कण्डोम प्रमोशन कार्यक्रम : सांस्कृतिक धूर्तता का वैज्ञानिक मुखौटा - प्रभु जोशी (२)





कण्डोम प्रमोशन कार्यक्रम : सांस्कृतिक धूर्तता का वैज्ञानिक मुखौटा
- प्रभु जोशी






( गतांक
से आगे )


आप थोड़ा ध्यान देकर देखें तो अचरज से भर जायेंगे कि हम-सबको ‘एड्स’ एक महारोग की तरह अपनी प्रचार-पुस्तिकाओं में जितना खतरनाक जान पड़ता है, जबकि ‘मनाये जाने’ में वह दोगुना उत्साह और आनंद देता है । यही वजह है कि अपनी आजादी के साठ साल का जश्न मनाने वाले महादेश में, ‘पन्द्रह-अगस्त’ या ‘छब्बीस-जनवरी’ से बड़ा उत्सव (मेगा-फेस्टिवल) अब एड्स-दिवस हो गया है । इसके बाकायदा ‘बीट्स’ के साथ तैयार किये गये स्वागतगान कोरस में गाते हुए, आयोजक एन.जी.ओ. राष्ट्रीय-एकता का मिथ्या भ्रम प्रकट कर रहे हैं । वे नए समाजवादी समाज का प्रारूप गढ़ते हुए कह रहे है कि एड्स के सामने अमीर-गरीब सब एक हैं ।


कण्डोम-वितरण बनाम कण्डोम-प्रमोशन कार्यक्रम सुनहरी पताकाओं और बैनरों पर लहराता हुआ आयोजित होता है । इस प्रसंग को एक विशेष अभिप्राय के साथ देखें कि जब बिलगेट्स भारत आते हैं तो वे ‘सूचनाक्रांति’ के संदेश से ज्यादा, ‘कंडोम-क्रांति’ के प्रतीक बन जाते हैं । उनके स्वागत में बैंगलोर में आठ-आठ फीट ऊंचे कण्डोम के द्वार बनाये जाते हैं । यही सैक्स को पारदर्शी बनाने की सार्वजनिक पहल है, जिसमें शामिल है, सांस्कृतिक संकोच का सामूहिक ध्वंस । बावज़ूद इसके चैतरफा चुप्पी । यह वैज्ञानिक रीति से तैयार किया जा रहा गूंगायन है, जिसे भारत की सहमति माना जाता है ।


दरअसल, यह बाज़ारवाद की भारत में मनने वाली नई और आयातित दीवाली है, जिसमें हम सबको मिलजुल कर अपनी संस्कृति और परम्परा के पैंदे में बारूद भर कर उसकी किरच-किरच उड़ानी है । वजह यह कि, उनके लिए सबसे बड़ीा दुर्भाग्य और दिक्कत तो यही है कि सैक्स अभी भी भारत में, आचरण की सांस्कृतिक-संहिता बना हुआ है । दरअसल, भ्रष्टाचार हत्या, लूट, घूँस जैसे कामकाजों को अंजाम देने में हम शशोपंज में नहीं पड़ते-लेकिन, एक यही क्षेत्र है, जो रोड़े अटकाता है । इसकी चरित्र से वेल्डिंग कर दी गई है, जो टूट नहीं पा रही है । बस कण्डोम की करारी चोट ही इसे अलग करेगी । मालवी में कहें तो चरित्र की झालन टूटेगी तो इसी से ।


बहरहाल, हमें पश्चिम की तर्ज पर भारतीय समाज में भी वैज्ञानिक चतुराई का अचूक इस्तेमाल करते हुए सैक्स को केवल फिजिकल एक्ट बनाना और बताना है, ताकि उसके प्रति दृष्टिकोण में बाज़ार के अनुकूल परिवर्तन किया जा सके । कण्डोम, ऐसे धूर्त सांस्कृतिक छद्म को वैज्ञानिक-आवरण देता है, जो सामूहिक और खामोश सहमति का आधार बनाता है । इसी के चलते साम्राज्यवादी विचार की जूठन पर पल रहे लोगों की एक पूरी रेवड़ ‘सेक्समुक्ति’ को दूसरी आज़ादी की तरह बता रही है, जिसमें ‘कण्डोम’, ‘वंदेमातरम्’ के समान पूरे देश में एक जनव्यापी उत्तेजना पैदा करेगा और कर भी रहा है । वे कण्डोम की छाया तले एकत्र हो रहे हैं ।


बहरहाल, विचारहीन विचार के श्री चट्टे और श्री बट्टे, मुन्नाभाई की तर्ज पर लगे हुए हैं - कण्डोम-क्रांति में । क्योंकि, किसी भी देश में जितने लोग, इस बहुप्रचारित महारोग से मरते हैं, उससे चैगुनी संस्थाएं और लोग इस पर पल रहे हैं। कई संस्थानों की तो बात छोड़िये, सरकारों तक की अर्थव्यवस्था का एक बहुत बड़ा घटक ही एड्स है । भारत में ढेरों ऐसे लोगों और संस्थाओं का इसी से पेट पल रहा है । क्या करें, पापी पेट का सवाल है - इसलिए, ‘विचार और तकनीक’ मिलकर, भूख को बदलने में भिड़ गए हैं । विडम्बना यह कि भूख को बदलने के धतकरम में हमारी ‘सत्ता का सक्रिय साहचर्य’ शुरू हो गया है । वह यौनक्षुधा के लिए अब पांच रूपये के ‘पैकेट में ही पिंजारवाड़ी/जी.बी. रोड, सोनागाछी या कमाठीपुरा’ उपलब्ध करा रही है। वह जान चुकी है कि देश को ब्रेड बनाने के कारखाने की अब उतनी ज़रूरत नहीं रह गई है, क्योंकि भारतीय इलेक्ट्राॅनिक-मीडिया ने जनता की भूख की किस्म बदल दी है । नतीज़तन, इस महाद्वीप की गरीब जनता को रोटी से ज्यादा कण्डोम की जरूरत है । यह एक नया आनंद-बाज़ार है, जिसमें देश की आबादी नई और बदल दी गई भूख के बंदोबस्त में जुटी हुई हैं । कहना न होगा कि अब समाजशास्त्र और माल के सौंदर्यीकरण से बने सांस्कृतिक अर्थशास्त्र (कल्चरल इकोनामी) को मिलाकर एक ऐसी कुंजी तैयार की जा रही है, जिससे वे इस बूढ़े और बंद समाज के सांस्कृतिक-तलघर का ताला खोल सकें, ताकि यौनिकता (सेक्चुअल्टी) का आलम्बन बनाकर चैतरफा बढ़ने वाले बाज़ार को, उसे अधिगृहीत करने में आसानियाँ हो जायें ।


उनकी मार तमाम कोशिशें जारी हैं और वे लगभग सफल भी हो रही है कि घर के शयनकक्षों में सोया वर्जनायुक्त एकांत, बाज़ार के अनेकांत में बदल जाये । इसी के चलते विपणन (मार्केटिंग) की विज्ञापन बुद्धि यौनिकता को बाज़ार से नाथ कर पूंजी का एक अबाध प्रवाह बनाती है, जिसमें युवा पीढ़ी की अधीरता का भरपूर दोहन किया जाता है । यही वजह है कि चतुराई के साथ बाज़ार और सेक्स को परस्पर घुला-मिलाकर एकमेक किया जा रहा है । ठीक ऐसे क्षण में एड्स नामक महारोग ईज़ाद हो गया या कर लिया गया। इसने ‘बाज़ार’ और ‘सेक्स’ को एक दूसरे का अविभाज्य अंग बना दिया । बहरहाल, मुक्त-व्यापार और मुक्त-सेक्स एक दूसरे के पूरक हैं । वे एक दूजे के लिए हैं। ‘बाज़ार का सेक्स’ और ‘सेक्स का बाज़ार’। बाज़ार का डर और डर का बाज़ार - ये सिर्फ रोचक पदावलियाँ भर नहीं हैं, बल्कि गरेबान पकड़ कर देसी समझ को दुरूस्त कर देने वाली, सल्टाती सचाइयाँ हैं । आज ‘बाज़ार’ से सरकारें डरती हैं। साल के तीन सौ पैंसठ दिन समाज और समय की खाल खींचने वाला मीडिया डरता है । मीडिया अपनी निर्भीकता में संसद की बखिया उधेड़ सकता है । राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के खिलाफ बोल सकता है । यहाँ तक कि वह दरिंदे दाऊद के खिलाफ भी खड़ा हो जाता है, लेकिन एड्स के खिलाफ बोलने में उसके प्राण काँपते हैं, क्योंकि एड्स के बहाने जो मुखर यौनिकता आ रही है, वह ‘बाज़ार’ की भी प्राणशक्ति है और स्वयं मीडिया की भी । फैशन, फिल्म, खानपान, वस्त्र-व्यवसाय और सौंदर्य-प्रसाधन सामग्री- ये सभी मिलकर जो नया बाज़ार खड़ा करते हैं, उस सबके केन्द्र में यौनिकता है । सेक्चुअल्टी इज द लिंचपिन आॅफ आल दीज ट्रेड्स । क्योंकि, यौनिकता ही वर्जनाओं को तोड़ती हैं और उसे प्रखर बनाते जाने में उनकी सारी शक्ति लगी हुई है । वे जानते हैं, ये मांगगे मोर । धीरज धरो । इन्हें भारतीय औरत की देह से साड़ी और सलवारों को दूर होने दो । पता-चलेगा, पश्चिम की स्त्री से अधिक अपील इधर है ।




भाग >>>

( क्रमश : )




1 टिप्पणी:

आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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