आतंकवादी अड्डों की शल्यक्रिया जरूरी



आतंकवादी अड्डों की शल्यक्रिया जरूरी

डॉ. वेदप्रताप वैदिक




पाकिस्तान ने युद्ध की पूरी तैयारी कर ली है। लाहौर, कराची और इस्लामाबाद पर उसके हवाई जहाजों ने पहरा देना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी और सेनापति अशफाक परवेज कयानी ने खुले-आम घोषणा कर दी है कि वे किसी भी हमले का मुकाबला करने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। तालिबान और इस्लामी तत्वों ने भारत के विरूद्ध पाकिस्तान सरकार का साथ देने का एलान किया है। पाकिस्तान के सभी राजनीतिक दल मिलकर दुश्मन' के विरूद्ध एकजुट हो गए हैं। उन्हें आशंका है कि भारत हवाई हमला करेगा। आतंकवादी अड्डे जहाँ-जहाँ होंगे, भारत वहाँ मिसाइल और बम गिराएगा। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने तो घुमा-फिराकर यह भी कह दिया है कि यह मत भूलो कि पाकिस्तान के पास भी परमाणु बम है।



भारत के प्रधानमंत्री ने बार-बार कहा है कि हम युद्ध नहीं करना चाहते। इसके बावजूद पाकिस्तान में युद्व के नगाड़े क्यों बजने लगे हैं ? इसके तीन मुख्य कारण हैं। पहला तो यह कि अगर पाकिस्तान में युद्ध का माहौल खड़ा नहीं किया गया तो फौज और आईएसआई को कौन पूछेगा ? लोगों का ध्यान आतंकवादियों पर केंद्रित हो जाएगा और अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे झुकना पड़ेगा। गैर-फौजी सरकार का पलड़ा भारी हो जाएगा। आतंकवाद से त्रस्त पाकिस्तान की जनता आसिफ़ जरदारी जैसे नाम-मात्र के राष्ट्रपति को सचमुच इस लायक बना देगी कि वह अपने फैसले खुद कर सकें। युद्ध के नगाड़े बजते ही आतंकवाद का मुद्दा दरकिनार हो गया और राष्ट्ररक्षा मुख्य मुद्दा बन गया। लोकतांत्रिक सरकार नीचे चली गई और फौज दुबारा ऊपर आ गई। युद्ध के माहौल का दूसरा लाभ यह है कि अंतरराष्ट्रीय जगत को गुमराह किया जा सकता है। पाकिस्तान सारे संसार के सामने यह यक्ष-प्रश्न खड़ा करना चाहता है कि पहले आप परमाणु-युद्ध रोकेंगे या आतंकियों को पकड़ेंगे ? आतंकियों को तो हम पकड़ ही रहे हैं। आप पहले भारत को थामिए। युद्ध का खतरा दिखाकर पाकिस्तान सारे विश्व में भारत-विरोधी हवा फैलाना चाहता है। युद्ध के खतरे को भुनाने का एक तीसरा दांव भी है। वह यह कि यदि हमें भारत से लड़ना पड़ा तो अफगान-सीमांत पर डटी हमारी फौजों को भारतीय सीमांत पर तैनात करना होगा याने पिछले आठ साल से वहाँ अमेरिका की जो सेवा हो रही थी, वह बंद हो जाएगी। इसका कारण भारत की धमकी ही है। इसलिए, हे कृपानिधान, बुश महोदय, भारत को धमकाइए। हमारे खातिर नहीं, अमेरिका की खातिर धमकाइए !



पाकिस्तान की यह चाल सफल हुए बिना नहीं रहेगी। पाकिस्तानी नेताओं को यह पता है कि हिंदुस्तानी नेता कितने पानी में हैं। अमेरिका को नाराज करने की हिम्मत भारत के नेताओं में नहीं है। अमेरिका किसी भी क़ीमत पर भारत-पाक युद्ध नहीं चाहता है। भारत जब-जब भारी पड़ा, अमेरिका ने पाकिस्तान को टेका लगाया है। अब भी अमेरिका चाहेगा कि सिर्फ गीदड़भभकियों से काम चल जाए। अब मुंबई-हमले को एक माह हो रहा है, कौनसी धमकी काम आ रही है ? इस बीच अमेरिकी सेनापति मुलेन दो बार पाकिस्तान हो आए हैं। उनकी कौन सुन रहा है ? ओबामा, बुश, राइस - सबकी गुहार चिकने घड़े पर से फिसलती जा रही है। पाकिस्तान की सरकार ने सुरक्षा परिषद् को भी चकमा दे दिया है। आतंकवादी अड्डों को खत्म करने और चारों कुख्यात आतंकवादियों को पकड़ने की बजाय वह रोज आँख मिचौनी खेल रही है। जरदारी और गिलानी सारी दुनिया को बेवकूफ बनाने में लगे हुए हैं। दोनों की छवि मसखरों की-सी हो गई है। पाकिस्तानी जनता भी उन पर हँस रही है। वे दोनों भारत से अब भी प्रमाण माँग रहे हैं। उनके अपने अखबारों और चैनलों ने जो प्रमाण जग-जाहिर किए हैं, उन्हें भी वे झुठला रहे हैं। मियाँ नवाज शरीफ तक पल्टी खा गए हैं।



ऐसी स्थिति में भारत क्या करे ? क्या वह पाकिस्तान पर सीधा हमला बोल दे ? यदि भारत सरकार सिर्फ गीदड़भभकियाँ ही देती रही तो हमारे मंत्रियों और नेताओं का घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा। कुछ ही हतों में ऐसे हालात बन जाएँगे कि खाली-पीली बोम मारनेवाले नेताओं को जनता पकड़-पकड़कर मारेगी। नेताओं को यह पता है। इसीलिए वे गरम-नरम, दोनों धाराएँ साथ-साथ चलाते रहते हैं। वे स्वयं काफी दिग्भ्रमित मालूम पड़ते हैं। प्रधानमंत्री एक बात कहते हैं तो विदेश मंत्री दूसरी बात और रक्षा मंत्री तीसरी ! ये सब नेता यह क्यों नहीं कहते कि हमें पाकिस्तान से युद्ध नहीं करना है। हमें सिर्फ आतंकवाद से लड़ना है। पाकिस्तान हमारा साथ दे। भारत और पाकिस्तान, हम दोनों मिलकर आतंकवाद का सफाया करेंगे। वास्तव में प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे एक विशेष दूत पाकिस्तान भेजें, जो वहाँ के सभी प्रमुख नेताओं से मिले और उनके गले यह तर्क उतारे। आज टीवी चैनल ऐसे माध्यम हैं, जिनसे लाखों पाकिस्तानी घरों में सीधे पहुँचा जा सकता है। यदि भारत सरकार सचमुच आतंकवादी अड्डों पर शल्य-क्रिया करना चाहती है तो उसे विश्व जनमत के साथ-साथ पाकिस्तानी जनता और नेताओं को भी अपने साथ जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए। यदि पाकिस्तान की सरकार युद्ध का हौवा खड़ा करने में सफल हो गई तो आतंकवादियों के विरूद्ध की जानेवाली शल्य-क्रिया को लकवा लग सकता है और बाद में भारत को कूटनीतिक मात खाने के लिए भी तैयार रहना होगा।


फिलहाल आतंकवादी अड्डों पर शल्य-क्रिया करने के पहले भारत को पाकिस्तान का हुक्का-पानी बंद करना होगा। उससे सारे संबंध तोड़ने होंगे। उसे विश्व-समाज के सामने पाकिस्तानी सरकार और आतंकवादियों की मिलीभगत का भंडाफोड़ करना होगा। पाकिस्तान को आतंकवादी राज्य घोषित करवाना होगा। भारत को पाकिस्तान के विरूद्ध सुरक्षा परिषद से वैसे ही प्रतिबंधों की माँग करनी चाहिए, जैसे कि तालिबानी अफगानिस्तान, सद्दामी एराक और ईरान पर लगाए गए थे। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमेरिका से मिलनेवाले अरबों डॉलरों की आवक जैसे ही बंद हुई, पाकिस्तान की फौज और सरकार, दोनों के होश फाख्ता हो जाएँगे। पाकिस्तान की बेकसूर जनता को कुछ तक्लीफ़ तो भुगतनी होगी लेकिन उसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। निकम्मे नेताओं और निरंकुश फौज को अपनी छाती पर बिठाने का कुछ खामियाजा तो उसे भुगतना ही होगा।


पिछले एक माह का सबक यह है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। भारत की क्या, अमेरिकियों की बातों का भी कोई असर नहीं हो रहा है। यह भी ठीक से पता नहीं कि अमेरिकी नेता जो माइक पर बोलते हैं, वही बात क्या वे पाकिस्तानी नेताओं के कान में भी बोलते हैं ? अगर बोलते हैं तो उसका पालन न होने पर वे क्या कर रहे हैं ? अब उन्हें कुछ करने के लिए मजबूर किया जाए। पाकिस्तान का हुक्का-पानी बंद करने के लिए अगर वे तैयार न हों तो भारत अपना वक्त खराब क्यों करे ? भारत शल्य-क्रिया की तैयारी करे, कम से कम तथाकथित आजाद कश्मीर में तो करे ही, जिसे पाकिस्तान स्वतंत्र राष्ट्र' कहता है। वह न राष्ट्र है, न राज्य है। वह संप्रभु क्षेत्र भी नहीं है। वह अराजक क्षेत्र है। वह आतंकवाद का विराट् अड्डा है।

लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्‍यक्ष है।

छत्रसाल की माँ


छत्रसाल की माँ

- भगवान अटलानी


पात्र परिचय
कालकुमरि-
छत्रसाल की माँ। आयु लगभग पैंतीस वर्ष। सुन्दर देहयष्टि। वीरवेश में किसी पराक्रमी योद्धा का सा व्यक्तित्व।

चम्पतराय-
छत्रसाल के पिता। आयु लगभग चालीस वर्ष। रुग्णावस्था के कारण वे वृद्ध प्रतीत होते हैं। धोती, कुर्ता पहने हुए। सर्वथा अस्त-व्यस्त दशा।

छत्रसाल-
प्रसिद्ध इतिहास पुरुष। ग्यारह वर्ष की आयु। श्रेष्ठ अंग सौष्ठव एवं अंगविन्यास के कारण सोलह की लगता है। प्रभावशाली उठान। वीरवेश।

बाकी खाँ-
औरंगजेब का सेनापति। छः फुट लम्बा सुदृढ व्यक्ति। मुगल सेनापति की वेशभूषा। स्वर में एक स्वाभाविक गर्जन का पुट।

बुंदेलखंडी राजपूत ठाकुर, मुगल सिपाही, छः ग्रामीण




(पर्दा उठता है। जंगल का दृश्य और उसके अनुरूप ही वातावरण है। कुछ क्षणों के लिये पार्श्व में पदचाप की निकट आती हुई ध्वनि मात्र सुनाई देती है। तत्पश्चात् मंच पर छः लोग प्रवेश करते हैं। उन्होंने धोती और बंडी पहनी हुई है। कंधों पर अंगोछे हैं। उन सबने मिलकर एक चारपाई उठा रखी है, जिस पर चम्पतराय लेटे हुए हैं। चम्पतराय की अवस्था अत्यन्त क्षीण व दुर्बल है। कालकुमरि और छत्रसाल चारपाई के एक ओर चल रहे हैं। पीछे ठाकुर हैं। सभी ठाकुर वीरवेश में सज्जित हैं। मंच के मध्य में पहुँचकर छहों ग्रामीण चारपाई नीचे रख देते हैं और एकाएक सामने की ओर दौडते हुए मंच के दूसरी ओर निकल जाते हैं। छत्रसाल, कालकुमरि और ठाकुरों को देखकर लगता है, इस आकस्मिक व्यापार से वे ठगे-ठगे से रह गये हैं।)

कालकुमरि-
(स्वगत) मुझे पहले से ही न जाने क्यों बार-बार अमंगल की आशंका हो रही थी। आँख बार-बार फडकती थी। मन बार-बार कहता था कि दौओं पर भरोसा नहीं करना चाहिये। (सबकी ओर देखकर जोर से) आखिर हमारी परीक्षा का दिन आ ही गया। शत्रु के फैलाये हुये जाल में हम फँस ही गये। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरे मायके गाँव के लोग ही मुझे धोखा दे देंगे। मगर नहीं, चिन्ता की कोई बात नहीं है। अभी इस वंश का दीपक अपनी पूरी आन-बान के साथ प्रज्वलित है। (छत्रसाल की ओर देखती है) हमारे मरने के बाद भी शत्रु को चैन की नींद नसीब नहीं होगी। छतारे, मेरे सामने तलवार हाथ में लेकर प्रतिज्ञा करो कि तुम औरंगजेब से बदला लोगे। अपनी मातृभूमि की ओर बुरी नजर से देखने वाले की आँख निकाल लोगे। इसके लिये तुम्हें चाहे कितनी भी कीमत क्यों न चुकानी पडे, जान भी क्यों न देनी पडे।

छत्रसाल-
सामने तो आने दीजिये दुश्मन को माँ, आप स्वयं देख लीजियेगा कि आपका बेटा कितने सिपाहियों को मौत के घाट उतारकर प्राण देता है, कितने कायरों का सिर उतारकर मृत्यु का वरण करता है?

कालकुमरि-
तुम्हें देश के लिये अभी बहुत कुछ करना है बेटा। तुम्हारे जीवन का, तुम्हारी चढती जवानी के खिलते पुष्प का मूल्य इतना कम नहीं है। अभी तो तुम्हें मेरी और अपने पिता की अपूर्ण इच्छाएँ पूरी करनी हैं, अभी अपनी शक्ति के बल पर तुम्हें औरंगजेब को यह दिखाना है कि बुंदेलखंड की भूमि इतनी आसानी से गुलामी की जंजीरें नहीं पहनती है, अभी तो तुम्हें अपनी मातृभूमि पर हुए नृशंस अत्याचारों का हिसाब लेना है। इस बीहड में, सहरा से आठ कोस दूर एक बेनाम मौत के शिकार होकर तुम इतने सारे काम कैसे पूरे कर सकोगे? इसलिए तुम शीघ्रता करो और फिलहाल अपनी बहन के पास चले जाओ।

छत्रसाल-
अपने प्राण बचाने के लिये आपको और पिता जी को मैं इस संकटपूर्ण विकट स्थिति में छोडकर नहीं जाऊँगा माँ। मैं राजपूत का पुत्र हूँ और राजपूत कभी मौत से नहीं डरता।

कालकुमरि-
ऐसे अवसरों पर प्राणों से भी अधिक महत्त्व कर्त्तव्य का होता है, बेटा। माता-पिता के मोह में पडकर कर्त्तव्य से मुँह मोड लेना क्षत्रिय का धर्म नहीं है।

छत्रसाल-
(आग्रहपूर्वक) कर्त्तव्य को सामने रखकर ही तो मैं वापस न जाने की बात कह रहा हूँ, माँ। आप लोगों को इस तरह जाल में फँसा हुआ छोडकर मैं अकेला यहाँ से चला जाऊँ, क्या यही मेरा कर्त्तव्य है? क्या ऐसा करके मैं कायरता नहीं दिखाऊँगा माँ?

कालकुमरि-
तुम्हारी माँ स्वयं कायर नहीं है छतारे, कि वह तुम्हें कायरता का पाठ पढायेगी। वह तुम्हारी माँ ही थी जिसने वली बहादुर खाँ के लडके बाकी खाँ जैसे खानदानी प्रसिद्ध सेनापति को चम्बल पार के मैदानों में धूल चटाई थी। यह ढाल, यह तलवार और सहरा में बँधा हुआ वह कद्दावर घोडा उसी विजय की निशानियाँ हैं। तुम भूल गये शायद छतारे, कि वह तुम्हारी माँ ही थी जिसने औरंगजेब के दूत सरदार तहव्वर खाँ के सामने एरछ की जागीरी सनद सिर्फ इस बात के लिये फेंक दी थी कि छत्रसाल से बाकी खाँ द्वारा छीना हुआ वही विजयसूचक घोडा मुझे वापस दिला दिया जाय। वह तुम्हारी माँ ही थी, जिसने इस घटना से भी पहले शाहजहाँ से एरछ की बैठक और नौ लाख की जागीर पाकर लौटने वाले तुम्हारे पिता से कहा था-��आज मेरा सिर शर्म से झुका जा रहा है। बुन्देलखण्ड की स्वतन्त्रता की तडप, ओरछा की मर्यादा, आफ और आफ वंश के महान् आदर्श इन सब की कीमत बस इतनी ही कूती आपने?��

छत्रसाल-
फिर आज प्राण बचाकर भागने के लिये आप मुझे क्यों कह रही हैं, माँ?

कालकुमरि-
देश ही तुम्हारी सच्ची माता है। देश ही तुम्हारा सच्चा पिता है। इसी देश की धरती का अन्न खाकर, इसी देश का पानी पीकर तुम्हारी कोंपलें फूटी हैं। इसी देश की मिट्टी से तुम्हारा शरीर बना है। अपने जीवन की आहुति तुम्हें हमारे लिये नहीं, अपने देश के लिये देनी है। बुंदेलखण्ड के लिये देनी है। इसी में तुम्हारे पिता की, मेरी और इन सब बहादुरों की प्रतिज्ञाओं की पूर्ति छिपी है। इसी में हम सब का कल्याण है।

चम्पतराय-
(आँखें खोलकर, चारपाई से उठने का असफल प्रयत्न करते हुए) तुम्हारी माँ ठीक कहती है, बेटा। दुश्मन कभी भी आकर हमें घेर सकता है। तुम जल्दी यहाँ से निकल जाओ।

छत्रसाल-
मगर पिता जी, सामने खडे कर्त्तव्य की पुकार को ठुकराकर एक स्वप्न, एक कल्पना के पीछे चलना क्या वीरोचित है? क्या यह प्राण बचाकर भाग जाना नहीं है?

कालकुमरि-
(दृढता से) छतारे, यह अधिक तर्क करने का समय नहीं है। इससे अधिक समझाने की जरूरत तुम्हें होनी भी नहीं चाहिये। बस, इतना सुन लो कि तुम्हारे पिता का छोडा हुआ अधूरा काम तुम्हारे सामने बाँहें पसारे खडा है। देश को तुम से बडी-बडी आशायें हैं। तुम्हें कर्त्तव्य का कडवा घूँट पीना ही होगा। तुम्हें यहाँ से जाना ही होगा। यह मेरा आदेश है।
(छत्रसाल कुछ क्षणों तक सिर झुकाये मौन खडे रहते हैं फिर माँ और पिता के चरण छूकर धीरे-धीरे एक ओर चले जाते हैं।)

कालकुमरि-
(ठाकुरों को सम्बोधित करते हुए) ओरछा के बहादुर सपूतो, सहरा के घघरे और दौए औरंगजेब के क्रोध से डर गये। जिस स्थान पर और जिस स्थिति में वे हमें छोड कर भाग गये हैं, उससे साफ जाहिर है कि कुछ ही क्षणों में औरंगजेब की सेना हमें घेर लेगी। हम लोग इनके चंगुल में फँस जायें, इससे पहले हमें निर्णय ले लेना होगा। इतिहास हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। हमारे सामने इस समय दो रास्ते हैं। या तो हम ओरछा की मान-मर्यादा भुलाकर अपने इतिहास, अपने स्वाभिमान को कलंकित करके मुगल सेना के कदमों में सिर झुकाकर अपने जीवन की भीख माँगें या सच्चे क्षत्रियों की तरह �बुंदेलखण्ड की जय� के नारे से आसमान को कंपित करते हुए, दुश्मन को गाजर-मूली की तरह काटकर वीर गति पायें। बोलिये, आप इन दोनों में से कौन सा रास्ता चुनते हैं? इज्जत के साथ मर जाने का या बेइज्जत होकर बिक जाने का? (सभी ठाकुर अपने म्यानों में से तलवारें निकालकर अपने-अपने मस्तक से लगाते हैं। एक ठाकुर आगे बढकर पहले चम्पतराय और फिर कालकुमरि के सम्मुख शीश नवाता है।)

ठाकुर-
बुंदेलखंड के ठाकुरों ने बिक जाना नहीं सीखा महारानी सा। उन्हें इज्जत दुनिया की किसी भी चीज से ज्यादा प्यारी है। रक्त की आखिरी बूँद तक हम दुश्मन का मुकाबला करेंगे। हम मर जायेंगे, कट जायेंगे मगर किसी को यह कहने का अवसर नहीं देंगे कि बुंदेलखंड के ठाकुर कायर हैं।

कालकुमरि-
(ओजपूर्वक) मुझे आप सब से इसी उत्तर की आशा थी। बुंदेलखंड की!

सभी ठाकुर-
(जोर से) जय।
(चम्पतराय कालकुमरि को संकेत से अपने पास बुलाते हैं।)

चम्पतराय-
(क्षीण स्वर में) काल, मैं नहीं चाहता कि मेरा सिर जीते जी औरंगजेब की मसनद के आगे झुके। अपना कर्त्तव्य पूर्ण कर सकोगी न?

कालकुमरि-
आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें, स्वामी। कालकुमरि उस मिट्टी से नहीं बनी कि जिसे मोह या भावुकता कर्त्तव्य से च्युत कर सके।

चम्पतराय-
(उसी तरह क्षीण स्वर में) भाला चलाते हुए तुम्हारे हाथ काँपेंगे तो नहीं?

कालकुमरि-
हमारे विवाह से पहले एक बार दाऊ साहब इन्द्रमणी का मुहीउद्दीन से युद्ध चल रहा था। एक रात्रि को द्वार पर खटका हुआ। मैंने द्वार खोला तो भीगा बदन और मलिन मुख लिये दाऊ साहब सामने खडे थे। मैंने आश्चर्य में भरकर उनसे पूछा, दाऊ साहब! सब ठीक तो है? उन्होंने दबी जबान से उत्तर दिया, काल। आज हमें मैदान छोडना पडा। मेरे सब साथी युद्ध स्थल से भाग गये हैं। मैं भी बेतवा नदी पार कर के बडी कठिनाई से किसी तरह यहाँ पहुँच पाया हूँ। मैंने यह कहते हुए द्वार वापस बंद कर दिया था कि दाऊ साहब! आफ इस कृत्य से बुंदेलखंड का मस्तक लज्जा से झुक गया है। आप लौट जाइये। अब इस घर के दरवाजे आफ लिये बन्द हैं। वे लौट गये थे। उनके जाने के बाद भाभी ने क्रोधित होकर मुझे कहा था, राजा! अपना पति होता तो मैं भी देखती कि उन्हें तुम इस तरह दरवाजे से लौटा देती या गले लगा लेती। मैंने भाभी से कहा था, भाभी! ये दाऊ साहब थे कि मैंने उन्हें दरवाजे से लौटाकर धीरज कर लिया। अगर पति होते तो उनकी छाती में आपकी काल की कटार ही होती। मुझ पर भरोसा रखिये, स्वामी!

चम्पतराय-
(मन्द-मन्द मुस्कराते हुए) भरोसा तुम पर नहीं करूँगा, तो भला और किस पर करूँगा, काल?
(कालकुमरि उनके चरणों पर झुकती है कि �अल्ला हो अकबर� के नारों से वन प्रान्तर गूँज उठता है। कालकुमरि फुर्ती से उठकर अपनी तलवार और ढाल संभालती है।)

कालकुमरि-
(उत्साहपूर्वक) आगे बढो वीरों, अपनी तलवारों की प्यास बुझाओ! हम सब की परीक्षा का समय आ गया है।

बाकी खाँ-
(गरजकर) रुक जाओ! कोई आगे नहीं बढेगा! (मुगल सैनिक जहाँ के तहाँ रुक जाते हैं। ठाकुर भी अपने स्थानों पर स्तब्ध खडे रह जाते हैं। बाकी खाँ अपनी सेना के सामने आता है।)

बाकी खाँ-
(कालकुमरि को सम्बोधित करते हुए) रानी साहिबा, हम नहीं चाहते कि आपका और आफ सरदारों का खून इन जंगली पौधों को सींचे। हम आपको एक मौका देते हैं। आप अपने हथियार डाल दीजिये। हम आपको और आफ सरदारों को जहाँपनाह से माफी दिलाने का वादा करते हैं।

कालकुमरि-
(ललकारकर) वह दिन शायद तू भूल गया है बाकी खाँ, जब चम्बल के मैदानों में तू मेरे सामने जीवनदान के लिये गिडगिडाया था। इस ढाल और तलवार को पहचान। अपने घोडे को याद कर। तुझे तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिये।

बाकी खाँ-
(व्यंग्यपूर्वक) हम पर अहसान फरामोश होने की तोहमत लगाना जायज नहीं है, रानी साहिबा। कोई बेवकूफ भी समझ सकता है कि हम चाहें तो इस वक्त आपका सिर कलम कर सकते हैं। फिर भी हम आपको जान बचाने का मौका दे रहे हैं। यह हमारे अहसान मानने का सबूत नहीं है क्या?

कालकुमरि-
क्षत्राणी मृत्यु से नहीं बेइज्जती से डरती है। मगर तू इस बात को समझ नहीं सकता। तू चाहता है, हम औरंगजेब के पैरों में झुककर, अपने सम्मान और स्वाभिमान को गिरवी रखकर जीवन की भीख माँगे और बदले में तेरा महत्त्व तेरे जहाँपनाह की नजर में बढ जाये। मगर तेरी यह इच्छा कभी भी पूरी नहीं होगी, बाकी खाँ।

बाकी खाँ-
(समझाते हुए) रानी साहिबा को हमारे बारे में शायद बहुत सारी गलतफहमियाँ हैं। मगर हम इतने बुरे नहीं हैं, जितना आप हमें समझती हैं। हम अब भी दिल से चाहते हैं कि इस बियाबान में आपकी लाश जंगली जानवरों की दावत का सामान न बने।

कालकुमरि-
गलतफहमी मुझे तेरे बारे में नहीं, तुझे अपने बारे में है। बुंदेलखंड के क्षत्रियों की तलवार की चमक तूने बहुत देखी है। एक बार मेरे हाथ भी तू देख चुका है। मगर लगता है, वह तुझे याद नहीं है। तू निर्लज्ज और कायर आदमी है। तभी तो दस हजार सिपाहियों को पच्चीस ठाकुरों के सामने खडा करके डींग हाँक रहा है तू! है अगर तुझमें हिम्मत तो आ, तू अकेला आजा मेरे सामने तलवार लेकर! फिर कर ले फैसला कि किसमें कितनी ताकत है। तू तो मर्द है। एक स्त्री तुझे चुनौती दे रही है। आ जा मेरे सामने!

बाकी खाँ-
इन बातों से कोई फायदा नहीं है रानी साहिबा, हम अब भी आपको एक मौका देने को तैयार हैं।

कालकुमरि-
(घृणा से थूककर) मैं थूकती हूँ तुम पर और तुम्हारे मौके पर। वीरो! आगे बढो और दिखा दो इस कायर को कि बुंदेलखंड के खून में बिजली किस तरह तडपती है? (सभी सरदार �बुंदेलखंड की जय� का तुमुलनाद करते हैं। सब में असीम जोश है। कालकुमरि बाकी खाँ पर झपटती है।)

बाकी खाँ-
(पीछे हटकर संभलते हुए) इस औरत का गुरुर अब भी सातवें आसमान पर है। (चिल्लाकर, आदेशात्मक स्वर में) खबरदार! इस औरत को जिन्दा पकड लो। (मुगल सैनिक �अल्ला हो अकबर� का नारा लगाते हैं। घमासान युद्ध छिड जाता है।)

कालकुमरि-
(बाकी खाँ पर वार करते हुए) बाकी खाँ, संभल। आज तू अपनी मौत से लड रहा है। (बाकी खाँ ढाल पर वार को रोकता है। कालकुमरि को कुछ मुगल सैनिक घेरने की कोशिश करते ह। वह तडपकर घूमती है और तलवार के एक ही वार से दो सैनिकों को धराशायी कर देती है। बाकी खाँ अवसर देखकर दूसरी ओर जाने लगता है।)

कालकुमरि-
(चिल्लाकर) भाग कहाँ रहा है कायर! एक ही वार से डर गया? (मुगल सैनिक कालकुमरि को फिर घेर लेते हैं। वह फुर्ती से पीछे हटकर घेरे में से निकल जाती है। इस दौरान वह पुनः दो सैनिकों को धराशायी कर देती है। उसके बाल खुल जाते हैं। वह बाकी खाँ की ओर लपकती है। तभी उसकी दृष्टि चम्पतराय की ओर बढते हुए सैनिकों पर पडती है।)

कालकुमरि-
(जोर से) सावधान बहादुरो, दुश्मन चारपाई की ओर बढ रहा है। (वह स्वयं चारपाई की ओर बढती है। काली के रौद्र रूप की तरह उसका चेहरा लाल हो गया है। रास्ते में प्रतिरोध का प्रयत्न करते मुगल सैनिकों को वह काट देती है।

कालकुमरि-
(चारपाई के निकट पहुँचकर) एक निहत्थे व्यक्ति पर हमला करके तुम लोग बहादुरी दिखाना चाहते हो! (वह मारकाट चालू कर देती है। दो ठाकुर भी चारपाई के निकट पहुँच जाते हैं। चम्पतराय विवशतापूर्वक दाँत किटकिटाता है। ठाकुर भी त्वरित गति से तलवार घुमाते हैं। मुगल सैनिकों का घेरा टूट जाता है।)

कालकुमरि-
शाबाश बहादुरो, अन्तिम साँस तक दुश्मन को इसी तरह मजा चखाते चलो। (मुगल सैनिकों को एक बडा दल इन सबको घेर लेता है। दोनों ठाकुर लडते हुए खेत हो जाते हैं। कालकुमरि और भी अधिक क्रुद्ध होकर शेरनी की तरह सैनिकों पर टूट पडती है। घेरा छोटा होता जाता है। कालकुमरि की बाईं बाँह जख्मी हो जाती है। उसमें से खून बहने लगता है। कालकुमरि घाव की चिन्ता न कर चम्पतराय की ओर मुडती है।)

कालकुमरि-
(प्रफुल्लित स्वर में) हे ईश्वर! मुझे क्षमा करना।

(कालकुमरि हाथ साधकर चम्पतराय पर तलवार का वार करती है। मामूली सा तडपकर चम्पतराय शान्त हो जाता है। तलवार को वह अपनी ओर लपकते मुगल सैनिकों पर तिरछा करके फेंकती है। फिर तुरन्त कमर से कटार निकालकर अपना पेट चीर देती है और चम्पतराय के चरणों में गिर जाती है। बढते हुए कोलाहल के बीच पर्दा गिरता है।)


(मधुमती)


मार्क्स की वापसी

राग दरबारी



मार्क्स की वापसी
राजकिशोर

जैसे मुन्नाभाई को गाँधी जी दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही मुझे कभी - कभी कार्ल मार्क्स दिख जाते हैं। जिस दिन बराक ओबामा जीते, उसकी शाम यह घटना हुई। मैं एक मित्र के बार-बार कहने पर टहल रहा था, तभी देखा, मार्क्स सामने से चले आ रहे हैं। बहुत परेशान दिखाई पड़ रहे थे। मैंने सोचा कि कॉमरेड से पूछूँ कि नया क्या हुआ है जो आपको तंग कर रहा है, तभी वे रुक गए और मेरी आँखों में आँख डाल कर बोले, 'क्या तुम भी मेरी वापसी से बहुत खुश हो?'

मैंने पहले मन ही मन उन्हें प्रणाम किया और फिर जवाब दिया, ''वापसी? क्या किसी चीज की वापसी होती है? आपने ही लिखा है कि कोई घटना दूसरी बार घटती है, तब वह कॉमेडी हो जाती है।'



मार्क्स के चेहरे पर थोड़ा-सा संतोष उभरा। फिर वे अपने मूड में आ गए, 'अमेरिका और ग्रेट ब्रिाटेन की सरकारों ने अपने कुछ पूंजीवादी संस्थानों को बचाने के लिए थोड़ा-सा सरकारी रुपया लगा दिया, तो तुम पत्रकारों ने लिखना शुरू कर दिया कि यह तो मार्क्स की वापसी है। तुमने शायद ऐसा नहीं लिखा है, पर जो पत्रकार तुमसे अधिक पढ़े जाते हैं, उनका तो यही कहना है! मैंने भी पत्रकारिता की है, अमेरिकी अखबार में की है। उन दिनों के पत्रकार तो इतने जाहिल नहीं हुआ करते थे। अब जैसे-जैसे साधन बढ़ रहे हैं, पत्रकारों को ज्यादा पैसा मिलने लगा है, वे सिर्फ साक्षर भर दिखाई देते हैं। मार्क्स की वापसी ! हुंह! क्या सिर्फ सरकारीकरण से ही समाजवाद की ओर बढ़ा जा सकता है? मैं कम्युनिस्ट हूँ, न कि सरकारवादी। मेरी नजर में तो जहाँ भी सरकार है, वहाँ विषमता और अन्याय है। मेरे रास्ते पर चले होते, तो अभी तक सभी सरकारें खत्म हो जातीं और समाज सक्रिय हो जाता। समाज को कमजोर कर जब सरकार मजबूत होती है, तो वह और बड़ी डायन हो जाती है।'


मैंने अपनी बात करना जरूरी समझा, 'कॉमरेड, मेरे लिए तो आपकी वापसी का कोई अर्थ ही नहीं है, क्योंकि मेरा मानना है कि आप तो पहली बार भी नहीं आए थे। जो आया था, वह मार्क्स नहीं, उसके नाम पर कोई बहुरुपिया था।'


मार्क्स ने अपनी दाढ़ी खुजलाई, 'तुम ठीक कहते हो। मैं जिन्दा होता, तो कम्युनिस्ट कहे जाने वाले सोवियत संघ और लाल चीन की धज्जियाँ उड़ा देता। याद नहीं आ रहा कि मैंने कहीं लिखा है या नहीं, पर तुम मेरे नाम से नोट कर सकते हो कि शिष्य लोग ही अपने गुरु का नाम डुबोने में आगे रहते हैं। तुम्हारे गाँधी के साथ क्या हुआ? मुझे उसके किसी ऐसे अनुयायी का नाम बता सकते हो जिसे देख कर उस विचित्र आदमी की याद आती हो? मेरे साथ भी यही हुआ। यही होना ही था। इसीलिए मैंने बहुत जोर दे कर कहा था, डाउट एव्रीथिंग (हर चीज पर शक करो)। मेरा नाम लेनेवालों ने यह तो किया नहीं, मेरे विचार को ही उलट दिया। उनका सिद्धांत यह था, डाउट एव्रीबॉडी (हर आदमी पर शक करो)। खाली शक करने से कहीं इतिहास आगे बढ़ता है?'


मैं चुप रहा। अब इतनी नम्रता तो आ ही गई है कि बड़ों के सामने ज्यादा मुँह नहीं खोलना चाहिए।मार्क्स भी कुछ क्षणों तक खामोश रहे। फिर धीमे से बोले, 'और यह ओबामा! पता नहीं सारी दुनिया इस पर क्यों फिदा है! ठीक है, एक अर्ध-काले को अमेरिका का राष्ट्रपति चुन लिया गया है। हाँ, उसे अर्ध-काला ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि उसकी माँ श्वेत थी। अगर उसके माँ-बाप दोनों ही काले होते, तो मुझे शक है कि वह चुना जाता। फिर वह ब्लैक राजनीति में भी कभी नहीं रहा। काला है, पर गोरों जैसी बातें करता है। कोई यह भी पूछना नहीं चाहता कि उसके विचार क्या हैं, वह अमेरिका को कैसे ठीक करेगा, अमेरिका को सभ्य राष्ट्र बनाने का उसका कार्यक्रम क्या है आदि-आदि। सब इसी बात से इतने खुश हैं कि ओबामा राष्ट्रपति बन गए। मैं निराशावादी तो नहीं हूँ , पर आशा के कारण भी दिखाई नहीं देते।'


मैं बोला, 'शायद आपने ही लिखा है कि पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार पूँजीवादियों की कार्य समिति होती है। इस लिहाज से रिपब्लिकन पार्टी को उसका उच्च सदन और डेेमोक्रेटिक पार्टी को निम्न सदन कहना चाहिए। काफी दिनों के बाद हेरफेर हुआ है, तो खुशी क्यों न मनाई जाए?'


मार्क्स की आँखें धीरे-धीरे लाल हो रही थीं। वे बोले, 'मैं मनहूस आदमी नहीं हूँ कि कोई खुशी मनाए तो मेरे पेट में दर्द शुरू हो जाए। जरूर खुशी मनाओ, पर जहाँ दस-बीस फुलझडियाँ ही काफी हों, वहाँ दिवाली मनाने का क्या तुक है? अनुपात का कुछ तो बोध होना चाहिए।'


तभी हमारे बगल में एक कार रुकी। उसके चालक की सीट से मेरे एक परिचित ने मुँह बार निकाला और पूछा, 'सर, अकेले-अकेले किससे बात कर रहे हैं?' परिचय कराने के लिए मैंने मार्क्स ओर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। मार्क्स हवा में विलीन हो चुके थे।




पुरु, गोडसे और कसाब - समान हैं ?





पुरु
, गोडसे और कसाब : सम्यकद्रष्टा हम


- कविता वाचक्नवी






अभी भारत पर हुए आतंकी हमले के बाद जीवित पकड़े गए आतंकी पर अभियोग व न्यायिक प्रक्रिया का प्राम्भ भारत में होने जा रहा है| चैनलों की हर चीज को उत्सव की तरह मनाने की परम्परा के चलते आज लगातार बहस गर्म रही कि कसाब को अपना पक्ष रखने या कहें कि न्यायिक सहायता पाने का अधिकार है या नहीं, पैरवी का अधिकार मिलना चाहिए या नहीं|

भारत में क्योंकि प्रत्येक नागरिक को न्यायिक मामलों में कानूनगो से कानूनी सहायता प्राप्त करने का मौलिक अधिकार है, इसलिए यह भी कहा जाना स्वाभाविक है कि क्या हमें अपने क़ानून को अपमानित करने का अधिकार है?

दूसरी और मुम्बई के वकीलों ने विधिक सहायता देने से पूरी तरह मना कर दिया, विधिक सहायता पैनल ने भी हाथ खड़े कर दिए और भी इसी प्रकार के विरोध के स्वर आए, आ रहे हैं|

अशोक सरावगी को लिखित बयान देकर स्पष्टीकरण देना पड़ा -

कुछ ग़लतफहमी हुई है. मैंने कहा था कि अगर किसी वकील की मौजूदगी के बिना अदालत की कार्रवाई पूरी नहीं होती हो, तो ज़रूरत पड़ने पर मैं स्वयं पेश होने के लिए तैयार हूँ ताकि मुक़दमे में रुकावट न आए और कसाब को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले
अशोक सरोगी, प्रसिद्ध वकील


दूसरी ओर


मुंबई बार एसोसिएशन के फ़ैसले के बावजूद पूर्व अतिरिक्त एडवोकेट जनरल पी जनार्दन ने घोषणा की है कि अगर पाकिस्तान उच्चायुक्त उनसे संपर्क करेगा, तो वे कसाब का मुक़दमा लड़ने को तैयार हैं.
बी.बी.सी.


हिन्दी ब्लॉगजगत में विधिविशेषज्ञ दिनेशराय द्विवेदी भी इसी पक्ष में लिखते हैं -


चलिए हम उसे मृत्यु दंड दे ही दें, यदि इस से आतंकवाद या उस के विरुद्ध लड़ाई का अंत हो जाए। आज कसाब भारत का अपराधी तो है ही। लेकिन उस से अधिक और भी बहुत कुछ है। वह इस बात का सबूत भी है कि आतंकवाद किस तरह पाकिस्तान की धरती, पाकिस्तान के साधनों और पाकिस्तान के लोगों का उपयोग कर रहा है। वह आतंकवाद की जड़ों तक पहुँचने का रास्ता भी है। वह आतंकवाद के विरुद्ध हमारे संघर्ष में एक मार्गप्रदर्शक भी है। वह हमारा हथियार बन चुका है। ऐसी अवस्था में हमारे इस सबूत, रास्ते, मार्गप्रदर्शक और हथियार को सहेज रखने की जिम्मेदारी भी हमारी है।
.....
मैं सोचता हूँ कि भारत इतना कमजोर नहीं कि वह इतना भी न कर सके, और अपना और अपने न्याय का ही सम्मान न बचा सके। कोई भी पैरोकार कसाब को उस के अपराध का दंड पाने से नहीं बचा सकता। फिर हम क्यों उसे पैरवी का अधिकार नहीं देना चाहते? केवल भावनाओं में बह कर या फिर एक अतिवादी राजनीति का शिकार हो कर?




भावना, तर्क व मर्यादा की बात पर पर जहाँ कुछ लोगों ने मर्यादा को महत्व देने की पैरवी की तो कुछ ने विधिक सहायता के लिए कानूनी तर्क भी दिए| पी. जनार्दन की घोषणा के बाद निरंतर विरोध प्रदर्शन आदि हो रहे हैं।बहस चल रही है व सभी अपने अपने मत दे रहे हैं। किंतु ऐसी घड़ी में कुछ सहज प्रश्न अपने आप से करने हमें अनिवार्य क्यों नहीं लगते?


जेठमलानी ने सीधी बातचीत में एक चैनल पर दो तीन तर्क दिए, कसाब को कानूनी सहायता दिए जाने के पक्ष में| एक बड़ा तर्क था कि जब गाँधी के हत्यारे (?) को कानूनी सहायता मिल सकती है, इन्दिरा के हत्यारे को कानूनी सहायता मिल सकती है या रजाकार मूवमेंट में कानूनी सहायता दी जा सकती है तो इसे क्यों नहीं |


इस पूरे प्रकरण में विधिक सहायता के पैरोकार जिन तर्कों का पक्ष ले रहे हैं, उन तर्कों की स्थिति ज़रा देखें -


१)
- "गाँधी पर गोली चलाने वाले को अभियोगी बनाने पर भी उसे कानूनी सहायता दी गयी"


गधे लोग! इतना भी नहीं जानते कि गाँधी पर गोडसे द्वारा गोली चलाने के उस कार्य को भारतीय अस्मिता को बचाने व राष्ट्रीय हित की रक्षा प्रक्रिया में उठाए गए गए कदम के रूप में बड़ा समर्थन वाली विचारधारा के लोग इसी देश के वासी हैं, और गोडसे भारतीय थे, भारत की सुरक्षा हित और राष्ट्रीयता से प्रेरित होकर उन्होंने ऐसा कदम उठाया थाउस कदम के अच्छे या बुरे होने पर बहस हो सकती है, होती रही है, होगीकिंतु कोई भी सहज बुद्धि वाला गोडसे को आतंकी तो क्या राष्ट्रद्रोही भी नहीं प्रमाणित कर सकता. वह दो भिन्न भारतीय विचारधाराओं के टकराव का फल अवश्य माना जा सकता है, या अतिरेकी प्रतिक्रिया, या ऐसा ही कुछ और परन्तु कदापि राष्ट्रद्रोह नहीं कहा जा सकता


- दूसरे, ऐसा कहकर क्या हम गोडसे कसाब को एक बराबर तराजू पर नहीं तोल रहे हैं? ऐसा करने वाली निर्लज्जता पर क्या लिखूँ ? केवल धिक्कारा ही जा सकता है|


२)
- " इंदिरा के हत्यारों को वकील दिया गया"


अरे भई, इन्दिरा जी की हत्या भी भारत के ही एक वर्ग और विचारधारा द्वारा उन्हें भारतीय जनता के विरुद्ध होकर घात करने का परिणाम के रूप में आँकी गई थी। स्वर्णमंदिर के अतिक्रमण वाले मुद्दे पर तत्कालीन विघटनकारी तत्वों द्वारा इसे सिखों के पूजास्थल पर किया गया आक्रमण निरूपित करना इसके कारणों में निहित था। यद्यपि वह आक्रमण भारत के हित में उठाया गया इंदिरा जी का एक बड़ा महत्वपूर्ण व आवश्यक कदम था, आज काश कोई ऐसा दबंग नेता अस्तित्व में होता। इंदिरा जी के उस कदम की चर्चा के साथ इसे जोड़ने पर मामला बारीकी खो देता है। यहाँ बात इंदिरा जी की ह्त्या की न होकर हत्यारों के उद्देश, नागरिकता, व्यक्ति पर आक्रमण वर्सेज़ राष्ट्र पर आक्रमण की होनी चाहिए।


- इंदिरा जी भले ही प्रधानमंत्री थीं, किंतु वे राष्ट्र नहीं।


- इंदिरा जी व उनके हत्यारे, दोनों पक्ष भारतीय नागरिक थे, अत: दोनों पर भारतीय संविधान के प्रावधान लागू होते थे, होने चाहिए थें व हुए भी।


- इंदिराजी की ह्त्या और राष्ट्रद्रोह की बारीकी व फिर इसमें भी दूसरे देश द्वारा भारत पर आक्रमण की बारीकी व पेचीदगी को बड़ी सफाई से नजरंदाज किया जा रहा है। इसे ध्यान रखने की जरूत है।


- युद्ध यदि भौगोलिक सीमा पर लड़ा गया होता, तो सेना आक्रमणकारी शत्रु से / का क्या करती ?


- यहाँ एक पेचीदगी और है, वह यह कि यह आक्रमण संवैधानिक दृष्टि से भारत पर पाकिस्तान का आक्रमण नहीं है , क्योंकि ये आतंकवादी पाकिस्तानी सेना द्वारा विधिवत् किए जाने वाले सैनिक युद्ध का हिस्सा नहीं थे, न हैं| पाकिस्तान स्वयं स्वीकारता- कहता आ रहा है। अत: इनके प्रति युद्धबंदियों वाला वैधानिक व किंचित् मानवीय रवैय्या अपनाने -दिखाने का औचित्य ही नहीं बनता। ध्यान रखना चाहिए कि ये किन्ही दो देशों के बीच युद्ध के लिए वैधानिक रूप से नियुक्त किए गए अपने अपने देश के लिए बलिदान भावना लेकर जूझने वाले सैनिक नहीं हैं।इस प्रकरण में केवल भारत की ओर से नियुक्त किए गए कमांडो, पोलिस या सैनिक ही इस श्रेणी में आते हैं।


- भारतीय सेना, पुलिस, कमांडो व इनके विरूद्ध टक्कर लेने वाले नागरिकों के आत्मबल को क्या हम क्षति नहीं पहुँचाएँगे?


- पाकिस्तानी मीडिया ने स्वयं गत दिनों भारत को ऐसा लचर देश बताया है कि जो अपनी संसद पर आक्रमण करने वाले को अब तक पाल रहा है। ऐसे में इस लचर व्यवस्था द्वारा एक और अफजल को पालने का यह षड्यंत्र नहीं दिखाई देता? शहीदों के परिवारों के प्रति कितने अनुत्तरदायी हैं हम, इसे समझने की आवश्यकता दिखाई नहीं देती?


- जो लोग पेट में गोली खाकर बचाने वाले की दुहाई दे रहे हैं, वे उस बचाने वाले शहीद के बलिदान को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। उसके बचाने का उद्देश्य इसे न्यायिक समानता या सहायता दिलाना नहीं था, अपितु जानकारियाँ जुटाना भर था। यहाँ कौन नहीं जानता कि जानकारियाँ जुटाने के लिए बचाव का वकील देने की अनिवार्यता नहीं होती है।


- जो लोग इसे न्यायिक सहायता का विरोध कर रहे हैं, वे ऐसा कदापि नहीं कह रहे कि बिना जाँच में सहयोग लिए इसे फांसी दे दी जाए। जितना व जैसा सहयोग सरकार, न्यायपालिका या संविधान को अपेक्षित है,वह बिना बचाव पक्ष के वकील रखे भी हो सकता है। उस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं।


- अब रही मर्यादा, भावना या मानवीयता की बात। ऐसी बातें बोलना भी किसी राष्ट्रप्रेमी को नहीं शोभता। जो ऐसा कह रहे हैं उनके परिवार पर एक बार हत्यारों की खुली छूट का प्रयोग करवा कर देखें, उनके घर में चोर, डाकू, लुटेरे,आक्रान्ता, बलात्कारी का तांडव उनके अपनों के साथ होने पर उनकी राय व उदारता जानी जाए। जिनके परिवार उजड़ गए हैं, उनकी पीडा तो जाने दीजिए, वे तो ऐसे लोगों के अपने थे ही नहीं, पर यह देश भी अवश्य आज तक उन लोगों ने अपने परिवार की तरह वास्तव में नहीं माना है। कहने - या बोलने की बात और है।


- क्या ऐसा करके हम भविष्य में सदा के लिए अपनी सेना और पुलिस का मनोबल नहीं तोड़ रहे हैं?


- क्या ऐसा दयालुतापूर्ण होने का नाटक करना छद्म रूप से आतंकवादियों को प्रश्रय देना नहीं है ?क्या उनके ग़लत, अनैतिक ,बर्बर , कामों को गति, बल व बढ़ावा देना नहीं है?


- जब इस देश में युवकों के लिए अनिवार्य सैनिक शिक्षा की आवश्यकता की बातें हो रही हैं, उसे रेखांकित किया जा रहा है, ऐसे में शहीदों की संतानें, संबन्धी या अन्य सामान्य परिवार के बच्चे अथवा युवक क्या सेना का अंग होना स्वेच्छा से स्वीकारेंगे?


- क्या यह न्यायिक सहायता भारतीय मनोबल को तोड़ने वाली नहीं है? वह भी ऐसे समय पर जब देश का आमआदमी पहली बार अपने किसी भी प्रकार के वर्ग चरित्र से उबर कर एक साथ इसके विरोध की प्रबल शक्ति के साथ उठ-जुड खड़ा हुआ है।


- क्या आप अपने नगर,मोहल्ले में इस अनथक विस्फोट, आतंक श्रृंखला का परिणाम व मृत्य झेलने को आगे भी इसी प्रकार अभिशप्त रहना चाहते हैं?


- अपनी माँ, बेटी, पत्नी, बहन से बलात्कार कर उनकी ह्त्या करने वाले के साथ आप कितनी मानवीयता बरते जाने के पक्ष में हैं? उन्हें कानूनी सहायता देने के लिए आप कितना व क्या-क्या करना चाहेंगे ?कृपया सच बोलें, क्योंकि उदारता दिखाने के चक्कर में बोला गया झूठ आपको अपनी पत्नी,परिवार,माँ, बहन , व बेटी सभी की नजरों में गिरा ही देगा ..और एक दिन स्वयं आपकी नजरों में भी।


- एक अन्तिम प्रश्न और। क्या आप कसाब को अपने इतिहास-पुरूष व पूर्वज राजा पुरु का दर्जा देना चाहते हैं? क्योंकि केवल आक्रमणकारी द्वारा बंदी बनाए जाने पर वे ही शत्रु राजा से अपेक्षा कर सकते थे कि - " वह व्यवहार, जो एक राजा को दूसरे राजा से करना चाहिए" गर्वोक्ति कर सकें?


यदि अभी भी आप सहायता के पक्ष में हैं तो आप को अपना अभिनंदन अवश्य करवा लेना चाहिए क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि अभिनंदन की किसी भावी घड़ी से पहले ही अभिनंदनीय व अभिनन्दनकर्ता दोनों पर किसी आतंकी हमले की काली छाया पड़ जाए और हम जैसे बधाई देने वाले भी संसार में न रहें ।



डिस्क्लेमर
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मेरी बातों से यदि किसी की भावना आहत हुई हो तो कृपया उदार मानवीय रवैया अपनाने वाली अपनी बात को वास्तव में मेरे व अपने प्रति भी अपनाने पर बल दीजिएगा और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखिएगा.
- कविता वाचक्नवी




जो आँख ही से न टपका तो वो लहू क्या है


रसांतर
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यह लेख कुछ दिन पूर्व लिखा गया थाअब भारत ने जबकि ऐसी पहल की है वह संयुक्त राष्ट्र संघ के पास पहुँचा और पाकिस्तानी आतंकवाद पर अंकुश लगवाने की दिशा में थोड़ी गतिविधि भी कीसंघ ने भी तुंरत पाकिस्तान में
बसे
मुम्बई से जुड़े कुछ व्यक्तियों को नजरबंद करवाने का कदम पाकिस्तान से
उठवा लिया हैलेख की अन्य बातों की प्रासंगिकता को देखते हुए इसे प्रथम बार प्रस्तुत किया जा रहा है

- कविता वाचक्नवी




संयुक्त राष्ट्र किसलिए है
- राजकिशोर




भारत सरकार पाकिस्तान पर दबाव डालने में लगी हुई है कि वह प्रमाणित आतंकवादियों को पकड़ने और आतंकवाद के प्रशिक्षण केंद्रों को नष्ट करने में सहयोग करे। मुंबई हमले के तुरंत बाद सरकार ने पाकिस्तान सरकार से अनुरोध किया था कि वह अपने यहां की आईएसआई के प्रमुख को इस भयावह घटना की संयुक्त जाँच के लिए भारत भेजे। शुरू में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। बाद में वे इससे मुकर गए और इस शक्तिशाली संगठन के किसी अन्य प्रतिनिधि को भारत भेजने की बात कही। ऐसा लगता है कि यह बात भारत सरकार को मंजूर नहीं थी। सो इंग्लैंड और अमेरिका से तो जाँच दल बुलाए गए, पर पाकिस्तान के किसी प्रतिनिधि को नहीं। यह रणनीति गलत थी। पाकिस्तान से सब-इंस्पेक्ट स्तर का भी अधिकारी आता आता, तो उसकी बड़ी राजनीतिक उपयोगिता थी।



पता नहीं यह रणनीति कितनी कारगर होगी कि अमेरिका तथा अन्य देशों से पाकिस्तान पर यह दबाव डलवाया जाए कि वह आतंकवाद पर अंकुश लगाने की दिशा में ठोस कार्रवाई करे। इस तरह के अनुरोधों का तो अभी तक कोई सुफल नहीं निकला है। अमेरिका के लिए पाकिस्तान की उपयोगिताएं दूसरी तरह की हैं। जब वह इन्हें ही ठीक से साध नहीं पा रहा है, तो वह भरतीय हितों की कितनी चिंता करेगा, यह विचारणीय है। खास तौर से तब, जब उसकी भारत चिंता उसकी स्व-चिंताओं के विरुद्ध जा सकती हों। यह बात मैं नहीं, देश के बुद्धिजीवी और समरनीति विशेषज्ञ कह रहे हैं। जहाँ तक भारत की अपनी ताकत का सवाल है, पाकिस्तान के मामले में शून्य है। नहीं तो मुंबई जैसी घटनाएँ होती ही नहीं।



इसलिए बिना किसी संकोच के यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि तीन-चार हफ्तों में यह सारा कोलाहल शांत हो जाएगा और देश हस्बमामूल अपने काम-काज में लग जाएगा। इसके लक्षण अभी से दिखाई पड़ने लगे हैं। इस संदर्भ में मिर्जा गालिब का वह प्रसिद्ध शेर बार-बार याद आता है जिसमें वे कहते हैं कि रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल, जो आँख ही से टपका तो वो लहू क्या है। जिन आँखों से लहू टपका है, वे मध्य वर्ग की, खास तौर से मुंबई के मध्य वर्ग की है। इस वर्ग का तीखा निष्कर्ष यह है कि हमारे राजनीतिक वर्ग ने हमारे साथ बहुत बड़ा विश्वासघात किया है और इस कारण ये संवेदनहीन और निकम्मे लोग देश चलाने के अधिकारी नहीं रहे। भारत को इनसे तुरंत छुटकारा पा लेना चाहिए -- भले ही देश को चलाने के लिए किसी सैनिक अधिकारी को निमंत्रित करना पड़े।



यह निराशा बहुत ही खतरनाक है। हमारा मानना है कि अभी भी एक रास्ता बचा हुआ है जिस पर चलने के बारे में भारत सरकार को गंभीरता से सोचना चाहिए और वह खुद सोचने से परहेज करे, तो देश के बुद्धिजीवियों और नागरिकों को उस पर दबाव डालना चाहिए। यह रास्ता दूरगामी है, पर हमें भूलना नहीं चाहिए कि आतंकवाद भी एक दूरगामी समस्या है और कल या परसों यह समस्या खत्म होने नहीं जा रही है।



चूंकि अपने अनुभव से हम देख चुके हैं कि आतंकवादी घटनाओं के प्रतिरोध के लिए एकपक्षीय कार्रवाई कारगर नहीं है तथा बहुरक्षीय दबाव की नीति और भी कम कारगर है, इसलिए एक वि· संस्था की आवश्यकता है जो इस दिशा में ठोस, सतत और कारगर कार्रवाई कर सके। हम अमेरिका नहीं हैं कि अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए सुदूर देशों पर भी हमला कर दें और और दुनिया भर में अपने बाहु बल का आतंक पैदा कर दें। हमें इस तरह का राष्ट्र नहीं बनना है बनना चाहिए। अमेरिका की सुरक्षा नीति दूसरे देश भी अपनाने लगें तो यह मध्य युग की वापसी होगी और चारों तरफ अराजकता फैल जाएगी। अराजकता और आतंकवाद में कोई खास फर्क नहीं है। आतंकवाद अराजक सोच का ही एक परिणाम है।



सौभाग्य से हमारे पास ऐसी एक संस्था पहले से ही मौजूद है। उसका नाम है संयुक्त राष्ट्र। मानव जाति के दुर्भाग्य से जैसे-जैसे ऐसे मुद्दे बढ़ रहे हैं जिन पर साझा वि· स्तर की कार्रवाई की जरूरत है, क्योंकि कोई एक देश कारगर कार्रवाई नहीं कर सकता, वैसे ही वैसे संयुक्त राष्ट्र की अवमानना भी बढ़ रही है। आखिर यह कैसे संभव हो सका कि राष्ट्र संघ का समर्थन पाए बिना अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक पर हमला कर दिया? इससे तो यही जाहिर हुआ कि वि· सुरक्षा के लिए राष्ट्र संघ की कोई उपयोगिता नहीं रह गई है। इस तर्क से तो अमेरिका कल भारत या पाकिस्तान पर हमला कर सकता है। उसी समय भारत तथा अन्य कमजोर देशों को राष्ट्र संघ में नई जान फूंकने की ठोस प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए थी। फ्रांस और जर्मनी सरीखे देशों को भी, जो अमेरिका के बढ़ते हुए वर्चस्व से नाखुश और चिंतित हैं, एक निष्पक्ष और कारगर वि· संस्था की आवश्यकता है।



पिछले कई वर्षों से राष्ट्र संघ के ढांचे में फेर-बदल करने की चर्चा हो रही है। इस सिलसिले में कई तरह के प्रस्ताव भी आए हैं। लेकिन कोई निर्णय नहीं लिया जा सका है। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। जब राष्ट्र संघ के एक प्रमुख अवयव सुरक्षा परिषद के नए सदस्यों के चुनाव की घड़ी आती है, तब भारत के उच्च तबकों में खलबली मच जाती है। राष्ट्र संघ के महासचिव के चुनाव के समय तो यह हलचल बहुत बढ़ जाती है। भारत का मीडिया अचानक देशप्रेमी हो जाता है। यह सब बिना यह सोच-विचारे होता है कि वर्तमान संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र की उपयोगिता कितनी रह गई है।



निवेदन यह है कि आज की दुनिया राष्ट्र संघ जैसी वि· संस्था को कारगर किए बिना चलाई ही नहीं जा सकती। जब वि· व्यापार संगठन को हम इतने सारे अधिकार सौंप सकते हैं, तो राष्ट्र संघ को इतना कमजोर बनाए रखने के पीछे तर्क क्या है? हम तो कहेंगे कि वि· व्यापार संगठन को भी राष्ट्र संघ के कानूनी दायरे में काम करना चाहिए। जैसे वि· व्यापार संगठन अंतरराष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में अराजकता को समाप्त करने के लिए कदम उठा रहा है, वैसे ही राष्ट्र संघ को भी राजनीतिक क्षेत्र में अराजकता को समाप्त करने के लिए ठोस कदम उठाना चाहिए। आतंकवाद चूंकि एक बहुत ही खतरनाक अराजकता है और इसका एक अंतरराष्ट्रीय संदर्भ भी है, इसलिए आतंकवाद पर विचार करने और उसे रोकने में राष्ट्र संघ ही मजबूत कदम उठा सकता है। हम बेकार इधर-उधर सिर पटक रहे हैं और कीमती वक्त जाया कर रहे हैं। पाकिस्तान को राह पर लाने के लिए हमें राष्ट्र संघ के मंच का भरपूर उपयोग करना चाहिए।


(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं)



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