पंजाबी लोकगीत परंपरा, स्त्री व काव्य-संवेदना : (डॉ॰) कविता वाचक्नवी


पंजाबी लोकगीत-परंपरा, स्त्री व काव्य-संवेदना 
- डॉ. कविता वाचक्नवी



पंजाबी लोकगीतों की परम्परा अत्यंत समृद्ध तथा अपने प्रतीकों व बिम्बों की दृष्टि से अत्यंत प्रकृष्टतर है. ऐसे ऐसे दुर्लभ प्रतीक और बिम्ब इन लोकगीतों में मिलते हैं जो काव्यपरम्परा में भी अतुलनीय ठहरते हैं. जिसे उर्दू में नाज़ुकी कहते हैं, वह इन गीतों की देखने लायक है और मानवीय संवेदना के ऐसे ऐसे रूप मिलते हैं कि यकायक सहजता से विश्वास नहीं होता.


भारतीय भाषाओं ही नहीं, विदेशी भाषाओं में भी, लोकगीतों में स्त्री की संवेदना के विविध रूप और विविध स्तर ही बहुधा मिलते हैं, या कहना चाहिए कि स्त्री ही लोकगीतों की आदि रचयिता और निर्मात्री है. इन अर्थों में स्त्री की अनुभूति की तरलता और गहनता ने ही और स्त्री ही के शब्दों और स्वरों ने ही परम्परा को कविता का अवदान दिया है, वरदान दिया है.


पंजाबी लोक परम्परा से आहूत यह संवेदना पंजाब की काव्य परम्परा को आज भी अपनी विशिष्टता के कारण अलगाती है. पंजाब के लोक नृत्यों व पुरुष प्रधान गीतों में जितना उत्साह उछाह है, स्त्री स्वरों में उसके एकदम विपरीत गहनता, सूक्ष्मता, तलस्पर्शिता और बुनावट की बारीकी है; सिसकियाँ हैं, विलाप हैं और चीखें हैं.


नई पीढी की काव्यधारा को पंजाब की विशिष्ट लोकगीत परम्परा से परिचित कराने व इस बहाने उन गीतों से पुन: अपने को सराबोर करने के उद्देश्य से पंजाबी लोकगीतों की यह शृंखला आज से प्रारम्भ कर रही हूँ.


 ध्यान देने की बात है कि अविभाजित भारत का पंजाब यद्यपि २ भागों में विभक्त हो चुका है पुनरपि वे गीत अब भी दोनों ओर के साझे हैं. कुछ अंतरों के साथ दोनों ओर के पंजाब के गायकों ने उन्हें अपने स्वर दिए हैं. यह देखना रोचक होगा कि कैसे कुछ गीत भारत के इस ओर व भारत के उस ओर अपनी मर्मान्तकता के साथ सुरीले, भावविह्वल कर देने वाले व समान रूप से अगली पीढ़ियों के लिए मोह लेने वाले हैं.


इस क्रम में सर्वप्रथम एक अद्वितीय गीत सुनवा रही हूँ जो मेरी दादी जी का अत्यंत प्रिय गीत था और जिसे वे चरखा चलाते हुए गाया करती थीं. शादी ब्याह आदि आयोजनों में हर जगह लोग उनसे यह गीत सुनाने की जिद्द किया करते थे और वे अपने भरे हुए कंठ और प्रसिद्ध स्वर में इसे गाया करती थीं. वह गीत है -

"चन्न! कित्थाँ गुजारी अई रात वे, ओ मेरा जी दलीलां दे ...."   (मूलतः यह गीत सरैईकी भाषा का लोकगीत   है, पंजाबी और सरैईकी में अत्यंत कम अंतर हैं)। इस गीत में नायिका अपने प्रिय (जिसे वह चंद्रमा के तुल्य समझती और कहती है ) के द्वारा रात्रि कहीं अन्यत्र बिताए जाने को लेकर विचलित है और  अपने मन में तरह तरह के संशयों को चुप कराती व प्रिय को बुलाने के तरह तरह के कारण गढ़ते मन की एक एक ऊहा को शब्द दे रही है कि मेरा मन तरह तरह की दलीलें देता है जब तुम कहीं और हो.... अब तो वापिस आ जाओ.... तुम जीते मैं हार गई ..... 




पहले इसका भारतीय रूप सुरिंदर कौर जी के स्वर में सुनें और उसके बाद इसका पाकिस्तानी रूप नीचे के (दूसरे )  वीडियो में सुनें - 






'ईश्वर कण' (गाड पार्टिकल)






'ईश्वर कण' (गाड पार्टिकल)
- विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल, से. नि. 




 'ईश्वर कणकी खोज का प्रयास 'लार्ज हेड्रान कोलाइडर' की मदद से हो रहा है जिसमें दस अरब डालर (विश्व का सर्वाधिक खर्चीला वैज्ञानिक प्रयोगलग चुका है। 'ईश्वर कण' 'हिग्ग्ज़ कण' का ही लोकप्रिय नाम है। १९६४ में पीटर हिग्ग्ज़ ने 'हिग्ग्ज़ कणकी परिकल्पना में कहा कि ब्रह्माण्ड में सब जगह हिग्ग्ज़ क्षेत्र और हिग्ग्ज़ कण व्याप्त हैं। और नोबेल सम्मानित वैज्ञानिक लेओन लेडरमैन ने इसके मह्त्व को देखते हुए इसे 'ईश्वर कणकी संज्ञा दी थी। इस 'ईश्वर कणके दर्शन अभी तक नहीं हो सके हैं। कुछ वैज्ञानिक इसके होने में भी संदेह करते हैं। स्टीफ़ैन हाकिंग ने हिग्ग्ज़ से १०० डालर की शर्त लगा ली है कि यह नहीं दिखेगा।
            

  यह प्रयोग अद्वितीय है और अद्भुत है क्योंकि इसे स्विस और फ़्रैन्च भूमि के १०० मीटर के नीचे २७ किलोमीटर गोल सुरंग में किया जा रहा है। इस सुरंग में एक विशेष नली है जिसमें प्रोटान या सीसे के आयनों आदि परमाण्विक कणों को लगभग प्रकाश के वेग पर पहुँचाकर उनमें मुर्गों की तरह टक्कर कराई जाती है,  किन्तु यह टक्कर मनोरंजन के लिये नहींवरन उस टक्कर से उत्पन्न नए कणों की 'आतिशबाजीका सूक्ष्म अध्ययन किया जाता है। क्वार्क्स के बने भारी परमाण्विक कणजैसे प्रोटान,  'हेड्रान' कहलाते हैं। इसीलिये इस भूमिगत 'महाचक्रका नाम 'लार्ज हेड्रान कोलाइडर' ( विशाल हेड्रान संघट्टक) है। इससे सभी वैज्ञानिकों को बड़ी आशाएँ हैं,  बहुत मह्त्वपूर्ण खोजों में इससे सहायता मिलेगी।
             

 इस समय इसका प्रमुख लक्ष्य है 'ईश्वर कणकी खोज।  

 क्या है यह ईश्वर कण ?
             

 डाहिग्ज़ की संकल्पना है कि समस्त दिक मेंशून्य में भीएक 'क्षेत्र' (फ़ील्डहैजोउपयुक्त दशाओं में पदार्थों को द्रव्यमान देता है। जिस भी कण में द्रव्यमान हैउसे वह हिग्ग्ज़ क्षेत्र से प्रतिक्रिया करने पर प्राप्त हुआ है। अर्थात यदि हिग्ग्ज़ क्षेत्र नहीं होता तो हमें यह समझ में ही नहीं आता कि पदार्थों में द्रव्यमान कैसे आता है। हिग्ग्ज़ क्षेत्र में 'हिग्ग्ज़कण होता है जिसे 'हिग्ग्ज़ बोसानकहते हैं।              

क्या है यह 'हिग्ग्ज़ बोसान'?
             

 ब्रह्माण्ड में कुछ मूल कण हैं जैसे इलैक्ट्रानक्वार्कन्यूट्रिनो फ़ोटानग्लुआनआदि,  और कुछ संयुक्त कणजैसे प्रोटानन्यूट्रान आदिजो इन मूल कणों के संयोग से निर्मित होते हैं। सारे पदार्थ इऩ्ही मूल कणों तथा संयुक्त कणों से निर्मित हैं। हिग्ग्ज़ क्रिया विधि से पदार्थों में द्रव्यमान आता है जिससे उनमें गुरुत्व बल आता है। इसे सरलरूप में समझने के लिये मान लें कि हिग्ग्ज़ क्षेत्र 'शहदसे भरा है। अब जो भी कण इसके सम्पर्क में आएगाउसमें उसकी क्षमता के अनुसार शहद चिपक जाएगीऔर उसका द्रव्यमान बढ़ जाएगा। यह 'हिग्ग्ज़ बोसानमूलकण भौतिकी के अनेक प्रश्नों के सही उत्तर दे रहा हैऔर भौतिकी के विकास में यह मह्त्वपूर्ण स्थान रखता है। जब कि अन्य सब मूल कण देखे परखे जा चुके हैंकिन्तु 'हिग्ग्ज़ बोसान' अभी तक देखा नहीं जा सका है। इसके नाम में हिग्ग्ज़ के साथ बोस का नाम क्यों जोड़ा गया ?
           

   सत्येन्द्र नाथ बसु विश्व के प्रसिद्ध वैज्ञानिक हुए हैंजिऩ्होंने१९२० मेंएक प्रकार के मूल कणों के व्यवहार के सांख्यिकी सूत्र आइन्स्टाइन को लिख कर भेजेक्योंकि उऩ्हें आशंका थी कि उनकी क्रान्तिकारी बात को अन्य वैज्ञानिक समुचित महत्व न दें। उस समय केवल 'फ़र्मियानकण का ही व्यवहार समझा गया थाजो कि वे मूल कण हैं जो 'फ़र्मी डिरैक' के सांख्यिकी सूत्रों के अनुसार व्यवहार करते हैं। आइन्स्टाइन ने बसु के सूत्रों को संवर्धित कर प्रकाशित करवाया। उनके सूत्र इतने क्रान्तिकारी थे कि उऩ्होंने एक नए प्रकार के कण के अस्तित्व की भविष्यवाणी की। उन नए मूल कणों का नामजो उनके सूत्रों के अनुसार व्यवहार करते हैं,  'बोसान' रखा गया। अर्थात अब व्यवहार की दृष्टि से मूल कण दो प्रकार के माने जाने लगे 'फ़र्मियानतथा 'बोसान'। और 'ईश्वर कणया 'हिग्ग्ज़ कणजिसकी खोज चल रही है मूलतबोसान कण हैअत:  'हिग्ग्ज़ बोसान' !
             

 इस प्रयोग से विज्ञान के किन रहस्यों को समझा जा सकेगा?
              

ब्रह्माण्ड में कुल चार प्रकार के ही बल मूल हैंतीव्र बलदुर्बल बलविद्युत चुम्बकीय बल तथा गुरुत्व बल। जब चारों एकीकृत हो जाएंगे तब 'आइन्स्टाइन का 'एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त' का स्वप्न भी साकार हो जाएगा। हिग्ग्ज़ बोसान को समझने से गुरुत्वबल को समझने में और उसके अन्य तीन मूल बलों के साथ संबन्ध समझने में मदद मिलेगी।
            

  आइन्स्टाइन के दोनों आपेक्षिक सिद्धान्त ब्रह्माण्ड के विशाल रूप को ही समझा पाते हैंऔर क्वाण्टम सिद्धान्त केवल अणु के भीतर के सूक्ष्म जगत को। एक सौ वर्षों के बाद भी वैज्ञानिक अभी तक इनमें सामन्जस्य पैदा नहीं कर पाए हैं। हिग्ग्ज़ बोसान पर यह प्रयोग क्वाण्टम सिद्धान्त तथा व्यापक आपेक्षिक सिद्धान्त में भी सामंजस्य पैदा कर सकेगा।
            

  ब्रह्माण्ड में हमें जितना भी पदार्थ दिख रहा है वह कुल का मात्र ४ है२३ अदृश्य पदार्थ है और ७३ अदृश्य ऊर्जा है। यह प्रयोग इस अदृश्य ऊर्जा तथा अदृश्य पदार्थ को समझने में भी मदद करेगा।
             

 महान विस्फ़ोट में जब ऊर्जा कणों में बदलने लगी तब कण तथा 'प्रतिकण', जैसे इलैक्ट्रान और पाज़ीट्रान,  बराबर मात्रा में उत्पन्न हुए थेकिन्तु अब तो प्रतिकण नज़र ही नहीं आते। कहाँ गएक्या हुआ उनकाइसकी भी छानबीन यह 'महाचक्रइसी ईश्वर कण के माध्यम से करेगा।              यह भी कि क्या दिक के तीन से भी अधिक आयाम हैंऔर क्या गुरुत्व का कुछ प्रभाव उन आयामों में बँट जाता है !
           

   महान विस्फ़ोट के एक सैकैण्ड के एक अरबवें हिस्से में क्या हो रहा था इसकी एक झलक सूक्ष्म रूप में यह प्रयोग दिखला सकता है।  
            

  महान विस्फ़ोट के एक सैकैण्ड के भीतरजब तापक्रम बहुत ठंडा होकर लगभग १००० अरब सैल्सियस हुआतब जो ऊर्जा थी वह कणों में बदलने लगी थी। तब उस समय की प्रक्रिया को समझने के लिये हमें महान विस्फ़ोट पैदा करना होगावह तो ब्रह्माण्ड को भस्म कर देगाकिन्तु यह प्रयोग एक अति सूक्ष्म 'महान विस्फ़ोट'  पैदा करेगा इसके लिये सीसे के नाभिकों को निकट प्रकाश वेग पर यह 'महाचक्र' (विशाल हेग़्रान संघट्टकउनमें टक्कर कराएगा। उस क्षण उन कणों में जो ऊर्जा रही होगीवही ऊर्जा प्रकाश वेग निकट से चलने वाले हेड्रान कणों में होती है। इस तरह हेड्रान कणों को समझने से हमें यह समझ में आ सकेगा कि ब्रह्माण्ड का उद्भव और विकास किस प्रक्रिया से हुआ थातब हम आज की बहुत सी वैज्ञानिक समस्याओं को समझ सकते हैंप्रकृति के नियमों को बेहतर समझ सकते हैं। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं है कि हम इस विशाल जगत को बेहतर समझ सकते हैं यदि हम सूक्ष्म जगत को समझ लेंऔर इसका विलोम भी सत्य है कि विशाल जगत को समझने से हम सूक्ष्म जगत बेहतर समझ सकते हैं। अर्थात दोनो में सामन्जस्य का होना बहुत आवश्यक है। यह सिद्धान्त आध्यात्मिक आयाम में भी सत्य है; यदि अमृतत्व प्राप्त करना हैतब विद्या भी आवश्यक है और अविद्या भी ।
             

 यह तो स्पष्ट है कि यदि ईश्वर कण दिख भी गयातब भी वैज्ञानिक ईश्वर में विश्वास करने नहीं लग जाएंगे । अत:  इसे 'ईश्वर कणकह देना अवैज्ञानिक तो है, और कुछ अतिशयोक्ति भी हैकिन्तु बहुत अधिक नहीं,  क्योंकि यह नाम उसका विशेष मह्त्व निश्चित दर्शाता है।
              

सर्न यूरोपीय नाभिकीय अनुसंधान केन्द्र)  स्थित इस महाचक्र यंत्र में अद्वितीय़ तथा अकल्पनीय प्रयोग हो रहे हैं, 'ईश्वर कण'  की खोज हो रही है। इसमें ऊर्जा की अकल्पनीय मात्रा से लदे प्रोटानों की टक्कर की जा रही है। इसमें कुछ वैज्ञानिक बड़े खतरे की संभावना की चेतावनी दे रहे हैं कि इस टक्कर से 'कृष्ण विवर'  (ब्लैक होलउत्पन्न होंगेजो पृथ्वी को ही लील जाएँगे। ऊर्जा की अकल्पनीय मात्रा से लदे इन प्रोटानों में यथार्थ में एक या दो मच्छड़ों के बराबर ऊर्जा होती है !! सर्न के वैज्ञानिक कहते हैं कि वे इस खतरे को समझते हैं और यह कि 'कृष्ण विवरबनेगा ही नहीं। और यदि मान लें कि बन भी गया तब अधिक से अधिक वह कृष्ण विवर कुछ ही क्षणों में बिना नुकसान किये फ़ूट जाएगा।
             

 ३० मार्च १० के प्रयोग में 'महाचक्रने ३.५ TeV टेरा (३५ खरब इवो)  इलेक्ट्रान वोल्ट ऊर्जा के प्रति कणों की टक्कर कराने का एक विश्व कीर्तिमान स्थापित किया है। कितनी ऊर्जा होती है 'टेरा इवोमें ?  जब एक प्रोटान की ऊर्जा १ टेरा इवो होती है तब उसका द्रव्यमान स्थिर दशा की अपेक्षा १००० गुना बढ़ जाता है अर्थात जब एक प्रोटान के वेग को इतना बढ़ाया जाए कि उसकी ऊर्जा ३.५ टेरा इवो हो जाएतब उसका द्रव्यमान बढ़कर ३५०० गुना हो जाएगा किन्तु महत्वपूर्ण परिणाम देखने के लिये ७ टेरा इवो. (TeV)  प्रति कण की ऊर्जा चाहियेजिसकी तैयारी चल रही है। और सीसे के नाभिक की टक्कर के लिये तो ५७४ TeV प्रति नाभिक की ऊर्जा चाहिये होगी। सूक्ष्म विस्फ़ोट के लिये भी बहुत सम्हलकर चलना पड़ता है।
              

और यदि स्टीफ़ैन हाकिंग अपनी शर्त जीतते हैंतब भी वैज्ञानिकों को बहुत निराशा नहीं होगीक्योंकि विज्ञान के मह्त्वपूर्ण प्रयोगों में नकारात्मक परिणाम भी मह्त्वशायद अधिक महत्वरखते हैं। ऐसे में क्रान्तिकारी परिकल्पनाएँ सामने आती हैंजैसे कि आइन्स्टाइन की विशेष आपेक्षिक सिद्धान्त की `१९०५' में आई थी जब १८८७ में माईकल्सन मोर्ले ईथर के अस्तित्व को सिद्ध नहीं कर सके थे।
             

  ऐसा आरोप भी अनेक विद्वान लगा रहे हैं कि जब विश्व में इतनी भयंकर दरिद्रता छाई है तब खरबों डालर इस नास्तिक ईश्वर कण पर क्यों खर्च किये जा रहे हैं!! मुझे फ़्रान्स की प्रसिद्ध क्रान्ति की एक घटना याद आ रही है। आधुनिक रसायन शास्त्र के जन्मदाता लावासिए, जिऩ्होंने पदार्थ के कभी भी नष्ट न होने के सिद्धान्त को स्थापित किया था, को उस क्रान्ति के दौरान फाँसी का दण्ड घोषित किया गया, केवल इसलिये कि वे राजा लुई चौदह के राजस्व अधिकारी थे। कुछ समझदार लोगों ने जज के सामने पैरवी की कि लावासिए बहुत ही प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं, तब उस जज ने जो उत्तर दिया वह चकित करने वाला है, कि जनतंत्र को प्रतिभाशाली व्यक्तियों की आवश्यकता नहीं है।

भगवान भला करें उस नास्तिक वैज्ञानिक का जिसने एक अज्ञात कण को 'ईश्वर कण' का नाम दिया। वरना ऐसे समाचार पत्र कम ही हैं जो विज्ञान के प्रयोगों के समाचार देते हैं।


ई १४३, सैक्टर २१, नौएडा, २०१३०१.

'डायनोसोर' अचानक ६.५ करोड़ वर्ष पूर्व समाप्त

मौलिक विज्ञान लेखन





'डायनोसोर' अचानक ६.५ करोड़ वर्ष पूर्व समाप्त




इस आश्चर्यजनक घटना - कि 'डायनोसोर' अचानक ६.५ करोड़ वर्ष पूर्व समाप्त हो गए थे' - के प्रमाण मिलते हैं जिऩ्हें अधिकांश वैज्ञानिक आज स्वीकार करते हैं। इस सन्दर्भ में अचानक का अर्थ होगा 'कुछ हजार वर्ष'। इस घटना के पहले महाकाय डायनासोर तो लगभग २० करोड़ वर्षों से पृथ्वी पर राज्य कर रहे थे, और उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं था। यह तो अचानक ही कोई घोर संकट आ टपका होगा कि यह घटना हुई। किन्तु ऐसा कैसे हुआ इसके विषय में वैज्ञानिकों में मतभेद थे। दक्षिण भारत के पठार में हुई ज्वालामुखियों की शृंखला इस घटना के लिये एक विकल्प मानी जा रही थी। किन्तु इस शृंखला की अवधि लगभग २० लाख वर्ष थी, जिसके प्रभाव को अचानक नहीं माना जा सकता।


  
२००९ में ४१ अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दल ने इस विषय पर उपलब्ध खोजों का अध्ययन कर इस संभावना को सर्वाधिक मान्यता दी है कि एक विशाल उल्का के पृथ्वी पर आघात करने से ऐसा हुआ। वह आघात आज मैक्सिको कहे जाने वाले देश में हुआ था। वहाँ के यूकैतन प्राय:द्वीप में १८० किलोमीटर व्यास के एक विशाल कटोरेनुमा गह्वर का निशान-सा मिलता है जिसका नाम 'चिक्ज़ुलुब (Chicxulub) गह्वर' है। यह प्राचीन गह्वर प्राकृतिक घटनाओं द्वारा भर दिया गया है। अंतरिक्ष से देखने पर भी गह्वर की कुछ कुछ निशानी मिलती है। किन्तु इस गह्वर के होने की पुष्टि नासा के शटल द्वारा लिये गए रेडार चित्र बेहतर करते हैं। अनुमान और अन्य प्रमाणों को खोज कर ही इसे मूल गह्वर माना गया है।






वास्तव में वह आघात इतना भयंकर था कि उसने पृथ्वी की आधी से भी अधिक जैव जातियों को नष्ट कर दिया था। आघात करने वाली वह चट्टान लगभग १० -१५ किलोमीटर लम्बी चौड़ी गहरी रही होगी। और उसका वेग २० माक अर्थात ध्वनि के वेग से लगभग २० गुना रहा होगा, तथा वातावरण को चीरते हुए आने के कारण यदि जल नहीं रही होगी तब भयंकर गरम तो रही होगी। उसकी गतिज ऊर्जा तथा ताप से ही तुरंत ही विस्फ़ोट-सा हुआ होगा और चारों तरफ़ आग फ़ैली होगी, भूकम्प आया होगा, हो सकता है कि त्सुनामी ने समुद्र तटों को अपनी चपेट में ले लिया हो। उस आघात ने वायुमंडल में सैकड़ों अरबों टन चूना-मिट्टी और पत्थर, जो यूकैतन क्षेत्र में हैं, तोपों के गोलों के समान जलते हुए दागे होंगे, जो सारे विश्व में फ़ैले, और आकाश में वर्षों तक अँधियारा छाया रहा होगा जिसके फ़लस्वरूप प्रकाश संश्लेषण बन्द हो गया होगा, कुछ हजार वर्षों तक शीत लहर रही होगी; करोड़ों टन कार्बन डाइआक्साइड निकली होगी जिसके कारण तुरंत बाद में वैश्विक तापन भी हुआ होगा। इन सभी कारकों के फ़लस्वरूप जीवों की लगभग आधी जातियाँ नष्ट हो गईं।




  
उपरोक्त घटना जैवविकास के धीमी गति की तुलना में एक 'अचानक' घटना मानी जाएगी जिसने जैवविकास की दिशा बदल दी ।


  

एक रेडियोधर्मी तत्व है 'इरिडियम' जो अधिकांशतया उल्काओं से आता है। तात्कालीन चट्टानों में यह तत्व अचानक ही प्रचुर मात्रा में मिलता है। और जैसे जैसे हम दूर से इस गह्वर के पास पहुँचते हैं इरिडियम की मात्रा बढ़ती जाती है।




  
इसके कटोरेनुमा गह्वर से जो मिट्टी, चट्टानें आदि फ़ेकी गई थीं उसमें ताप और प्रघात (शाक) के फ़लस्वरूप जो क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल बने वह वैसे ही रूप रंग तथा बनावट वाले क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल हैं जैसे कि नाभिकीय विस्फ़ोटों तथा 'उल्का - आघाती' कटोरों के निकट मिलते हैं; और वैसे प्रघात क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल उस समय की चट्टानों में सारे विश्व में मिलते हैं तथा उनकी मात्रा भी गह्वर की निकटता के अनुसार बढ़ती‌ जाती है। उनकी रासायनिक संरचना भी वैसी ही है जैसी कि उस मूल कटोरे की चट्टानों की है।




तात्कालीन चट्टानों में उस समय की 'कालिख' भी उसी अनुपात में मिलती है।


  
तात्कालीन वायुमंडल में अचानक ही कार्बन डाइआक्साइड की भयंकर मात्रा के होने के प्रमाण उस काल की पत्तियों के जीवाश्मों में मिलते हैं। विस्फ़ोट के परिणाम स्वरूप गरम जल फ़ैला होगा जिसके प्रभाव के कारण तात्कालीन ध्रुवप्रदेशों में गरम जल वाले जीवाश्म मिलते हैं। समुद्रों की क्रोड़ से लिये गए आक्सीजन के समस्थानिक आँकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं।







जब उस उल्का आघात से अँधेरा छा गया और तापक्रम गिरा तब वनस्पति तो नष्ट होना शुरु हो गई होगी। डायनासोर्स के समान भीमकाय जानवर तो पहले नष्ट हुए, और छोटे जानवर कम नष्ट हुए। किन्तु सामुद्रिक प्लांकटन भी उस काल में अचानक ही बहुत कम बचा, जो दर्शाता है कि समुद्र भी उस घटना से बहुत प्रभवित हुआ था। उस समय स्तनपायी जानवर बहुत छोटे हुआ करते थे, और डायनासोर से डरे हुए रहते थे, वे बचे और उनकी संख्या बढ़ती गई, और आज राज्य कर रही है। यह कितना बड़ा संयोग है जिसके कारण मानव जाति आज पृथ्वी पर राज्य कर रही‌ है। यदि 'चिक्ज़ुलुब (Chicxulub) उल्का न गिरता तो पता नहीं मनुष्य को विकास के लिये और कितने लाखों या करोड़ों वर्षों रुकना पड़ता !







 उल्कापात तो होते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने अवलोकन तथा गणनाओं से अनुमान निकाला है कि इतने विशाल उल्कापात तो औसतन दस करोड़ वर्षों में एक होता है। अर्थात् भविष्य में भी ऐसे विशाल उल्कापात होंगे, किन्तु लगभग अगले दस करोड़ वर्ष में। अत: अभी तो उसकी चिन्ता की बात नहीं। चिन्ता की बात तो यह है कि कहीं हमारी भोग की प्रवृत्ति इस वसुंधरा को उसके बहुत पहले ही प्रलय में न डुबा दे या विशाल मरुस्थल न बना दे।


विश्वमोहन तिवारी (पूर्व एयर वाईस मार्शल)


What were dinosaurs? Here is a brief introduction




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