अब तो भारत धनुष उठाओ



अब तो भारत धनुष उठाओ
राजकिशोर



अगर भारत को स्यापा करनेवालों का देश नहीं बने रहना है और उसमें थोड़ा भी पौरुष बचा हुआ है, तो 26 नवंबर के बाद उसे एक नए और शक्तिशाली संकल्प के साथ उठ खड़ा होना होगा। शांतिप्रिय होने के नाम पर हम अपना लुंजपुंजपन बहुत दिखा चुके। सहनशील होने के कारण हम जरूरत से ज्यादा बर्दाश्त कर चुके। व्यवस्था के नाम पर योजनापूर्वक चलाई जाती रही अव्यवस्था का जितना शिकार हो सकते थे, हो चुके। 26 नवंबर 2008 का महत्व भारत पर चीन के हमले की तरह है। उसके बाद देश अपनी प्रतिरक्षा के प्रति सजग हो गया था। हालांकि हम अभी तक अन्य देशों के हाथ में चली गई भारतीय जमीन वापस लेने की दिशा में एक कदम भी नहीं उठा पाए हैं, पर आश्वस्त हैं कि हमारी वर्तमान सीमाएँ सुरक्षित हैं। लेकिन असली देश सीमाओं पर नहीं, सीमाओं के भीतर होता है। यहाँ हम उतने ही लाचार और अप्रस्तुत हैं जितने नादिरशाह या अब्दाली के जमाने में थे। दस-बारह आदमियों का हथियारबंद गिरोह हमारे एक बड़े और संपन्न शहर में घुस आए और कत्लेआम करने लगे, इसे सिर्फ 'कायराना और बर्बरतापूर्ण हमला' कह कर टाल देना भारत को एक नपुंसक देश बना कर रखने का आत्म-क्रूर मंत्र है। अब हम बयान नहीं सुनना चाहते, कर्मठता देखना चाहते हैं।


बेशक हमें 9/11 के बाद के संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की तरह तानाशाह और गुंडा देश नहीं बनना है। हम व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर अव्यवस्था फैलाना नहीं चाहते। जो यह कहता है कि अब हमें पाकिस्तान पर हमला कर देना चाहिए, वह युद्ध-पिपासु है। दोनों देशों के पास नाभिकीय हथियार होने से यह उतना आसान भी नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। यह विशुद्ध कायरता होगी। हमें पाकिस्तान के शासकों से बहुत साफ लफ्जों में कहना होगा कि वे अपने यहाँ से आतंकवाद के संपूर्ण तंत्र को तुरंत नष्ट करें, नहीं तो संभव हुआ तो यह काम कई देशों के साथ मिल कर और ऐसा न हो सका, तो भारत अकेले करेगा। यह सिर्फ भारत का कर्तव्य नहीं है कि वह आतंकवादियों को अपनी सीमा के भीतर आने न दे। यह पाकिस्तान का भी फर्ज है कि वह आतंकवादियों को अपनी सीमा पार न करने दे। कई वर्षों से जो रहा है, वह रुक-रुक कर किया जा रहा युद्ध नहीं तो और क्या है? यह युद्ध पाकिस्तान के हुक्मरान स्वयं और सीधे न कर रहे हों, तब भी इसके लिए पाकिस्तान की जमीन का इस्तेमाल तो हो ही रहा है। इस इस्तेमाल को रोकने की गारंटी पाकिस्तान नहीं दे सकता, तो भारत और बाकी दुनिया को इसे अंजाम देना होगा। पाकिस्तान में अब लोकतंत्र वापस आ गया है। उसे यह समझाना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि यह उसके अपने भी हित में है।


हमें सभी दिशाओं में सक्रिय होना चाहिए। एक, सबसे पहले मामले को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में ले जाना होगा। वहाँ भारतीय उपमहादेश में बढ़ते हुए आतंकवाद को महत्वपूर्ण मुद्दा बनाना होगा। सुरक्षा परिषद को कायल करना होगा कि वह आतंकवाद के खिलाफ एक सुविचारित नीति और कार्यक्रम बनाए। दो, हमें आतंकवाद की समस्या पर तुरंत दो अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करना चाहिए। एक सम्मेलन सरकारों के स्तर पर हो तथा दूसरा सम्मेलन बुद्धिजीवियों और चिंतकों के स्तर पर। इससे आतंकवाद के खिलाफ व्यापक माहौल बनाने में मदद मिलेगी। तीन, हमें जल्द से जल्द एक बहुराष्ट्रीय सैनिक सहयोग दल बनाना चाहिए जो आतंकवाद के निर्यात को रोकने के लिए सक्षम कार्रवाई कर सके। इस सहयोग दल में जितने अधिक देशों का प्रतिनिधित्व हो सके, उतना ही अच्छा है। ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस, श्रीलंका, चीन -- जिसका भी सहयोग मिल सके, लेने से हिचकना नहीं चाहिए। कुल मिला कर, इरादा यह साबित कर देने का होना चाहिए कि भारत अब 'शून्य आतंकवाद' की स्थिति पैदा करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ और पूरी तरह तैयार है।


चार, असली तैयारी यह होगी कि हम भारत के चप्पे-चप्पे को 'प्रतिबंधित' और 'सुरक्षित' क्षेत्र बना दें। रेड अलर्ट और हाई अलर्ट सुनते-सुनते हमारे कान पक गए हैं। यह नागरिक सुरक्षा की नौकरशाही की स्थायी शायरी है। बीच-बीच में अलर्ट हो जाना क्रमिक आत्महत्या की तैयारी है। अब तक की घटनाओं की सीख यही है कि हमें प्रतिक्षण अलर्ट रहना होगा -- इसके लिए कोई भी कीमत कम है। भारत के एक भी नागरिक की जान जाती है, तो यह पूरे मुल्क के लिए शर्म और धिक्कार की बात है। यह हमारा सौभाग्य है कि भारत अभी भी गांवों का देश है, जहाँ आतंकवाद की घटना हो ही नहीं सकती। बच गए तटीय इलाके, शहर और कस्बे, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन और बस अड्डे, तो उनकी संख्या बड़ी जरूर है, पर इतनी बड़ी भी नहीं है कि उन्हें पल-प्रतिपल निगरानी में रखना असंभव हो। भारत के पास बहुत बड़ी सेना है। उसका एक हिस्सा इस काम में लगा देना चाहिए। साथ ही, राष्ट्रीय सुरक्षा दल के नाम से लाखों नौजवानों की एक विशाल फौज संगठित की जाना चाहिए, जिसके सदस्य सभी प्रमुख स्थलों की निगरानी करेंगे। इसके लिए इमरजेंसी घोषित करनी पड़े, तो संकोच नहीं करना चाहिए। देश के पास पैसे की कमी नहीं है। और जरूरत हो तो नागरिक आर्थिक सहयोग देने के लिए बड़े उत्साह से आगे आएँगे। जान है तो जहान है। कम से कम दस वर्षों तक बहुत बड़े पैमाने पर इस तरह की स्व-निगरानी का कार्यक्रम चलाया जाए, तो न केवल हम एक सुरक्षित राष्ट्र बन सकेंगे, बल्कि हमारे नागरिक जीवन में भी चुस्ती आ सकेगी। विदेशी आतंकवाद के साथ-साथ देशी आतंकवाद को भी कुचला जा सकेगा।


यह सब पढ़ कर ऐसा लग सकता है कि यह भारत को एक सैनिक देश बनाने का प्रस्ताव है। ऐसा कतई नहीं है। यह इस समय की एक अति सामान्य जरूरत है। जब हमारे घर में चोर या डाकू घुस आते हैं, तब क्या घर का हर सदस्य, यहाँ तक कि छोटे बच्चे भी, सैनिक नहीं बन जाते? जब किसी गाँव पर हमला होता है -- पशुओं का या आदमियों का, तो क्या गाँव के सभी लोग -- यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी -- बल्लम, लाठी, डंडा, छड़ी जो भी तुरंत मिल जाए, उसे ले कर गाँव की रक्षा करने के लिए घर से निकल नहीं पड़ते? आज देश ऐसा ही संकटग्रस्त घर या गाँव है। यह हमारे लिए हिफाजत और इज्जत, दोनों का मामला है। सिर्फ सीमा पर गश्त लगा कर हम क्या करेंगे, अगर सीमाओं के भीतर हमारे भाई, बहन, बुजुर्ग, बच्चे, विदेशी अतिथि इसी तरह एक-एक कर आतंकवादी हमलों का शिकार होते रहें? आज हममें से हर कोई बारी-बारी से असुरक्षित है। विकल्प दो ही हैं -- या तो कोई भी आदमी घर से न निकले या सभी लोग घरों से निकलें और एक राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र तैयार करें। जब तक हम राष्ट्रीय स्तर पर शोर नहीं मचाएँगे, भेड़िए नहीं भागेंगे। वे ताक में रहेंगे और जहां-तहां हमला करते रहेंगे। हम कब तक नौकरशाहों द्वारा तैयार बयान जारी करते रहेंगे? हमारे मंत्री और नेता कब तक मृतकों और घायलों को देखने अस्पताल जाते रहेंगे?


लेकिन (और यह बहुत ही महत्वपूर्ण लेकिन है) आतंकवाद से संघर्ष सिर्फ सैनिक मामला नहीं है। यह एक नागरिक मामला भी है। इसका संबंध सिर्फ सुरक्षा तंत्र से नहीं है, सरकार और समाज की नीतियों से भी है। हमें तुरंत ऐसे कदम उठाने होंगे जिनसे अल्पसंख्यकों के लगे कि यह देश उतना ही उनका भी है जितना बहुसंख्यकों का है। सोलह साल हो गए, पर बाबरी मस्जिद ध्वंस का न्याय अभी तक नहीं हो सका है। यह मजाक नहीं तो क्या है? इस कांड का न्यायिक निर्णय तुरंत सामने आना चाहिए -- इसके लिए अदालतों को भले ही लगातार रात-दिन काम करना पड़े। जिस व्यक्ति या संगठन ने एक भी सांप्रदायिक बयान दिया हो या सांप्रदायिक काम किया हो, उस व्यक्ति और उस संगठन के सभी प्रतिनिधियों को तुरंत गिरफ्तार कर उनके खिलाफ मुकदमा शुरू कर देना चाहिए। इस तरह के वे तमाम काम तुरंत करने चाहिए जिनसे देश में सांप्रदायिकता का विष कम होता हो और सामुदायिक सौहार्द तथा शांति स्थापित होती हो। पर जो भी हो, शालीनता से हो और नागरिक अधिकारों का सम्मान करते हुए हो, ताकि हम कुछ अधिक सभ्य बन सकें, न कि और ज्यादा असभ्य हो जाएँ।


यही समय आर्थिक क्षेत्र में वास्तविक सुधार करने का भी हो सकता है। देश इस समय अभूतपूर्व मंदी से गुजर रहा है। छंटनी का सिलसिला शुरू हो गया है। नई नौकरियां नहीं पैदा हो रही हैं। प्रगति मैदान में इस बार के व्यापार मेले में बड़ी-बड़ी कंपनियों की अनुपस्थिति बता रही है कि वे अपने खर्च कम करने में लगी हुई हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र तैयार करने से धन का बड़े पैमाने पर पुनर्वितरण होगा, तो बाजार में नई माँग पैदा होगी। तरह-तरह की ऐयाशियों को रोक कर उस पैसे का निवेश उत्पादन बढ़ाने में कैसे किया जाए, इस पर विचार किया जाना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त और अनिवार्य बनाने का कार्यक्रम स्वीकार किया जा चुका है। इसे ठीक ढंग से कार्यान्वित करने और बच्चों को उत्तम शिक्षा देने के लिए लाखों शिक्षकों की जरूरत होगी। इस तरह के तमाम कार्यक्रमों पर विचार करना चाहिए जिससे देश का पुनर्निर्माण हो सकें। संसद की बैठक बुला कर एक राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाना आवश्यक है।


हाँ, यह ऐसा मौका है जिसका लाभ उठा कर देश भर में रचनात्मक सनसनी पैदा की जा सकती है। करगिल संघर्ष का समय भी एक ऐसा ही मौका था। उन दिनों देश भर में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की लहर दौड़ गई थी। चीनी हमले के बाद राष्ट्रव्यापी स्तर पर देशप्रेम का जो तूफानी जज्बा पैदा हुआ था, उसी का एक संक्षिप्त संस्करण था यह। लेकिन वाजपेयी सरकार ने उस मौके का कोई बड़ा उपयोग नहीं किया। उसका लक्ष्य महज चुनाव जीतना था। चुनाव जीतने के बाद वह और निष्क्रिय हो गई। इस बार ऐसा नहीं होना चाहिए।


सवाल यह है कि क्या इस ऐतिहासिक मौके का यह रचनात्मक इस्तेमाल हो सकेगा। क्या ऐसा प्रतिभाशाली, बुद्धिमान और साहसी नेतृत्व हमारे पास है? जाहिर है कि नहीं है। कह तो सभी यह रहे हैं कि यह मुंबई पर नहीं, भारत पर हमला है। लेकिन हमले के वक्त देश की हर शिरा में जो सनसनी महसूस की जानी चाहिए, वह वास्तविक जीवन में दिखाई नहीं पड़ती। हम रगों में दौड़ते रहने के कायल नहीं हैं। लहू है तो उसे आँख से टपकना चाहिए। लोग दुखी और चिंतित जरूर हैं, पर सकपकाए हुए भी हैं। वे जानते हैं कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व में कोई जान नहीं है। जान होती, तो हम बहुत पहले ही चेत गए होते। ऐसी स्थिति में देश भर के, सभी भाषाओं और समाजों के बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों और शिक्षकों का यह राष्ट्रीय कर्तव्य हो जाता है कि वे जितना शोर मचा सकते हैं, शोर मचाएँ और भारत के शासन तंत्र की शिराओं में जमे हुए सर्द खून में रवानगी ले आएँ। नहीं तो हर चौथे-पाँचवें दिन या दूसरे-तीसरे महीने हम अपना-सा मुँह बना कर एक-दूसरे से चुपचाप पूछते रहेंगे, क्या भारत एकदम मुरदा देश है?


भारत पर हमला : डॉ. वेदप्रताप वैदिक


वीरता और आतंक की मुठभेड़ : स्लाईड शो



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दैनिक भास्कर, 29 नवंबर २००८



यह तो सीधे-सीधे भारत पर हमला है
डॉ. वेदप्रताप वैदिक


यह हमला मुंबई पर नहीं, भारत पर है। भारत पर हजार साल से हो रहे हमलों की काली किताब का यह एक नया अध्याय है। न्यूयार्क के ट्रेड टावर पर आसमान से हमला हुआ था, मुंबई पर समुद्र से हुआ है। आसमानी हमले के मुकाबले यह सामुद्रिक हमला अधिक योजनाबद्ध और अधिक दुस्साहसिक है। जाहिर है कि यह जाल हैदराबाद या दिल्ली या मुंबई का बुना हुआ नहीं है। इसके तार कोलंबो, कराची और काबुल से जुड़े होने की पूरी संभावनाएँ हैं। एक साथ दर्जन भर ठिकानों पर तब तक हल्ला नहीं बोला जा सकता, जब तक कि हमलावरों के सिर पर तजुर्बेकार षड़यंत्रकारियों का हाथ न हो, महीनों लंबी तैयारी न हो, बार-बार का पूर्वाभ्यास न हो, लाखों-करोड़ों के खर्च का इंतजाम न हो। इतना ही नहीं, भारत राज्य के एक अरब नागरिकों में से किसी को उसका सुराग भी न हो। यह असंभव नहीं कि यह साजिश भारत के बाहर किसी विदेशी कोख में पलती रही हो। यदि यह साजिश भारत में रची गई होती तो इसमें न तो इतने ज्यादा खलनायक होते और न ही एक साथ इतने ठिकाने चुने जाते।



अमेरिका और ब्रिटिश विश्लेषकों की राय है कि आतंकवादियों ने ताज और ओबेरॉय जैसे ठिकाने इसीलिए चुने कि उन्हें ट्रेड टावर के अधूरे अध्याय को पूरा करना था। इन पाँच सितारा होटलों में रहनेवाले अमेरिकी और ब्रिटिश नागरिकों को उन्होंने अपना निशाना बनाकर यह बता दिया कि वे शेर को उसकी माँद में घुसकर नहीं मार सकते तो उसे अब वे उसकी सैरगाह में मारेंगे। मुंबई के यहूदी परिवार पर हुए हमले ने पश्चिमी समाज की उक्त धारणा को अधिक बद्धमूल किया है। अमेरिका जैसे देशों ने अपने यहाँ आतंकवाद की जड़े उखाड़ दी हैं लेकिन ये जड़े भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे पिलपिले देशों में लहलहा रही हैं। भारत पर हुए हमले को अमेरिका यदि खुद पर हुआ हमला मान रहा है तो यह उसका अपना सोच है।



भारत का सोच कुछ अलग है। इस तरह के हमलों को काश, वह भारत पर हुआ हमला मानता ! कंधार-कांड हो, संसद हो, अक्षरधाम हो, दिल्ली हो, मालेगाँव हो - वह इन हमलों को सिर्फ उन पर हुआ मानता है, जो मरे हों या घायल हुए हों। हताहतों को मुआवज़ा, शोक-संवेदनाओं के बयान, चैनलों पर थोड़ी-बहुत सनसनी, अखबारों में संपादकीय और फिर चक्का सड़क पर जस का तस चलने लगता है। भारत की जनता कितनी धैर्यशाली है, कितनी सहनशील है, कितनी दूरंदेश है, कितनी बहादुर है, आदि वाक्यावलियों का अंबार लग जाता है। नेता एक-दूसरे को कोसते हैं। आतंकवादियों को लेकर राजनीति करते हैं। उस पर मज़हब का रंग चढ़ाते हैं लेकिन दावा करते हैं कि आतंकवादियों का कोई मज़हब नहीं होता। हमारा गुंडा गुंडा नहीं, साधु है और तुम्हारा साधु साधु नहीं, गुंडा है - यह सिद्धांत नेताओं से फिसलता हुआ आम जनता की जुबान पर चढ़ जाता है। यही भारत का अ-भारत होना है। राष्ट्र का विफल होना है। भारत-भाव का भंग होना है। किसी मुद्दे पर फैसला करते समय जब लोग उसके शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित और नैतिक-अनैतिक होने का ध्यान न करें और उसे मज़हब, जात या वोट के चश्मे से देखें तो मान लीजिए कि भारत भारत न रहा, धृतराष्ट्र हो गया। उसकी जवानी और आँखें, दोनों चली गई। क्या बूढ़ा और अंधा भारत जवान और गुमराह आतंकवादियों का मुकाबला कर पाएगा ?


आतंक का जवाब आतंक ही हैं। गुमराहों के आतंक के मुकाबले राज्य का आतंक ! काँटे को काँटे से ही निकाला जा सकता है। जैसे आतंकवादी किसी कानून-कायदे और नफे-नुकसान की परवाह नहीं करते, ठीक वैसे ही राज्य को उनके प्रति घोर निर्मम और नृशंस होना होगा। यदि उनकी जड़ बाहर है तो भारत को अपनी खोल से बाहर निकलना होगा। उन जड़ों को मट्ठा पिलाना होगा। वह महाशक्ति भी क्या महाशक्ति है, जो अपनी बगल में भिनभिना रहे मच्छरों को भी मार सके ? भारत रौद्र रूप तो धारण करे। आतंक के अड्डे अपने आप बिखर जाएँगे। आतंकवादियों को जिस दिन समझ में गया कि उनके माता-पिता, भाई-बहनों, रिश्तेदारों, दोस्तों और सहकर्मियों को भी उनके कुकर्म की चक्की में पिसना होगा, कोई भी कदम उठाने के पहले उनकी हड्डियों में कँपकँपी दौड़ जाएगी। सारा समाज भी चैकन्ना हो जाएगा। हमारी लंगड़ी गुप्तचर सेवा अपने आप मजबूत हो जाएगी। साधारण लोग सूचना के असाधारण स्त्रोत बन जाएँगे। उन्हें पहले से पता होगा कि सूचना नहीं देना या चैकन्ना नहीं रहना भी अपराध ही माना जाएगा। यदि हमें राज्य को विफल होने से बचाना है तो समाज को सबल बनाना होगा। आतंकवादियों के ब्लेकमेल के आगे भारत ने कई बार घुटने टेके हैं, क्योंकि हमारा समाज बहादुरी की कीमत चुकाना नहीं जानता। हमारा समाज जिस दिन बहादुरी की कीमत चुकाना सीख लेगा, उसी दिन हमारे मुर्दार नेता भी महाबलियों की तरह पेश आने लगेंगे।


(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक हैं)




भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण : वाणी प्रकाशन,

पुस्तक चर्चा : डॉ. ऋषभदेव शर्मा

भाषा, साहित्य और संस्कृति अध्ययन की गीता


हिंदी के प्रमुख समकालीन भाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह (1951) हिंदी भाषाविज्ञान को अपने अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान विषयक लेखन और चिंतन द्वारा निरंतर समृद्ध कर रहे हैं। समाज भाषाविज्ञान और शैलीविज्ञान में विशेष रुचि रखने वाले डॉ. दिलीप सिंह की एक दुर्लभ योग्यता यह है कि वे ऐसे सव्यसाची अध्येता और अध्यापक हैं जो भाषाविज्ञान और साहित्य दोनों का एक साथ लक्ष्यवेध करने में समर्थ हैं .यही कारण है कि उनका लेखन न तो निरा भाषिक अध्ययन है और न मात्र भावयात्रा। इसका परिणाम यह हुआ है कि उनकी पुस्तकें भाषा केंद्रित होने के साथ-साथ अपनी परिधि में साहित्य को भली प्रकार समेटती हैं। यह विशेषता उनकी पुस्तक ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ (2007) के अवलोकन से भी प्रमाणित होती है।


‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ के लक्ष्य पाठक के रूप में लेखक के समक्ष अन्य भाषा और विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण करने वाले अध्यापक रहे हैं। ऐसे अध्यापकों के निमित्त एक संपूर्ण पुस्तक का अभाव लंबे समय से खटकता रहा है क्योंकि अन्य भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण पर हिंदी में पुस्तकों का कतई टोटा है। ‘‘इस तरह की जो किताबें हिंदी में प्रकाशित हैं उनमें से अधिकतर व्याकरण-शिक्षण की परिधि का तक सीमित हैं। इसका एक कारण तो यह है कि इन पुस्तकों के लेखक या तो शुद्ध भाषावैज्ञानिक हैं या हिंदी के वैयाकरण, अतः वे सिद्धांत चर्चा से बाहर नहीं निकल पाते और संरचना केंद्रित भाषा शिक्षण को ही भाषा अधिगम का प्रथम और अंतिम सोपान मानते हैं। दूसरा कारण यह है कि भाषावैज्ञानिक पृष्ठभूमि के इन लेखकों की साहित्य-भाषा में तनिक भी रुचि नहीं है जबकि अन्य भाषा के शिक्षण का बहुत बड़ा हिस्सा पाठ केंद्रित होता है। भारत के भाषाविद् और साहित्यवेत्ता दो खेमों में बँटे हुए हैं। भाषाविज्ञान साहित्य से और साहित्यकार-आलोचक भाषाविज्ञान से अपने को कोसों दूर रखते हैं। अन्य देशों में ऐसा नहीं है, क्योंकि वे जानते हैं कि साहित्यिक कृति में भाषा अध्ययन की तथा भाषा में सर्जनात्मकता की अनंत संभावनाएँ निहित हैं। कारण कुछ भी हों, अन्य भाषा शिक्षक को संबोधित सामग्री का हिंदी में नितांत अभाव है, इसमें दो राय नहीं। हिंदीतर क्षेत्रों तथा विश्व के अन्य देशों में हिंदी पढ़ानेवालों को यह पुस्तक ध्यान में रखकर तैयार की गई है।’’

पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर दिए गए इस प्रचारक वक्तव्य में मैं यह भी जोड़ना चाहूँगा कि अगर इसे केवल अन्य भाषा शिक्षण की पुस्तक माना जाए तो यह लेखक और पुस्तक दोनों के प्रति अन्याय होगा। मेरी राय में तो प्रथम भाषा के रूप में हिंदी पढ़ने-पढ़ाने वालों के लिए भी यह पुस्तक समान रूप से उपयोगी और आवश्यक है। इतना ही नहीं , साहित्य समीक्षा के लिए भी इस पुस्तक से नई दृष्टि प्राप्त की जा सकती है। इस नई दृष्टि का संबंध है साहित्य अध्ययन के लिए भाषा, साहित्य और संस्कृति के त्रिक को साधने से।


प्रो. दिलीप सिंह की यह मान्यता इस पुस्तक में व्यावहारिक रूप में प्रतिफलित हुई है कि भाषा शिक्षण द्वारा व्यक्ति के भाषा व्यवहार ही नहीं उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को धार दी जा सकती है। व्यक्तित्व विकास की इस प्रक्रिया में साहित्य शिक्षण की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि उससे व्यक्ति के संज्ञानात्मक और सोचने को कौशल को निखारा जा सकता है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह मान्यता है कि किसी भी कथन/अभिव्यक्ति/पाठ में साहित्य और भाषा के बहाने सामाजिक-सांस्कृतिक घटक पिरोए गए होते हैं जिनके उद्घाटन के बिना उसका पढ़ना-पढ़ाना अधूरा रह जाता है। अतः भाषा अध्ययन के रास्ते किसी समाज की संस्कृति तक पहुँचना कैसे संभव होता है यह सीखना-सिखाना बेहद महत्वपूर्ण है। इसमें संदेह नहीं यह पुस्तक इन लक्ष्यों की प्राप्ति को संभव बनाने में समर्थ है।


- मेरे विचार से प्रो. दिलीप सिंह की दूसरी किताबों की तरह ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ की भी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि लेखक ने भाषाविज्ञान के सिद्धांतों को अनुप्रयोगात्मक और व्यावहारिक बनाकर प्रस्तुत किया है।


- दूसरी ध्यान खींचने वाली बात यह है कि इसमें भाषा शिक्षण के सिद्धांतों को हिंदी के पाठों के जरिए सामने लाया गया है।


- तीसरी बात यह कि लेखक के समक्ष अपना लक्ष्य पाठक सदा उपस्थित रहा है और इसीलिए पुस्तक में अनेक स्थलों पर शिक्षण बिंदु निर्धारित किए गए हैं। ऐसा इसलिए भी हो सका है कि मूल रूप में यह पुस्तक इसी विषय पर शिक्षकों और प्रशिक्षणार्थियों के समक्ष तीन दिन में दिए गए नौ व्याख्यानों का लिखित रूप है। इसलिए इसमें जीवंत संवाद लगातार चलता दिखाई देता है - कक्षा की तरह।


- चौथी बात यह कि द्वितीय भाषा हिंदी के शिक्षक को इस पुस्तक के रूप में इस तरह की व्यावहारिक हिंदी शिक्षण की कृति से पहली बार परिचित होने का अवसर मिल रहा है।


- पाँचवीं विशेषता इस पुस्तक की यह है कि इसमें हिंदी शिक्षण के इतिहास का क्रमिक परिचय भी दिया गया है और उसे व्यापक संदर्भ में विवेचित किया गया है। पुस्तक को समझने के लिए यह विवेचन सुदृढ़ पीठिका का काम करता है।


- छठी विशेषता जो इस पुस्तक को बार-बार पढ़ने और सहेजकर रखने की चीज़ बनाती है वह यह है कि भाषा और साहित्य के माध्यम से संस्कृति शिक्षण पर इस किताब में पहली बार व्यावहारिक चर्चा की गई है जो अध्यापक और समीक्षक से लेकर सामान्य पाठक तक के लिए मार्गदर्शक हो सकती है।


- सातवीं विशेषता यह है कि प्रो. दिलीप सिंह की यह पुस्तक उनके अपने व्यक्तित्व के अनुरूप यह प्रतिपादित करती है कि भाषा और साहित्य दोनों एक दूसरे के माध्यम से पुष्ट होते हैं, एक दूसरे को पुष्ट करते हैं और संस्कृति के वाहक होते हैं।


- विशेषताएँ चाहे जितनी गिनाई जा सकती है लेकिन इस पुस्तक की आठवीं विशेषता के रूप में मैं यह कहना चाहूँगा कि यह कृति अपने पाठक को विविध उदाहरणों के माध्यम से यह समझाने में सर्वथा समर्थ है कि विविध प्रकार के आचरण, शिष्टाचार, विनम्रता आदि को कोई संस्कृति किस प्रकार अपनाती है तथा उनकी अभिव्यक्ति भाषा और साहित्य में किस प्रकार अंतःसलिला बनकर विद्यमान रहती है।


कुल मिलाकर भाषा, साहित्य और संस्कृति के त्रिक की साधना के लिए प्रो. दिलीप सिंह की यह कृति गीता की भाँति अध्ययन, मनन और चिंतन के योग्य है।

भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण /
प्रो. दिलीप सिंह /
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली /
2007 /
295 रुपये /
224 पृष्ठ (सजिल्द) |

- प्रो.ऋषभदेव शर्मा


ओबामा की विजय का भारतीय पक्ष : काउंसिल फ़ॊर इंडियन फ़ॊरेन पॉलिसी


ओबामा की विजय का भारतीय पक्ष
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सों डॊ.वेद प्रताप वैदिक जी का यह निमन्त्रण मिला, जिसमें इस संगोष्ठी की सूचना थी कि भारत के विविध सन्दर्भों में ओबामा की विजय का क्या अर्थ है। देश की आर्थिक स्वायत्ता, विदेश नीति आदि पर विमर्श के निमित्त इसका आयोजन किया गया और अमेरिका के महाशक्ति स्वरूप के वर्तमान के साथ जोड़ कर इसे राष्ट्रीय नीतियों व अर्थवयवस्था आदि के परिप्रेक्ष्य में आँकने का यत्न किया गया। राजनयिक, सूचना क्रान्ति से जुड़े लोग व अन्य प्रबुद्ध जनों की उपस्थिति में हुए विचार विमर्श ने विश्लेषण की दिशाओं को अवश्य स्पष्ट किया होगा। आयोजन के लिए वैदिक जी को बधाई!


हिन्दी के पाठकों के लिए व हिन्दी एवं राष्ट्रीय जनजीवन के कुछ मूलभूत प्रश्नों पर विचार करने की दृष्टि से डॊ. श्रीमती अजित गुप्ता ने कुछ बहुत ही मौलिक आकलन किए हैं; जो "मधुमती"(राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका) के दिसम्बर अंक के सम्पादकीय में उन्होंने व्यक्त किए हैं ( अंक अभी मासान्त में जारी होने वाला है )। वे अकादमी की चेयरमैन होने के साथ- साथ जनजीवन को निकट से जानने पहचानने वाली अत्यन्त सहृदय लेखिका भी हैं, जो सामाजिक यथार्थ की अच्छी पहचान रखती हैं। भारतीय लोक जीवन का इतिहास खंगालते हुए उन्होंने जिन मूलभूत प्रश्नों की मीमांसा की है वे एक प्रकार से भारतीय मन की तलाश के प्रश्नों से एकीकृत होते हैं। भौगोलिक, व्यापारिक, मानवीय, कृषि, तकनीकी व भाषायी आदि परिप्रेक्ष्य के साथ रख क इन्हें देखने का यह सुविचारित दृष्टिकोण भले ही देश के नीति निर्धारण के लिए सहायक सामग्री के रूप में संप्रयुक्त न हो किन्तु विचार के लिए व ओबामा के प्रति भारतीय जनमानस के रुख को माँजने -समझने में अवश्य सहायक सिद्ध होगा।

Justify Full
आप भी इसे पढे़ व इन सन्दर्भों में ओबामा की विज के अर्थ भी तलाशें।


- कविता वाचक्नवी
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सम्पादकीय : `
मधुमती' दिस.२००८


ओबामा के मायने





अपनी जड़ों से उखड़ने का दर्द शायद इतना गहरा नहीं होता जितनी गहरी वह टीस होती है जब हमें हर क्षण यह अनुभव कराया जाता हो कि तुम पराए हो। आज से तीन सौ वर्ष पूर्व भारत से लाखों लोग विदेशी धरती को आबाद करने के लिए दुनिया के विभिन्न कोनों में गए थे। उनकी मेहनत से दलदली भूमि में भी गन्ने की फसलें लहलहाने लगीं थीं। आज वे सारे ही देश सम्पन्न देशों की श्रेणी में हैं। लेकिन उन धरती के बाशिन्दों ने उन्हें अपनेपन की ऊष्मा कभी प्रदान नहीं की। वे भारत के रामायणी-परिवार को सीने से चिपकाए ही अपना कर्तव्य करते रहे। जैसे एक महिला अपना पैतृक घर छोड़कर पति-गृह में हमेशा के लिए रहने जाती है फिर भी उसे कभी भी अपनत्व की बाँहें नसीब नहीं होतीं। पराएपन की यह टीस या तो महिलाएँ जानती हैं या फिर वे लोग जो अपनी जड़ों से उखड़कर दूसरी धरती पर अपना घरोंदा बसाते हैं। भारत अनेक राज्यों का समूह है, विश्व के सारे ही राष्ट्र अनेक राज्यों के समूह से निर्मित होते हैं। लेकिन भारत में और अन्य राष्ट्रों में शायद एक मूल अन्तर है। भौगोलिक दृष्टि से किसी भी राष्ट्र का राज्यों में विभक्त होना पृथक बात है लेकिन भाषा, खान-पान आदि की पृथकता अलग बात है। ये अन्तर एक होने में अड़चने डालते हैं। जब दुनिया में किसी देश की सीमाएँ नहीं थी तभी से भारतवंशी व्यापार के लिए, घुम्मकड़ता के लिए दुनिया के कोनों में जाते रहे हैं। इतिहास तो यह भी कहता है कि भारतीय मेक्सिको तक गए थे। यही कारण है कि जब दुनिया सीमाओं में बँटी, तब भी भारतीय व्यक्ति अपने कदमों पर लगाम नहीं लगा सके। वे कल भी कुँए के मेढ़क नहीं थे और आज भी नहीं रहना चाहते और शायद कल भी नहीं रहेंगे। शायद भारतीय मन असुरक्षा-भाव से ग्रसित नहीं हैं, यही कारण है कि वे अकेले ही दुनिया के किसी भी कोने में बसने के लिए निकल पड़ते हैं। इसीलिए भारतीयों में पराएपन के भाव की पीड़ा मन के अन्दर तक बसी है। वे कभी विदेश में और कभी अपने ही देश में इस पीड़ा को भुगतते हैं। इसलिए ओबामा की जीत उनके लिए महत्वपूर्ण हो जाती है।



हम भारतीय जब सम्पूर्ण सृष्टि को एक कुटुम्ब मानते हैं तब भला एक भारतीय अपने ही देश भारत में प्रांतों की सीमाओं में कैसे सिमटकर रह सकता है? कभी राजस्थान में रेगिस्तान का फैलाव अधिक होने के कारण यहाँ विकास की सम्भावनाएँ नगण्य थीं। तभी से यहाँ का व्यापारी भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी रोजगार और व्यापार की सम्भावनाएँ तलाशने के लिए निकल पड़ा। भारत का ऐसा कोई कोना नहीं है जहाँ पर राजस्थान का निवासी नहीं हो। ऐसे ही भारत के आसपास के देशों में भी राजस्थानी बहुलता से गए। राजस्थान की तरह ही सम्पूर्ण देश की जनसंख्या भारत के महानगरों में रोजगार की तलाश में गयी। कभी कलकत्ता उद्योग नगरी थी तो सभी का गंतव्य कलकत्ता था। मुम्बई फिल्मी नगरी थी तो आम भारतीयों के सपने वहीं पूर्ण होते थे। पूर्वांचल में भी व्यापार की प्रचुर सम्भावनाएं थीं तो भारतीय वहाँ भी गए। शंकराचार्य ने भी सम्पूर्ण भारत को सांस्कृतिक भारत बनाने का सफल प्रयास किया। भाषाओं की प्रचुरता वाला यह देश सम्पर्क भाषा को गढ़ने लगा। इसी का परिणाम था कि संस्कृत हमारी सम्पर्क भाषा और साहित्य की भाषा के रूप में विकसित हुई। लेकिन जब संस्कृत में व्याकरण की कठोरता लादी गयी तब संस्कृत का स्थान प्राकृत, खड़ी बोली से होता हुआ हिन्दी ने ले लिया। प्रत्येक प्रांत या क्षेत्र की भाषा का स्थान पूर्ववत् ही रहा बस परिवर्तन इतना हुआ कि सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी का विकास हुआ। लेकिन आज पुनः क्षेत्रीयता के आधार पर भारतीय सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित हिन्दी को मान्यता का प्रश्न खड़ा कर दिया गया है और अंग्रेजी को मान्यता प्रदान कर दी गयी है। जो भाषा क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों से पुष्ट हुई हो और जिस भाषा ने भारत को एक सूत्र में बाँधने में महती योगदान दिया हो आज उसे ही धकेलने का प्रयास किया जा रहा है। भाषा और क्षेत्रवाद से उपजा आम भारतीय का दर्द ओबामा की जीत से कहीं कहीं सकून पाता है।



अमेरिका में जब यूरोप का साम्राज्य स्थापित हुआ तब उसके नवनिर्माण की बात भी आई। दक्षिण-अफ्रिका से बहुलता से गुलामों के रूप में वहाँ के वासियों को अमेरिका लाया गया। उन लोगों ने रात-दिन एक कर अमेरिका का निर्माण किया। जैसे भारतीयों ने फिजी, मोरिशस आदि देशों का निर्माण किया था। घनघोर जंगल, दलदली भूमि को स्वर्ग बनाने का कार्य यदि किसी ने भी इस दुनिया में किया है तो इन्हीं मेहनतकश मजदूरों ने किया है। लेकिन कभी धर्म के नाम पर, कभी त्वचा के रंग के आधार पर, कभी जाति के आधार पर या फिर कभी बाहरी बताकर जब हम मनुष्य में अन्तर करते हैं तब वेदना का उदय होता है। यही वेदना जब एकीकृत होती है तब उसमें से एक क्रांति का सूत्रपात होता है। कभी यह क्रांति प्रत्यक्ष होती है और कभी इस क्रांति का मूल हमारे मन में होता है। यह घर हमारा भी है, इसी सूत्र को थामें करोड़ों दिलों ने ओबामा को देश का प्रथम नागरिक बना दिया। ओबामा के स्थापित होते ही वे करोड़ों लोग जो बाहरी होने की पीड़ा झेलते आए थे, वे सभी भी इस पीड़ा से मुक्त हो गए। अमेरिका में आकर यूरोप, आस्ट्रेलिया, एशिया, अफ्रिका आदि देशों से बसे करोड़ों बाशिन्दे इस पीड़ा को कहीं कहीं मन में बसाए थे कि वे बाहरी हैं। उन्हें कभी कभी इस पीड़ा से गुजरना पड़ा है। गौरी चमड़ी बाहरी रूप से एक दिखायी देती है लेकिन अश्वेत और एशिया मूल के लोग एकाकार नहीं हो पाते। इसलिए इन सभी ने एक स्वर में यह माना कि हम सब एक हैं। अब अमेरिका हमारा देश है। ओबामा की जीत के मायने यह भी नहीं है कि सभी ने इस सत्य को स्वीकार किया है लेकिन सत्य प्रतिष्ठापित हो गया है। घनीभूत वेदना पिघलने लगी है। फिर ओबामा सभी का प्रतीक बनकर आए थे।



ओबामा की जीत मानवता की जीत दिखायी देने लगी है। जिन यूरोपियन्स ने करोड़ों मेहनसकश इंसानों को गिरमिटिया बनाया और कभी भी समानता का दर्जा नहीं दिया। जिन यूरोपियन्स ने महिलाओं को समानता प्रदान नहीं की, उन्हीं यूरोपियन्स ने अमेरिका में अपने पापों को धो लिया। अमेरिका में ही यह क्यों सम्भव हुआ? शायद इसलिए कि अमेरिका की धरती पर ही यूरोपियन्स को पराए होने की वेदना का अनुभव हुआ। वे भी इस वेदना के भागीदार बने। आज अमेरिका के मूल निवासी रेड-इण्डियन तो वहाँ केवल बीस प्रतिशत हैं, शेष तो यूरोप, एशिया, आस्ट्रेलिया, अफ्रिका, मेक्सिको आदि के निवासी ही हैं। जब एक भारतीय से यूरोपियन कहता है कि तुम अमेरिकी नहीं हो तब वह भी प्रश्न करता है कि तुम अमेरिकी कैसे हो? तुमने तो यहाँ अत्याचार किए थे, लाखों अमेरिकन्स का कत्लेआम किया था। मैं तो यहाँ के नवनिर्माण का भागीदार हूँ, अतः बताओ कि कौन श्रेष्ठ है? तुम तो लाखों अफ्रिकन्स को गुलाम बनाकर यहाँ लाए थे! तुमने उन्हें इंसान कब समझा? तुमने तो उन्हें 1962 के बाद मताधिकार दिया। इसी वेदना के चलते ओबामा की जीत हुई। उन सभी ने स्वीकार किया कि हम सब अमेरिकी हैं। अमेरिका में अब रंग-भेद के आधार पर राष्ट्रीयता की अनुभूति नहीं होगी। लेकिन वहाँ के मूल निवासियों की वेदना शायद इससे और बढ़ जाए! वे वहाँ अल्पमत में थे और उनकी आवाज कहीं सुनाई नहीं देती थी। दुनिया में यह संदेश गया है कि अमेरिका की धरती सबके लिए है। किसी भी शान्त और सहिष्णु कौम का शायद यही हश्र होता हो!


अमेरिका का एक उज्ज्वल पक्ष और भी है। वहाँ बसे समस्त नागरिकों ने स्वयं को अमेरिकी कहने में गर्व का अनुभव किया। वहाँ तो उन्हें अमेरिकी नहीं कहने से ही वेदना उपजी थी। भारत में ऐसा नहीं है। हम स्वयं को भारतीय होने पर गर्व नहीं करते। हमारी पहचान क्षेत्रीयता के आधार पर विभक्त होती जा रही है। इसके कई कारण हो सकते हैं, लेकिन मुझे एक कारण दिखायी देता है कि जब भारत एक सुदृढ़ भारत बनकर विश्व के मानचित्र पर उभरेगा तब शायद हम गर्व से कहें कि हम भारतीय हैं। जब विश्व में हमें भारतीय होने के कारण सम्मान प्राप्त होगा तब शायद हम भी गर्व से कहेंगे कि हम भारतीय है। उस समय शायद हम गर्व से कहने लगेंगे कि हमारी भाषा हिन्दी है। आज भी जो भारतीय विदेशों में बसे हैं वे अपनी पहचान और अपने सम्मान के लिए चिंतित हैं। वे भारत की समग्रता के लिए चिंतित हैं। यही कारण है कि वे सारे एकजुटता के साथ भारत की छवि को बनाने में लगे हैं। वे हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठापित करने में लगे हैं। आप इन्टरनेट पर जाइए, सारी ही वेबसाइट्स किसी न किसी हिन्दी शब्द से प्रारम्भ हो रही हैं। सैकड़ों हिन्दी की वेबसाइट्स वहाँ उपलब्ध है। हिन्दी भाषा को लेकर कम्प्यूटर पर एक क्रान्ति का सूत्रपात हो चुका है। अब वे दिन दूर हुए कि आपका काम अंग्रेजी के बिना नहीं चलता था। अब तो केवल हिन्दी से ही आपका कार्य बहुत आसानी से होता है। आप बोलिए और कम्प्यूटर स्वतः ही हिन्दी में आपकी बात टाइप करेगा। अतः जिस दिन हम सब क्षेत्रीयता से निकलकर भारत-राष्ट्र में गर्व का अनुभव करने लगेंगे तब हिन्दी भाषा भी हमारे लिए गौरव का विषय होगी। जब ओबामा अमेरिका का राष्ट्रपति बन सकता है तब हिन्दी क्यों नहीं भारत की सम्पर्क भाषा से निकलकर विश्व की सम्पर्क भाषा की ओर अपने कदम बढ़ाती है? हम क्यों हीनभावना के शिकार बन अपने ही देश और भाषा को दोयम दर्जा देने पर तुले हैं। क्यों नहीं हमें भारत कहने में गर्व की अनुभूति होती? क्यों हम इण्डिया कहकर अपनी पहचान छिपाने का प्रयास करते हैं?


आज जितने लोग भी इन्टरनेट पर कार्य कर रहे हैं, मेरा उन सबसे निवेदन है कि अपने तकनीकी कार्य के अलावा वे हिन्दी में कार्य करने प्रारम्भ करें। हिन्दी अब कम्प्यूटर की भाषा बन चुकी है। आपकी क्षेत्रीय भाषा के शब्दों से ही हिन्दी का निर्माण हुआ है, अतः हिन्दी में भी उतनी ही मिठास है जितनी क्षेत्रीय भाषाओं में है। हम किसी भी क्षेत्रीय भाषा का स्थान हिन्दी को नहीं देना चाहते, हम तो केवल अंग्रेजी का स्थान हिन्दी को देना चाहते हैं। जिन्हें व्यावसायगत अंग्रेजी की आवश्यकता हो, वे अवश्य अंग्रेजी या किसी भी अन्य विदेशी भाषा का प्रयोग करें लेकिन भारत की राजभाषा के रूप में हिन्दी को पुष्ट करें, उसे प्रतिष्टापित करें। ओबामा की जीत को स्वयं की जीत समझे। ओबामा की जीत हमारी हीनभावना को परे धकेलती है, हम में गौरव की अनुभूति जगाती है। जब ओबामा की जीत विदेशी धरती पर बसे करोड़ों भारतीयों के मन में सपने जगा सकती है तब हम भारतीयों के मन में भी क्षेत्रीयता का दर्द भी मिटा सकती है। ओबामा ने प्रयास किया, वह सफल हुआ। हम भी प्रयास करें, सफल होंगे। सम्पूर्ण भारत हम भारतवासियों का है, यहाँ के कण-कण से अपनत्व की महक आनी चाहिए। हम भारत के किसी भी कोने में जाकर बसें, हमें वहाँ पराएपन की अनुभूति नहीं होनी चाहिए। चाहे वो कश्मीर हो, पूर्वांचल हो या फिर महाराष्ट्र। किसी भी व्यक्ति के मन में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर पूर्वांचल तक, प्रत्येक प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का सपना जगना चाहिए। ओबामा की जीत का उत्सव इसलिए नहीं मनाना है कि वह बेहतर राष्ट्रपति सिद्ध होगा अपितु इसलिए मनाना है कि अब कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे को पराया नहीं कह सकेगा। कोई भी इंसान छोटा-बड़ा नहीं बताया जाएगा। किसी भी देश, प्रदेश या संस्था पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का कब्जा ही नहीं बताया जाएगा। भारत देश हम सबका है, हमारे पूर्वजों ने इसका निर्माण किया है। अब किसी भी कारण से कहीं भी अवरोध खड़े नहीं किए जाएँगे। मैंने भारत की भूमि पर जन्म लिया है, सम्पूर्ण भारत मेरी जन्मभूमि और कर्मभूमि है। मैं भारत का हूँ और भारत मेरा है। ओबामा के बहाने इसी भावना को पुष्ट करने की आवश्यकता है। हमारे लिए ओबामा के मायने यही हैं।
- डॉ. अजित गुप्ता
सम्‍पादक, ‘मधुमती’
राजस्‍थान साहित्‍य अकादमी की मासिक पत्रिका


आतंकवाद : मुस्लिम, क्रिश्चियन, तालिबान, सिख, हिन्दू ?






राजकिशोर जी का यह लेख वर्तमान परिस्थितयों में विचार को मथने पर बल देता है| जब बार बार आतंकवाद को सम्प्रदाय से अलग रखने की बात की जाती रही है, उसे अलग रखा भी/ही गया, फिर वे क्या कारण हैं कि यकायक महीने भर की कवायद में आतंकवाद को नाम दे दिए गए, सम्प्रदाय से जोड़ कर अभिहित किया जाने लगा? व्यक्ति को ऐसे खानों में देखने की मानसिकता का जो विरोध सदा से होता आया है, उसे क्यों नहीं बनाए रखे जाने की आवश्यकता को दुहराया जाता? क्या कारण हैं कि इस देश में हर चीज को साम्प्रदायिक रंग दे दिया जाता है, सांप्रदायिक बदले चुकाए निबाहे जाते हैं? कब मुक्ति मिलेगी देश को ? क्या तब जब पूरा देश आतंकवादियों के सर्वग्रासी पेट का निवाला बन चुका होगा? प्रश्न बहुत -से हैं, उनका बार बार उठाया जाना आत्ममन्थन के लिए जागृति के लिए बहुत आवश्यक है ; वरना सोए हुए स्वार्थ लिप्त देश का जन-जन ऐसा आत्मकेंद्रित सुषुप्ति में चला जाएगा कि लुटेरे घर लूट कर ले जाएँगे| ऐसे ही आत्ममंथन को प्रेरित करते इस लेख को पढ़ें अपनी राय से अवगत कराएँ कि सभ्यता की 3 कसौटियों पर पिछडे इस देश की ऐसी पातक दशा का दायित्व कौन लेगा ? किस किस का है ? व्यक्ति-विशेष का? वर्ग- विशेष का ? मेरा ? आपका ? या फिर किसी और का ?
- कविता वाचक्नवी



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राग दरबारी


हिन्दू और आतंकवाद
राजकिशोर



कोई भी देश कितना सभ्य है, यह जानने की तीन साधारण कसौटियाँ हैं -- रेलगाड़ी रुकने पर चढ़नेवाले और उतरनेवाले एक-दूसरे के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, सड़कों पर गाड़ियों का आचरण कैसा है और सार्वजनिक शौचालयों की हालत कैसी है। हाल ही में पहले और तीसरे अनुभव से मेरा पाला पड़ा। अब मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि हमने अभी तक सभ्य होने का सामूहिक फैसला नहीं किया है।


पिछले हफ्ते की बात है। जब मैं किसी तरह अपने डिब्बे में चढ़ गया और अपनी सीट पर कब्जा करने के लिए विशेष संघर्ष नहीं करना पड़ा, तो मैंने महसूस किया कि आज मेरी किस्मत अच्छी है। आमने-सामने की तीनों सीटें भरी हुई थीं। रेलगाड़ी के चलते ही सामने की सीट पर बैठे एक सज्जन ने एक दैनिक पत्र निकाल कर अपने सामने फैला दिया, जैसे हम सिर पर छाता तानते हैं। एंकर की जगह पर एक बड़ा-सा शीर्षक चीख रहा था : हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकता - राजनाथ सिंह। मेरे बाईं ओर बैठे सज्जन खिल उठे। पता नहीं किसे संबोधित करते हुए वे बोले, ‘एकदम ठीक लिखा है। हिन्दू को आतंकवादी होने की जरूरत क्या है? यह पूरा देश तो उसी का है। वह क्यों छिप कर हमला करेगा? यह तो अल्पसंख्यक करते हैं। पहले सिख करते थे। अब मुसलमान कर रहे हैं।’


अखबार के स्वामी को लगा कि उन्हें ही संबोधित किया जा रहा है। उन्होंने लाल-पीला किए गए न्यूजप्रिट के पीछे से अपना सिर निकाला, ‘तो क्या साध्वी प्रज्ञा सिंह और उनके सहयोगियों के बारे में पुलिस जो कुछ कह रही है, वह गलत है? साध्वी ने तो अपना बयान मजिस्ट्रेट के सामने दिया है। अब वह इससे मुकर भी नहीं सकती।’


बाईं और वाले सज्जन का मुंह जैसे कड़वा हो आया। फिर कोशिश करके हंसते हुए वे बोले, ‘अजी, यह सब मनगढ़ंत बातें हैं। पुलिस पर यकीन कौन करता है? उससे जो चाहो, साबित करा लो।’


सामनेवाले सज्जन, ‘चलिए फिलहाल आपकी बात मान लेते हैं। क्या आप मेरे एक सवाल का जवाब देंगे?’
‘जरूर। क्यों नहीं। कुछ वर्षों से सबसे ज्यादा सवाल हिन्दुओं से ही किए जा रहे हैं। मुसलमानों और ईसाइयों से कोई कुछ नहीं कहता।’

‘अच्छा, यह बताइए कि हिन्दू गुंडा हो सकता है या नहीं?’

कुछ क्षण रुक कर, ‘हिन्दू गुंडा क्यों नहीं हो सकता? गुंडों की भी कोई जात होती है?’

‘तो यह भी बताइए कि हिन्दू शराबी-कबाबी हो सकता है कि नहीं?’

बगलवाले सज्जन मुसकराने लगे, ‘आपने कहा था कि आप सिर्फ एक सवाल पूछेंगे।’

सामनेवाले सज्जन, ‘अजी, ये सारे सवाल एक ही सवाल हैं। तो, हिन्दू शराबी-कबाबी हो सकता है या नहीं?’

‘हो सकता है, बल्कि हैं। इसीलिए तो हिन्दू समाज को संगठित करने की जरूरत है, ताकि वह मुसलमानों और अंग्रेजों से ली गई बुराइयों को रोक सके।’

अखबारवाले सज्जन के दाई ओर बैठे सज्जन ने मुसकराते हुए हस्तक्षेप किया, ‘सुना है, अटल बिहारी वाजपेयी को शराब पीना अच्छा लगता है। वे मांस-मछली भी खूब पसंद करते हैं।’

मेरे बाईं ओर वाले सज्जन, ‘इस बहस में व्यक्तियों को क्यों ला रहे हैं? खाना-पीना हर आदमी का व्यक्तिगत मामला है।’

अखबारवाले सज्जन, खैर, ‘इसे छोड़िए। यह बताइए कि हिन्दू चोर या डकैत हो सकता है या नहीं?’
‘हो सकता है।’

‘क्या वह वेश्यागामी भी हो सकता है?’

‘......................................’

‘क्या वह बलात्कार भी कर सकता है?’

‘.....................................’



‘जब हिन्दू यह सब कर सकता है, तस्करी कर सकता है, लड़कियों को भगा कर दलालों को बेच सकता है, बच्चों के हाथ-पांव कटवा कर उनसे भीख मंगवा सकता है, किडनी खरीदने-बेचने का बिजनेस कर सकता है, हत्या कर सकता है, दहेज की मांग पूरी न होने पर अपनी नवब्याहता की जान ले सकता है, तो वह आतंकवादी क्यों नहीं हो सकता?’


यह सुन कर मेरे पड़ोसी हिन्दूवादी मित्र तमतमा उठे, ‘आप कहीं कम्युनिस्ट या सोशलिस्ट तो नहीं हैं? या दलित? यही लोग हिन्दुओं की बुराई करते रहते हैं। जिस पत्तल में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं। आप जो बुराइयां गिनवा रहे हैं, वे दुनिया में कहां नहीं है? हमारा कहना यह है कि भारत में हिन्दू बहुसंख्यक हैं। फिर भी उनकी उपेक्षा की जा रही है। उन्हें वेद-शास्त्र के अनुसार देश को चलाने से रोका जा रहा है। इसलिए हिन्दू अगर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए हथियार भी उठाता है, तो इसमें हर्ज क्या है? लातों के देवता बातों से नहीं मानते।’


अब अखबारवाले सज्जन के बाईं ओर बैठे सज्जन तमतमा उठे, ‘हर्ज कैसे नहीं है? हर्ज है। अगर देश के सभी धर्मों के लोग, सभी जातियों के लोग, सभी वर्गों के लोग, सभी राज्यों के लोग देश में अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए हथियार उठा लें, तो गली-गली में खून नहीं बहने लगेगा? उसके बाद क्या भारत भारत रह जाएगा? फिर कौन कहां अपना वर्चस्व कायम करेगा?’

‘आप लोग हिन्दू-विरोधी हैं। आप लोगों से कोई बहस नहीं की जा सकती।’

तभी मुझे लघुशंका लग गई। ट्वायलेट में घुसा, तो भीतर का दृश्य सुलभ शौचालय के प्रणेता बिंदेश्वरी पाठक को चीख-चीख कर पुकार रहा था। मेरे मन में सवाल उठा, जब हम रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातों का खयाल नहीं रख सकते, तो बड़ी-बड़ी समस्याओं का हल कैसे निकालेंगे?

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