एक चुप्पी क्रॊस पर चढ़ी

भाग २
एक चुप्पी क्रॉस पर चढ़ी
- प्रभु जोशी

उसने खिड़की में से झाँक कर नीचे देखा। पापा अब लाॅन की धूप में चेयर पर पसरे हुए थे। हाथों में, लॊन के पीले गुलाब से तोड़ा गया ताज़ा फूल था। और धीरे-धीरे पापा की लम्बी व सख़्त अँगुलियाँ उसकी एक-एक पँखुरी को उधेड़ रही थीं।अमि डाइनिंग टेबुल पर पापा के साथ खाना खाने बैठते समय प्लेटों में चलती उनकी उन लम्बी व सख़्त अँगुलियों से ऊपर नज़र नहीं ले जा पाती। पापा की अँगुलियाँ देख उसे हमेशा दहशत होती है। जैसे, वे पिस्तौल के ट्रिगर पर रखी हुई हैं। थोड़ी-सी भी हरकत हुई कि धड़ाम्..... यहाँ तक कि उनकी पेन थाम कर काग़ज़ पर लिखती अँगुलियों से भी उसे डर लगता है कि इधर उन्होंने साइन किया कि उधर किसी पर गोली चालन हो जाएगा। कोई नौकरी से बरख़ास्त हो जाएगा या फिर किसी की कलाई में हथकड़ी पड़ जाएगी ।अमि ने बहुत धीमे से खिड़की बन्द कर दी।बालों को फिर से निचोड़ कर झटके से फैला लिया। फिर अपने कमर को छूने वाले लम्बेबालों के साथ एक सूखा-सा टाॅवेल लपेट कर ढीला-सा जूड़ा बना, अपने कमरे के सामने टैरेस पर धूप में आ कर पसर गयी। उसके इन बालों को लेकर पापा ने एक दफा खाना खाते वक्त कहा था कि वह इन्हें कटवा लें। अभी से अधेड़ औरतों की तरह जूड़ा बाँधना भला नहीं लगता। पापा के कथन का स्वर सलाह नहीं, सिर्फ आदेश का ही होता है- वह कैसे कहे कि उसे अपने लम्बे बालों से प्यार है, परन्तु पापा के समक्ष यह तर्क देने की जगह अमि ने वहीं डाइनिंग टेबुल पर ही फूट-फूट कर रोना शुरू कर दिया था, तो वे फिर कुछ नहीं बोले थे। चुपचाप उठ गये थे।अमि को अमूमन लगता है, पापा उसे जिस तरह स्मार्ट व फारवर्ड बनाना चाहते हैं, उलटी वह उतनी ही अधिक भीरू और सुस्त होती जा रही है। पता नहीं, कितने दिनों से पापा व अमि के बीच तनाव भरा है। उसने कई बार बड़ी शिद्दत से चाहा भी कि वह इस तनाव को फाड़ फेंके। चिंदी-चिंदी कर दे। मगर, दूसरे ही क्षण अमि के इस निश्चय को पापा के संजीदा-संजीदा चेहरे के रेशे-रेशे से झाँकती तनाव की तपन मोम की तरह पिघला देती।फिर यह तनाव टूटेगा तो आखि़र कैसे टूटेगा ? कब टूटेगा ? पता नहीं क्यों पापा शुरू से उसे आपाद मस्तक तनाव के आदमक़द प्रतिरूप लगते हैं। काॅशन देती कठोर आवाज़। कलफ लगी वर्दी और कैप के साथ शायद जैसे पापा के ओहदे की अर्हता बनी रही है, उनकी मूंछें। चित्र में उनकी मूंछें देखकर भैया ने एक बार कहा था-‘इन मूंछों को देखकर भ्रम होता है कि शायद विश्वयुद्ध रूका नहीं, अभी भी चल रहा है।’ नीचे से पापा की आवाज़ें आने लगी थीं। शायद वे लाॅन से उठ कर रसोई में आ गये थे।और रम्मी को खाना पकाने सम्बन्धी हिदायतें दे रहे थे। फिर देर तक उसने कुछ नहीं सुना। काफी देर से टैरेस पर बैठे रहने से धूप तेज लगने लगी थी। अमि उठकर कमरे में आगयी। और धूप ज़रूर टैरेस पर छूट गई थी, लेकिन उसकी धीमी-धीमी आँच अभी भी देह में थी, पीठ पर।कमरे में आते ही उसने अपने कामों के विषय में सोचना शुरू किया। मगर काफी देर तक सोचते रहने के बाद भी उसे कोई काम याद नहीं आया तो ड्रेसिंग टेबुल के सामने जा पसरी ।
(क्रमश: >>>>> )

एक चुप्पी क्रॉस पर चढ़ी

हिन्दी- भारत में इस बार प्रभु जोशी जी की एक कहानी "एक चुप्पी क्रोंस पर चढ़ी" को प्रस्तुत किया जा रहा है. यह कहानी धर्मयुग के १८ फरवरी १९७३ के अंक में छपी थी।


प्रभु जोशी बताते हैं कि अन्तिम कहानी उन्होंने १९७७ में लिखी थी। पर मुझे आशा है कि जोशी जी से कुछ नई कहानियाँ लिखवाने में हमारा यह प्रयास सार्थक सिद्ध होगा; और निकट भविष्य में शीघ्र ही उनकी किसी नई कहानी को पढ़ने का अवसर हमें मिलेगा।

इस कहानी के समापन के बाद प्रभु जोशी जी की ही लिखी हुई "पहली कहानी के लिखे जाने की कहानी" को भी अपनी पूरी रोचकता के साथ आप यहीं पढ़ पाएँगे , जो निस्संदेह एक कथाकार द्वारा रचना प्रक्रिया के विविध पक्षों का खुलासा करने वाला एक रोचक दस्तावेज है।

आप सभी की हर प्रकार की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी |

- कविता वाचक्नवी



"एक चुप्पी क्रोंस पर चढ़ी"

प्रभु जोशी



अमि काफी देर से नहा रही है। एकदम चुप-सी हो कर। नहाते समय उसे कुछ गुनगुनाना नहीं आता। और ना ही आता है, विवस्त्र होकर नहाना, वरन् वह तो उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई अपनी यात्रा के एक ऐसे बिंदु पर चुकी है, जहाँ अपनी देह में निरन्तर होते जा रहे परिवर्तन को देखने का जंगली-सम्मोहन अपनी पूरी तीव्रता पर होता है। देहासक्ति की एक सहज दीप्त इच्छा। मगर, अमि ने अभी तक इस सबको लेकर ऐसी कोई ख़ास तल्ख़ी महसूस ही नहीं की। हाँ, एक दफा इच्छा अवश्य हुई थी। मगर, पूरे वस्त्र उतार कर आइने के सामने निवर्सन होने के पहले ही वह ख़ुद को एकदम मूर्ख लगी थी। बाद इसके उसने ख़ुद को टटोलते हुए पूछा था कि वह अपनी तमाम अन्य हमउम्र सहेलियों की तरह कोई भी हरक़त करते समय ख़ुद को ऐसा असहज क्यों अनुभव करने लगती है ? हाँ, क्यों.....? हाँ, क्यों...?


और अब भी नहाते समय वह कुछ ऐसा ही सोच रही थी। ख़ुद को तथा ख़ुद के परिवेश को ले कर। सोचते-सोचते अचानक ख़याल आया कि वह काफी देर से बाथरूम में बंद है। वह खड़ी हो गयी। ज़ल्दी-ज़ल्दी बदन पोंछा, और नल को वैसा ही टपकता हुआ छोड़ कर, कपड़े पहन बाहर गयी। फिर बाथरूम की सिटकनी सरका कर वह ज्यों ही मुड़ी, सामने पापा थे। और पापा की निगाहें, अमि पर। मन की कोमल-कोमल सतहों पर सकुचाहट भय का मिलाजुला पनीलापन फैल गया, जिसमें शनैः शनैः उसे अपना वज़ूद डूबता-सा जान पड़ा।


अक्सर, ऐसा ही होता है, पापा के सामने पड़ने पर। उनका ठेठ-रोआबदार, संजीदा-संजीदा चेहरा देख कर अमि हमेशा से ही सहमी-सहमी रही है। इसीलिए पापा की उपस्थिति के घनीभूत क्षणों में अमि चाहती रही है कि जितना भी ज़ल्दी हो सके, वह उनकी आँखों से ओझल हो जाये।

पापा रुके हुए थे।

रुके हुए और चुप। अमि को लगा, यह शायद पापा के बोलने के पहले की ख़तरनाक चुप्पी है, जो टूटते ही अपने साथ बहुत हौले-से एकदम ठण्डे, लेकिन तीखे लगनेवाले शब्द छोड़ेगी, जो उसे भीतर ही भीतर कई दिनों तक रूलाते रहेंगे। उसे लग रहा था, पापा कुछ कमेंट करेंगे। उसके इतनी देर तक बाथरूम में बन्द रहने पर। मसलन-’अमि! तुम्हें दिन--दिन यह क्या होता जा रहा है ?’ मगर, वे कुछ कहे बग़ैर ही आगे बढ़ गये। अमि आश्वस्त हो गयी।


गीले पंजों के बल लम्बे-लम्बे डग भरती हुई, अपने कमरे में चढ़ आयी। अमि को हमेशा अपने कमरे में आकर एक विचित्र-सा साहस जाता है। कमरे की सपाट और सफेद दीवारें, छत, यहाँ तक कि कमरे की हर चीज़, उसे अपनी और एकदम अपनी, अकेले की लगती है। इन दीवारों चीज़ों के बीच घिर कर अमि ने हमेशा ख़ुद को बहुत सुरक्षित अनुभव किया है। और अब आतंक के कुछ कँटीले-लमहों के बाद वह अपने कमरे में थी।



(क्रमश:>>>>>)

काश, कोई लुगो यहाँ भी होता - राजकिशोर

परत-दर-परत

काश, कोई लुगो यहाँ भी होता
- राजकिशोर


भारत का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, इस बारे में अनुमान लगाने की मशीन कभी खाली नहीं बैठती। इस पर विचार-विमर्श नहीं होता कि भारत का अगला प्रधानमंत्री कैसा होना चाहिए? यह बहुत लोगों को मालूम है कि देश के पहले राष्ट्रपति के रूप में महात्मा गांधी किसी दलित महिला को देखना चाहते थे। उनके अन्य सभी सपनों की तरह यह सपना भी उन्हीं के साथ राख में मिल गया। देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में गांधी जी ने जवाहरलाल नेहरू का चयन किया था -- इस आधार पर कि 'जब मैं नहीं रहूँगा, वह मेरी भाषा बोलेगा।' नेहरू की भाषा में ज्यादा फर्क तो नहीं आया, पर उन्होंने जिस भारत की नींव रखी, उसमें गरीबों के लिए जगह सबसे आखिर में थी। यह जगह अभी तक नहीं बदली है।



इतिहास की खूबी यह है कि वह बराबर हमारे सामने कुछ बेहतरीन उदाहरण रखता जाता है। यह हमारा अंधापन है कि हम इन उदाहरणों को देखना नहीं चाहते। इसका कारण यह है कि हमारी नजर में बहुत धूल जमी होती है। यह धूल यथास्थितिवाद (जैसा चल रहा है, चलने दो) की है। कुछ भी नया करने के लिए अपने को पूर्वाग्रहों से मुक्त करना होता है, नई दिशाओं में सोचना और करना होता है तथा प्रयोग करने का जोखिम लेना पड़ता है। सभी समयों में वही समाज आगे बढ़े हैं, जिन्होंने लीक से हट कर चलना सीखा। लैटिन अमेरिका के एक छोटे-से देश पराग्वे ने पूर्व-बिशप फरनांडो लुगो को अपना नया राष्ट्रपति चुन कर लीक से हट कर एक ऐसा ही काम किया है। सुखद संयोग यह है कि लुगो ने ठीक 15 अगस्त 2008 को राष्ट्रपति पद की शपथ ली। क्या हमारा भी कोई 15 अगस्त इतना सुहावना हो सकता है? हम भारतीय चाहें तो इस असाधारण घटना से बहुत कुछ सीख सकते हैं।



फरनांडो लुगो का बचपन बहुत गरीबी में बीता। जीविका के लिए उन्हें अनेक छोटे-मोटे काम करने पड़े, जैसा कि हमारे गरीब घरों के लड़कों को करना पड़ता है। फिर लुगो ने शिक्षक होने का प्रशिक्षण लिया। लेकिन उन्हें एक दूसरी तरह का शिक्षक बनना था -- उस ईश्वर का दूत, जिसे अमीरों के पुष्पगुच्छों की तुलना में गरीबों के आँसू प्रिय हैं। लैटिन अमेरिका के धार्मिक संगठनों में अरसे से यह बहस चल रही है कि जब चारों ओर भुखमरी हो, जुल्म और अन्याय हो, उस समय सच्चे ईसाई का कर्तव्य क्या है? क्या वह चर्च और बाइबल में खोया रहे या चर्च की दीवारों से बाहर निकल कर सड़क पर आए और अभावग्रस्त लोगों को मनुष्य की गरिमा लौटाने के लिए संघर्ष करे? इस द्वंद्व ने लुगो के संवेदनशील हृदय में खलबली मचा दी।



डिवाइन वर्ड मिशनरीज में शामिल होने के कुछ समय बाद लुगो का इक्वाडोर जाना हुआ, जहाँ उनकी मुलाकात रियोबांबा के बिशप प्रोआना से हुई। प्रोआना उन ईसाई पादरियों में हैं जिन्हें गरीब की झोपड़ी में ईश्वर ज्यादा नजदीक दिखाई देता है। लुगो को दिशा मिल गई। उन्होंने निर्धन और देशज लोगों के लिए काम करना शुरू कर दिया। लैटिन अमेरिका के अधिकांश देशों में देशज आबादी की हालत लगभग वैसी ही है जैसी हमारे यहाँ भूमिहीन मजदूरों, दलितों और जनजातियों की। 1994 में लुगो को सैन पेड्रो का बिशप बनाया गया। इसके साथ-साथ उनके जनवादी संघर्ष जारी रहे। लोग उन्हें प्यार से 'गरीबों का बिशप' कहने लगे। जल्द ही लुगो की समझ में आ गया कि अभावग्रस्त लोगों की जिंदगी बदलने के लिए उनकी छिटपुट सहायता और उनके हकों के लिए छिटपुट संघर्ष, जैसा कि सभी एनजीओ करते हैं, काफी नहीं हैं। इसके लिए राजनीतिक सत्ता का चरित्र बदलना जरूरी है। आज राजनीति ही हमारी नियति की सबसे बड़ी निर्धारक शक्ति है। इस शक्ति को ऐयाशों, (प्रगट या छद्म) तानाशाहों और गुंडों के हाथ में क्यों छोड़ दिया जाए?



दिसंबर 2006 में फरनांडो लुगो ने पराग्वे के राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने का अहम फैसला किया। इसके लिए बिशप के पद से मुक्त होना जरूरी था। चर्च से अपना इस्तीफा लिखते हुए लुडो ने कैथलिक ईसाइयों के मुख्यालय वेटिकन को लिखा कि आज से पूरा देश ही मेरा कैथेड्रल है। वेटिकन से रूढ़िग्रस्त जवाब आया कि आप इस्तीफा नहीं दे सकते, क्योंकि जो एक बार पादरी हो गया, उसे जीवन भर पादरी रहना होता है। लुगो ने गांधी जैसी सच्चाई और ईमानदारी का उदाहरण पेश किया -- 'राजनीति में तो अब मैं आ ही गया हूं। आप या तो मेरा इस्तीफा मंजूर करें या मुझे सजा दें।' वेटिकन पसोपेश में पड़ा रहा। जब लुगो अपने देश के राष्ट्रपति चुन लिए गए, ते पोप ने उन्हें पादरी पद से मुक्त कर दिया। ज्ञात इतिहास में यह इस तरह की शायद पहली घटना है।

फरनांडो लुगो ने 15 अगस्त 2008 को जब राष्ट्रपति पद की शपथ ली, वे एक मामूली-सी सफेद कमीज पहने हुए थे और उनके पैरों में बूट नहीं, चप्पलें थीं। अगर मैं वहां मौजूद होता, तो उन चप्पलों की धूल अपने ललाट पर लगा लेता। पराग्वे के राष्ट्रपति को वेतन के रूप में 40,000 डॉलर सालाना मिलते हैं। लुगो ने घोषणा की कि वे वेतन के रूप में एक पेंस भी नहीं लेंगे और अपने छोटे-से घर में ही रहेंगे। लुगो ने एक ऐसी युवती को देशज मामलों का मंत्री बनाया है जिसे बचपन में बलात श्रम करने के लिए बेच दिया गया था और जो अब हाई स्कूल का इम्तहान देने की तैयारी कर रही है।


गरीबों का राष्ट्रपति कैसा होता है? अगर यह तुरंत सामने नहीं आ जाता, तो बाद में इसकी संभावना धूमिल होती जाती है। फरनांडो लुगो ने 15 अगस्त 2008 को जब राष्ट्रपति पद की शपथ ली, वे एक मामूली-सी सफेद कमीज पहने हुए थे और उनके पैरों में बूट नहीं, चप्पलें थीं। अगर मैं वहां मौजूद होता, तो उन चप्पलों की धूल अपने ललाट पर लगा लेता। पराग्वे के राष्ट्रपति को वेतन के रूप में 40,000 डॉलर सालाना मिलते हैं। लुगो ने घोषणा की कि वे वेतन के रूप में एक पेंस भी नहीं लेंगे और अपने छोटे-से घर में ही रहेंगे। लुगो ने एक ऐसी युवती को देशज मामलों का मंत्री बनाया है जिसे बचपन में बलात श्रम करने के लिए बेच दिया गया था और जो अब हाई स्कूल का इम्तहान देने की तैयारी कर रही है। आनेवाले दिनों में हमें ऐसे बहुत-से सुखद समाचार पढ़ने को मिलेंगे।


वे कौन हैं जो भारत की तरक्की की दिशा तय करने के लिए अमेरिका और यूरोप पर निगाह टिकाए रखते हैं? कौन हैं वे जिन्हें भारत जैसे गरीब देश में लोगों की नहीं, टेक्नोलॉजी की बेहतरी चाहिए? ये हमें साठ वर्षों में जहाँ तक ला सकते थे, ले आए हैं। इन्हें धन्यवाद। पर आगे का रास्ता 'गरीबों के बिशप' लुगो जैसे नेता ही दिखा सकते हैं। दक्षिण एशिया के बाशिंदों को लैटिन अमेरिकी देशों के घटनाक्रम पर निगाह रखनी चाहिए। वहाँ कई-कई स्वतंत्रता संघर्ष एक साथ चल रहे हैं।


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कश्मीर में यों जला तिरंगा








श्रीनगर में जला तिरंगा


धिक्कार है हम सब को !

संसार के किसी देश में क्या यह सम्भव है ?.......

क्या सोचते हैं आप ?

इस राष्ट्रीय अपमान का क्या करेंगे ?

क्या कर रहे हैं ? लोग जल रहे हैं, झंडा जल रहा है, बाजा
, बस्ती, दुकान और मोहल्ले जल रहे हैं|

कब जागेंगे हम ?

जाग कर क्या करेंगे ? कुछ सोचा है ? या अपनी एषणाओं की पूर्ति में ही रमे रहेंगे ?

- .वा.






Hosting Pakistani Flag and burning Indian Flag

A Kashmiri separatist leader burning the Indian Flag















Indian Flag Burnt in श्रीनगर

Shame on Indian govt and Media also for not making it breaking news

The only country of the world, where one can dare to burn the national flag..

All these become the masala breaking news of Indian news channels:

* If Tendulkar cuts the cake which is made to look like national flag, he is condemned.
* If Mandira Bedi wears a saree with the flags of all the countries being portrayed on that, is made to apologies.
* If one cop in Kolkata and one in Bangalore is terminated of his duties for throwing the Indian national flag on ground, by mistake.

Then why double standards:

* During the ongoing Amarnath Sangarsh, Jammuites holding the Indian National Flag and chanting 'Bharat Mata ki Jai' are open fired by the J&K Police on orders from the Police Commissioner(belongs to kashmir). Peaceful protesters are killed.
* Like in case of Amarnath case, people in Kashmir when want to get some demand fulfilled, protest by burning Indian national Flag, hosting Pakistani Flag and chanting 'Hindustan Murdabad, Pakistan Jindabad'. But no body condemns. Infact, all such protest are followed by a team of union ministers visiting Kashmir and immediately sanctioning a few thousand crore rupees for Kashmiris.
* Every year on 14th Aug (Pakistani Indipendence Day), Pakistani flag is hosted every where in Kashmir, including the govt. buildings and on 15th Aug, same people burn the Indian flag.


This happens only in India!!!!

just see d pictures above

really shame on indian media

who never shows
these pics .........

shame shame shame


--
Regards,
V.Selvam.
9841905260.

निरंकुशा: हि कवयः

निरंकुशा: हि कवयः
- ऋषभदेव शर्मा



कवियों की खीझ युगों पुरानी है. कवि जब अपने पाठक या श्रोता से असंतुष्ट होता है तो अपनी और कविता की स्वायत्तता के नारे लगाने लगता है..मुझे न मंच चाहिए, न प्रपंच , न सरपंच - इससे कवि के आत्म दर्प का पता चलता है. इसके बावजूद इस तथ्य को नहीं नकारा जा सकता कि कविता मूलतः संप्रेषण व्यापार तथा भाषिक कला है. संप्रेषण व्यापार के रूप में उसे गृहीता की आवश्यकता होती है तथा शाब्दिक कला के रूप में उसका लक्ष्य सौन्दर्य विधान है. इसलिए और कोई हो न हो , पाठक कविता का सरपंच है. सहृदय के बिना साधारणीकरण की प्रक्रिया सम्भव नहीं और साधारणीकरण के बिना रस विमर्श अधूरा है.यों,पाठक रूपी सरपंच की उपेक्षा करके एकालाप तो किया जा सकता है, काव्य सृजन जैसी सामाजिक गतिविधि सम्भव नहीं। शायद इसीलिये कविगण समानधर्मा , तत्वाभिनिवेशी और सहृदय पाठक के लिए युगों प्रतीक्षा करने को तैयार रहते हैं और अरसिक पाठक के समक्ष काव्य पाठ को नारकीय यातना मानते हैं........अरसिकेषु कवित्त निवेदनं, शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख!





स्मरणीय है कि भारतीय चिंतन वाक्- केंद्रित चिंतन है. शब्द को यहाँ ब्रह्म माना गया है और शब्द के अपव्यय को पाप. इसलिए यहाँ वाक्-संयम की बड़ी महिमा रही है.वाक्-संयम की दृष्टि से ही छंद विधान सामने आता है. अन्यथा यह किसी से छिपा नहीं है कि छंद न तो कविता का पर्याय है न प्राण. हाँ, पंख अवश्य है . और यह आवश्यक नहीं कि कविता पंख वाली ही हो. पर यह भी ध्यान रखना होगा कि भले ही वह उडे नहीं , पर जड़ न हो. इसीलिये छंद न सही, गति, यति और प्रवाह तो हो. और निस्संदेह कविता की गति , यति और प्रवाह के नियम ठीक ठीक वे नहीं हो सकते जो गद्य के होते हैं. इसलिए गद्यकविता भी अंततः कविता होती है गद्य नहीं. यदि रचनाकार अपनी रचना को गद्य से अलगा नहीं सकता, तो उसे कवि का विरुद धारण नहीं करना चाहिए.



गेयता या संगीत कविता की अतिरिक्त विशेषताएँ हैं, अनिवार्यता नहीं. बल्कि कवि की भाषिक कला की कसौटी यह है कि वह अपने अभिप्रेत विषय, विचार या भाव को किस प्रकार एक सौन्दर्यात्मक कृतित्व का रूप प्रदान करता है..सटीक और सोद्देश्य शब्द चयन तथा उसकी आकर्षक प्रस्तुति की प्रविधि की भिन्नता ही किसी कवि के वैशिष्ट्य की परिचायक होती है. यही कारण है कि भारतीय काव्य चिंतन के ६ में से ४ सम्प्रदाय भाषा पर अधिक बल देते हैं और ध्वनि काव्य को सर्व श्रेष्ठ काव्य माना जाता है. कवि शब्द शिल्पी है, इसलिए उसे जागरूकता पूर्वक कृति का शिल्पायन करना ही चाहिए।



निस्संदेह इसके लिए अनुभव भी चाहिए और अध्ययन भी. दोनों ही जितने व्यापक होंगे, कविता भी उतनी ही व्यापक होगी. कवि को युग और क्षण को भी पकड़ना होता है और परम्परा को भी सहेज कर उसमें कुछ नया जोड़ना होता है. ऐसा करके ही वह ज्ञान के रिक्थ के प्रति अपना दायित्व निभा सकता है. परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि कवित्व किसी प्रकार के गुरुडम का मोहताज है. कदापि नहीं. बल्कि सच तो यह है कि कवि निरंकुश होते हैं. गुरुडम के बल पर अखाडे चलाये जा सकते हैं, कविता नहीं की जा सकती . इसीलिये जिस युग या भाषा की कविता गुरुडम की शिकार हो जाती है, उसमें धीरेधीरे वैविध्य और जीवन्तता समाप्त हो जाती है तथा सारी कविता एक सांचे में ढली प्रतीत होने लगती है. दुहराव से ग्रस्त ऐसी कविता सौंदर्य खो देती है, क्योंकि सौंदर्य तो क्षण-क्षण नवीनता से ही उपजता है।

पेचीदा पहेली है, गुस्से से न सुलझेगी

रसांतर

पेचीदा पहेली है, गुस्से से सुलझेगी

- राजकिशोर



जब भी आतंकवादी हमले की कोई बड़ी घटना होती है, हमारा खून खौलने लगता है। सड़क पर, बाजार में, सिनेमा हॉल में या भीड़वाली जगह पर जब दर्जनों लोग मारे जाते हैं और उससे ज्यादा लोग घायल हो जाते हैं, तो जिसके भी दिल का जज्बा मरा नहीं है, उसकी नसें तड़कने लगती हैं। सरकार, पुलिस, खुफिया विभाग, अन्य सुरक्षा एजेंसियां सब कटघरे में खड़ी नजर आते हैं और हमें लगता है कि हमारी जान की परवाह किसी को नहीं है। मंत्री और नेता लोग हर आतंकवादी घटना की निन्दा करते हैं, मृतकों और घायलों के लिए मुआवजे की घोषणा करते हैं और प्राणहीन स्वर में यह घोषणा कर देते हैं कि हम आतंकवादियों के मनसूबों को सफल होने नहीं देंगे। यह और बात है कि आतंकवादियों के मनसूबे क्या हैं, यह हममें से कोई नहीं जानता। सरकार ने भी कभी यह बताया नहीं है कि किस इरादे से ये नृशंस हत्याएं हो रही हैं। कभी-कभी यह जरूर बताया जाता है कि अमुक घटना में अमुक संगठन का हाथ है या अमुक घटना की जिम्मेदारी अमुक संगठन ने ली है। लेकिन कुछ छोटी-मोटी गिरफ्तारियों के सिवायहम नहीं जानते कि आतंकवाद की लहर को रोकने के लिए सरकार कर क्या रही है।


जो लोग समझते हैं या दावा करते हैं कि गोली का जवाब गोली है और बम का जवाब तोप है, वे यह बताने में असमर्थ हैं कि गोली किस पर चलाई जाए या तोप का रुख किधर किया जाए। पिछले कुछ दिनों से यह जुमला काफी लोकप्रिय हो चला है कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, पर सभी आतंकवादी मुसलमान हैं। इस जुमले के पीछे छिपी भावना की निन्दा करने के हजार कारण हैं, पर इसके पीछे जो तथ्यात्मकता है, उससे कौन इनकार कर सकता है? जब भी संदिग्ध आतंकवादियों की अनुमानित तसवीरें पुलिस जारी करती है, वे तसवीरें आम तौर पर मुसलमानों की ही होती हैं। गुजरात की घटनाओं को यहां छोड़ दीजिए, क्योंकि वह सांप्रदायिक आतंक और हिंसा की एक दूसरी किस्म है। इसी किस्म की सांप्रदायिक आक्रामकता उड़ीसा, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में दिखाई पड़ी, जिसमें एक खास तरह से दीक्षित और प्रशिक्षित हिन्दुओं ने ईसाइयों और उनके चर्चों पर हमला किए। इन घटनाओं और आतंकवादी घटनाओं में फर्क यह है कि हमलावर हिन्दूवादियों ने अपने को छिपा कर हिंसा नहीं की। जब वे किसी मुसलमान या ईसाई पर हमला कर रहे थे, तो उन्होंने अपने चेहरों पर पट्टी नहीं बांधी हुई थी। वे दिखाना चाहते थे कि हम कौन हैं और क्यों हमला करने आए हैं। 1984 की सिख-विरोधी हिंसा में भी यही प्रवृत्ति दिखाई दी थी। इस तरह, यह आतंकवाद नहीं था, खुली हिंसा थी। यह गुंडागर्दी का ही एक अति हिंसक रूप है। यह भारतीय राज्य की गंभीर कमजोरी है कि जिन मामलों में हत्यारों को साफ-साफ पहचाना जा सकता था या पहचान लिया गया था, उनमें भी इनसाफ नहीं किया जा सका।


इसके विपरीत, आतंकवाद की घटनाओं में अपराधी तक पहुंचना बहुत मुश्किल होता है। वह खुले में नहीं, छिप कर हमला करता है। पुलिस और सुरक्षा बल चाहे जितने निष्ठावान, चुस्त और मेहनती हों, वे आतंकवादियों का सफाया नहीं कर सकते। इसलिए गोली के बदले गोली का सिद्धांत यहां कारगर नहीं हो सकता। तो क्या हमें असहाय और निरुपाय हो कर अपने भाई-बहनों की हत्या के नजारे देखते रहना चाहिए? इससे अधिक संवेदनहीनता और बेहयाई क्या हो सकती है?


बेशक सुरक्षा व्यवस्था को चाक-चौबंद बनाने की गंभीर आवश्यकता है, पर आतंकवाद सिर्फ कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है। आतंकवादी ऐसे लोगों की हत्या करता है जिन्हें वह जानता तक नहीं है। ऐसे हमलों में हिन्दू, मुसलमान, सिख सभी समूहों के लोग मारे जा सकते हैं, इसकी भी उसे परवाह नहीं है। वह तो अंधाधुंध हिंसा कर कोई राजनीतिक संदेश देना चाहता है। क्या भारत के संचालकों ने कभी इस संदेश को सुनने की कोशिश की है? इस संदेश को सुने और समझे बगैर आतंकवाद को रोकने की कोई सक्षम रणनीति बनाई जा सकती है, इसमें गहरा संदेह है।


एक मजबूत उदाहरण लीजिए। बाबरी मस्जिद विध्वंस के सोलह साल हो रहे हैं। इस घटना से पूरा देश कांप गया था। देश की राजनीतिक धारा ही बदल गई। लेकिन इन सोलह वर्षों में आज तक बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड के लिए जिम्मेदार किसी भी व्यक्ति को सजा नहीं मिल पाई है। इनमें से एक मध्य प्रदेश का मुख्य मंत्री बन गया और दूसरे ने देश के उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री का पद संभाला। अब वह अगला प्रधानमंत्री बनने का हसीन सपना देख रहा है। अतीत में जितने भी सांप्रदायिक दंगे हुए, उनके लिए जिम्मेदार लोगों तक कानून के तथाकथित लंबे हाथ नहीं पहुंच सके। एक आदमी किसी का खून करता है, तो उसे फांसी पर चढ़ा दिया जाता है या उम्र भर कैदी बना कर रखा जाता है। लेकिन सांप्रदायिक दंगे में कोई व्यक्ति दर्जनों हत्याएं करता है, तो वह कानून की सीमा से परे हो जाता है। क्या इस तरह के पूर्वाग्रह और एकांगिता से आतंकवाद की पीठिका मजबूत नहीं होती है? लोग कानून को अपने हाथ में तभी लेते हैं, जब कानून के रखवाले निकम्मे हो जाते हैं।


इस संदर्भ में कश्मीर का सवाल उठना लाजिमी है। वहां अरसे से अलगाववाद और आतंकवाद की लहर चल रही है। लेकिन कश्मीरी मुसलमान शुरू से ही हिंसक नहीं रहे हैं। 1990 से हिंसा का तांडव बढ़ा है। आज पूरा कश्मीर जल रहा है। असंतोष की आग इतने लंबे समय से लपटें फेंक रही है, लेकिन भारत सरकार ने कश्मीर समस्या का समाधान निकालने की कोशिश कभी नहीं की। यह कोशिश आज भी नहीं हो रही है, जब अरुंधति राय जैसे बुद्धिजीवी को लगता है कि कश्मीर आजादी के लिए छटपटा रहा है। अगर हम मान लें कि कश्मीर समस्या का कोई समाधान नहीं है या यह कोई समस्या ही नहीं है, तब हमें कोशिश करनी चाहिए कि वहां भारतीय सेना नागरिकों की मित्र सेना के रूप में काम करे। जैसे उत्तर-पूर्व के विकास के लिए विशेष कोष बनाया जाता है, वैसे ही कश्मीर के विकास के लिए अलग से प्रयत्न किए जाएं। राज्य सरकार को पैसा भेजना कोई समाधान नहीं है। जम्मू-कश्मीर राज्य देश के भ्रष्टतम राज्यों में एक है। इसलिए विकास कार्य के लिए कोई अलग एजेंसी बनाई जानी चाहिए जिसमें बहुसंख्या कश्मीर के स्थानीय लोगों की हो। जैसे-जैसे यह साबित होता जाएगा कि भारत सरकार कश्मीर की हितू है, शेष भारत के लोग कश्मीरियों को -- गुमराह कश्मीरियों को भी -- प्यार करते हैं और उनका सामान कुछ अधिक दाम दे कर भी खरीदते हैं और सेना वहां किसी का संहार करने या किसी को सताने के लिए नहीं, बल्कि नागरिक जीवन को सुरक्षित बनाने के लिए है, तो निश्चित है कि अलगाववादियों की राजनीतिक और सामुदायिक शक्ति क्षीण होती जाएगी। कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए हमें आतंकवादियों के पहले वहा की आम जनता का प्रेम और विश्वास जीतना चाहिए।


निवेदन है कि जिन राजनीतिक कारणों से भारत में आतंकवाद पैदा हुआ है, पहले उन्हें तो दूर कीजिए। फिर देखिए कि वह वातावरण बनता है या नहीं जिसमें आतंकवादी हिंसा क्रमश: बेमानी होती जाएगी। किसी भी समस्या को गुस्से से नहीं, प्रेम से ही सुलझाया जा सकता है।



(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज,नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं।)

हिन्दी में आत्महत्या - सुधीश पचौरी

यह हिन्दी दिवस की ही घटना है। 14 सितंबर के दिन हिन्दी दिवस मनाया जाता है। यह हिन्दी का अँगरेजी के आमने-सामने हो जाने का दिन है। यह सिर्फ भाषा का मसला नहीं है। हैसियत का मसला भी है। भाषा और हैसियत में गहरा संबंध है। जरूर वह छात्र हिन्दी भाषी रहा होगा।



हिन्दी में आत्महत्या

- सुधीश पचौरी



एमिटी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले एक छात्र ने इसलिए खुदकशी कर ली क्योंकि वह अँगरेजी में कमजोर था। नोएडा में अँगरेजी भाषा के दबाव को लेकर यह शायद दूसरी खुदकशी की खबर है। एमिटी विश्वविद्यालय ने यह जरूर कहा है कि उनके संस्थान ने अँगरेजी दास्ता बढ़ाने के लिए उस छात्र पर कोई दबाव नहीं डाला था लेकिन आत्महत्या करने वाले रवि भाटी के पिता ने रिपोर्ट दर्ज कराई है कि उनके बेटे ने अँगरेजी में कमजोर होने की वजह से परेशान होकर आत्महत्या की है। वह प्रबंधन का छात्र था।


यह हिन्दी दिवस की ही घटना है। 14 सितंबर के दिन हिन्दी दिवस मनाया जाता है। यह हिन्दी का अँगरेजी के आमने-सामने हो जाने का दिन है। यह सिर्फ भाषा का मसला नहीं है। हैसियत का मसला भी है। भाषा और हैसियत में गहरा संबंध है। जरूर वह छात्र हिन्दी भाषी रहा होगा। प्रबंधन के पाठ्यक्रम अँगरेजी हार की दरकार रखते हैं। उनमें आर्ट अँगरेजी 'उच्चकोटि की साहित्यिक व्यंजनाओं अलंकारों वाली नहीं होती, सामान्य से वाक्य एक अलग विद्या के बारे में बताते हैं।


प्रबंधन में एक बड़ा हिस्सा गणित की जरूरत को बताता है। कैट-मैट की प्रवेश परीक्षा में जो कुछ पूछा जाता है, वह गणितीय सोच की तीव्रगति और सही गलत के सुपरफास्ट बारीक विवेक की भी परीक्षा होती है। अँगरेजी भाषा के रूप में वह बहुत कठिन नहीं होती। जो कठिन होता है वह प्रबुद्धता को परखने के क्षेत्र होते हैं। लाखों की नौकरी दिलाने वाले ऐसे पाठ्यक्रम स्पर्धात्मक जगत में आसान तो हो ही नहीं सकते।


हिन्दी क्षेत्र के मध्यवर्गी माता-पिता अपनी संतानों को इस स्पर्धात्मकता में डालते हैं। कच्चे-पक्के अँगरेजी स्कूलों में थोड़ा सिखाकर या इससे भी रहित नौजवान स्पर्धा में या दाखिला-खरीद के जरिए ऐसे संस्थानों में पढ़ने लगते हैं लेकिन यदि कोई संस्थान डिग्री देता है, कागज का टुकड़ा नहीं, तो वह एक स्तर तो रखेगा ही। छात्र पर यही दबाव बन जाता है भाषा माध्यम और विषय को न समझ पाने का।


यथार्थ आत्मकुंठित करता रहता है, आत्मा मरती रहती है, कोई कमजोर मन वाला आत्महत्या कर लेता है, इससे दुख होता है।


अँगरेजी भाषा के कारण आत्महत्या दरअसल उस कमजोर हैसियत का आत्मदंड है, जो स्पर्धा में पीछे रह जाना नहीं चाहती मगर जिसके पास स्पर्धा के साधन नहीं हैं। भाषाएँ अर्जित की जाती हैं, मातृभाषा भी। एक अर्थ में भाषा मुफ्त में मिली लगती है, मुफ्त होती। मनुष्य को ज्ञान कमाना पड़ता है, जो सहज मिलता लगता है, वह भी मेहनत से आता है। भाषा तो एक विकसित औजार है। अच्छी हिन्दी पढ़ने वाला भी इसे अर्जित करता है। हिन्दी भी सेंतमेंत में नहीं मिलती, जबकि लगता है कि मिलती है। अँगरेजी का माने तो ज्यादा है।


बहरहाल रवि की आत्महत्या ने हिन्दी दिवस के दिन जनप्रियों के भाषणों और लेखों के मुकाबले हिन्दी को यह संदेश दिया है कि हिन्दी को, हिन्दीजन को, स्पर्धा में रहना है तो स्पर्धा का अर्जन करना होगा। जब संस्कृत शासकों की भाषा रही, तब संस्कृत में ज्ञान अर्जित करने के बहुत दाम और ताकत लगती थी, अब अँगरेजीके लिए है। हिन्दी के लिए भी दाम लगे, ताकत लगे, उसमें दुनियाभर के ज्ञानलिन की ताकत आए तो ऐसी घटनाएँ रुकेंगी। गलतफहमी दूर करनी होगी कि हिन्दी सेंतमेंत में मिलती है। और उसके भी दाम हैं चाहे अभी
कम पैसे हैं, क्वालिटी बनाओगे तो दाम भी बढ़ेंगे। तब शायद हिन्दी में आत्महत्या नहीं होगी।


कण्डोम प्रमोशन कार्यक्रम : सांस्कृतिक धूर्तता का वैज्ञानिक मुखौटा - प्रभु जोशी

(अंतिम भाग )
(अंक , अंक , अंक से आगे )


कण्डोम प्रमोशन कार्यक्रम : सांस्कृतिक धूर्तता का वैज्ञानिक मुखौटा
- प्रभु जोशी




इसी जग जाहिर बदनामी की बौद्धिक-चिंता करते हुए देश को बचाने के लिए कुछ प्रथमश्रेणी के बुद्धिजीवियों के रेवड़, जिसमें अमत्र्य से और विक्रम सेठ भी शामिल है, ने भारत सरकार को लगभग धिक्कार के मुहावरे में लिखित प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था कि समलैंगिको को भारत में संवैधानिक रूप से समान व सम्मानजनक दर्जा कब और कैसे मिलेगा ? उन्हें इस विकट समस्या ने संगठित होने में विलम्ब नहीं करने दिया । लेकिन, भूख, गरीबी, साम्प्रदायिकता, समान-वितरण-प्रणाली समान-शालेय शिक्षा जैसे इससे बड़े और कहीं अधिक विकराल प्रश्नों पर अभी उन्हें तक एकत्र नहीं होने दिया है । वे लैंगिक-अल्प संख्यकों (सेक्चुअल माॅइनाॅर्टी) के हित में अविलम्ब कूद पड़े । यहाँ तक कि संभोग रहित सैक्स की लत विकसित करने के लिए ‘सैक्स टाॅय’ के लिए वे उपयुक्त जगह बनाना चाहते हैं, इसमंे हमारे कल्याणकारी राज्य की भूमिका साझेदारी की है । यों भी सरकार भाषा को भूगोल से भूगोल को भूख से और भूख को भूख से बदलने के खेल में काफी दक्षता हासिल किए हुए है ।


दोस्तो, यह राज्य द्वारा परिवार के सुनियोजित विखण्डन की प्रायोजित मुहिम है, जबकि परिवार प्राथमिक इकाई है और वह पहले बना है, राज्य बाद में। जिसके बाद ‘स्वयंसेवा’ के जरिए से सेक्स की परनिर्भरता से मुक्ति तो मिलेगी ही साथ ही साथ अमेरिकन सिंगल्स की तर्ज़ पर भारतीय पुरुष और भारतीय स्त्री बिना सहवास किए इच्छित यौनरंजन हासिल कर सकेंगे । उनका वैज्ञानिक तर्क यह भी है कि इससे भारत में सेक्स-टाॅय और समलैंगिकता के प्रचलन से बढ़ती आबादी पर रोक लगाने में कारगर कामयाबी मिल सकेगी । उन्हें छातीकूट अफसोस इस बात पर भी है कि भारत में माता-पिताओं के साथ लड़कियाँ भी उन्हीं की तरह मूर्ख हैं, जो शादी करके गृहस्थी बसाने का सपना देखने से बाज नहीं आ रही हैं । ऐसा चलता रहा तो उन्हें यहाँ सेक्स-टाॅय के धंधे में बरकत बनाना मुश्किल होगी । जबकि, सेक्स खिलौनों का कारखाना भिलाई के इस्पात के कारखाने से ज्यादा रेवेन्यु देगा । यह लचीला स्टील है । इसमें उत्खनन के बजाए सीधा उत्पादन ही होता है।


दूसरे शब्दों में कहें कि सेक्स खिलौनों का व्यवसाय विकसित राट्रों के समाजों की मेट्रो-सेक्चुअल्टी है, जिसे देसी-आदत का रूप देना है । जी हां, मूलतः कार्पोरेटी-इथिक्स का प्रतिमानीकरण करना है, जो ‘सामुदायिक-नैतिक ध्वंस’ में ही अपना अस्तित्व बनाता है । सरकार का इसमें सार्थक सहयोग है ।


हिन्दी में महानगरीय बुद्धिजीवियों की ऊंची नस्ल में सेक्समुक्ति को लेकर जो प्रफुल्लता बरामद हो रही है - वह स्त्री स्वातंत्र्य के आशावाद की बाजार-निर्मित अवधारणा है, जिसे ये माथे पर उठाये ठुमका लगा रहे हैं । देहमुक्ति में स्त्रीमुक्ति का मुगालता बाँटने वाले ये मुगालताप्रसाद, हकीकत में देखा जाय तो उन्हीं आकाओं की आॅफिशियल आवाज हैं, जिसको वे लम्पटई की सैद्धान्तिकी के शिल्प में प्रस्तुते हुए प्रचारित कर रहे हैं । ये उसी वैचारिक जूठन की जुगाली कर रहे हैं । ये नए ज्ञानग्रस्त रोगी है, जिनका अब कोई उपचार नहीं है । उन्हें लाइलाज (अनट्रीटेड) ही रखना पड़ेगा । खुद को आवश्यकता से अधिक प्रतिभाग्रस्त मानने के मर्ज़ के पीछे प्रायोजित प्रदूषण है । इसीलिए टेलिविजन चैनलों में स्टूडियो की नकली रौशनी में रंगे हुए होठों वाली लड़कियाँ दांत निपोरते हुए किशोर-किशोरियाँ से पूछती हैं - आप सेक्स शिक्षा के पक्ष में है कि नहीं ?... आपने विवाहपूर्व ‘सेक्समेट’ बनाने में आपको कोई हिचक तो नहीं ?... क्या आपने कभी हस्तमैथुन या अपने समवयस्क के साथ पारस्परिक यौनिक दुलार किया है ?.... क्या आप अभी भी सेक्स टेबू की शिकार हैं ?


कुल मिलाकर, बहुत जल्दी सर्वेक्षण आने वाला है, जो खुशी को छुपाने का अभिनय करता हुआ बतायेगा कि हमारे यहाँ किशोरवय की गर्भवती कन्याओं (टीन एज़ प्रेगनेंसी) का ग्राफ अब अमेरिकी समाज की तरह काफी ऊंचा उठ गया है । सेन्सेक्स और सेक्स दोनों की दर की ऊंचाई प्रगति का प्रतिमान बनने वाली है । क्योंकि भारत में कण्डोम-क्रांति की सफलता के लिए यह जरूरी है । इस क्रांति में मीडिया, फिल्म, मनोरंजन व्यवसाय, खानपान, वस्त्र व्यवसाय आदि शीतयुद्ध के दौर में समाजवादी समाज की अवधारणा को नष्ट करने के लिए एक शब्द चलाया गया था- लाइफ स्टाइल। जी हां, वह शब्द अब अखबारों के परिशिष्ट में बदल गया है । महेश भट्टीय शैली की फिल्में धड़ल्ले से इसीलिए कारोबार कर रही है, क्योंकि अब फिल्म के दृश्य में आंखें नहीं कच्छे गीले होने चाहिए । आखिर अंग्रेजी में इसे ही तो कहते हैं, बड़ी आंत से ब्रेन का काम लेना । इसी धंधे का लालच उन्हें तर्क देता है कि हिन्दुस्तान में पोर्नोग्राफी को वैध बना दिया जाना चाहिए ।


अंत में सचाई यही है कि दोस्तों हमारे नब्जों में गुलाम रक्त प्रवाहित है और इसलिए हमारा मौलिक चिन्तन कुन्द हो चुका है । अतः हम हाथ जोड़कर क्षमा चाहते हैं कि हमारा बौद्धिक-पुरुषार्थ निथर गया है - नतीज़न उसके अभाव में हम भारतीयों से कोई विचार-क्रान्ति संभव ही नहीं है, हम तो अब केवल कण्डोम-क्रान्ति को ही संभव कर सकेंगे । क्योंकि, मीडिया की मदद लेकर बढ़ रहे, नये बाजार ने हमें वर्जनाओं के कच्छे उतारने के लिए उतावला बना दिया है । हम बेसब्र और बेकाबू हैं, वह सब हासिल करने के लिए, जिसे सरकारी साझेदारी में उत्पादित किया जा रहा है । बहरहाल, धन्यवाद उनका और उनके एड्स का कि उन्होंने कामांगों पर कफ्र्यू लगाये रखने वाले चिंदे से मुक्ति के लिए वैज्ञानिकता का तिनका दे दिया, जिसकी आड़ ही हमारे लिए पर्याप्त है । उन्नीस सौ सैंतालीस की आज़ादी तो सिर्फ एक राजनैतिक झुनझुना था, जिसे गांधी ने एक सिम्पल-स्टिक को हाथ में लेकर, (जिसे हिन्दी के भदेसपन में लाठी कहते हैं) सम्भव कर दिया था । यह बिना खड़ग और बिना ढाल वाली मात्र लाठी के सहारे उपलब्ध करा दी गई आज़ादी थी, जबकि असली आज़ादी को तो हम अब एन्जाॅय कर पायेंगे - गांधी की लाठी नहीं - ज्वॉय स्टिक के सहारे । जिंदाबाद ज्वॉय स्टिक !


अंत में इसलिए भाई-बहनो, इस माल का बाज़ार बढ़ाओ और भारत में असली भूमण्डलीकरण और असली आज़ादी इसी के जरिए आयेगी । संस्कृति-संस्कृति चिल्लाने वाले आंखें मूंद, औंधे मुँह सोये पड़े हैं । इसलिए खरीदो और बेचो सेक्स टॉय




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समग्र, 4, संवाद नगर,
नवलखा, इन्दौर (म.प्र.) 452 001

आपकी सहभागिता चाहिए ----


कल मयंक सक्सेना ने हिन्दी दिवस का वाल पेपर के रूप में एक बहुत संग्रहणीय उपहार हिन्दी प्रेमियों को दिया था। मैंने जब देखा तो उसे अधिकतम लोगों से बांटने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। यद्यपि उसमें कई अधिक अपेक्षित चित्र छूट गए हैं पुनरपि वह एक सकारात्मक व प्रशंसनीय प्रयास है।

मैंने तुंरत उन्हें लिखा की इसे मैं अपने याहू समूह हिन्दी भारत के सभी सदस्यों को हिन्दी दिवस के उपहार के रूप में भेज रही हूँ। किंतु केवल हिन्दी भारत पर ही भेजने की अपेक्षा मैंने उसे कई समूहों पर भेज दिया, जिस पर बहुत उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएँ भी मिलीं. ---


मू संदेश देखें ---




----- Original Message ---- From: Dr.Kavita Vachaknavee <..............@yahoo.com>
हिन्दी दिवस पर समूह के सभी साथियों को शुभकामनाओं सहित श्री मयंक सक्सेना के सौजन्य से एक उपहार संलग्न कर रही हूँ, जो संलग्नक के रूप में इस संदेश के साथ है. कृपया खोल कर अवलोकन करें, प्रयोग करें व मयंक जी को साधुवाद दें.

- कविता वाचक्नवी
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हिन्दी सप्ताह की इस श्रृंखला में मैंने सोचा की चलिए क्यों ना आप सबके लिए कुछ सहेजने लायक भी किया जाए ..... मतलब प्रतीकात्मक रूप में तो मित्रों मैंने हिन्दी दिवस पर माँ हिन्दी को स्तुत्य करने के प्रयास में एक वालपेपर चित्रित करने का एक सूक्ष्म सा प्रयास किया है। मैं नहीं जानता किये कोई बहुत सृजनात्मक कार्य है अथवा नहीं पर अपनी ओर से नमन का प्रयास है।

इस वालपेपर में हिन्दी को स्वरुप देने वाले कुछ महापुरुषों का चित्र है और वर्णमाला है ...... इसे उतारने के लिए नीचे दिए चित्र पर क्लिक करें और फिर इसे सेव कर लें ...... सुविधा के लिए मैंने बड़े आकार की फाइल बनाई है









इसकी प्रतिक्रया के रूप में आज कई संदेश आए कि क्या इन सब महानुभावों के नाम क्रमानुसार या वर्णमालानुसार मिल सकते हैं। सो हमारे मित्र चन्द्रमौलेश्वरजी ने व मैंने मिल कर एक अभीष्ट सूची बनाई है, ताकि जो लोग चित्रों को नाम से नहीं पहचानते हैं उन्हें सुविधा हो जाए।

यह सूची मैं यहाँ दे रही हूँ। अभी भी कुछ नाम शेष रह गए हैं। नेट पर जो भी लोग इस सूची को पूरा करने में सहयोग देना चाहें उनका स्वागत व अग्रिम धन्यवाद है.

सर्व श्री
  • घ ------ माखनलाल चतुर्वेदी
  • अ----- अमीर खुसरो
  • इ ------- मीराबाई
  • ई- ---- कबीरदास
  • औ. ------- तुलसीदास
  • ए.-------- सुभद्राकुमारी चौहान
  • ऐ.------ नीरज
  • ढ़ ---- गुलज़ार
  • य.----- जयप्रकाश नारायण
  • र. ----- गांधीजी
  • ओ. ---- सुमित्रानंदन पंत
  • न. ------ अशोक वाजपेयी
  • च. ---------महादेवी वर्मा
  • ड. ----------मुंशी प्रेमचंद
  • प--------- नामवर सिंह
  • ल. ---------अशोक चक्रधर
  • व. --------राम मनोहर लोहिया
  • अं.-------- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
  • ध. --------मैथिलीशरण गुप्त
  • --------- यशपाल
  • ब.---------- बाबा नागार्जुन
  • श----------कमलेश्वर
  • क.---------- रामधारी सिंह दिनकर
  • ख.----------हरिवंश राय बच्चन
  • . ----------अज्ञेय
  • न --- अशोक वाजपेयी
  • ल -------- अशोक चक्रधर
  • ग ------- हरिवन्शराय बच्चन
  • ऊ -------- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
  • झ ----------जयशंकर प्रसाद
  • ( - तुलसी दास व --- महादेवी वर्मा के बीच में हैं) --- महावीर प्रसाद द्विवेदी
  • नीचे दाहिनी ओर - -------विष्णु प्रभाक.

आप भी इस सूची को पूरा करने में अपना योगदान देकर हिन्दी दिवस के इस छोटे से अभियान की सफलता में सहभागी बन सकते हैं...... प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है .....

उन सबको नंगा करो......

तेवरी : ऋषभ देव शर्मा

ज्वालामय विस्फोट


पग पग घर घर हर शहर , ज्वालामय विस्फोट
कुर्सी की शतरंज में , हत्यारी हर गोट


आग लगी इस झील में , लहरें करतीं चोट
ध्वस्त न हो जाएँ कहीं , सारे हाउस बोट


कुरता कल्लू का फटा , चिरा पुराना कोट
पहलवान बाज़ार में , घुमा रहा लंगोट


सीने को वे सी रहे , तलवारों से होंठ
गला किंतु गणतंत्र का , नहीं सकेंगे घोट


जिनका पेशा खून है , जिनका ईश्वर नोट
उन सबको नंगा करो , जिनके मन में खोट

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हास्यपरक कालजयी तेलुगु उपन्यास : ‘बैरिस्टर पार्वतीशम’* -ऋषभ देव शर्मा

पुस्तक चर्चा



हास्यपरक
कालजयी तेलुगु उपन्यास : ‘बैरिस्टर पार्वतीशम’*

ऋषभ देव शर्मा


भारतीय साहित्य अत्यंत वैविध्यपूर्ण है। विभिन्न भारतीय भाषाओं की विभिन्न विधाओं में जहाँ अनेक प्रकार की समान प्रवृत्तियाँ मिलती हैं वहीं हर भाषा साहित्य का अपना वैशिष्ट्य भी है। यह एक रोचक तथ्य है कि उन्नसवीं शताब्दी के अंतिम और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक चरण में नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन के संदेश को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए भारतीय लेखकों ने हास्य-व्यंग्य का सटीक सामाजिक उपयोग किया है। हिंदी में भारतेंदु से लेकर बालमुकुन्द गुप्त तक यद्यपि इस प्रकार के हास्य-व्यंग्यपरक लेखन की परंपरा रही है परंतु इस काल में कोई हास्य-व्यंग्यपरक उपन्यास संभवतः नहीं रचा गया। ऐसी स्थिति में यह जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि तेलुगु भाषा में हास्य-व्यंग्यपरक कथा साहित्य की संपन्न परंपरा होती है। इसका श्रेय आंध्र जाति की हास्य प्रियता को दिया जा सकता है जो उसके शिष्ट साहित्य, लोक साहित्य, मुक्तक पद और कहावतों में परिलक्षित है। कंदुकूरि वीरेलिंगम पंतुलु, चिलकमर्ति लक्ष्मीनरसिंहम, पानुगंटि लक्ष्मी नरसिंग राव, गुरजाडा वेंकट अप्पाराव मुनिमाणिक्यम नरसिंहा राव और चिंता दीक्षितुलु के नाम इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। परंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण है मोक्कपाटि नरसिंह शास्त्री (1892-1974) का नाम जिन्होंने अपने 1924-25 में प्रकाषित दीर्घकाय हास्य-व्यंग्यपरक उपन्यासबैरिस्टर पार्वतीशमके बल पर तेलुगु साहित्य में अद्वितीय ख्याति अर्जित की। बैरिस्टर पार्वतीशम और हास्य रचना मानो एक दूसरे के पर्याय है। 90 वर्षीय वरिष्ठ हिंदी सेवी डॉ. एम.बी.वी.आई.आर. शर्मा (1918) ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक इस ऐतिहासिक महत्व की कृति को खोज कर इसका हिंदी अनुवाद उपलब्ध कराया है जिसके लिए वे निश्चय ही अभिनंदनीय है। आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी ने इस अनुवाद को प्रकाशित करके वास्तव में भारतीय साहित्य को संपन्न और समृद्ध करने की दिशा में अपना योगदान दिया है।

‘बैरिस्टर पार्वतीशम’ ने हास्य की सृष्टि करने के लिए उपन्यासकार ने विडंबना को घटनाओं, विकृत रूप, विचित्र चेष्टाओं, वचोनैपुण्य तथा मूर्खतापूर्ण क्रियाकलाप की योजना की है। विकृत भाषा और अस्तव्यस्तता का भी इसके लिए सहारा लिया गया है। यह रचना 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में भारतीय साहित्य में प्रवर्तित गद्य काल की मुख्य प्रवृत्ति अर्थात् राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक नवचेतना से ओतप्रोत है। इसे आंध्र प्रदेश में उभरे ‘आंध्रोदयम’ आंदोलन की एक औपन्यासिक परिणति के रूप में भी देखा जा सकता है। इसका नायक पार्वतीशम आंध्र के युवकों का प्रतिनिधि बनकर घर से निकलता है। वह बहुत भोला-भाला जीव है और हमेशा सभी को अपने ऊपर हँसने के अवसर उपलब्ध कराता रहता है। बड़ों के भाषण सुन-सुनकर उसके मन में देशोद्धार की भावना जागती है परंतु क्या करना चाहिए, इस संबंध में वह कुछ निर्णय नहीं कर पाता। वह ज्यादा पढ़-लिखा नहीं था और दूसरों से पूछने में उसे हेठी महसूस होती थी फिर भी वह कुछ ऐसा करना चाहता था जो बड़े-बड़े नेता भी नहीं कर पाए थे। अपनी इसी कामना से प्रेरित होकर पार्वतीशम देशोद्धार के निमित्त बैरिस्टर बनने के लिए घर से निकल पड़ता है। जिसने रेल नहीं देखी थी, जिससे जहाज का नहीं पता था, वह अपने गाँव से चलकर मद्रास, कोलंबो, पैरिस - जाने कहाँ-कहाँ की यात्राएँ करता है और अपने विचित्र अनुभवों के आत्मकथात्मक वर्णन से पाठकों को लोटपोट कर देता है। अपनी इसी शक्ति के कारण पार्वतीशम तेलुगु साहित्य का अमर पात्र बन गया है। एक अशिक्षित भारतीय युवक का जब पाश्चात्य सभ्यता से आमना-सामना होता है तो हास्य के अनेक विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव उभरने लगते है। लोक जीवन में घटित दैनंदिन घटनाओं को इस प्रकार लेखक ने व्यंग्य का आधार बनाने में सफलता प्राप्त हुई है।

तीन भागों में संयोजित इस हास्य उपन्यास के प्रथम खंड में 14, द्वितीय खंड में 26 तथा तृतीय खंड में 22 अध्याय है, हर अध्याय के अंत में एक उपसंहार भी है। बड़े आकार की इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या 600 से ऊपर है। अनुवादक ने बताया है कि इस कालजयी और क्लासिक श्रेणी की औपन्यासिक कृति के अनुवाद को उन्होंने प्रो. नामवर सिंह जैसे कई प्रकांड पंडितों को दिखाकर उनके परामर्शानुसार इसे प्रकाशित कराया है। इतना ही नहीं प्रो. पी. आदेश्वर राव ने इस अनुवाद का विधिवत् अवलोकन भी किया है। इसी का यह परिणाम है कि अनुवाद पढ़ते समय हिंदी की मौलिक रचना पढ़ने जैसा आनंद प्राप्त होता है।

यह जानना रोचक होगा कि आरंभ में इस उपन्यास के प्रथम भाग के प्रकाशन पर तेलुगु समीक्षा जगत में मिली जुली प्रतिक्रिया हुई थी। भारती पत्रिका के संपादक ने तो यहाँ तक लिख दिया था कि यह उपन्यास सिल्ली (ैपससल) है क्योंकि पार्वतीशम जैसा असभ्य इस जमाने में कोई नहीं होगा, इसलिए ऐसे अभूत कल्पनाओं से रचना करके संसार को खुश करने का प्रयत्न केवल मूर्खता है। इसके बावजूद यह ऐतिहासिक तथ्य है कि पार्वतीशम का पात्र ब्रह्मश्री कुरुगंटि सीताराम भट्टाचार्य की इस भविष्यवाणी पर खरा उतरा है कि यह पात्र नव्य साहित्य में स्थिर रहेगा। कहा जाता है कि ऐसा कोई व्यक्ति आंध्र प्रदेश में नहीं होगा जो इस पात्र को नहीं जानता। इस उपन्यास का फिल्मीकरण भी हो चुका है। ‘तेलुगु में हास्य’ (तेलुगुलो हास्यमु) शीर्षक ग्रंथ में मुट्नूरि संगमेषम ने ठीक ही कहा है कि पार्वतीशम वही युवा है जो लंदन जाकर बैरिस्टर पास हो जाने की लालसा और उत्साह रखने वाला है। वह आंध्र सनानत ब्राह्मण परिवार का है। उस काल में अंग्रेज़ी-शिक्षा के साथ-साथ प्राप्त होने वाले अनेक प्रकार के सुगुणों का अभाव है इसमें। आधुनिक समस्त सभ्यता उसके लिए अपरिचित है। कभी रेल की यात्रा भी नहीं करने वाले इस व्यक्ति को, घर से निकलने से लेकर कदम-कदम पर आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियाँ हर बार उसको मूर्ख बनाकर, सारा संसार उल्टा हुआ जैसा समझने को बाध्य करती है। रेल में उसका बरताव, मद्रास में अनेक कठिनाइयों का सामना करना, स्टीमर में सही गई बाधाएँ, नए प्रदेशों में होने वाली असुविधाएँ - इन सबको पढ़ते ही बनता है, लिखा नहीं जा सकता। इतनी हँसी हँसाकर कि हँसते-हँसते पेट में बल पड़े। एक घटना से बढ़कर दूसरी घटना का हास्यप्रद चित्रण करके इस लेखक ने तेलुगु में बेजोड़ हास्य रचना के रूप में इस कथा को हमें दिया। जब कोई वस्तु जिसे हम नहीं जानते, हमें मिलती तो उसे पकड़ने का मार्ग और उसमें सिर-पैर न जानकर हम कभी न कभी हँसी-मजाक के शिकार बनकर चिंतित होते हैं। इसी सूत्र ने इस पार्वतीशम की कथा में आदि से अंत तक गूँथा जाकर हास्य का पोषण किया। असहज रूप में ही सब कुछ की कल्पना करने पर भी अंत को अत्यंत सहज ही मालूम होता रहेगा। एक भूल दूसरी भूल का कारण होने से विकृतियाँ एक दूसरे से गूँथकर लपेटने के जैसे दिखाकर कल्पना के परे के मोड की ओर खींच ले जाती हैं। पात्र स्वभावतः मूर्ख नहीं है, सन्निवेश उसे मूर्ख बनाकर हँसी-मजाक उड़ाते हैं। इस पार्वतीशम से बढ़कर हँसी-मजाक का शिकार बनने की परिस्थितियों का हम ने भी अपने जीवन में कभी न कभी अनुभव किया और उनको जान लिया। इसीलिए इस पात्र पर हमारा ममकार, गौरव और सहानुभूति वगैरह होते हैं। यह हमारी राष्ट्रीय संपत्ति के रूप में बना हुआ पात्र है।

हमारा यह राष्ट्रीय पात्र जब जला उपला, तालपत्र, कंथा, लाल शाल, गुलाबी रेशमी दुपट्टा और गेंदे के रंग का संदूक लेकर चलता है तो लोग उसे मूर्ख समझ कर हँसते हैं। वह अनजाने में महिला-टोपी खरीद लेता है और जब सब हँसते है तो भोलेपन से कह देता है कि उसने इसे किसी सहेली के लिए खरीदा है। सीधासादा पार्वतीशम यदि चाकू और काँटे का प्रयोग नहीं जानता और कालीन को गन्दा होने के बचाने के लिए मोमकी पालिश वाले लकडी के टुकडों पर चलने की कोशिश करता है या हेयर कटिंग सेलून को देखकर भ्रमित होता है तो लोग तो हँसेंगे ही। वह एक ऐसा कालजयी नायक है जिसमें काव्य शास्त्रीय धीरोदात्त महानायकत्व नहीं है, खलनायक या प्रतिनायक वह बिलकुल नहीं है। जैसा कि लेखक ने स्वयं कहा है, भले ही उसमें और कुछ न हो वह हम जैसा मानव है। हम में जो मानवता है वह उसमें भी है। हम ही वह है, वही हम है, इसीलिए हम में से हर एक में कहीं न कहीं एक पार्वतीशम छिपा है। शायद यही कारण है कि चाहे कोई कितना भी हँसे पार्वतीशम कुछ नहीं कहता और अपनी नादानियों से तथाकथित आधुनिक सभ्यता की बखिया उधेड़ता रहता है - यही उसकी सफलता है।

इसमें संदेह नहीं कि साहित्यिक अनुवाद सांस्कृतिक समन्वय का अत्यंत कारगर माध्यम है। इस उपन्यास के द्वारा भी यह सदुद्देश्य संपन्न होता है। अनुवादक ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक ऐसे प्रयोगों की पुस्तक के अंत में सूची दी है जो तेलुगु संस्कृति की परंपरा से गृहीत हैं तथा जिनकी व्याख्या अपेक्षित है। पाठक यदि उपन्यास पढ़ने से पहले परिशिष्ट में दिए गए प्रांतीय प्रयोगों के विवरण को पढ़ लें तो कथा रस के आस्वादन में सुकरता होगी। उदाहरण के लिए ‘घर का नाम’ की व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि आंध्र प्रांत में हर एक व्यक्ति के नाम के पहले उसके पूर्वज जिस गाँव में रहते थे उस गाँव के नाम के आधार पर या उनके व्यवसाय के आधार पर नाम जोड़ा जाता है। वह पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आता है जैसे उत्तर भारत में द्विवेदी, त्रिवेदी या चतुर्वेदी आदि नाम के अंत में जोड़ा जाता है।

इसी प्रकार हिंदी पाठक के लिए ‘अष्टावधानम’ के संबंध में यह विवरण अत्यंत उपादेय हो सकता है कि यह तेलुगु साहित्य और संस्कृति की एक विषिष्ट प्रक्रिया है। अवधान करने वाले को अवधानी कहते हैं। आठ पृच्छक आठ अलग-अलग विषयों को जो निम्नलिखित प्रकार हैं, अवधानी के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं जिनके समाधान अवधानी अंत में सबको सही ढंग से देता है। इसके लिए धारणा शक्ति की आवश्यकता होती है। अष्टावधानम के आठ विषय हैं - 1. समस्यापूरण, 2. निषेधाक्षरी, 3. व्यस्ताक्षरी, 4. दत्ताक्षरी, 5. अप्रस्तुत प्रशंसा, 6. आकाश पुराण, 7. घंटियों को गिनना और 8. शतरंज।

कुल मिलाकर इसमें संदेह नहीं कि ‘बैरिस्टर पार्वतीशम’ जैसी कालजयी कृति को हिंदी में उपलब्ध कराकर डॉ. एम.बी.वी.आई.आर. शर्मा ने तेलुगु और हिंदी दोनों भाषा समाजों का बड़ा उपकार किया है। यह कृति तेलुगु की भाँति हिंदी के पाठकों का भी हृदयहार बने, यही कामना है।


* बैरिस्टर पार्वतीशम (तेलुगु उपन्यास)/
मूल: मोक्कपाटि नरसिंह शास्त्री
अनुवाद: डॉ. एम.बी.वी.आई.आर. शर्मा
आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी,
वेस्ट विंग, 8वीं मंजिल, गगन विहार,
मोजमजाही रोड, हैदराबाद-500 001
2007/
200 रु./
पृष्ठ 608 (सजिल्द)।

भाषा : पत्रकारिता और हिन्दी

हिन्दी पत्रकारिता की भाषा
- राजकिशोर


'प्रिंट मीडिया' को हम 'मुद्रित माध्यम' क्यों नहीं कहते? ऐसा कैसे हुआ कि अखबारों और पत्रिकाओं के विशिष्ट वर्ग की ओर संकेत करने के लिए हमारे दिमाग में तुरंत यही एकमात्र शब्द कौंधता है? इस प्रश्न के उत्तर में ही जन माध्यमों में हिंदी भाषा के स्वरूप की पहचान छिपी हुई है।


जब कोलकाता से हिंदी साप्ताहिक 'रविवार' शुरू हो रहा था, उस समय मणि मधुकर हमारे साथ थे। कार्यवाहक संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह मीडिया पर एक स्तंभ शुरू करने जा रहे थे। प्रश्न यह था कि स्तंभ का नाम क्या रखा जाए। मणि मधुकर लेखक आदमी थे। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था। उनसे पूछा गया, तो वे कुछ सोच कर बोले - संप्रेषण। सुरेंद्र जी ने बताया कि उन्हें 'माध्यम' ज्यादा अच्छा लग रहा है। अंत में स्तंभ का शार्षक यही तय हुआ। लेकिन सुरेंद्र प्रताप की विनोद वृत्ति अद्भुत थी। उन्होंने हंसते हुए मणि मधुकर से कहा, 'दरअसल, हम दोनों ही अंग्रेजी से अनुवाद कर रहे थे। आपने 'कम्युनिकेशन' का अनुवाद संप्रेषण किया और मैंने 'मीडिया' का अनुवाद माध्यम किया।'


जाहिर है, 1977 में हिंदी पत्रकारिता पर अंग्रेजी की छाया दिखाई पड़ने लगी थी। कवर स्टोरी को आवरण कथा या आमुख कथा कहा जाता था। लेकिन आज कवर स्टोरी का बोलबाला है। अंग्रेजी अब अनुवाद में नहीं, सीधे आ रही है और बता रही है कि हम अनुवाद की संस्कृति से निकल कर सीधे अंग्रेजी के चंगुल में है। अनुवाद में अनुगतता की छाया है, अंग्रेजी के सीधे इस्तेमाल में बराबरी का संदेश है। जानते हैं जी, हम भी अंग्रेजी जानते हैं। और दकियानूस भी नहीं हैं कि पोंगा पंडितों की तरह हर शब्द का हिन्दी पर्याय खोजते या बनाते रहें। जो तुमको हो पसंद, वही बैन कहेंगे। पंखे को अगर फैन कहो, फैन कहेंगे। किसी टेलीविजन चैनल की भाषा कितनी जनोन्मुख है, इसका फैसला इस बात से किया जाता है कि उस चैनल पर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कितना प्रतिशत होता है। ऐसे माहौल में अगर दूरदर्शन की भाषा पिछड़ी हुई, संस्कृतनिष्ठ और प्रतिक्रियावादी लगती है, तो इसमें हैरत की बात क्या है!


अराजकता का जन्म तभी होता है जब व्यवस्था अपना निर्धारित काम करना बंद कर चुकी होती है। हिन्दी पत्रकारिता की 1977 के पहले की भाषा की याद करें, तो वह 1950 के आसपास से ही ठप हो चुकी थी। हिन्दी ने ही राष्ट्रपति, संसद, विधेयक जैसे शब्द गढ़े थे, पर विष्णुराव पराड़कर और गणेशशंकर विद्यार्थी का वंश उनके साथ ही डूब गया। वे पत्रकार थे -- समाज के सांस्कृतिक नेताओं में एक। उनके जाते ही हिन्दी पत्रकारिता में आलोचनात्मक विवेक का सूर्यास्त हो गया। जिन्हें संपादक बनाया गया, वे अपने आभामंडल में आत्म-मुग्ध थे। यह सुविधा उन्हें इसलिए मिली कि वे आदर्श कर्मचारी थे, जिसके कारण मालिक को किसी दिक्कत में नहीं पड़ना पड़ता था। नेहरू युग को ऐसी सर्वसहमति का समय कहा जा सकता है जिसमें सच देखना, सच कहना और सच सुनना राष्ट्रीय गुनाह मान लिया गया था। जब पत्रकारिता में किसी भी अन्य स्तर पर सर्जनात्मकता के दर्शन नहीं हो रहे थे, तब उसकी भाषा में किसी किस्म की कौंध पैदा होने की संभावना कहां थी? बासी विचारों को बासी भाषा ही वहन कर सकती है।


उस युग की पत्रकारिता को मैं हिन्दी, या कह लीजिए भारतीय पत्रकारिता का भक्ति काल कहता हूं -- इस फर्क के साथ कि हिन्दी कविता के भक्ति काल में फिर भी अनेक प्रगतिशील तत्व थे। उसमें रस भी था। पत्रकारिता का भक्ति काल आत्मदैन्य और आत्महीनता से भरपूर राधास्वामी संप्रदाय का विस्तार था। वह रामचरितमानस नहीं, विनय पत्रिका थी। असली विनय पत्रिका में सच्चा दर्द और मुक्ति की सच्चा कामना होती है, नकली विनय पत्रिका हैतुक प्रेम और चापलूसी के मल से वेष्ठित होती है। ये वे गुण हैं जो मानव व्यवहार तथा रुझान के अद्वितीय जानकार महर्षि वात्स्यायन ने आदर्श गणिका के लिए आवश्यक बताए हैं।


1977 में शुरू हुए हिन्दी पत्रकारिता के वीरगाथा काल की प्रमुख देन यह है कि पहली बार हिन्दी जनता के करीब आई। इसलिए उसकी भाषा भी बदली। यह बदलाव कला के स्तर पर 'दिनमान' में सबसे अधिक परिलक्षित हुआ -- खासकर रघुवीर सहाय के संपादन में। इसे मैं उच्च परंपरा का एक विस्तार मानता हूं, जिसकी जड़ें साहित्य की तत्कालीन संस्कृति में थीं। 'दिनमान' के नायकों में सच्चिदानंद वात्स्यायन, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, श्रीकांत वर्मा, सर्वे·ार दयाल सक्सेना, नेत्रसिंह रावत आदि का नाम सहज ही याद आता है। जिसे सबाल्टर्न परंपरा कहा जाता है, उसका श्रेष्ठतम उत्कर्ष 'रविवार' में दिखाई पड़ा। यह एकदम जमीन से जुड़ी हुई पत्रकारिता थी, जिसने पत्रकारिता की हिन्दी को उस तरह खोला जैसे रामधारी सिंह दिनकर और हरिवंशराय बच्चन ने कविता की हिन्दी को खोला था। पत्रकारिता की भाषा और शिल्प को 'रविवार' ने जितनी तरह से बदला, उसे सीधा और संप्रेषणशील बनाया, उसका मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ है। बाद में संपादन-सम्राट प्रभाष जोशी के संपादन में यही काम 'जनसत्ता' ने और अधिक सर्जनात्मकता तथा सतर्कता से किया। इसके पहले कौन-सा अखबार 'पंजाब में पौ फटी' जैसा ठेठ हिन्दी का शीर्षक लगा सकता था? पुराने स्कूल के संपादक इसे पत्रकारिता में भिखारी ठाकुर या कुशवाहा कांत का प्रवेश मानते।


अब मैं बड़े विषाद के साथ हिन्दी पत्रकारिता के रीति काल या श्रृंगार काल की चर्चा करूंगा, जब वह अपने चरम उभार तक पहुंचने की प्रतीक्षा में रोज आईने के सामने अपना जायजा ले रही है। यह एक तरह से 'अर्श से फर्श पर गिरा डाला' की स्थिति है। जो लोग मानते हैं कि पत्रकारिता को उद्योग बनना ही था और रचना से उत्पाद में ढलना ही था, वे औद्योगिकता और उत्पादन का एक ही अर्थ समझते हैं। इला भट्ट की संस्था 'सेवा' भी बिजनेस करती है, लेकिन उसकी संस्कृति 'फैब इंडिया' से अलग है। यह वह समय था जब उत्तर भारत में लुच्चई एक सम्मानित मूल्य बन चुकी थी और भाषा तथा विचार के स्वाभिमान का लोप हो चुका था। चमक-दमक आत्मा की सबसे बड़ी दुश्मन है। जैसे स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता के चरित्र की सटीक भविष्यवाणी पराड़कर जी 1925 में वृंदावन वाले अपने ऐतिहासिक व्याख्यान में कर चुके थे (पत्र सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे। छपाई अच्छी होगी। मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे। लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषण की झलक होगी, और मनोहारिणी शक्ति भी होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में होगी। यह सब होगा, पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी -- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत-मस्तिष्क समझे जाएंगे। संपादक की कुरसी तक उनकी पहुंच न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है, वह उन्हें न होगी।') वैसे ही रघुवीर सहाय अपने बाद के समय की संस्कृति को सिर्फ एक जुमले में बांध गए थे -- उत्तम जीवन दास विचार।


यह कहना पीड़ादायक है कि जो लोग हिंदी के उच्च प्रसार संख्या वाले दैनिक पत्रों में काम करते हैं, वे भाषाई संकरता के कामरूप-कामाख्या की मिथकीय भेड़ें हो चुके हैं। आज के मुहावरे में उन्हें भूमंडलीकृत भारत के भाषाई भड़ैतिए कहा जाएगा। लेकिन इसके लिए सिर्फ इन्हें जिम्मेदार मानना ह्मदयहीनता होगी। कुछ काबा के लिए निकले थे और कलीसा पहुंच गए। बाकी के लिए कलीसा ही काबा है। जहां माल, वहां राल। यह वह समय था जब आर्थिक जगत में अंबानी और हर्षत मेहता का तड़ित प्रवेश हो चुका था और हिन्दी पत्रकारिता का रास्ता पहली बार टकसाल की ओर जाता हुआ दिखाई पड़ने लगा था। उन्हीं दिनों हिन्दी पत्रकारिता के युवा तुर्क उदयन शर्मा 'रविवार' को बंद करा कर अंबानी का दो कौड़ी का साप्ताहिक 'संडे ऑब्जर्वर' निकालने के लिए अपने लंबे कैरियर को दांव पर लगा चुके थे और सुरेंद्र प्रताप सिंह आरक्षण का उग्र समर्थन करने के साथ-साथ उदारीकरण और वि·ाीकरण के पक्षधरों में दाखिल हो गए थे। जब अर्थलोलुप और संस्कृतिविहीन पत्रस्वामी हिंदी पत्रकारिता का कायाकल्प कर रहे थे (नई काया को नई आत्मा चाहिए थी और वह 'खरीदी कौड़ियों के मोल' उपलब्ध थी) उस वक्त काम कर रहे हिंदी पत्रकारों ने अगर उनके साथ आज्ञाकारी सहयोग नहीं किया होता, तो उनमें से प्रत्येक की नौकरी खतरे में थी। आज भी कुछ घर-उजाड़ू या पत्रकारों को छोड़ हिंदी का कोई भी पत्रकार अंग्रेजी-मर्दित हिंदी अपने मन से नहीं लिखता। उसे यह अपने ऊपर और अपने पाठकों पर सांस्कृतिक अत्याचार लगता है। वह झुंझलाता है, क्रुद्ध होता है, हंसी उड़ाता है, कभी-कभी मिल-जुल कर कोई अभियान चलाने का सामूहिक निश्चय करता है, लेकिन आखिर में वही ढाक के तीन पात सामने आते हैं और वह दिया हुआ काम दी हुई भाषा में दिए हुए ढंग से संपन्न कर उदास मन से घर लौट जाता है। उसके सामने दिन में कई-कई बार यह तथ्य (मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियां हैं, जरा समझो सजन मजबूरियां हैं) उजागर होता है कि जिस अखबार में वह काम कर रहा है, वह उसका घर नहीं, छप्पन छुरी बहत्तर पेच वाली गली है। जिस व्यक्ति ने रुपया लगाया है, वही तय करेगा कि क्या छपेगा, किस भाषा में छपेगा और किन तसवीरों के साथ छपेगा। मेन्यू ब्राांड मैनेजर बनाएगा, पत्रकार का काम रसोइए और बेयरे का है। यह अनासक्ति योग की नई परिभाषा थी।


ऐसा क्यों हुआ? कैसे हुआ? यहां मैं एक संस्मरण की शरण लूंगा। नवभारत टाइम्स के दिल्ली संस्करण से विद्यानिवास मिश्र विदा हो चुके थे --- यह घोषणा करते हुए कि अब इस गली में दुबारा नहीं आऊंगा। विष्णु खरे को भी जाना पड़ा था। स्थानीय संपादक का पद सूर्यकांत बाली नाम के एक सज्जन संभाल रहे थे। अखबार की संपादकीय नीति का नेतृत्व स्वयं पत्र-स्वामी और ब्राांड मैनेजर कर रहे थे। बाली की विशेषता यह थी कि वे इन दोनों की हर नई स्थापना से तुरंत सहमत हो जाते थे, बल्कि उससे कुछ आगे भी बढ़ जाते थे। आडवाणी ने इमरजेंसी में पत्रकारों के आचरण पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि उन्हें झुकने को कहा गया था, पर वे रेंगने लगे। मैं उस समय के स्थानीय संपादक को रेंगते हुए देखता था और अपने दिन गिनता था।


सूर्यकांत बाली संपादकीय बैठकों में हिंदी पत्रकारिता के नए फलसफे के बारे में पत्र स्वामी के विचार इस तरह प्रगट करते जैसे वे उनके अपने विचार हों। युवा पत्र स्वामी की चिंता यह थी कि नवभारत टाइम्स युवा पीढ़ी तक कैसे पहुंचे। वे अकसर यह लतीफा सुनाते थे कि जब बहादुरशाह जफर मार्ग से, जहां नवभारत टाइम्स का दफ्तर है, किसी बूढ़े की लाश गुजरती है, तो मुझे लगता है कि नवभारत टाइम्स का एक और पाठक चस बसा। नए पाठकों की तलाश में उन्होंने शहरी युवा को निशाना बनाया। उन्होंने हिंदी के संपादकों से कहा कि हिंदी में अंग्रेजी मिलाओ, वैसी पत्रकारिता करो जैसी नया टीओआई कर रहा है, नहीं तो तुम्हारी नाव डूबने ही वाली है। सरकुलेशन नहीं बढ़ेगा, तो एडवर्टीजमेंट नहीं बढ़ेगा, रेवेन्यू में कमी आएगी और अंत में वी विल बी फोस्र्ड टु क्लोज डाउन दिस पेपर। सूर्यकांत बाली इस नए योग वाशिष्ठ के प्रवचनकार बने और हमें बताने लगे कि हम लोगों को विशेषज्ञ की जगह एक्सपर्ट, समाधान की जगह सॉल्यूशन, नीति की जगह पॉलिसी और उदारीकरण की जगह लिबराइजेशन लिखना चाहिए। एक दिन उनके ये उदात्त विचार हमने 'पाठकों के पत्र' स्तंभ में एक छोटे-से लेख के रूप में पढ़े। उस लेख को हिंदी पत्रकारिता के नए इतिहास में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में स्थान मिलना चाहिए।


इस नई चाल में ढलने को कोई चाहे तो हिंदी की सार्मथ्य भी बता सकता है। दरअसल, यह भाषा अपने आदिकाल से ही संघर्ष कर रही है। उसे उसका प्राप्य अभी तक नहीं मिल सका है। अपने को बचाने की खातिर हिंदी ने कई तरह के समझौते भी किए। अवधी, ब्राजभाषा, भोजपुरी, उर्दू आदि के साथ अच्छे रिश्ते बनाए। अंग्रेजी से भी दोस्ती का हाथ मिलाया। यह हिंदी की चयापचय क्षमता है जो किसी भी जिंदादिल भाषा की होती है। इस प्रक्रिया में वह आसपास की हर चीज का हिंदीकरण कर लेती है। अतः उसने अंग्रेजी शब्दों का भी हिंदीकरण किया। आजादी के बाद भी हिंदी अंग्रेजी शब्दों के हिंदी प्रतिशब्द बनाती रही। बजट, टिकट, मोटर और बैंक जैसे शब्द सीधे ले लिए गए, क्योंकि ये हिंदी के प्रवाह में घुल-मिल जा रहे थे और इनका अनुवाद करने के प्रयास में 'लौहपथगामिनी' जैसे असंभव शब्द ही हाथ आते थे। आज भी पासपोर्ट को पारपत्र कहना जमता नहीं है, हालांकि इस शब्द में जमने की भरपूर संभावना है।


1970-80 के दौर में जनसाधारण के बीच हिंदी का प्रयोग करनेवालों में सांस्कृतिक थकावट आ गई और इसी के साथ उनकी शब्द निर्माण की क्षमता भी कम होती गई। तब तक यह तय हो चुका था कि राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का कोई भविष्य नहीं है। अलबेली हिंदी को आगे चल कर क्या होना है, यह तब और साफ हो गया जब दिनमान टाइम्स, संडे मेल, संडे ऑब्जर्वर जैसे नामों वाले साप्ताहिक हिंदी में निकलने लगे। यह प्रवृत्ति 70 के दशक में मौजूद होती, तो हिंदी में 'रविवार' नहीं, 'सनडे' ही निकलता। 'इंडिया टुडे' हिन्दी तथा कुछ अन्य भाषाओं में इसी नाम से निकलता है। 90 के दशक में जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारत की अंग्रेजी पत्रकारिता का चेहरा बदल डाला, उसे आत्मा-विहीन कर दिया, वैसे ही नए नवभारत टाइम्स ने हिंदी पत्रकारिता में एक ऐसी बाढ़ पैदा कर दी, जिसमें बहुत-से मूल्य और प्रतिमान डूब गए। बाजारगत सफलता फूहड़ रंगचित्र को भी क्लासिक बना देती है। नवभारत टाइम्स का यह नवीनीकरण आर्थिक दृष्टि से सफल हुआ और अन्य अखबारों के लिए मॉडल बन गया। कुछ हिंदी पत्रों में तो अंग्रेजी के स्वतंत्र पन्ने भी छपने लगे। अशर्फियों की लूट में कौन पीछे रहता? प्रभाष जोशी ने एक जमाने में सरकारी हिन्दी का उपहास करते हुए लेख लिखा था -- सावधान, पुलिया संकीर्ण है। आज उन्हें लिखना होगा -- सावधान, आगे कर्व है।


इस मारधाड़ में हिन्दी पत्रकारिता की भाषा का क्या होने लगा, इसका एक नमूना प्रभु जोशी ने अपने एक सुंदर लेख में यह दिया है : 'मार्निंग अवर्स के ट्रेफिक को देखते हुए डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रेफिक रूल्स अपने ढंग से इंप्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफट्र्स किए हैं, वो रोड को प्रोन टू एक्सीडेंट बना रहे हैं। क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न ले कर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं। इस प्रॉब्लम का इमीडिएट सोल्यूशन मस्ट है।' प्रभु जोशी बताते हैं, 'जब देश में सबसे पहले मध्य प्रदेश के एक स्थानीय अखबार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अखबार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत शब्द अंग्रेजी के शब्दों को मिला कर ही किसी खबर के छापे जाने के आदेश दिए और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरुआत की, तो मैं अपने पर लगनेवाले संभव आरोप मसलन प्रतिगामी, अतीतजीवी, अंधे राष्ट्रवादी और फासिस्ट आदि जैसे लांछनों से डरे बिना एक पत्र लिखा।'


प्रभु जोशी ने पत्र स्वामी को जो तर्कपूर्ण और मार्मिक पत्र लिखा, उसकी कुछ पंक्तियां अविस्मरणीय हैं -- एक, 'बहरहाल, अब ऐसी हिंसा सुनियोजित और तेज गति के साथ हिन्दी के खिलाफ शुरू हो चुकी है। इस हिंसा के जरिए भाषा की हत्या करने की सुपारी आपके अखबार ने ले ली है। वह भाषा के खामोश हत्यारे की भूमिका में बिना किसी तरह का नैतिक संकोच अनुभव किए अच्छी-खासी उतावली के साथ उतर चुका है। उसे इस बात की कोई चिंता नहीं कि एक भाषा अपने को विकसित करने में कितने युग लेती है।' दो, 'लगता है आप हिन्दी के लिए हिन्दी का अखबार नहीं चला रहे हैं, बल्कि अंग्रेजी के पाठकों की नर्सरी का काम कर रहे हैं। … आपका अखबार उस सर्प की तरह है जो बड़ा हो कर अपनी ही पूंछ अपने मुंह में ले लेता है और खुद को ही निगलने लगता है।' तीन, 'आपको याद होना चाहिए कि सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से उपजी भाषा-चेतना ने इतिहास में कई-कई लंबी लड़ाइयां लड़ी हैं। इतिहास के पन्ने पलटेंगे तो आप पाएंगे कि आयरिश लोगों ने अंग्रेजी के खिलाफ बाकायदा एक निर्णायक लड़ाई लड़ी, जबकि उनकी तो लिपि में भी भिन्नता नहीं थी। फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि भाषाएं अंग्रेजी के साम्राज्यवादी वर्चस्व के विरुद्ध न केवल इतिहास में, अपितु इस इंटरनेट युग में भी फिर नए सिरे से लड़ना शुरू कर चुकी हैं। इन्होंने कभी अंग्रेजी के सामने समर्पण नहीं किया।' प्रभु जोशी ने अपने पत्र का उत्तर पाने के लिए काफी दिनों तक इंतजार किया। अब उन्होंने यह उम्मीद छोड़ दी है।


भाषा संस्कृति का वाहक होती है। प्रत्येक सांस्कृतिक बदलाव अपने लिए एक नई भाषा गढ़ता है। नक्सलवादियों की भाषा वह नहीं है जिसका इस्तेमाल पीसी जोशी, नंबूदिरिपाद या गोपालन किया करते थे। आज के विज्ञापनों की भाषा भी वह नहीं है जो 80 के दशक तक होती थी। यह एक नई संस्कृति है जिसके पहियों पर आज की पत्रकारिता इठलाते और इतराते हुए चल रही है। इसे मुख्य रूप से उपभोगवाद की संस्कृति कह सकते हैं, जिसमें किसी भी प्रकार की वैचारिकता के लिए जगह नहीं है। जैसे दिल्ली के प्रगति मैदान में उत्तम जीवन (गुड लिविंग) की प्रदर्शनियां लगती हैं, वैसे ही आज हर अखबार उत्तम जीवन को उत्तर-आधुनिक ढंग से परिभाषित करने लगा है। उत्तर-आधुनिकता में विविधता का स्वीकार और आग्रह है, पर यहां आलम यह है कि सभी अखबार एक जैसे नजर आते हैं - सभी में एक जैसे रंग, सभी में एक जैसी सामग्री तथा सफलता और संपन्नता पाने के लिए एक जैसी शिक्षा। पत्रकारिता के इस नए चरागाह में मुझे एक ही चीज काम की दिखाई देती है -- रोगों से बचने और सेहत बनाए रखने के नुस्खे।


इसका असर हिंदी की जानकारी के स्तर पर भी पड़ा है। टीवी चैनलों में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है जो शुद्ध हिंदी के प्रति सरोकार रखते हैं। प्रथमतः तो ऐसे व्यक्तियों को लिया ही नहीं जाता। किसी धोखे में ले लिया गया, तो उनसे मांग की जाती है कि वे ऐसी हिंदी लिखें और बोलें जो श्रोताओं की नहीं, ऑडिएंस की समझ में आए। नेहरू युग की मिश्रित अर्थव्यवस्था की तरह यह भाषा हिन्दी और अंग्रेजी की बेलज्जत खिचड़ी ही हो सकती है। टीवी के परदे पर अकसर गलत हिंदी दिखाई देती है और एंकरों के मुंह से गलत हिन्दी सुनाई देती है, तो यह यूं ही नहीं है। ऐसा कह कर मैं कोई न्यूज ब्रोक नहीं कर रहा हूं कि अनेक हिंदी समाचार चैनलों के प्रमुख ऐसे महानुभाव हैं जिन्हें हिंदी आती ही नहीं और यह उनके लिए शर्म की नहीं, गर्व की बात है। हम हिंगलिश, हमारी भाषा हिंगलिश। नीचे के पत्रकारों को अगर हिन्दी ज्ञान बढ़ाने की फिक्र नहीं है, तो इसका कारण यह है कि अच्छी हिंदी की मांग नहीं है और संस्थानों में उसकी कद्रदानी भी नहीं है जो सही हिन्दी लिख सकते हैं। हिंदी दुनिया की एकमात्र अभागी भाषा है जिसे न जानते हुए भी हिंदी की पत्रकारिता की जा सकती है और पुरस्कार भी पाए जा सकते हैं।


हिन्दी पत्रकारिता की ट्रेजेडी यह है कि टेलीविजन से प्रतिद्वंद्विता में उसने अपने लिए कोई नई या अलग राह नहीं निकाली, बल्कि वह टेलीविजन का अनुकरण करने में लग गया। याद करने की जरूरत है कि जब हिंदी क्षेत्र में व्यावसायिक टेलीविजन का प्रसार शुरू हो रहा था, हिंदी पत्रों की आत्मा आखिरी हिचकियां लेने लग गई थी। पुनर्नवा होने के लिए उसके पास एक ही मॉडल था, टेलीविजन की पत्रकारिता। संपादक रह नहीं गए थे जो कुछ सोच-विचार करते और पिं्रट को इलेक्ट्रॉनिक का रीमिक्स होने से बचा पाते। आज का मालिक पैसे के लिए संस्कृति क्या चीज है, सभ्यता का भी त्याग कर सकता है। नतीजा यह हुआ कि हिन्दी के ज्यादातर अखबार फूहड़ टेलीविजन की फूहड़तर नकल बन गए। इसका असर उनकी भाषा पर पड़ना ही था। जीभ का सीधा संबंध पेट से है। हिंदी का टेलीविजन जो काम कर रहा है, वह एक विकार-ग्रस्त भाषा में ही हो सकता है। अशुद्ध आत्माएं अपने को शुद्ध माध्यमों से प्रगट नहीं कर सकतीं। सो हिंदी पत्रों की भाषा भी भ्रष्ट होने लगी। एक समय जिस हिंदी पत्रकारिता ने राष्ट्रपति, संसद जैसे दर्जनों शब्द गढ़े थे, जो सबकी जुबान पर चढ़ गए, उसी हिंदी के पत्रकार प्रेसिडेंट, प्राइम मिनिस्टर जैसे शब्दों का बेहिचक इस्तेमाल करने लगे। इसके साथ ही यह भी हुआ कि हिंदी पत्रों में काम करने के लिए साहित्य का छोड़ा भी संस्कार आवश्यक नहीं रह गया। पहले जो हिंदी का पत्रकार बनना चाहता था, वह कुछ साहित्यिक संस्कार ले कर आता था। वास्तव में शब्द की श्रेष्ठतम रचनात्मक साधना तो साहित्य ही है। गोत्र के इसी रिश्ते से हिंदी पत्रों में कुछ साहित्य भी छपा करता था। कहीं-कहीं साहित्य संपादक भी होते थे। लेकिन नए वातावरण में साहित्य का ज्ञान अवगुण बन गया। साहित्यकारों को एक-एक कर अखबारों से बाहर किया जाने लगा। इस तरह हिन्दी पहली बार गरीब की जोरू बनी, जिसके लंहगे के साथ कोई भी कभी भी खेल सकता है। यही कारण है कि अब अधिकतर हिंदी अखबारों में अच्छी भाषा पढ़ने का आनंद दुर्लभ तो हो ही गया है, उनसे शुद्ध लिखी हुई हिंदी की मांग करना भी नाजायज लगता है। जिनका हिंदी से कोई लगाव नहीं है, जिनकी हिंदी के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है, जो हिंदी की किताबे नहीं पढ़ते (सच तो यह है कि वे कोई भी किताब नहीं पढ़ते), उनसे यह अपेक्षा करना कि वे हिंदी को सावधानी से बरतें, उनके साथ वैसा ही गंभीर अन्याय है जैसा गधे से यह मांग करना कि वह घोड़े की रफ्तार से चल कर दिखाए।


आगे क्या होगा? क्या हिंदी बच भी पाएगी? जिन कमियों और अज्ञानों के साथ आज हिंदी का व्यवहार हो रहा है, वैसी हिंदी बच भी गई तो क्या? जो कमीज उतार सकता है, वह धोती भी खोल सकता है। इसलिए यह आशंका अवास्तविक नहीं कि धीरे-धीरे अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिंदी भी मरणासन्न होती जाएगी। आज हिंदी जितनी बची हुई है, उसका प्रधान कारण हिंदी क्षेत्र का अविकास है। अब अविकसित लोग ही हिंदी के अखबार पढ़ते हैं। पर उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में जाने लगे हैं। जिस दिन यह प्रक्रिया पूर्णता तक पहुंच जाएगी, हिंदी पढ़नेवाले हिब्राू के जानकारों की तरह अल्पसंख्यक हो जाएंगे। विकसित हिंदी भाषी परिवार से निकला हुआ बच्चा सीधे अंग्रेजी पढ़ना पसंद करेगा। यह एक भाषा की मौत नहीं, एक संस्कृति का अवसान है। कुछ लोग कहेंगे, यह आत्महत्या है। मैं कहता हूं, यह खून है।


क्या बचने का कोई रास्ता बचा है? एक सुझाव यह है कि पत्रकारिता तथा अन्य संचार माध्यमों में हिन्दी के पुनर्वास के लिए अभियान चलाया जाए। यह पूरे शरीर के बुखार को उतारने के बजाय सिर्फ हाथ-पैर का बुखार उतारने की कोशिश होगी। जरूरत एक सर्वव्यापी स्वदेशी भाषा आंदोलन छेड़ने की है। लेकिन वह भी तभी स-फल होगा जब वह राजनीति, अर्थव्यवस्था, प्रशासन आदि के जनवादी पुनर्विन्यास के साथ-साथ चलाया जाए। शोहदागीरी के साथ टकराए बिना शोहदों से साफ और मीठी भाषा बुलवाना खयाली पुलाव है।

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