मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ.देवराज


मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ.देवराज
नवजागरणकालीन मणिपुरी कविता - १२


इतिहास साक्षी है कि आपसी फूट से ही आक्रमणकारी सफ़ल हुए हैं। मणिपुर का इतिहास भी यही संदेश देता है। आपसी वैमनस्य ही खोङ्जोम युद्ध की हार का कारण बना। हम गुटों में बँट कर अपने को कमज़ोर बनाते हैं और विदेशी इस का लाभ उठाते हैं। मणिपुर में पराधीनता के कारण बताते हैं डॉ। देवराज जी :-


"इस अंधेरे के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार शताब्दियों तक चलनेवाली व्यक्ति केंद्रित राजतान्त्रात्मक-व्यवस्था थी। यह प्रणाली कभी भी जन-कल्याण पर आधारित नहीं हो सकती। इस सत्य से कौन इन्कार करेगा कि राजतन्त्र अन्ततः जनता के भावनात्मक शोषण पर आधारित होता है। जब सत्ता का असली चेहरा सामने आ जाता है तो जनता में आक्रोश और निराशा का भाव उत्पन्न होता है। मणिपुर में भी यही देखने में आया। विभिन्न कारणों से यहाँ राजा और जनता के सम्बन्ध मधुरता से कटुता की ओर बढे़। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण तब मिलता है जब पामहैब [महाराजा ग़रीबनवाज़] ने शांतिदास गोसाईं के प्रभाव में वैष्णव मत को राजधर्म के समान घोषित किया और जनता ने तत्कालीन राजगुरु खोङनाङथाबा के नेतृत्व में विरोध का स्वर ऊँचा किया। यह कटु सत्य है कि उस समय राजा द्वारा किया गया वह कार्य अवांछित धार्मिक व सांस्कृतिक हस्तक्षेप था।"


"वैष्णव मत के सामाजिक भेदभाव और कर्मकांड प्रधान व्यवहार ने भी जनता की सजगता को मंद ही किया। जो लोग पहले तलवार चलाने में दक्षता प्राप्त करना जीवन का लक्ष्य मानते थे, वे राधा-कृष्ण की रास लीला और नट-संकीर्तन में कुशलता प्राप्त करने लगे। वैष्णव मत के प्रचार से माधुर्य भक्ति, छापा-तिलक और संगीत इस सीमा तक जीवन का अंग बन गया कि जनता की सामाजिक और राजनीतिक चेतना सुप्त होती चली गई। परम्परागत राज्य-सत्ता के लिए यही हितकर भी था। परलोक की चिंता जितनी बढ़ती जाती थी, इहलोक का विवेक उतना ही कम होता जाता था। यह दशा पहले से ही मणिपुर को खोङ्जोम की हार की ओर ले जा रही थी।"

......क्रमशः


[प्रस्तुति: चंद्रमौलेश्वर प्रसाद]

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