एक भले आदमी का......




एक भले आदमी का राज्यपाल न बन पाना

प्रभाष जोशी



धीरे धीरे वे दिल्ली के राजनीतिक, बौध्दिक और पत्रकारीय इलाकों में एक ट्रैजिक फिगर हो गये। मनमोहन सिंह के नव उदार राज के खुले खेल फर्रूखाबादी में राजनीति ऐसी बदली कि उद्योग व्यापार का ही बोलबाला हो गया। प्रमोद महाजन और अमर सिंह जैसे दलालों के हाथ में सत्ता की चाभी आ गयी।



बाजार और उद्योग की किसी लाबी के साथ आप नहीं हैं तो राजनीति में टिके रहना भी मुश्किल हो गया है। पैसा इतना हावी हो गया है कि लोक राजनीति की बात करनेवाले या तो शोहदे माने गये या फिर लोगों को पटाने वाले ठग। जाति, संप्रदाय और उद्योग व्यापार को तरकीब और करामात से साधनेवाली राजनेताओं की नयी पौध पनपी। उनके बीच देवेन्द्र द्विवेदी न तो राजनीति के थे और न वकालत के।



उनने हेमंत शर्मा से कहलवाया था कि जब वे 24 जुलाई को गांधीनगर में गुजरात के राज्यपाल की शपथ लेंगे तो मुझे वहां रहना है। मैं धर्म संकट में था। शताब्दी की ओर बढ़ती माताराम की तबीयत जब भी जब भी नाजुक होती है वे भाई बहनों से पूछती हैं कि दादो आने वालो थो, आयो को नी? मैंने घरवालों को बार बार आश्वस्त किया था कि जो भी मैं बाईस को वहां रहूंगा। पहुंच भी गया। पहले ही मालूम कर लिया था कि आजकल इंदौर से अहमदाबाद सीधी फ्लाईट जाती है। तय भी कर लिया था कि जब संदेश आयेगा तो 23 को सीधे गांधीनगर पहुंच जाऊंगा।



संदेश आया और सुनकर विचलित हो गया। राम बहादुर राय ने बताया कि अभी वे किसी से बात कर रहे थे तो उनने सुना कि देवेन्द्र जी के बेटे बहुत चिंतित अस्पताल की तरफ जा रहे थे। देवेन्द्र द्विवेदी को गंभीर हालत में गंगाराम अस्पताल में भर्ती कराया गया है। दिल्ली घर से मालूम किया तो पता चला कि हेमंत के कई फोन आये थे लेकिन आप तक कहां कोई फोन पहुंचता है।



इंदौर से काफी कोशिश करने के बाद ठीक ठीक पता नहीं चल पाया कि उन्हें हुआ क्या है। रायपुर होता हुआ दिल्ली आया तो पहली खबर ही यह मिली कि देवेन्द्र जी की हालत बहुत खराब है। वे अभी पंद्रह जुलाई (यह प्रभाष जी का जन्मदिन है) को आये थे तो फूल लेकर आये थे। थोड़े दुबले पर स्वस्थ और प्रसन्न लग रहे थे। पथ्य के कारण उस दिन खाना तो नहीं खाया लेकिन वैसे खाना पानी ठीक चल रहा था।



उनके राज्यपाल बनने की खबर आयी तो उनको तो नहीं लेकिन उनकी सबसे छोटी बहन वीणा को फोन करके बधाई दी। वीणा अपनी बहू और बेटी दोनो है। द्विवेदी जी को जानने के कोई पच्चीस साल बाद हेमंत के व्याह में गये तो मालूम हुआ कि वधू देवेन्द्र द्विवेदी की सबसे छोटी बहन है। और कहीं हो न हो, वीणा और हेमंत के घर तो उनसे मुलाकात होती ही थी। मैं चाहता था कि वीणा ही उनके राज्यपाल होने का भोज दे, जहां हम सब इकट्ठे होकर उनका अभिवादन करें। वीणा कह रही थी कि वे आने को मान ही नहीं रहे हैं। इक्कीस जुलाई को हम इंदौर के लिए रवाना हुए तब तक तो देवेन्द्र द्विवेदी बहन के घर नहीं जा पाये थे।



वीणा रोज उनके घर जाती थी। हम चाहकर भी नहीं जा पाये। जब गये तब 40, मीना बाग की बैठक में उनकी पार्थिव देह रखी हुई थी। गंगाराम के आईसीयू में देख सकते थे पर हिम्मत नहीं हुई। किस्मत की बात देखिए, टूटी कहां कमंद दो चार हाथ जबकि लबे बाम रह गया। या भेन जी ने पछताऊ कहा- फूटे भाग फकीर के भरी चिलम ढुल जाए। अठारह को उनकी नियुक्ति की घोषणा हुई थी और चौबीस को वे शपथ लेनेवाले थे। कोई पचास साल के राजनीतिक जीवन में यह पहली बार हुआ था कि उन्हें एक ऐसा सम्मानजनक पद मिला था जो दूसरों को सारे घाटों पर पानी पीने के बाद विश्राम के लिए दिया जाता है। देवेन्द्र द्विवेदी की सत्ता का राजनीतिक जीवन तो इससे शुरू हो रहा था।



और सुनता हूं यह पद भी उन्हें उन सोनिया गांधी के पौव्वे के कारण मिला था जिनका राज परिवार देवेन्द्र द्विवेदी को कोई कृपा की दृष्टि से नहीं देखता था। वे छात्र राजनीति करते हुए प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के दिनों से ही चले गये थे। जैसे नारायणदत्त तिवारी भी प्रसोपा से कांग्रेस में आये थे। समाजवादी संस्कारों ने द्विवेदी जी को इंदिरा गांधी की एकछत्र और चापलूसी को वफादारी समझनेवाली पार्टी में हाशिये पर ही रखा।



फिर राजनीति में संजय गांधी का उदय हुआ। और इंदिरा गांधी की शह पर उन्होंने कांग्रेस को लुंपन लोगों की पार्टी बनाया। तब कांग्रेस में पढ़े लिखे और लोकतांत्रिक स्वभाव के लोगों को लल्लू समझा जाने लगा। संजय गांधी के रोड रोलर रवैये से बहुत से लोग आक्रोशित हुए थे। देवेन्द्र द्विवेदी तब कोई तोप नहीं थे जो उनकी कोई सुनता और सम्मान की जगह देता। माना जाता था कि इमरजंसी में संजय गांधी भी उनसे नाराज थे।





संजय की अकाल मौत ने राजीव गांधी को राजनीति में धकेला और सिख आतंकवाद की शिकार हुई इंदिरा गांधी की मृत्यु ने उन्हें जबरन सत्ता में बैठा दिया। राजीव गांधी को लुंपन लोगों और राजनीतिक अड्डेबाजों से समान रूप से छड़क पड़ती थी। उनने नये किस्म के प्रोफेशनल लोगों को राजनीति और सत्ता में प्रतिष्ठित किया जो न भारत की जमीनी राजनीति में न पले पनपे थे न मध्यवर्ग के उस बौध्दिक वर्ग से आये थे जो जोरदार बहस के बिना कोई बात मानता नहीं था।



बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय की ठेठ छात्र राजनीति और समाजवादी पार्टी की अराजक बौध्दिकतावाद में से निकले देवेन्द्र द्विवेदी में वह नफासत नहीं थी जिसे अंग्रेजी स्नाबरी कहा जाता है। उनकी बौध्दिकता पश्चिम खासकर अमेरिकी छिछलेपन की नकल से इतराने वाले लोगों को बहुत कंटीली और कोनेवाली लगती थी। राजीव गांधी के जमाने में सफारी पहननेवाले स्मूद आपरेटरों में देवेन्द्र द्विवेदी कुछ देशी लाल बुझक्कड़ जैसे माने जाते थे।



अमेरिका के कारनेल लॉ स्कूल में कानून पढ़कर आये देवेन्द्र जी वकालत करने लगे थे और सन 74 से 80 तक राज्यसभा में भी रहे। लेकिन उनका असली समय सत्ता में नरसिंहराव के दुर्घटना उदय के साथ होना चाहिए था। नहीं हुआ। नरसिंहराव को लगता था कि कांग्रेसी सत्ता की सच्ची हकदार तो सोनिया गांधी को मानते हैं। मैं तो इंपोस्टर हूं। इसलिए वे ज्यादातर कांग्रेसियों पर भरोसा नहीं करते थे। उत्तर प्रदेश और बिहार के नेताओं के बारे में उन्हें लगता था कि सारे नेता मिलकर उनकी कुर्सी हिलाने में लगे हुए हैं।



फिर भी नरसिंहराव मानते थे कि मंडल ताकतों को अपनाए बिना भाजपा के हिन्दुत्व से निपटना मुश्किल है। भाजपा हिन्दी इलाकों में ही पनपी थी और कांग्रेस का पर्याय बन गयी थी। ऐसे में नरसिंहराव ने देवेन्द्र द्विवेदी को साथ लिया था जो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पहली पंक्ति के नेता नहीं थे। नरसिंहराव के लिए देवेन्द्र जी उपयोगी राजनीतिक आपरेटर थे। वे द्विवेदी के जरिए प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं को मैनुपुलेट करने की कोशिश करते थे। हिन्दी इलाके के लिए नरसिंहराव की कोई नयी राजनीति नहीं थी जिसकी हरकारी देवेन्द्र जी करते।



देवेन्द्र द्विवेदी के पास अपना कोई व्यापक और शक्तिशाली आधार भी नहीं था जिस पर वे नरसिंहराव की अध्यक्षता में कोई नयी राजनीति खड़ी करते। फिर कांशीराम, मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश को ऐसे राजनीतिक अखाड़े में उतार दिया था जहां देवेन्द्र द्विवेदी जैसे राजनेताओं को बल और दांव-पेंच के लिए गुंजाईश नहीं थी। नरसिंहराव चाहते तो देवेन्द्र द्विवेदी को महत्वपूर्ण राजनीतिक जिम्मेदारी सौंप सकते थे लेकिन वे शायद जानते थे कि वे तो स्टाप गैप की भूमिका में है और गोटियां बैठाकर उन्हें अपना काम निकाल लेना है।



सच पूछिये तो देवेन्द्र द्विवेदी उनके लिए कितने ही उपयोगी रहे हों लेकिन नरसिंहराव ने उन्हें कुछ नहीं बनाया। बनाया भी तो अतिरिक्त महाधिवक्ता। यानी वे दिल्ली में रहें, कानूनी लोगों में घूमें फिरें और नरसिंहराव के छोटे-मोटे संकट मोचक बने रहें। राजनीति में काम करनेवाले और सत्ता में भागीदारी चाहनेवाले लोग ही इन दिनों ज्यादा आते हैं। उन्हें सिध्दांतों, नीतियों और विमर्श से कुछ लेना देना नहीं होता है। ऐसे में देवेन्द्र जी कोई काम के नहीं थे। नरसिंहराव के विश्वासी वृत्त में होने के बावजूद राजनीतिक और प्रशासनिक मामलों में अब भी बाहरी और हाशिये के आदमी बने रहे।



इन्हीं वर्षों में उन्हें लगने लगा कि उनके लिए चिलम तो भरती है लेकिन हथेलियों में दबाकर सुट्टा मारने के लिए मुंह तक लाने से पहले ही ढुल जाती है। धीरे धीरे वे दिल्ली के राजनीतिक, बौध्दिक और पत्रकारीय इलाकों में एक ट्रैजिक फिगर हो गये। मनमोहन सिंह के नव उदार राज के खुले खेल फर्रूखाबादी में राजनीति ऐसी बदली कि उद्योग व्यापार का ही बोलबाला हो गया। प्रमोद महाजन और अमर सिंह जैसे दलालों के हाथ में सत्ता की चाभी आ गयी।



बाजार और उद्योग की किसी लाबी के साथ आप नहीं हैं तो राजनीति में टिके रहना भी मुश्किल हो गया है। पैसा इतना हावी हो गया है कि लोक राजनीति की बात करने वाले या तो शोहदे माने गये या फिर लोगों को पटाने वाले ठग। जाति, संप्रदाय और उद्योग व्यापार को तरकीब और करामात से साधने वाली राजनेताओं की नयी पौध पनपी। उनके बीच देवेन्द्र द्विवेदी न तो राजनीति के थे और न वकालत के। राजनीति के लोगों को लगता था कि उनका समय कब का निकल गया है, अब या तो वे एक भग्नावशेष हैं या तो स्मारक।



तभी अचानक उन्हें गुजरात का राज्यपाल बना दिया गया। उन्हें क्या लगा मैं नहीं जानता। उन्हें बुखार था। क्रोसिन खा खा कर वे टिके रहे। न उनने और न किसी और ने उनकी सेहत का ख्याल नहीं रखा। इक्कीस जुलाई तक उनके लीवर में तगड़ा इन्फेक्शन हो गया। गंगाराम अस्पताल लीवर के इलाज में खासा नाम रखता है। वहां तीस जुलाई को उनकी किडनी ने काम करने से इंकार कर दिया। इतने प्रपंच कि शरीर जवाब दे गया। गांधीनगर में राज्यपाल पद की शपथ धरी रह गयी। भगवान ने चौहत्तर साल की उमर में उनकी चिलम ढोल दी। कुछ लोगों के साथ भगवान बहुत जालिम होता है। क्यों?



(आलोक तोमर के सौजन्य से )


5 टिप्‍पणियां:

  1. विचारणीय और सटीक लेख को प्रकाशित करने के लिए आभार!

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  2. द्विवेदी जी नहीं रहे, यह शोक का विषय है। हम सब उनकी आत्‍मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। लेकिन एक बात खटकती है कि ऐसे आलेख में भी हम राजनीति करें। हम अन्‍य राजनेताओं पर कीचड़ उछालें। प्रभाष जोशी वरिष्‍ठ लेखक हैं और मैंने आज ही एक अन्‍य पोस्‍ट पर लिखा है कि उनसा बनने के लिए जिगर चाहिए। लेकिन इस आलेख में श्रद्धांजलि या स्‍मरण नहीं है अपितु सम्‍पूर्ण राजनीति पर कीचड उछाला गया है और ऐसे लोगों पर भी जो आज हमारे मध्‍य नहीं है। इस आलेख का मैं विरोध करती हूँ।

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  3. श्रद्धांजलि हो न हो यह आलेख लेकिन इंदिरा गांधी काल से समकाल तक की भारतीय राजनीति पर धाँसू टिप्पणी अवश्य है.

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  4. डॉ. श्रीमती अजित गुप्ता से शब्दशः सहमत हूँ। प्रभाष जी की लेखनी का मैं भी हमेशा से कायल रहा हूँ। लेकिन अब वे अपने मण्डल युगीन राजनीति के पूर्वाग्रहों से उबर नहीं पा रहे हैं। भाजपा के प्रति उनकी नापसन्द अब दुश्मनी का रूप ले चुकी है। वस्तुनिष्ठ नहीं रह गया है उनका आलेख।

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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