंत्रित थे, ठीक उसी दिन उन्होंने नेहरू तथा ’नेहरू-सरकार’ के विरूद्ध अपने अखबार में बहुत तीखी सम्पादकीय टिप्पणी छाप दी। लगभग आठ बजे प्रधानमंत्री-आवास से दूरभाष पर सूचना दी गयी कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से पूर्व में स्वल्पाहार के समय प्रधानमंत्री के साथ निर्धारित भेंट निरस्त की जा रही है। यह सूचना पाते ही श्री मुलगांवकर ने नेहरू को फोन किया कि ठीक है कि आज का सम्पादकीय आपके तथा आपकी सरकार के खिलाफ है, लेकिन इसका हमारे नाश्ते से क्या लेना-देना है ? 





बहरहाल, नेहरू ऐसे थे कि सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर रहते हुए भी ठिठक कर बुद्धिजीवियों द्वारा की गई अपनी आलोचना सुन सकते थे। कदाचित् उनके इसी जनतांत्रिक धैर्य को ध्यान में रखकर दुनिया भर की प्रेस उन्हें ’डेमोक्रेटिक प्राॅफेट’ के विशेषण से सम्बोधित भी करती थी।



बहरहाल, इन्दौर नगर में भारतीय समाचार पत्रों को उनकी भाषागत नीति को केन्द्र में रखकर उसके प्रतिरोध में होली जलाने वाली कार्यवाही को लेकर इतना आहत और क्रोधित नहीं होना चाहिए कि उनके द्वारा अकारण किये जा रहे क्रिओलीकरण के खिलाफ शुद्ध गाँधीवादी प्रतिकार की खबर को वे अपने पृष्ठों पर तिल भर भी जगह न दें। यह काम निश्चय ही सम्पादक का नहीं हो सकता। तो क्या हमारे समाचार-पत्रों में एक किस्म की ‘काॅरपोरेट सेंसरशिप‘ अघोषित रूप से आरंभ है ? जबकि, ठीक उसी दिन ‘दैनिक भास्कर‘ ने क्रिओलीकरण के विरूद्ध लिखी गयी मेरी तीखी टिप्पणी ससम्मान और प्रमुखता से छापी और ‘नईदुनिया‘ ने इसके दो दिन पूर्व ही ‘भाषा के खिलाफ हो रही साजिश को समझो‘ शीर्षक से हिन्दी के ‘क्रिओलीकरण‘ के खतरे की तरफ पाठकों नहीं, सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-भाषियों को सचेत करने वाली उस टिप्पणी को एक ऐसी सम्पादकीय टीप के साथ प्रकाशित किया, जो ‘जन-आह्वान‘ के स्वर में थी। यह तथ्य दोनों ही अखबारों के ‘खुलेपन‘ और ‘जनतांत्रिक उदारता‘ के स्पष्ट प्रमाण हैं। तो अब प्रश्न यह उठता है कि क्या उनकी यह ‘उदारता‘ इतनी ज्वलनशील है कि प्रदर्शन की आँच की खबर से भस्म हो सकती है ? हाँ, राजनीतिक सत्ताएँ ‘विचार‘ को खतरा मानती हैं और उससे डरती भी हैं, लेकिन अखबर की ताकत तो ‘विचार‘ ही है। ‘विचार‘ तो उसके लगभग प्राण हैं ? फिर चाहे वे ‘सहमति‘ के रूप में हों, या ‘असहमति‘ के रूप में। मैं मानता हूँ कि आज हमारा समाज जितना ‘सूचना-सम्पन्न‘ हुआ है, उसके पीछे प्रमुख रूप से ‘लिखे-छपे शब्द‘ की बहुत बड़ी भूमिका है, ‘बोले गये‘ शब्द वाले माध्यम की तो प्राथमिकताएँ और प्रतिबद्धताएँ केवल मनोरंजन ही है। अतः मुझे उस माध्यम से कुछ नहीं कहना। वह अभी तक परिपक्व ही नहीं हो पाया है। अधिकांश का ‘समाचार-विवेक‘ तो साध्यकालीनों की सनसनी के समांतर ही है। वे ‘सचाई‘ के साथ फ्लर्ट (!) करते हैं। उनका ‘रिमोट‘ सच के किसी दूसरे ‘सनसनाते संस्करण‘ को बदलने का उपकरण है। लेकिन सुबह के दैनिक अखबार यह मानते हैं कि वह मालिकों का कम पाठकों का ज्यादा है। इसीलिए, यदि पाठकों का एक छोटा-समूह ‘संवादपरक प्रतिरोध‘ की संभावना के पूरी तरह निशेष हो जाने के बाद, यदि निहायत ही गाँधीवादी तरीके से अपना विरोध होली जलाकर प्रकट कर रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि समाचार-पत्रों में हो रही आयी उसकी आस्था का पूर्णतः से लोप हो गया है। गाँधीजी ने, जब विदेशी वस्त्रों की होली जलायी थी तो वे ‘वस्त्रोत्पादन‘ के विरूद्ध कतई नहीं थे। ना ही वस्त्र धारण करने के काम से उनकी आस्था उठ गयी थी। वे तो प्रतीकात्मक रूप से एक अचूक सूचना दे रहे थे कि हमें ‘औपनिवेशिक विचार‘ का विरोध करना है, जो वस्तुओं में शामिल है।





अंत में इन दिनों जिस ‘शक्ति-त्रयी‘ की बात की जा रही है, उसमें ‘सूचना‘ भी राज्य सत्ता के समानान्तर मानी जा रही है। ‘सूचना‘ का निर्माण और वितरण करने वाली दुनिया की चार पाँच संस्थाओं को ‘सत्ता‘ का सर्वोपरि रूप माना जा रहा है, क्योंकि वे ही ‘विश्वमत‘ गढ़ती या बनाती हैं। उनमें किसी भी मुल्क या उसकी सरकार को ध्वस्त करने की भी अथाह कुव्वत है, लेकिन वे अपने मुल्क के ‘प्रतिरोध की आवाजों‘ की अनसुनी नहीं करती वर्ना, नोम चाॅमस्की जैसे लोगों के विचारों की आहटें शेष संसार को सुनाई ही नहीं देती।




मुझे ब्रिटिश प्रधानमंत्री चेम्बर लेन के आक्सफर्ड विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में दिये गये उनके भाषण की याद आती है। उन्होंने कहा था, ‘आक्सफर्ड‘ ने हमें जब जब जैसा-जैसा करने को कहा हमने हमेशा ही ठीक वैसा-वैसा किया; लेकिन जब आक्सफर्ड को हमने अपने जैसा करने को कहा, उसने वैसा कभी नहीं किया और एक ब्रिटिशर की तरह मुझे इन दोनों बातों पर अपार गर्व है।




कुल मिलाकर चेम्बरलेन ने यही कहना चाहा हम ब्रिटिशर्स विचार के स्तर पर इतने उदार हैं हम अपनी प्रखरतम आलोचना का सम्मान करते हैं, लेकिन, हमें अपने मुल्क की बुद्धिजीवी बिरादरी पर भी गर्व है, जो असहमतियों को व्यक्त करने में भीरू नहीं है। किसी भी देश और समाज में भीरूता का वर्चस्व बौद्धिकों में व्याप्त होने लगे, तब शायद यह मान लेना चाहिए कि वह फिर से पराधीन होने के लिए तैयार हैं।




अंत में कुल जमा मकसद यही है कि लोहिया की विचारधारा में गहन आस्था रखने वाले श्री अनिल त्रिवेदी, तपन भट्टाचार्य और जीवनसिंह ठाकुर ने भारतीय भाषाओं के आमतौर पर तथा हिन्दी के क्रिओलीकरण (हिंग्लिशीकरण) को लेकर खासतौर पर एक शांत और नितान्त निर्विघ्न प्रदर्शन किया तो वस्तुतः वे निश्चय ही इसके दूरगामी खतरों की तरफ पूरे देश और समाज को चेतस करना चाहते हैं। वे ठीक ही कह रहे हैं ‘भाषा का प्रश्न‘ महज भाषा भर का नहीं होता, वह समूचे समाज को सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था का भी अनिवार्य अंग होता है। क्या हमें यह नहीं दिखाई दे रहा कि अमेरिका और ब्रिटेन ‘ज्ञान समाज‘ के नाम पर, मात्र अपने सांस्कृतिक उद्योग की जड़ें गहरी करने में लगे हैं। ‘कल्चरल इकोनॉमी‘ उनकी अर्थव्यवस्था का तीसरा घटक है, जो अँग्रेजी सीखने-सिखाने के नाम पर अरबों डाॅलर की पूंजी कमाना चाहते हैं। हिन्दी, यदि संसार की दूसरी सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा की चुनौतीपूर्ण सीमा लांघने को है, तब उसे एक धीमी मौत मारने के लिए उसका क्रिओलीकरण क्यों किया जा रहा है ? अभी षड्यंत्र की यह पहली अवस्था है, ‘स्मूथ डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि‘। अर्थात हिन्दी के शब्दों का चुपचाप अँग्रेजी के शब्दों द्वारा विस्थापन इसे सर्वग्रासी हो जाने दिया गया तो अंत में आखिरी प्रहार की अवस्था आ जाएगी और वह होगा, देवनागरी लिपि को बदलकर उसके स्थान पर रोमनलिपि को चला देना। यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि 5 जुलाई 1928 को ‘यंग इंडिया‘ में जब गाँधीजी ने लिखा कि ’अँग्रेजी साम्राज्यवादी भाषा है और इसे हम हटा कर रहेंगे’, तब गोरी हुकूमत अँग्रेजी के प्रसार प्रचार पर छः हजार पाऊण्ड खर्च करती थी (तब भी यह राशि बहुत ज्यादा थी)। गाँधीजी की इस घोषणा को सुनते ही उन्होंने लगे हाथ अँग्रेजी के प्रचार-प्रसार का बजट बढ़ा दिया। 1938 में बजट की राशि थी तीन लाख छियासी हजार पाऊण्ड। यदि अखबारों की होली जलाकर प्रकट किये गये इस विरोध के बाद हिन्दी के समाचार पत्रों मे भाषा के ‘क्रिओलीकरण‘ की गति तेज हो जाये तो यह स्पष्ट सूचना जायेगी कि भाषा संबंधी नीतियों के पीछे अँग्रेजी की ‘नवसाम्राज्यवादी‘ शक्तियाँ दृढ़ता के साथ काम कर रही हैं। 


4, संवाद नगर
इन्दौर



वर्धा में दो दिवसीय राष्‍ट्रीय कार्यशाला एवं संगोष्‍ठी संपन्न

‘हिंदी ब्लॉगिंग की आचार संहिता’ पर दो दिवसीय राष्‍ट्रीय कार्यशाला और संगोष्‍ठी संपन्न

ब्लॉगरों को अपनी लक्ष्‍मण रेखा खुद बनानी होगी - विभूति नारायण  राय

ब्लॉगिंग सबसे कम पाखंडवाली विधा है - आलोक धन्वा

आभासी  दुनिया भी वास्तविक दुनिया का विस्तार है - ऋषभ देव शर्मा




वर्धा,11 अक्टूबर।


महात्मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्‍यालय, वर्धा में हिंदी ब्लॉगिंग की आचार-संहिता’ विषयक दो दिवसीय राष्‍ट्रीय कार्यशाला एवं संगोष्‍ठी संपन्न हुई। समारोह का उद्‍घाटन विश्‍वविद्‍यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने 
हबीब तनवीर प्रेक्षागृह 
किया। आरंभ में सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने नए अभिव्यक्‍ति माध्यम के रूप में उभरी ब्लॉगिंग की विधा की अनंत संभावनाओं और उससे जुड़े खतरों की ओर इशारा करते हुए ब्लॉग लेखन के संबंध में  आचार-संहिता विषयक विचार-विमर्श की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला। 


तदुपरांत स्वागत भाषण में हिंदी विश्‍वविद्‍यालय के प्रतिकुलपति प्रो.अरविंदाक्षन ने कहा कि ऐसे कार्यक्रमों में यूजीसी और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के प्रतिनिधियों और अधिकारियों को भी आमंत्रित करना चाहिए, जिससे वे जान सकें कि यह विश्‍वविद्‍यालय केवल साहित्य और उत्सवधर्मिता का ही केंद्र नहीं है, बल्कि  हिंदी को तकनीक से भी जोड़ने को प्रयासरत है। जब उन्होंने कहा कि मैं आप सबका स्वागत हृदय की भाषा में कर रहा हूँ तो सभागार करतलध्वनि  से गूँज उठा.

उद्‍घाटन वक्‍तव्य देते हुए कुलपति विभूति नारायण  राय ने कहा कि इंटरनेट ने राष्‍ट्रों की बंदिशों को तोड़ा है। उन्होंने आगे कहा कि अभिव्यक्‍ति की स्वतंत्रता का जो उत्तर आधुनिक विस्फोट हुआ है, वह इंटरनेट से ही संभव हो सका है; लेकिन हम यहाँ दो  दिनों के लिए इसलिए भी उपस्थित हुए हैं कि हम इस बात पर बहस कर सकें कि इस माध्यम ने हमें एक खास तरह की स्वच्छंदता तो नहीं दे दी है! उन्होंने प्रश्‍न उठाया कि अपनी अभिव्यक्‍ति की स्वतंत्रता में कहीं हम यह तो नहीं भूल रहे हैं कि हम सारी सीमाएँ तोड़ रहे हैं और दूसरों की  भावनाओं को ठेस पहुँचा रहे हैं। राय का मानना था कि तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करना तथा निहित स्वार्थ की सिद्धि के किए ब्लॉग के माध्यम का दुरुपयोग करना चिंतनीय विषय  है। उन्होंने यह जोड़ा कि   किसी कानून द्वारा नियमित किए  जाने के बजाय हमें ऐसा लगता है कि  हर एक ब्लॉगर को अपनी लक्ष्‍मण-रेखा खुद बनानी होगी। वी.एन.राय ने आगे कहा कि एक समझदार और सभ्य समाज के लिए जरूरी है कि उसके नागरिक अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींचें  ताकि ऐसी स्थिति न आए कि राज्य को सेंसर लगाने की दिशा में  सोचना पड़े।


‘मधुमती’ की पूर्व संपादक  कथाकार  डॉ.अजित गुप्‍ता ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि ब्लॉगिंग त्वरित विचारों के त्वरित प्रस्तुतीकरण  की विधा है। उन्होंने राज्य की ओर से किसी आचार संहिता के लागू किए जाने की तुलना में ब्लॉगरों की पंचायत बनाने का सुझाव दिया जो आम नियंत्रण के सिद्धांत बना सकती है। उन्होंने हिंदी ब्लॉग जगत की कुछ बहसों के संदर्भ में कहा कि यदि मैं स्त्री संबंधी बात कहती हूँ तो यह ध्यान रखना होगा कि पुरुष भी इसे सुन रहे हैं। उन्होंने चिट्ठों का समग्र संकलन करनेवाले एग्रीग्रेटरों से अनुरोध किया कि वे अश्‍लील, खराब, बेनामी और भद्‍दी भाषा में लिखने वालों को समझाइश दें और उनको अनुशासित करें।


लंदन से आई हुईं कवयित्री और लेखिका डॉ. कविता वाचक्नवी ने आचार संहिता की आवश्यकता और उससे जुड़े तमाम मुद्‍दों पर विस्तृत चर्चा की और कहा कि चिट्‍ठाकारी रूपी माध्यम के विस्तार के साथ साथ शायद आनेवाले समय में आचार संहिता की आवश्यकताएँ बढ़ेंगी। उन्होंने यह भी कहा कि खराब से खराब व्यक्‍ति को अच्छी चीज का आधिपत्य दीजिए वह उसे खराब कर देगा, और अच्छे व्यक्‍ति को खराब से खराब चीज दे दीजिए वह उसे अच्छा कर देगा। डॉ.वाचक्नवी ने भी साफ तौर पर माना कि आचार संहिता को आरोपित नहीं किया जा सकता और सुझाव दिया कि आप यह कर सकते हैं कि अनाचार पर दंड का विधान कर दें। उन्होंने कहा कि वे ब्लॉगरों से संयम और उदात्तता की उम्मीद करती हैं ताकि स्वच्छंदता और अराजकता न फैले। सस्ती लोकप्रियता और निरंकुशता से बचने की सलाह देते हुए डॉ. कविता वाचक्नवी ने याद दिलाया कि हमारे लिए ब्लॉग मनोविलास नहीं बल्कि अपनी भाषा, लिपि, साहित्य और संस्कृति को बचाने का युद्ध है.

उद्‍घाटन सत्र में प्रख्यात कवि और संस्कृतकर्मी आलोक धन्वा ने भी ब्लॉगिंग के संबंध में अपने 
विचार प्रस्तुत किए। 
उन्होंने ब्लॉगिंग को विस्मयकारी विधा बताते हुए इस माध्यम को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की वकालत की। आलोक धन्वा ने ब्लॉगिंग की तुलना रेल के चलन से करते हुए बताया कि शुरुआत में जैसे रेल यात्रा करने से लोग डरते थे लेकिन आज यह हमारी आवश्यकता बन गई है वैसे ही शायद अभी ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में इसके प्रति हिचक है लेकिन आने वाले समय में यह जन समुदाय की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकती है। आलोकधन्वा ने अपने वक्‍तव्य में आगे कहा कि हम आजकल सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं। इतना कठिन समय, पहले कभी नहीं रहा; द्वितीय विश्‍व युद्ध और अन्य संकटों से भी अधिक कठिन समय के दौर से हम गुजर रहे हैं जिसमें लोकतंत्र के लिए बहुत कम जगह बची है। आचार संहिता की बात करते हुए उन्होंने कहा कि समय और समाज की नैतिकता ही अभिव्यक्‍ति की नैतिकता हो सकती है। दुनिया कैसे बेहतर बने, इस दिशा में प्रयास करने वाली आचार संहिता ही ब्लॉगिंग की आचार संहिता हो सकती है। उन्होंने इस बात पर संतोष जताया कि ब्लॉगिंग सबसे कम पाखंडवाली विधा है।

`चिट्ठा चर्चा’ के संचालक अनूप शुक्ल ने कहा कि ब्लॉगिंग की आचार संहिता की बात करना खामख्याली है क्योंकि समय और समाज की जो आचार संहिताएँ होंगी वे ही ब्लॉगिंग पर भी लागू होंगी। उन्होंने जोर देकर कहा कि अलग से कोई आचार संहिता कम से कम ब्लॉगिंग पर लागू न हो सकेगी क्योंकि यह ऐसा माध्यम है जिसमें किसी भी अनुशासन को लाँघने की संभावना निहित है। ब्लॉगिंग को अद्‍भुत विधा बताते हुए अनूप शुक्ल ने कहा कि यह अकेला ऐसा माध्यम है जिसमें त्वरित दुतरफा संवाद संभव है। ब्लॉग एक तरह से रसोई गैस की तरह है जिस पर आप हर तरह का पकवान बना सकते हैं अर्थात साहित्य, लेखन, फोटो, वीडियो, आडियो हर तरह की विधा में इसमें अपने को अभिव्यक्‍त कर सकते हैं।

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भड़ास मीडिया डॉट कॉम’
के यशवंत सिंह ने भी आचार संहिता की अवधारणा का विरोध किया और अनामी तथा बेनामी ब्लॉगरों के समर्थन में अपनी बात रखी। उन्होंने यहाँ तक कहा कि हमें आज आचार संहिता बनाने वालों की आचार संहिता पर विचार करना चाहिए। इस अवसर पर हिंदी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के प्रो.अनिल कुमार राय ने कहा कि जहाँ आधुनिक संचार माध्यम समाप्‍त होते हैं वहाँ से नव माध्यम के रूप में ब्लॉग संचार की शुरुआत होती है जिसमें कोई संपादक नहीं होता अतः यदि पाठकों की टिप्पणियों को माडरेशन किया जाएगा तो वह एक संपादक की उपस्थिति के समान ही होगा। 


उद्‍घाटन समारोह की अध्यक्षता हैदराबाद से आए प्रो.ऋषभ देव शर्मा 
ने 
की। 
अध्यक्षीय भाषण देते 
हुए 
प्रो.शर्मा ने आचार संहिता, नैतिकता, बेनामी ब्लॉगर और संबंधित मसलों पर अपने विचार व्यक्‍त किए। बेनामी ब्लॉगरों के बारे में अपनी राय व्यक्‍त करते हुए उन्होंने कहा कि छद्‍म पहचान को ब्लॉग जगत में प्रोत्साहित करना पाखंड को प्रोत्साहित करने के समान है। उन्होंने बताया कि ब्लॉग जगत की आचार संहिता की जगह इंटरनेट की नैतिकता पर व्यापक परिप्रेक्ष्य में चर्चा होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि नैतिकता का स्वर्णिम सिद्धांत यह है कि जैसा व्यवहार हम दूसरों से चाहते हैं, हम भी वैसा ही व्यवहार दूसरों से करें। उन्होंने इंटरनेट की दुनिया को विशुद्ध आभासी दुनिया मानने से इनकार करते हुए कहा कि यह आभासी दुनिया वास्तव में वास्तविक दुनिया का विस्तार है। प्रो.शर्मा ने कहा कि मेरी चिंता का कारण बच्चे हैं जो झूठी पहचान बनाकर इंटरनेट और ब्लॉग के माध्यम से गलत आचरण कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि बेनामी बड़े बड़े काम करते होंगे, मैं उनका अभिनंदन करता हूँ, लेकिन इसे नियम नहीं बनाया जाना चाहिए क्योंकि पाखंड हर जगह निंदनीय है। ब्लॉगिंग कोई खिलवाड़ नहीं है, सामाजिक और नैतिक कर्म है। अतः जिस बात को सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकते वह ब्लॉग पर भी कहने का हक हमें नहीं है। हममें यह हिम्मत होनी चाहिए कि जिसे हम सही समझते हैं उसे कह सकें। प्रो.शर्मा ने उदाहरण सहित बताया कि यदि कमेंट व्यक्‍तिगत आक्षेप, अश्‍लीलता और अनैतिकता वाले हों तो उन्हें हटाने का अधिकार होना चाहिए लेकिन स्वस्थ आलोचना को सम्मान मिलना चाहिए भले ही वह कटु हों। ब्लॉग को संवाद का माध्यम बनाया जाए, अखाड़ा नहीं। पारस्परिक शिष्टाचार जो हम अपने आम जीवन में बरतते हैं , उसे ब्लॉगजगत में भी अपनाना चाहिए । डॉ. शर्मा ने यह भी ध्यान दिलायाकि ब्लॉग को समाज सुधार और नैतिकता के अतिरिक्‍त बोझ से लादने के बजाय उसे अपने भीतर की उदात्तता का दर्पण बनाना आवश्‍यक है।

संचार विभाग के विभागाध्यक्ष  अनिल कुमार राय ने धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा - जहाँ  आधुनिक संचार माध्यम समाप्त 
होते हैं वहाँ से इसकी शुरुआत होती है। यदि हम टिप्पणियों का माडरेशन करने लगे तो फ़िर यह तो एक संपादक की उपस्थिति 
ही हुई।

देश भर से आए लगभग 25 ब्लॉगरों ने उद्‍घाटन सत्र के बाद चार समूहों में आचार संहिता के विविध आयामों पर अलग अलग गहन चर्चा की जिसके निष्‍कर्षों को दूसरे दिन परिचर्चा सत्र में प्रस्तुत किया गया।

दूसरे दिन के प्रथम सत्र में सर्वप्रथम  विश्वविद्यालय के सामूहिक ब्लॉग हिन्दी-विश्व का लोकार्पण कुलपतिके हाथों संपन हुआ. उल्लेखनीय है कि उक्त ब्लॉग डॉ. कविता वाचक्नवी के निर्देशन और सहयोग से बनाया गया है  और प्रीति सागर को ब्लॉग का मोडरेटर नियुक्त किया गया है. उदयपुर से आई हुईं डॉ अजित गुप्ताके लघुकथा संग्रह का लोकार्पण भी कुलपति विभूतिनारायण राय के करकमलों द्वारा संपन्न हुआ.


परिचर्चा सत्र में ब्लॉगरों ने अपने विचार व्यक्‍त किए। शुरूआत सुरेश चिपलूणकर ने की और बताया कि दूसरे के ब्लॉग पर टिप्पणी करना सबसे अच्छा तरीका है ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचने के लिए। उन्होंने तथ्यात्मक बातें लिखने और सामग्री स्रोत का लिंक देने पर जोर दिया. हर्षवर्धन त्रिपाठी ने कहा कि आप जो भी लिखें पूरी बात पक्की जानकारी से लिखें । उन्होंने विस्फोट, मोहल्ला, भड़ास, अर्थकाम. काम का उदाहरण देते हुए बताया इन ब्लॉगों को उद्यमिता के माडल के रूप में लिया जाना चाहिए। रवींद्र प्रभात ने शालीन भाषा के प्रयोग को सर्प्रथम आचार का दर्ज़ा दिया तथा सकारात्मक बने रहने के लाभ गिनवाए। अविनाश वाचस्पति ने कहा कि आचार संहिता की बात अगर न भी मानें तो मन की बात माननी चाहिए और ऐसी बातें करने से बचना चाहिए जिससे लोगों को बुरा लग सकता हो। जाकिर अली रजनीश  ने अपने वक्तव्य में  विषयाधारित लेखन  का मुद्दा उठाया. प्रवीण  पांडेय ने अतियों से बचने की सलाह दी और गायत्री शर्मा ने नामी ब्लॉगों का उदाहरण देते हुए ब्लॉग की सामाजिक उपयोगिता के बारे में अपनी बात कही। यशवंत सिंह ने माना कि हिंदी पट्टी को लोग अतियों में जीने के कारण या तो अराजक हो जाते हैं या फिर बेहद भावुक. उन्होंने गालियों और गप्पों के बजे तथ्यात्मक लेखन को पुष्ट करने की ज़रूरत बताई।

भोपाल के चर्चित ब्लॉगर रवि रतलामी ने ''इन्टरनेट के नवीनतम 
प्रयोग और "ब्लॉगिंग के आवश्यक पहलू''  व `टार' विषय पर टेली
कॉन्फ्रेसिंग के माध्यम से 
कार्यशाला को संबोधित किया और  
प्रतिभागियों के प्रश्नों के  उत्तर दिए. उल्लेखनीय  
है कि इस अवसर पर पंजीकृत पचास से अधिक प्रशिक्षुओं को कंप्यूटर पर हिंदी और यूनिकोड में काम करने तथा  
ब्लॉग बनाने का  व्यावहारिक प्रशिक्षण संजय 
बेंगाणी
 
और शैलेश भारतवासी ने दिया गया।


 इसके अतिरिक्‍त प्रथम दिन की संध्या कवि सम्मेलन के नाम समर्पित रही जिसकी अध्‍यक्षता वरिष्‍ठ कवि आलोक धन्वा ने की तथा संचालन डॉ. कविता वाचक्नवी ने किया। 


दूसरे दिन की प्रातः बेला में सभी अतिथि ब्लॉगरों ने सेवाग्राम स्थित महात्मा गांधी की कुटी तथा विनोबा भावे के पवनार आश्रम का भ्रमण कि
या।

इस आयोजन का सर्वाधिक उपादेय पक्ष यह रहा कि साइबर-अपराध और तत्संबंधी कानूनों के मर्मज्ञ विद्वान (सुप्रीम कोर्ट) अधिवक्‍ता पवन दुग्गल ने विस्तार से इंटरनेट की संभावनाओं और सीमाओं के वैधानिक पक्ष पर प्रकाश डाला और चिट्ठाकारों की जिज्ञासाओं का समाधान किया। समापन सत्र में कुलपति विभूति नारायण राय के हाथों प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र दिए गए। पूरे समारोह का संयोजन आतंरिक संपरीक्षा अधिकारी सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने अत्यंत सुरुचिपूर्ण 
शैली 
मे किया।

श्री राकेश (संस्कृति) , श्री राजकिशोर, श्री आलोक धन्वा, प्रो. ऋषभदेव शर्मा, प्रो. प्रियंकर पालीवाल, डॉ.कविता वाचक्नवी, डॉ.श्रीमती अजित गुप्ता, श्री अनूप शुक्ल, डॉ.अशोक कुमार मिश्र, श्री रवीन्द्र प्रभात, श्रीमती अनीता कुमार, श्री सुरेश चिपलूनकर, डॉ.महेश सिन्हा, श्री संजय बेंगाणी, श्री प्रवीण पाण्डेय, श्री अविनाश वाचस्पति, श्री जाकिर अली रजनीश, श्री हर्षवर्धन त्रिपाठी, श्री संजीत त्रिपाठी, श्रीमती रचना त्रिपाठी, श्री यशवंत सिंह, श्री विवेक सिंह, श्री जय कुमार झा, श्री शैलेश भारतवासी, श्री विनोद शुक्ला, सुश्री गायत्री शर्मा, श्री विषपायी, आदि की उपस्थिति ने कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की. खचाखच भरे सभागार में अध्यापकों, विद्यार्थियों, विभिन्न विभागों के सहयोगियों, देश के अनेक भागों से अपने संस्थान द्वारा कार्यशाला में भाग लेने हेतु नियुक्त अनेक राजभाषा अधिकारियों/ अध्यापकों आदि की उपस्थिति  ने भी कार्यक्रम को  भव्य व सार्थक 
बनाया.

ब्लागिंग पर दो दिनी वर्कशाप के समापन सत्र के ठीक बाद सभी ने वीएन राय के साथ एक साथ खड़े होकर ग्रुप फोटो खिंचवाईं.

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