खबरों के आगे खिंचता नेपथ्य



खबरों के आगे खिंचता नेपथ्य
-प्रभु जोशी




दुनिया भर में, ‘विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र‘ की तरह ख्यात भारत ने, जब एक ‘नव-स्वतंत्र राष्ट्र‘ की तरह, विश्व-‘राजनीति में जन्म लिया, तब निश्चय ही न केवल ‘पराजित‘ बल्कि, लगभग हकाल कर बाहर कर दी गयी ‘औपनिवेशिक-सत्ता‘ के कर्णधारों की आँखें, इसकी ‘असफलता‘ को देखने के लिए बहुत आतुर थीं। चर्चिल की बौखलाहटों को व्यक्त करती हुई, तब की कई उक्तियाँ इतिहास के सफों पर आज भी दर्ज हैं। अलबत्ता, उनकी ‘अपशगुनी उम्मीदों‘ के बार-खिलाफ, जब-जब इस ‘महादेश‘ में संसदीय चुनाव हुए, तब-तब इस बात की पुष्टि काफी दृढ़ता के साथ हुई कि बावजूद ‘सदियों की पराधीनता‘ के, भारतीय-जनमानस में एक अदम्य ‘लोकतांत्रिक-आस्था‘ है, जो केवल उसके सोच भर में स्पंदित नहीं है, बल्कि, उसकी तमाम संस्थाओं में, वह लगभग ‘दहाड़ती‘ हुई उपस्थित है। कहने की जरूरत नहीं कि उसके ‘चौथे खंभे‘ में तो ‘नृसिंह‘ की-सी शक्ति है, जो सत्ता के पेट को चीर सकती है। आपातकाल में तो उसने यह पूरी शिद्दत से प्रमाणित कर दिया था कि न केवल ‘लिख कर‘ बल्कि इसके विपरीत ‘न लिखकर‘ भी वह अपनी आवाज को इस तरह बुलन्द कर सकती है, जो हजारों-हजार लिखे गए लफ्जों से कहीं ज्यादा प्रखर प्रतिरोध का रूप रख सकती है। सम्पादकीय की जगह खाली छोड़ने से ‘मौन की तीखी अनुगूँज‘ राष्ट्रव्यापी बन गयी थी।





बहरहाल, इन्दौर नगर में पिछले सप्ताह ‘गाँधी-प्रतिमा स्थल‘ पर कतिपय बुद्धिजीवियों ने देश भर के कोई बीस-बाईस हिन्दी समाचार पत्रों की एक-एक प्रति जुटाकर, तमाम अखबारों के द्वारा ‘अकारण‘ ही तेजी से किये जा रहे हिन्दी के हिंग्लिशीकरण बनाम ‘क्रिओलीकरण’ के जरिए, जिस ‘बखड़ैली भाषा‘ को जन्म देने में लगे है, उसके प्रति हिन्दी भाषाभाषी पाठकों की पीड़ा और प्रतिकार को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करने के लिए, उनकी होली जलायी। निश्चय ही प्रतिकार की इस ‘प्रतीकात्मकता‘ से जो लोग असहमत थे, वे इसमें शामिल नहीं हुए। उनके पास अपने तर्क और अपनी स्पष्ट मान्यताएँ थीं, जबकि अखबारों की ‘होली‘ जलाने वालों के पास अपनी सिद्धान्तिकी थी। दोनों के पक्ष-विपक्ष में एक गंभीर विमर्श भी बन सकता था। 





बहरहाल, घटना छोटी-सी और निर्विघ्न सी थी, लेकिन भारतीय पत्रकारिता के विगत तिरेसठ साल के इतिहास में पहली बार घट रही थी। लेकिन देश के किसी भी हिन्दी अखबार ने (नईदुनिया को छोड़कर। हालांकि, जनसत्ता ने खबर तो नहीं, लेकिन, राजकिशोर के लेख में इस खबर को यथावत और विस्तार से दिया है।) यह खबर प्रकाशित नहीं की। इण्टरनेट के ब्लागों और ‘फेस बुक‘ पर अवश्य इस पर बहस के लिए अवकाश (स्पेस) निकला, लेकिन, आरंभ में उसका रूप जिस तरह की गंभीरता लिए हुए शुरू हुआ था, दूसरे दिन वह ‘भर्त्सना‘ और ‘भड़ास‘ की शक्ल अख्तियार कर चुका था। उसमें मनोरंजन और मसखरी भी शामिल हो चुकी थी। अतः पूरी बात विचार के दायरे से ही लगभग बाहर हो गयी। यहाँ यह बात गौर करने लायक है कि कदाचित् सम्पूर्ण हिन्दी समाचार-पत्रों ने, इस कार्यवाही को अपनी सत्ता के प्रति एक ‘बदअखलाक चुनौती‘ की तरह लिया है। हो सकता है समाचार-पत्रों ने, चूंकि वे समय और समाज में विचार के लिए वाजिब जगह बनाने की जिम्मेदारी अपने ही हिस्से में समझते हैं, अतः वे इस कार्यवाही के खिलाफ निस्संदेह ठोस बौद्धिक-असहमति रखते हैं। लेकिन प्रश्न उठता है कि जो समाचार पत्र, वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिन, ’समय और समाज’ की खाल खींच कर उसमें नैतिकता का नमक डालने पर तत्पर रहता है, क्या वह तिरेसठ वर्ष के अपने जीवनकाल में मात्र एक दिन किसी एक शहर में अपने पाठक की असहमति और उसका प्रतीकात्मक प्रदर्शन तक बरदाश्त नहीं कर सकता? जबकि, वह इस महाकाय जनतंत्र की रक्षा का एक सर्वाधिक शक्तिशाली कवच है? क्या समूचा समाचार-जगत ’विचार’ के स्तर पर, व्यक्ति की सी स्वभावगत ’एकरूपता’ रखता है ? जबकि, वह व्यक्ति नहीं संस्था है। मुझे यहाँ याद आता है कि नेहरू के विषय में कहा जाता रहा है कि उनका अहम् काफी अदम्य था और वे अमूमन अपनी असहमति की अवमानना पर तिक्त हो जाते थे। एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है। ’टाइम्स आॅफ इण्डिया’ के तब के ख्यात सम्पादक मुलगांवकर प्रधानमंत्री आवास पर स्वल्पाहार हेतु आमंत्रित थे और जिस सुबह वे आमंत्रित थे, ठीक उसी दिन उन्होंने नेहरू तथा ’नेहरू-सरकार’ के विरूद्ध अपने अखबार में बहुत तीखी सम्पादकीय टिप्पणी छाप दी। लगभग आठ बजे प्रधानमंत्री-आवास से दूरभाष पर सूचना दी गयी कि किन्हीं अपरिहार्य कारणों से पूर्व में स्वल्पाहार के समय प्रधानमंत्री के साथ निर्धारित भेंट निरस्त की जा रही है। यह सूचना पाते ही श्री मुलगांवकर ने नेहरू को फोन किया कि ठीक है कि आज का सम्पादकीय आपके तथा आपकी सरकार के खिलाफ है, लेकिन इसका हमारे नाश्ते से क्या लेना-देना है ? 





बहरहाल, नेहरू ऐसे थे कि सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर रहते हुए भी ठिठक कर बुद्धिजीवियों द्वारा की गई अपनी आलोचना सुन सकते थे। कदाचित् उनके इसी जनतांत्रिक धैर्य को ध्यान में रखकर दुनिया भर की प्रेस उन्हें ’डेमोक्रेटिक प्राॅफेट’ के विशेषण से सम्बोधित भी करती थी।



बहरहाल, इन्दौर नगर में भारतीय समाचार पत्रों को उनकी भाषागत नीति को केन्द्र में रखकर उसके प्रतिरोध में होली जलाने वाली कार्यवाही को लेकर इतना आहत और क्रोधित नहीं होना चाहिए कि उनके द्वारा अकारण किये जा रहे क्रिओलीकरण के खिलाफ शुद्ध गाँधीवादी प्रतिकार की खबर को वे अपने पृष्ठों पर तिल भर भी जगह न दें। यह काम निश्चय ही सम्पादक का नहीं हो सकता। तो क्या हमारे समाचार-पत्रों में एक किस्म की ‘काॅरपोरेट सेंसरशिप‘ अघोषित रूप से आरंभ है ? जबकि, ठीक उसी दिन ‘दैनिक भास्कर‘ ने क्रिओलीकरण के विरूद्ध लिखी गयी मेरी तीखी टिप्पणी ससम्मान और प्रमुखता से छापी और ‘नईदुनिया‘ ने इसके दो दिन पूर्व ही ‘भाषा के खिलाफ हो रही साजिश को समझो‘ शीर्षक से हिन्दी के ‘क्रिओलीकरण‘ के खतरे की तरफ पाठकों नहीं, सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-भाषियों को सचेत करने वाली उस टिप्पणी को एक ऐसी सम्पादकीय टीप के साथ प्रकाशित किया, जो ‘जन-आह्वान‘ के स्वर में थी। यह तथ्य दोनों ही अखबारों के ‘खुलेपन‘ और ‘जनतांत्रिक उदारता‘ के स्पष्ट प्रमाण हैं। तो अब प्रश्न यह उठता है कि क्या उनकी यह ‘उदारता‘ इतनी ज्वलनशील है कि प्रदर्शन की आँच की खबर से भस्म हो सकती है ? हाँ, राजनीतिक सत्ताएँ ‘विचार‘ को खतरा मानती हैं और उससे डरती भी हैं, लेकिन अखबर की ताकत तो ‘विचार‘ ही है। ‘विचार‘ तो उसके लगभग प्राण हैं ? फिर चाहे वे ‘सहमति‘ के रूप में हों, या ‘असहमति‘ के रूप में। मैं मानता हूँ कि आज हमारा समाज जितना ‘सूचना-सम्पन्न‘ हुआ है, उसके पीछे प्रमुख रूप से ‘लिखे-छपे शब्द‘ की बहुत बड़ी भूमिका है, ‘बोले गये‘ शब्द वाले माध्यम की तो प्राथमिकताएँ और प्रतिबद्धताएँ केवल मनोरंजन ही है। अतः मुझे उस माध्यम से कुछ नहीं कहना। वह अभी तक परिपक्व ही नहीं हो पाया है। अधिकांश का ‘समाचार-विवेक‘ तो साध्यकालीनों की सनसनी के समांतर ही है। वे ‘सचाई‘ के साथ फ्लर्ट (!) करते हैं। उनका ‘रिमोट‘ सच के किसी दूसरे ‘सनसनाते संस्करण‘ को बदलने का उपकरण है। लेकिन सुबह के दैनिक अखबार यह मानते हैं कि वह मालिकों का कम पाठकों का ज्यादा है। इसीलिए, यदि पाठकों का एक छोटा-समूह ‘संवादपरक प्रतिरोध‘ की संभावना के पूरी तरह निशेष हो जाने के बाद, यदि निहायत ही गाँधीवादी तरीके से अपना विरोध होली जलाकर प्रकट कर रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि समाचार-पत्रों में हो रही आयी उसकी आस्था का पूर्णतः से लोप हो गया है। गाँधीजी ने, जब विदेशी वस्त्रों की होली जलायी थी तो वे ‘वस्त्रोत्पादन‘ के विरूद्ध कतई नहीं थे। ना ही वस्त्र धारण करने के काम से उनकी आस्था उठ गयी थी। वे तो प्रतीकात्मक रूप से एक अचूक सूचना दे रहे थे कि हमें ‘औपनिवेशिक विचार‘ का विरोध करना है, जो वस्तुओं में शामिल है।





अंत में इन दिनों जिस ‘शक्ति-त्रयी‘ की बात की जा रही है, उसमें ‘सूचना‘ भी राज्य सत्ता के समानान्तर मानी जा रही है। ‘सूचना‘ का निर्माण और वितरण करने वाली दुनिया की चार पाँच संस्थाओं को ‘सत्ता‘ का सर्वोपरि रूप माना जा रहा है, क्योंकि वे ही ‘विश्वमत‘ गढ़ती या बनाती हैं। उनमें किसी भी मुल्क या उसकी सरकार को ध्वस्त करने की भी अथाह कुव्वत है, लेकिन वे अपने मुल्क के ‘प्रतिरोध की आवाजों‘ की अनसुनी नहीं करती वर्ना, नोम चाॅमस्की जैसे लोगों के विचारों की आहटें शेष संसार को सुनाई ही नहीं देती।




मुझे ब्रिटिश प्रधानमंत्री चेम्बर लेन के आक्सफर्ड विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में दिये गये उनके भाषण की याद आती है। उन्होंने कहा था, ‘आक्सफर्ड‘ ने हमें जब जब जैसा-जैसा करने को कहा हमने हमेशा ही ठीक वैसा-वैसा किया; लेकिन जब आक्सफर्ड को हमने अपने जैसा करने को कहा, उसने वैसा कभी नहीं किया और एक ब्रिटिशर की तरह मुझे इन दोनों बातों पर अपार गर्व है।




कुल मिलाकर चेम्बरलेन ने यही कहना चाहा हम ब्रिटिशर्स विचार के स्तर पर इतने उदार हैं हम अपनी प्रखरतम आलोचना का सम्मान करते हैं, लेकिन, हमें अपने मुल्क की बुद्धिजीवी बिरादरी पर भी गर्व है, जो असहमतियों को व्यक्त करने में भीरू नहीं है। किसी भी देश और समाज में भीरूता का वर्चस्व बौद्धिकों में व्याप्त होने लगे, तब शायद यह मान लेना चाहिए कि वह फिर से पराधीन होने के लिए तैयार हैं।




अंत में कुल जमा मकसद यही है कि लोहिया की विचारधारा में गहन आस्था रखने वाले श्री अनिल त्रिवेदी, तपन भट्टाचार्य और जीवनसिंह ठाकुर ने भारतीय भाषाओं के आमतौर पर तथा हिन्दी के क्रिओलीकरण (हिंग्लिशीकरण) को लेकर खासतौर पर एक शांत और नितान्त निर्विघ्न प्रदर्शन किया तो वस्तुतः वे निश्चय ही इसके दूरगामी खतरों की तरफ पूरे देश और समाज को चेतस करना चाहते हैं। वे ठीक ही कह रहे हैं ‘भाषा का प्रश्न‘ महज भाषा भर का नहीं होता, वह समूचे समाज को सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था का भी अनिवार्य अंग होता है। क्या हमें यह नहीं दिखाई दे रहा कि अमेरिका और ब्रिटेन ‘ज्ञान समाज‘ के नाम पर, मात्र अपने सांस्कृतिक उद्योग की जड़ें गहरी करने में लगे हैं। ‘कल्चरल इकोनॉमी‘ उनकी अर्थव्यवस्था का तीसरा घटक है, जो अँग्रेजी सीखने-सिखाने के नाम पर अरबों डाॅलर की पूंजी कमाना चाहते हैं। हिन्दी, यदि संसार की दूसरी सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा की चुनौतीपूर्ण सीमा लांघने को है, तब उसे एक धीमी मौत मारने के लिए उसका क्रिओलीकरण क्यों किया जा रहा है ? अभी षड्यंत्र की यह पहली अवस्था है, ‘स्मूथ डिस्लोकेशन ऑव वक्युब्लरि‘। अर्थात हिन्दी के शब्दों का चुपचाप अँग्रेजी के शब्दों द्वारा विस्थापन इसे सर्वग्रासी हो जाने दिया गया तो अंत में आखिरी प्रहार की अवस्था आ जाएगी और वह होगा, देवनागरी लिपि को बदलकर उसके स्थान पर रोमनलिपि को चला देना। यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि 5 जुलाई 1928 को ‘यंग इंडिया‘ में जब गाँधीजी ने लिखा कि ’अँग्रेजी साम्राज्यवादी भाषा है और इसे हम हटा कर रहेंगे’, तब गोरी हुकूमत अँग्रेजी के प्रसार प्रचार पर छः हजार पाऊण्ड खर्च करती थी (तब भी यह राशि बहुत ज्यादा थी)। गाँधीजी की इस घोषणा को सुनते ही उन्होंने लगे हाथ अँग्रेजी के प्रचार-प्रसार का बजट बढ़ा दिया। 1938 में बजट की राशि थी तीन लाख छियासी हजार पाऊण्ड। यदि अखबारों की होली जलाकर प्रकट किये गये इस विरोध के बाद हिन्दी के समाचार पत्रों मे भाषा के ‘क्रिओलीकरण‘ की गति तेज हो जाये तो यह स्पष्ट सूचना जायेगी कि भाषा संबंधी नीतियों के पीछे अँग्रेजी की ‘नवसाम्राज्यवादी‘ शक्तियाँ दृढ़ता के साथ काम कर रही हैं। 


4, संवाद नगर
इन्दौर



2 टिप्‍पणियां:

  1. जिन नेताओं और अधिकारियों को इस भाषा से प्रेम नहीं है, उन्हें हम साठ वर्ष से देश की बागडोर दे रहे हैं तो इसके ज़िम्मेदार कौन हैं ?

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