कश्मीर को बनाया जा रहा है, प्रेत-प्रश्न
-प्रभु जोशी
-प्रभु जोशी
अब हमें यह स्वीकारने में कोई शर्म नहीं अनुभव होना चाहिए कि भारत एक निहायत ही कमजोर बौद्धिक आधार वाला बावला समाज है, जिसे इन दिनों ‘उदारीकरण‘ के उन्माद ने ऐसे गुब्बारे में बदल दिया है, जिसकी हवा किसी भी दिन आसानी से निकाली जा सकती है। बस इतना भर मान लेना चाहिए कि चूँकि अमेरिका उसे एक बड़े बाजार के रूप में देख रहा है, इसलिए उसका ‘फुगावा‘, हाथी के उन दाँतों की तरह बाहर दिख रहा है, जिनसे खाने का काम लेना असंभव है।
यहाँ यह नहीं भूल जाना चाहिए कि ‘रिंग-काम्बिनेशन‘ की तरह ख्यात सूचना के निर्माण, विपणन और वितरण वाली कम्पनियों द्वारा धीरे-धीरे उसे एक खोखले मुगालते में उतार दिया गया है कि वह इस भूमण्डलीकृत विश्व में स्वयं को सूचना-प्रौद्योगिकी का महारथी समझने लगा है, जबकि हकीकतन उसकी हैसियत स्वर्णाभूषणों की दूकानों के बाहर बैठे रहने वाले उन कारीगरों की-सी है, जो गहने चमकाने का काम करते हैं। दरअस्ल, माइक्रोसाफ्ट उत्पाद बनाता है और भारत उसको महज अपडेट कने की कारीगरी करता है। जहाँ तक चीन का सवाल है, उसके सामने इसकी हैसियत उस आत्मग्रस्त ऊँट की तरह है, जिसमें पहाड़ की तरफ देखने वाली सहज बुद्धि का अकाल पड़ गया है। उसकी सरकार भी देश की भूख और भूगोल को भूल कर भुलावे को ऐसी भोंगली में घुस गयी है, जहाँ से वह सिर्फ स्टाक एक्सचेंज के ग्राफ में डुंकरते साण्ड के सींगों के सहारे अर्थ-व्यवस्था में उछाल की उम्मीद करती रहती है। उसकी सफलता के सारे सूत्र ‘विकास दर‘ के दरदराते नांदीपाठ में समाहित है। वह लगातार ‘बाजार-निर्मित आशावाद‘ के आधार पर यह प्रचारित कर रही है कि जल्दी ही आंकड़ा दस के पार हुआ कि भारत मंदी की मारामारी में भी महाबली हो जायेगा, लेकिन असलियत यह कि वह बली नहीं, निर्बली है। इसका प्रमाण कश्मीर के मुद्दे पर उसकी सत्ता के कर्णधारों के वे उद्गार हैं, जो सांध्यभाषा में मूलतः लीपापोती की लीला में लगे हुए हैं।
अब यह समूचे देश को यह बात समझ में आ चुकी है कि केन्द्र के कर्णधारों ने अपनी भू-राजनीतिक समझ को ताक पर रखकर घाटी में फैलती आग के आगे पर्दा खींच दिया है- और उस पर्दे पर वह ‘गरीब भारत‘ के हिस्से की पूँजी को फूँकते वे, इण्डिया के जश्न, जोश और जुनून में है। उनके कानों में अभी तक एक ही धुन गूँजती रही है, जिसमें इंडिया के बुलाये जाने का खेलराग है। जबकि कूटनीति के कुरूक्षेत्र में असली खेल चीन का चल रहा है, जिसकी तरफ उनका ध्यान ही नहीं है।
पिछले दिनों जब कश्मीर की राजनीति के युवराज ने लगभग ‘हड़काऊ‘ शैली में यह कह दिया कि ‘कश्मीर को बार-बार भारत का अभिन्न अंग बताने के होहल्ले की जरूरत नहीं है, कश्मीर का भारत में ‘विलय‘ नहीं हुआ है‘, तो सत्ताधीशों द्वारा उल्टे मीडिया को कोसना शुरू हो गया कि ‘वे उमर की सहज-सरल बात को बतंगड़ बनाये दे रहे हैं ताकि वह ‘भड़काऊ‘ बन सके‘। वे तो विलय संबंधी ऐतिहासिक करार की तरफ इशारा भर कर रहे हैं। निश्चय ही यह समझ से परे है कि वे ऐसी भोली भाषा के आवरण में उमर की एक नादान नहीं बल्कि खतरनाक टिप्पणी के भीतर लपट बन सकने वाली चिनगारी को क्यों छुपा रहे हैं ? जबकि, उमर ‘इतिहास के प्रेत‘ को फिर से जगाने की कपटपूर्ण कोशिश कर रहे हैं। यह उनके दादा की आँख में जीवन भर ‘अर्द्धमृत से दफ्न स्वप्न‘ में पूर्ण प्राण फूँकने की दबी हुई दुर्दान्त इच्छा का सिर उठाना ही है। क्योंकि उनके दादा में भी नेहरू से मैत्री के बावजूद सन् तिरेपन के आसपास ‘आजाद कश्मीर‘ का उमाला उठ पड़ा था।
कहने की जरूरत नहीं कि यह ऐसे ही नहीं हो गया क्योंकि उमर के दो वर्षीय शासन के दौरान ही ऐसा पहली बार हुआ कि छोटे-छोटे मासूम से दिखाई देने वाले किशारों तक के हाथों में पत्थर आ गये। उमर ने अपनी टिप्पणी में साफ लफ्जों में यह कह दिया कि कश्मीर के युवाओं द्वारा हिंस्र रास्ता चुन लेने के पीछे आर्थिक बदहाली या बेरोजगारी जैसे कारण नहीं है। यह शत-प्रतिशत सही भी है कि क्योंकि कश्मीर को पैकेज के रूप में केन्द्र अपना खजाना उदारता से उलीचता रहा है। सन् 89 से अभी तक वह अस्सी हजार करोड़ रूपये दे चुका है, जिसमें से लगभग सत्तर हजार करोड़ के खर्च का राज्य के पास कोई हिसाब-किताब ही नहीं है कि वह कहाँ और कैसे खर्च किया गया। और सर्वदलीय प्रतिनिधि मण्डल की अनुशंसा पर प्रधानमंत्री सौ करोड़ के पैकेज की घोषणा पहले ही कर चुके हैं।
कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘कन्ज्यूमरिज्म‘ की वकालत करने वाली हमारी इस सरकार को यह इलहाम हो चुका हो कि वह कश्मीर में शांति और साम्प्रदायिक-सौहार्द्र का इस तरह से पूँजी के बल पर ‘सुरक्षित सौदा‘ पटा लेगी। वह कदाचित यह भूल चुकी है कि कश्मीर अब देश का परम्परागत अर्थों में राज्य नहीं बल्कि अलगाववादियों की सुनियोजित रणनीति ने उसे एक ‘इस्लामिक इथनोस्केप‘ में बदल दिया है। कश्मीर से गैर-मुस्लिम आबादी के प्रतिशत को हिंसात्मक कार्यवाही से नृशंस अलगाववादियों ने जैसे ही कम किया, उसके अंदर शत-प्रतिशत की उतावली इतनी बढ़ चुकी है कि वे ‘कश्मीरी पण्डितों‘ के पश्चात् अब ‘सिक्खों‘ को भी कश्मीर से खदेड़ कर बाहर कर देना चाहते हैं। उन्हें अब किसी किस्म का कोई पैकेज नहीं ‘भूगोल के बंटवारे‘ के साथ ‘पूरी आजादी‘ चाहिए। अब वे जर्जर हो चुके पाकिस्तान के बलबूते पर नहीं, चीन के पाकिस्तान पर बढ़े वरदहस्त में संभावना देख रहे हैं। क्योंकि, चीन ने ‘पाक अधिकृत कश्मीर‘ में करोड़ों नहीं, अरबों डॉलर का निवेश किया है और उसे वह ‘उत्तरी पाकिस्तान‘ कहता है। हाल ही में अमेरिका ने वहाँ लगभग दस हजार चीनी सैनिकों की उपस्थिति के बारे में सूचना दी थी। हालाँकि चीन ने इसके प्रति-उत्तर में कहा कि वह वहाँ बाढ़ की संकटग्रस्त स्थिति में मानवीय मदद के लिए पहुँचा है, लेकिन ये शत-प्रतिशत कूटनीतिक झूठ हैं। उसकी पूरी रूचि सामरिक आधार की वजह से है। उन्होंने पाकिस्तान और चीन के बीच आमदरफ्त के लिए कराकोरम राजमार्ग पूरा कर लिया है- स्मरण रहे यह वही इलाका है, जिसे पाकिस्तान ने जंग के जरिये हमसे हथियाया और सड़क निर्माण हेतु चीन के जिम्मे कर दिया। यह एक तरह से उस क्षेत्र का ‘सामरिक हस्तान्तरण‘ है।
बेचारे जाॅर्ज फर्नांडिस ने केन्द्र में रक्षामंत्री रहते हुए एक दफा यह कह भर दिया था, जो कि सौ-फीसदी सही भी था कि ‘पाकिस्तान नहीं, हमारा पहले नम्बर का शत्रु तो चीन है।‘ लेकिन, इस वक्तव्य से हंगामा मच गया। हालाँकि यह एक रक्षामंत्री की कूटनीतिक दृष्टि से एक असावधान टिप्पणी थी, लेकिन वही हमारी सीमाओं का कटु सत्य भी था, और है भी। उसने पिछले एक दशक में अपनी कूटनीतिक हैसियत ऐसी बना ली है कि हमारे सारे पड़ोसी अर्थात् नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और म्यांमार भी पूरी तरह से चीन की छत्रछाया में जा चुके हैं। आज स्थिति यह है कि सामरिक स्तर पर भारत एकदम अकेला है और परिणामस्वरूप वह बार-बार कश्मीर के बारे में जबानी जमा खर्च से ज्यादा कुछ नहीं कर सकता। कश्मीर के मुद्दे पर अभी तक रूस की तरह कोई मुल्क स्पष्ट पक्षधरता के साथ सामने नहीं है।
मुझे याद है, बीबीसी आज तक के हमारे कश्मीर को औपनिवेशिक धूर्तता के चलते अपने प्रसारणों में ‘भारत अधिकृत कश्मीर‘ कहता है। एकदफा दिल्ली की एक कार्यशाला में आये बीबीसी के एक प्रोड्यूसर से मैंने बीबीसी की बहु-प्रचारित तटस्थता की नीति के विरूद्ध टिप्पणी करते हुए अपनी आपत्ति दर्ज की कि जिस निष्पक्ष प्रसारण की आप बार-बार बढ़-चढ़ कर बात करते हैं, मैं पूछना चाहता हूँ कि फ़ॉकलैण्ड के युद्ध के समय बीबीसी ने फ़ॉकलैण्ड में श्रीमती मार्गरेट थेचर द्वारा की कार्यवाही के विरोध में एक भी शब्द नहीं कहा। कश्मीर के मामले में बीबीसी हमेशा थोड़ा बहुत भू-भाग ले देकर झगड़ा निपटाने की बात करता है, लेकिन क्या आपने अभी तक फ़ॉकलैण्ड के बारे में सोचा, जिस पर आपने अब तक अपना कब्जा नहीं छोड़ा है, जबकि वह ब्रिटेन से लगभग ढाई हजार किलोमीटर दूर अर्जेन्टाइना के निकट है। और आप साढ़े सात सौ साल से वहाँ लड़ रहे हैं ? कश्मीर के संदर्भ में जब-तब इमनेस्टी इंटरनेशनल के बहाने से भारत की भर्त्सना की जाती रही है।
बहरहाल, कश्मीर में जिस तरह की स्थिति बन चुकी है, भारत को पश्चिम के नैतिकतावाद के झाँसे में आकर मुल्क को एक बार फिर विखण्डन की ओर धकेलने की सोचना भी नहीं चाहिए। ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल‘ भारत को अपनी रिपोर्ट में मानवाधिकार उल्लंघन के लिए धिक्कारती रहे, लेकिन हमने उसे यह तय करने का अधिकार कतई नहीं दिया है कि वह मानवतावाद का प्रश्न उठाते हुए हमारी भू-राजनीति समस्या को बढ़ा कर अधिक विराट बनाते हुए, पाकिस्तान के पक्ष में परोक्ष आधार गढ़ती रहे।
पश्चिम की प्रेस में जख्मी जहन और आँसूतोड़ भाषा में लिखे गये लेखों से जो मानवतावादी रूदन भारत की भर्त्सना में चलता चला आ रहा है, उसमें ढेर सारे भारतीय भी हैं, और ये ही लोग है, जिन्होंने भारत के इस अभिन्न भूभाग को ग्रीस-तुर्की, जर्मनी-चेकोस्लोवाकिया, पौलेण्ड-जर्मनी, बोसनिया-सर्बिया ही नहीं, क्यूबा और अमेरिका की तरह व्याख्यायित करने की धूर्तता शुरू कर रखी है। हमें इस तरह की व्याख्याओं के दबाव में आकर भारतीय सेना को कश्मीर से हटाये जाने के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोचना चाहिए। क्योंकि कश्मीर एक बहुत संवेदनशील राज्य नहीं बल्कि खासा विस्फोटक सीमावर्ती राज्य है, जहां से सेना के हटाने का अर्थ कश्मीर को भारत से अलग करने की पूरी गारंटी दे देना है। यहाँ तक कि वहाँ सीमित स्वायत्ता की बात करना यानी दृष्टिहीन राजनीति के द्वारा रचा जाने वाला ‘पैराडाइज लास्ट‘ ही होगा।
अंत में मुझे एल्विन टाॅफलर द्वारा सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में बड़े राष्ट्रों के विघटन की जो भविष्योक्ति अपनी पुस्तक ‘तीसरी लहर‘ में की गयी थी, उसकी याद आ रही है, कश्मीर से सेना के हराते ही वह सच सिद्ध हो जायेगी। क्योंकि, रूस में सबसे पहले आर्मेनिया में ही उथल-पुथल शुरू हुई थी। तब किसी पता था कि एक दिन महाशक्ति की तरह जाना-जाने वाला रूस मात्र दस वर्षों के भीतर सोलह टुकड़ों में विखण्डित हो जायेगा। लेकिन नब्बे के दशक में अचानक गोर्बाचोव नामक एक जनप्रिय नेता का उदय होता है और वह ‘ग्लासनोस्त‘ तथा ‘पेरोस्त्रोइका‘ जैसी उदारवादी धारणाओं को नवोन्मेष के नाम पर लागू करता है, जिसके चलते ‘आधार‘ (बेस) में परिवर्तन होता है और ‘अधिरचना‘ (सुपर स्ट्रक्चर) ढह जाती है। हमारे यहाँ भी परिवर्तन की शुरूआत ‘आधार‘ में की गई और अभी हमारी सारी ‘अधिरचना‘ की चूलें हिल चुकी हैं। एक चैतरफा बदहवासी है, भूख है, बढ़ती बेरोजगारी है, खाद्य सामग्री महँगाई है- भ्रष्टाचार की दर ऊँची है और विकास के ग्राफ की असमानता है, इसीलिए अब हमें हमारा बुन्देलखण्ड, हमारा बघेलखण्ड चाहिए। ऐसी माँगों के बीच यदि कश्मीर को स्वायत्ता देने की ओर हम बढ़ते हैं तो बहुत जल्दी भारत भी बहुवचन में बदल जायेगा।
निश्चय ही इसके टुकड़े रूस से कहीं ज्यादा होंगे। हम चाहेंगे कि ऐसे सोच से हमारी सरकार दूर ही रहे। क्योंकि, हम कभी नहीं चाहेंगे कि एक दिन इतिहास के सफों पर वक्त हमारे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को पगड़ी में गोर्बाचोव कहने को मजबूर हो जाये।
- 4, संवाद नगर
इन्दौर
prabhu.joshi@gmail.com