मणिपुरी कविता- मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज [V]
पिछले अंक में हमने मणिपुर और मणिपुरी भाषा पर नज़र दौडा़ई थी। अब हमारी यात्रा मणिपुरी लोकगीतों और साहित्य की ओर बढ़ती है। डॉ. देवराज मणिपुरी साहित्येतिहास इस तरह बताते हैं:-
"साहित्य-सृजन परम्परा की खोज करते समय सबसे बडी़ बाधा यह है कि मणिपुरी भाषा के विपुल प्राचीन साहित्य से सम्बन्धित पांडुलिपियों में रचना-काल का उल्लेख नहीं है। फिर भी ऎतिहासिक विकास की परिस्थितियों, प्रब्रजन की दशाओं और भाषायी सम्पर्क के इतिहास को आधार बनाकर किसी मान्य निष्कर्ष तक पहुँचा जा सकता है। इस कसौटी के आधार पर मणिपुरी भाषा में लेखन-परम्परा की शुरुआत आठवीं शताब्दी के लगभग से मानना अनुचित नहीं है।"
"प्राचीन और पूर्व मध्यकालीन साहित्येतिहास आनुष्ठानिक रचनाओं, स्तोत्र साहित्य, वीरपूजा सम्बन्धी कृतियों, अलौकिक-प्रेम पर आधारित गीतों, पुराकालिक इतिवृत्तात्मक रचनाओं, सामान्य धार्मिक विश्वासों पर आधारित कथाओं और सामाजिक- व्यवस्था सम्बन्धी रचनाओं से समृद्ध है। इस काल में राज-परम्पराओं, प्रकृति-प्रेम, कार्य-विभाजन, काल-चिन्तन, पुष्प-ज्ञान, कृषि आदि से सम्बन्धित साहित्य विशाल मात्रा में रचा गया।"
"आनुष्ठानिक साहित्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, ‘लाइ-हराओबा’सम्बन्धी गीत। लाइहराओबा मीतै जाति का एक धार्मिक-अनुष्ठान है, जो उसकी उत्सवप्रियता, जीवन-दर्शन एवं कलात्मक-रुचि को एक साथ प्रस्तुत करता है। कहा जाता है कि नौ देवताओं [जिन्हें लाइपुङ्थौ कहा जाता है] ने मिलकर इस पृथ्वी को स्वर्ग से उतारा। सात देवियाँ [लाइ नुरा] जल पर नृत्य कर रही थीं। उन्होंने विशेष मुद्राओं के साथ इस पृथ्वी को सम्भाला और जल पर ही स्थापित कर दिया। अपने मूल रूप में यह पृथ्वी बहुत उबड़-खाबड़ थी। इसे रहने योग्य बनाने का दायित्व माइबियों [विशेष पुजारिनें] को सौंपा गया। उन्होंने नृत्य-गति नियन्त्रित चरणों से इसे समतल किया और निवास के योग्य बनाया। इस प्रकार पृथ्वी का निर्माण हो जाने के बाद ‘अतिया गुरु शिदबा’ और ‘लैमरेन’ देवी ने यह निश्चय किया कि वे किसी सुन्दर घाटी में नृत्य करें। खोज करने पर उन्हें पर्वतों से घिरी एक घाटी मिली, जो जल से परिपूर्ण थी। अतिया गुरु शिदबा ने अपने त्रिशूल से पर्वत में तीन छेद किए, जिससे जल बह गया और पृथ्वी निकल आई। इसी पृथ्वी पर गुरु शिदबा और देवी लैमरेन ने सात अन्य देवियों तथा सात देवताओं के साथ नृत्य किया। देवताओं की प्रसन्नता का यह प्रथम नृत्य था, जिसकी स्मृति में प्रति वर्ष लाइहराओबा नामक धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न किया गया है।"
यह कथा पढ़कर पाठक को निश्चय ही शिव [शिदबा] पुराण की याद आई होगी। हम चाहें भारत के किसी भी कोने में क्यों न हों, हमारी धार्मिक दंतकथाएँ, प्रथाएँ और संस्कृति एक दूसरे को जोडे़ हुए मिलेंगी।
........क्रमशः
----- प्रस्तुति : चंद्रमौलेश्वर प्रसाद
धरती : धरती : धरती
आ: धरती कितना देती है
(सुमित्रानंदन पंत)
मैने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा !
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला ।
सपने जाने कहाँ मिटे , कब धूल हो गये ।
मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनों तक ,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर
मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे ,
ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था ।
अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे ।
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन ।
औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे ।
भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों ।
मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन ।
किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे
टहल रहा था- तब सहसा मैने जो देखा ,
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से ।
देखा आँगन के कोने मे कई नवागत
छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है ।
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की;
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं, प्यारी -
जो भी हो, वे हरे हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से ।
निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले,
बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन मे
और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन
मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से,
नन्हे नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है ।
तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे
अनगिनती पत्तों से लद भर गयी झाडियाँ
हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे
बेलें फैल गईं बल खा , आँगन मे लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को
मै अवाक् रह गया वंश कैसे बढता है
यह धरती कितना देती है ।
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को
नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को
बचपन में , छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर
रत्न प्रसविनि है वसुधा , अब समझ सका हूँ ।
इसमे सच्ची समता के दाने बोने हैं
इसमे जन की क्षमता के दाने बोने हैं
इसमे मानव ममता के दाने बोने हैं
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की - जीवन श्रम से
(रामावतार त्यागी)
मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !
माँ, तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अंकिचन
किंतु इतना कर रहा फिर भी निवेदन
थाल में लाऊँ सजाकर भाल जब भी
कर दया स्वीकार लेना वह समर्पण
गान अर्पित, प्राण अर्पित
रक्त का कण-कण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !
कर रहा आराधना मैं आज तेरी
एक विनती तो करो स्वीकार मेरी
भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी
शीश पर आशीष की छाया घनेरी
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित
आयु का क्षण-क्षण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !
तोड़ता हूँ मोह का बंधन क्षमा दो
गाँव मेरे, द्वार, घर, आँगन क्षमा दो
देश का जयगान अधरों पर सजा है
देश का ध्वज हाथ में केवल थमा दो
ये सुमन लो, यह चमन लो
नीड़ का तृण-तृण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !
*******************
गले तक धरती में
(कुंवर नारायण)
गले तक धरती में गड़े हुए भी
सोच रहा हूँ
कि बँधे हों हाथ और पाँव
तो आकाश हो जाती है उड़ने की ताक़त
जितना बचा हूँ
उससे भी बचाये रख सकता हूँ यह अभिमान
कि अगर नाक हूँ
तो वहाँ तक हूँ जहाँ तक हवा
मिट्टी की महक को
हलकोर कर बाँधती
फूलों की सूक्तियों में
और फिर खोल देती
सुगन्धि के न जाने कितने अर्थों को
हज़ारों मुक्तियों में
कि अगर कान हूँ
तो एक धारावाहिक कथानक की
सूक्ष्मतम प्रतिध्वनियों में
सुन सकने का वह पूरा सन्दर्भ हूँ
जिसमें अनेक प्राथनाएँ और संगीत
चीखें और हाहाकार
आश्रित हैं एक केन्द्रीय ग्राह्यता पर
अगर ज़बान हूँ
तो दे सकता हूँ ज़बान
ज़बान के लिए तरसती ख़ामोशियों को –
शब्द रख सकता हूँ वहाँ
जहाँ केवल निःशब्द बैचैनी है
अगर ओंठ हूँ
तो रख सकता हूँ मुर्झाते ओठों पर भी
क्रूरताओं को लज्जित करती
एक बच्चे की विश्वासी हँसी का बयान
अगर आँखें हूँ
तो तिल-भर जगह में
भी वह सम्पूर्ण विस्तार हूँ
जिसमें जगमगा सकती है असंख्य सृष्टियाँ ....
गले तक धरती में गड़े हुए भी
जितनी देर बचा रह पाता है सिर
उतने समय को ही अगर
दे सकूँ एक वैकल्पिक शरीर
तो दुनिया से करोड़ों गुना बड़ा हो सकता है
एक आदमक़द विचार ।
धरती और भार
(अरुण कमल)
भौजी, डोल हाथ में टाँगे
मत जाओ नल पर पानी भरने
तुम्हारा डोलता है पेट
झूलता है अन्दर बँधा हुआ बच्चा
गली बहुत रुखड़ी है
गड़े हैं कंकड़-पत्थर
दोनों हाथों से लटके हुए डोल
अब और तुम्हें खींचेंगे धरती पर
झोर देंगे देह की नसें
उकस जाएँगी हड्डियाँ
ऊपर-नीचे दोलेगा पेट
और थक जाएगा बउआ
भैया से बोलो बैठा दें कहीं से
घर के आँगन में नल
तुम कैसे नहाओगी सड़क के किनारे
लोगों के बीच
कैसे किस पाँव पर खड़ी रह पाओगी
तुम देर-देर तक
तुम कितना झुकोगी
देह को कितना मरोड़ोगी
घर के छोटे दरवाज़े में
तुम फिर गिर जाओगी
कितनी कमज़ोर हो गई हो तुम
जामुन की डाल-सी
भौजी, हाथ में डोल लिए
मत जाना नल पर पानी भरने
तुम गिर जाओगी
और बउआ...
*************
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
(मजाज़ लखनवी)
केदार जी की 4 रचनाएँ
(केदारनाथ अग्रवाल)
हाथी-सा बलवान, जहाजी हाथों वाला और हुआ
सूरज-सा इंसान, तरेरी आँखों वाला और हुआ
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ
माता रही विचार अंधेरा हरने वाला और हुआ
दादा रहे निहार सवेरा करने वाला और हुआ
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ
जनता रही पुकार सलामत लाने वाला और हुआ
सुन ले री सरकार! कयामत ढाने वाला और हुआ
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ
------------------
2)
पहला पानी
(केदारनाथ अग्रवाल)
पहला पानी गिरा गगन से
उमँड़ा आतुर प्यार,
हवा हुई, ठंढे दिमाग के जैसे खुले विचार ।
भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह,
भीगा अनभीगे अंगों की
अमराई का नेह
पात-पात की पाती भीगी-पेड़-पेड़ की डाल,
भीगी-भीगी बल खाती है
गैल-छैल की चाल ।
प्राण-प्राणमय हुआ परेवा,भीतर बैठा, जीव,
भोग रहा है
द्रवीभूत प्राकृत आनंद अतीव ।
रूप-सिंधु की
लहरें उठती,
खुल-खुल जाते अंग,
परस-परस
घुल-मिल जाते हैं
उनके-मेरे रंग ।
नाच-नाच
उठती है दामिने
चिहुँक-चिहुँक चहुँ ओर
वर्षा-मंगल की ऐसी है भीगी रसमय भोर ।
मैं भीगा,
मेरे भीतर का भीगा गंथिल ज्ञान,
भावों की भाषा गाती है
जग जीवन का गान ।
------------------------
3)
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
केदारनाथ अग्रवाल
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा
जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा
-------------------------------------
4)
बसंती हवा
(केदारनाथ अग्रवाल)
हवा हूँ, हवा मैं
सुनो बात मेरी -
अनोखी हवा हूँ।
बड़ी बावली हूँ,
बड़ी मस्तमौला।
नहीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ,
मुसाफिर अजब हूँ।
न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
जहाँ से चली मैं
जहाँ को गई मैं -
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन,
हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं।
झुमाती चली मैं!
हवा हूँ, हवा मै
बसंती हवा हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।
पहर दो पहर क्या,
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं!
खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी -
हिलाया-झुलाया
गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों,
झुलाई न सरसों,
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा -
पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, , हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
‘केदार सम्मान’ - २००७ निर्णीत
‘केदार शोध पीठ न्यास’ बान्दा द्वारा सन् १९९६ से प्रति वर्ष प्रतिष्ठित प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल की स्मृति में दिए जाने वाले साहित्यिक ‘केदार-सम्मान’ का निर्णय हो गया है। वर्ष २००७ का केदार सम्मान कवयित्री सुश्री अनामिका को उनके काव्य-संग्रह ‘खुरदरी हथेलियाँ ’ के लिए प्रदान किए जाने का निर्णय किया गया है।
यह सम्मान प्रतिवर्ष ऐसी प्रतिभाओं को दिया जाता है जिन्होंने केदार की काव्यधारा को आगे बढ़ाने में अपनी रचनाशीलता द्वारा कोई अवदान दिया हो। प्रकृति-सौन्दर्य व मानवमूल्यों के प्रबल समर्थक कवि केदारनाथ अग्रवाल की ख्याति उनकी कविताओं के टटकेपने व अछूते बिम्बविधान के साथ साथ कविताओं की सादगी व सहजता के कारण विशिष्ट रही।
‘केदार शोध पीठ न्यास’ केदार जी के काव्य अवदान को आगामी पीढ़ी तक पहुँचाने व उनमे काव्य के उस स्तर की पहचान विनिर्मित करने के उद्देश्य से गठित की गई संस्था है। प्रति वर्ष सम्मान का निर्णय कविताओं की वस्तु व विन्यास की इसी कसौटी को ध्यान में रखते हुए ही किया जाता है। इसकी निर्णायक समिति में साहित्य के ५ मर्मज्ञ विद्वान सम्मिलित हैं। प्रति वर्ष सितम्बर में इस पुरस्कार के लिए देश-विदेश के हिन्दी रचनाकारों से प्रविष्टियाँ आमन्त्रित की जाती हैं।
अब तक यह पुरस्कार जिन रचनाकारों को प्रदान किया गया है, उनमे अनामिका तीसरी स्त्री रचनाकार हैं। इस से पूर्व सुश्री गगन गिल व सुश्री नीलेश रघुवंशी को इस श्रेणी में गिना जाता था।
सुश्री अनामिका का औपचारिक परिचय इस प्रकार है--
जन्म : 17 अगस्त 1961, मुजफ्फरपुर(बिहार)।
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेजी में एम.ए., पी.एचडी.।अध्यापन- अँग्रेजी विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।कृतियाँ : गलत पते की चिट्ठी(कविता), बीजाक्षर(कविता), अनुष्टुप(कविता),पोस्ट–एलियट पोएट्री (आलोचना),स्त्रीत्व का मानचित्र(आलोचना),कहती हैं औरतें(कविता–संपादन),एक ठो शहर : एक गो लड़की(शहरगाथा)पुरस्कार/सम्मान : राष्ट्रभाषा परिषद् पुरस्कार, भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान और साहित्यकार सम्मान
पूर्व वर्षों की भांति यह पुरस्कार आगामी अगस्त माह में बान्दा में आयोजित होने वाले एक भव्य समारोह में प्रदान किया जाएगा
इस पुरस्कार के लिए केदार सम्मान समिति, केदार शोधपीठ न्यास,‘विश्वम्भरा’, ‘हिन्दी भारत’ समूह व हमारी ओर से अनामिका जी को अनेकश: शुभकामनाएँ।
~कविता वाचक्नवी
---------------------------------------------------
चौका
(अनामिका)
पृथ्वी
ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़
भूचाल बेलते हैं घर
सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।
रोज सुबह सूरज में
एक नया उचकुन लगाकर
एक नई धाह फेंककर
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
पृथ्वी– जो खुद एक लोई है
सूरज के हाथों में
रख दी गई है, पूरी की पूरी ही सामने
कि लो, इसे बेलो, पकाओ
जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छांह
पकाती हैं शहद।
सारा शहर चुप है
धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।
बुझ चुकी है आखिरी चूल्हे की राख भी
और मैं
अपने ही वजूद की आंच के आगे
औचक हड़बड़ी में
खुद को ही सानती
खुद को ही गूंधती हुई बार-बार
खुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।
------------------------------------------------
एक औरत का पहला राजकीय प्रवास
(अनामिका)
वह होटल के कमरे में दाखिल हुई
अपने अकेलेपन से उसने
बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाया।
कमरे में अंधेरा था
घुप्प अंधेरा था कुएं का
उसके भीतर भी !
सारी दीवारें टटोली अंधेरे में
लेकिन ‘स्विच’ कहीं नहीं था
पूरा खुला था दरवाजा
बरामदे की रोशनी से ही काम चल रहा था
सामने से गुजरा जो ‘बेयरा’ तो
आर्त्तभाव से उसे देखा
उसने उलझन समझी और
बाहर खड़े-ही-खड़े
दरवाजा बंद कर दिया।
जैसे ही दरवाजा बंद हुआ
बल्बों में रोशनी के खिल गए सहस्रदल कमल !
“भला बंद होने से रोशनी का क्या है रिश्ता?” उसने सोचा।
डनलप पर लेटी
चटाई चुभी घर की, अंदर कहीं– रीढ़ के भीतर !
तो क्या एक राजकुमारी ही होती है हर औरत ?
सात गलीचों के भीतर भी
उसको चुभ जाता है
कोई मटरदाना आदम स्मृतियों का ?
पढ़ने को बहुत-कुछ धरा था
पर उसने बांची टेलीफोन तालिका
और जानना चाहा
अंतरराष्ट्रीय दूरभाष का ठीक-ठीक खर्चा।
फिर, अपनी सब डॉलरें खर्च करके
उसने किए तीन अलग-अलग कॉल।
सबसे पहले अपने बच्चे से कहा–
“हैलो-हैलो,बेटे–
पैकिंग के वक्त... सूटकेस में ही तुम ऊंघ गए थे कैसे...
सबसे ज्यादा याद आ रही है तुम्हारी
तुम हो मेरे सबसे प्यारे !”
अंतिम दो पंक्तियाँ अलग-अलग उसने कहीं
आफिस में खिन्न बैठे अंट-शंट सोचते अपने प्रिय से
फिर, चौके में चिंतित, बर्तन खटकती अपनी माँ से।
...अब उसकी हुई गिरफ्तारी
पेशी हुई खुदा के सामने
कि इसी एक जुबां से उसने
तीन-तीन लोगों से कैसे यह कहा–
“सबसे ज्यादा तुम हो प्यारे !
”यह तो सरासर है धोखा
सबसे ज्यादा माने सबसे ज्यादा !
लेकिन, खुदा ने कलम रख दी
और कहा–“औरत है, उसने यह गलत नहीं कहा !”
--------------------------------------------------------------------
कूड़ा बीनते बच्चे
(अनामिका)
उन्हें हमेशा जल्दी रहती है
उनके पेट में चूहे कूदते हैं
और खून में दौड़ती है गिलहरी!
बड़े-बड़े डग भरते
चलते हैं वे तो
उनका ढीला-ढाला कुर्ता
तन जाता है फूलकर उनके पीछे
जैसे कि हो पाल कश्ती का!
बोरियों में टनन-टनन गाती हुई
रम की बोतलें
उनकी झुकी पीठ की रीढ़ से
कभी-कभी कहती हैं-
‘ कैसी हो","कैसा है मंडी का हाल?"
बढ़ते-बढ़ते
चले जाते हैं वे
पाताल तक
और वहाँ लग्गी लगाकर
बैंगन तोड़ने वाले
बौनों के वास्ते
बना देते हैं
माचिस के खाली डिब्बों के
छोटे-छोटे कई घर
खुद तो वे कहीं नहीं रहते,
पर उन्हें पता है घर का मतलब!
वे देखते हैं कि अकसर
चींते भी कूड़े के ठोंगों से पेड़ा खुरचकर
ले जाते हैं अपने घर!
ईश्वर अपना चश्मा पोंछता है
सिगरेट की पन्नी उनसे ही लेकर।