अपनी भाषा से भेद क्यों ?



अपनी भाषा से भेद क्यों ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
               
                आस्ट्रेलियाई सरकार ने कहा है कि भारत जानेवाले उसके राजनयिकों को हिंदी सीखने की जरूरत नहीं हैक्योंकि वहाँ सारा काम-काज अंग्रेजी में होता हैप्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड ने तो यहाँ तक कहा है कि ''भारत एक अंग्रेजीभाषी लोकतंत्र है|'' आस्ट्रेलिया के विदेशी मामलों के एक प्रमुख विशेषज्ञ इयान हाल ने अपनी सरकार को सलाह दी थी कि भारत में नियुक्ति किए जानेवाले राजनयिकों को हिंदी इसलिए भी सिखाई जाए कि ऐसा करने से भारत का सम्मान होगाजब जापानचीनकोरियाइंडोनेशियाईरान और तुर्की जैसे देशों में भेजे जानेवाले राजनयिकों को उन देशों की भाषा सीखना अनिवार्य है तो भारत की उपेक्षा क्योंइस पर आस्ट्रेलिया के विदेश व्यापार सचिव का कहना था कि जब भारत ही अपना सारा काम-काज अंग्रेजी में करता है तो आस्ट्रेलियाई राजनयिकों को क्या पड़ी है कि वे हिंदी सीखें?


            बात तो ठीक ही मालूम पड़ती हैविदेशी राजनयिकों का दायरा बहुत सीमित होता हैउनका ज्यादातर काम हमारे बड़े बाबुओं से पड़ता हैभारत सरकार में अंग्रेजी पढ़े बिना कोई बाबू बन ही नहीं सकताविदेशी राजनयिकों का दूसरा बड़ा संपर्क राजधानी के पत्रकारों से होता है| वे अंग्रेजी अखबारों को पढ़ते हैं और उन्हीं के पत्रकारों से संपर्क रखते हैंहिंदी व अन्य भाषाओं के पत्रकारों से उनका संपर्क नगण्य होता हैकुछ महत्वपूर्ण देशों के राजदूतों का संपर्क हमारे विदेश मंत्री तथा अन्य नेताओं से भी होता हैये नेतागण भी टूटी-फूटी अंग्रेजी में अपनी बात कह लेते हैं और अब तो हमारे कई बड़े नेता शुद्ध बाबू ही हैंवे अंग्रेजी में ही अधिक सलीके से बात कर पाते हैंइसीलिए विदेशी राजनयिक भारतीय भाषाओं पर मगजपच्ची क्यों करेंऔर सबसे बड़ी बात यह है कि ज्यादातर विदेशी राजनयिक भी तो बाबू लोग ही होते हैंबाबू का काम मक्खी पर मक्खी बिठाना हैअफसरों,पत्रकारों और नेताओं से मिलकर अपने विदेश मंत्रालय को रपट भेजकर वे छुट्टी पा जाते हैंउनका काम वे यह नहीं मानते कि उनके अपने देश और भारत के लोगों के आपसी संबंध मजबूत बनेंएक-दूसरों को पारस्परिक जीवन की ज़रा गहरी जानकारी मिले और एक-दूसरे की संस्कृति के प्रति गहरा सम्मान पैदा हो|
            यदि विदेशी राजनयिकों में यह दूसरा भाव हो तो वे जिस देश में नियुक्त होते हैंसबसे पहले उसकी भाषा सीखेंगेभाषा वह पगडंडी हैजो सीधे लोगों के दिलों तक जाती हैयदि आप लोगों की भाषा नहीं समझते तो आप लोगों को भी नहीं समझ सकतेक्या आपने कभी सोचा कि अमेरिका जैसे महाबली राष्ट्र ने वियतनाम में मार क्यों खाईएराक़ में वह क्यों फंस गया हैईरान से वह फिजूल क्यों उलझ गया हैअफगानिस्तान से अपना पिंड क्यों नहीं छुड़ा पा रहा हैक्या वजह है कि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे राष्ट्र अपने दूतावासों पर करोड़ों डॉलर खर्च करके भी अंधेरे में ही लट्ठ चलाते रहते हैंकई देशों में तख्ता-पलट हो जाते हैं और कइयों में आम जनता बगावत पर उतर आती है और इन राष्ट्रों के राजदूतों को आखिरी वक्त तक भनक नहीं लग पातीवाशिंगटन और लंदन उन तानाशाहों को सूली पर लटकने तक समर्थन देते रहते हैंइसका कारण स्पष्ट हैउनके राजनयिक आस्ट्रेलियाई सरकार की तरह यह मानकर चलते हैं कि सारी दुनिया में अंग्रेजी चलती है और अंग्रेजी के बिना किसी का काम नहीं चलताउन्हें स्थानीय भाषा सीखने की जरूरत नहीं है|
            लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि किसी भी देश में जब तख्ता-पलट होता है तो उसकी भाषा में होता हैजब जनता बगावत करती है तो वह अपने नारे विदेशी भाषा में नहीं गढ़तीव्लादिमार पुतिन के विरूद्घ लाल चौक में जो प्रदर्शन हो रहे हैंउनमें नारे किस भाषा में लगाए जा रहे हैंवहाँ जो भाषण हो रहे हैंवे अंग्रेजी में हो रहे हैं या रूसी में हो रहे हैंमिस्र के तहरीर चौक पर बगावत का जो बिगुल बजावह किस भाषा में थाअंग्रेजी में था या मिस्री में थाजनता की बगावत तो हमेशा स्थानीय भाषा में ही होती है लेकिन जब हिंसक सैन्य तख्ता-पलट होते हैं तो उनके षडयंत्र भी प्राय: स्थानीय भाषा में ही रचे जाते हैं| 1978 में अफगानिस्तान में सरदार दाऊद का तख्ता उलटनेवाले तीन प्रमुख फौजी अफसरों में से एक भी अंग्रेजी नहीं जानता थाउनमें से एक को फारसी समझने में भी कठिनाई होती थीवह सिर्फ पश्तो ठीक से जानता थाजो-जो देश अंग्रेज के गुलाम नहीं रहे हैंउनके ऊँचे से ऊँचे अफसर भी अंग्रेजी नहीं जानतेऐसे देशों की संख्या लगभग 150 हैअंग्रेजों के गुलाम रहे देशों की संख्या 50 भी नहीं हैभारत जैसे इन 50 देशों में भी अंदर ही अंदर और नीचे-नीचे क्या चल रहा हैयह अंग्रेजी के जरिए नहीं जाना जा सकतायाने उनके अंदर की बात जानने के लिए आपको उनकी भाषा जाननी होगीकरोड़ों रू. खर्च करके भी बड़े राष्ट्रों की जासूसी क्यों फेल हो जाती हैवह ऊपर-ऊपर की बात पर नज़र जरूर रखती है लेकिन अंदर पैठने की राह उसने बनाई ही नहींएराक़ में मार खाने के बाद जार्ज बुश को कुछ अक्ल आईउन्होंने अरबी-फारसी सिखाने के लिए तो बड़ा बजट बनाया हीअपने राजनयिकों को हिंदी सिखाने के लिए 20 करोड़ डॉलर का प्रावधान किया|
            किसी भी देश के अफसरोंपत्रकारों और कुछ नेताओं से विदेशी भाषा के दम पर चलनेवाली कूटनीति तब तक सामान्य होती है जब तक कि उस देश में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है लेकिन जब मामले गंभीर होंबुनियादी हों और जनता से जुड़े हों तो विदेशी भाषा का माध्यम बिल्कुल असंगत हो जाता हैआस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री का यह कहना कि भारत अंग्रेजीभाषी लोकतंत्र हैअपने आप में विरोधी बात हैवह लोकतंत्र ही क्या हैजो लोकभाषा में न चलेभाषाई दृष्टि से देखें तो भारत लोकतंत्र पर सबसे बड़ा व्यंग्य हैभारत को उत्तम लोकतंत्र तो तब कहा जाए जबकि उसकी लोकसभा में सिर्फ लोकभाषाएँ बोली जाएँ और विदेशी भाषा पर पूर्ण प्रतिबंध होउसकी सर्वोच्च अदालत विदेशी भाषा में न तो बहस करने दे और न ही कोई फैसले करेसरकार का कोई भी मौलिक काम विदेशी भाषा में न होलेकिन जब भारत के पवित्र मंदिरों में ही भारत माता की जुबान कटती हो तो विदेशियों से कैसे आशा करें कि वे हमारी भाषाओं का सम्मान करेंयदि हम अपना सारा काम-काज हिंदी में करें तो विदेशी राजनयिक तो अपने आप हिंदी सीखेंगेवे रूस में रूसी और चीन में चीनी सीखते हैं या नहींहम न अपनी भाषा का सम्मान करते है और न ही विदेशी भाषाओं काहमने अंग्रेजी का गोल पत्थर अपने गले में लटका रखा हैसिर्फ साढ़े चार देशों की भाषा हैअंग्रेजी! अमेरिकाब्रिटेनआस्ट्रेलियान्यूजीलैंड और आधे कनाडा कीलेकिन हम दुनिया के 200 देशों को इसी गोरे चश्मे से देखते हैंजब हम उनकी आँखों से उन्हें देखने लगेंगे तो हमारी कूटनीति पर चार चाँद चमचमाने लगेंगे|

ए-19, प्रेस एनक्लेव, नई दिल्ली-17, फोन घर: 2651-7295,

मो. 98-9171-1947

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!