करणीय-अकरणीय की पक्षधरताएँ व नए प्रधानमन्त्री

नए प्रधानमन्त्री : करणीय-अकरणीय की पक्षधरताएँ
- (डॉ.) कविता वाचक्नवी

मोदी प्रधानमन्त्री पद सम्हालने के लिए विजयी और फिर राष्ट्रपति द्वारा आमन्त्रित क्या हुए, लोगों ने अपनी अपनी पसन्द नापसन्द की सूचियाँ बनानी शुरू कर दीं। मोदी समर्थकों ने ही एक हस्ताक्षर अभियान शुरू किया कि वे संस्कृत में शपथ लें, गंगा से पहले यमुना की सफाई योजना उन्हें शुरू करनी चाहिए, पाकिस्तान को बुलाने से दु:खी हैं मोदी समर्थक और भी इसी तरह की कई कर्तव्य-सूचियाँ (माँग-सूचियाँ) और जाने क्या-क्या। 


लोगों को समझना चाहिए कि मोदी अब भाजपा कार्यकर्ता-मात्र नहीं है, वे भारत के प्रधानमन्त्री हैं, उन्हें मात्र पार्टी के एजेण्डे के अनुसार नहीं अपितु देश और कूटनीति के अनुसार निर्णय लेने हैं। प्रोटोकॉल, अंतरराष्ट्रीय संबंध, विदेश नीति जैसे हजारों मुद्दे इस से जुड़े हैं। प्रधानमंत्री को अपने एजेंडे पर चलाने की जिदों के चलते ही मोरारजी सरकार जैसी सशक्त रूप से आई सरकार दूसरे लिप्सा और अधिकार की इच्छा वालों द्वारा धराशायी कर दी गई थी। इसलिए प्रधानमन्त्री यह करें, वह न करें, यह करना चाहिए, वह नहीं करना चाहिए आदि उंगली पकड़ कर चलाने की कोशिश जैसे हैं, थोपने जैसा है, इनमें दूरगामी सोच व राष्ट्रीय चिन्तन का अभाव है। भगवान के लिए उन्हें अपने तरीके से काम कर लेने दें। उनका तरीका कितना सही है, यह गुजरात में प्रमाणित हो चुका है। इसलिए बच्चों की तरह नेशनल ओब्जेक्टिव्स का अभाव न दिखाएँ और न ही विवाद खड़े करने वाले मुद्दों को हवा दें, देश बहुत बड़े परिवर्तन के मुहाने पर खड़ा है, जनता की असीम आकांक्षाएँ अब किच-किच की राजनीति से उकता कर नयी कार्यप्रणाली के लिए एकजुट हुई हैं, उनका मान करें। 

देश अपनी पसन्द नापसन्द से बड़ी चीज होती है, यह समझने की जरूरत है। राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी पसंद नापसन्द न थोपें। जैसे प्रणव मुखर्जी भले ही कॉंग्रेस के व्यक्ति हैं किन्तु उस से पहले वे भारत के राष्ट्रपति हैं और उन्होने विचारधारा को भूल कर अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को निभाते हुए नए प्रधानमंत्री का सहर्ष स्वागत सम्मान किया, क्योंकि जब आप पद पर होते हैं तो उसकी गरिमा और कर्तव्य आपकी निजी इच्छा-अनिच्छा व पसन्द-नापसन्द से बड़े होते हैं। मोदी जी भी पार्टी- विरोध को लेकर राष्ट्रपति की अवमानना नहीं कर सकते, वे सादर उनसे मिलने गए क्योंकि यही राज/राष्ट्र नीति है। बहुमत वाले दल के संसदीय नेता को राष्ट्रपति के पास जाना ही होता है। इसलिए इन सब मामलों में निजी इच्छा-अनिच्छा या निजी प्रेम-बैर / पसन्द -नापसन्द घुसाना बंद करें। 

यह बँटवारे की राजनीति है । इसलिए अपनी इच्छा-अनिच्छा को करणीय-अकरणीय का नाम देकर देश को चलाने में हस्तक्षेप की कोशिश न करें। जब सभी सार्क देशों को आमन्त्रित किया गया है तो किसी एक देश को आमन्त्रण न देना, उसका घोषित बहिष्कार व उसे स्थायी रूप से शत्रुश्रेणी में डालना है, जो देशहित में कदापि नहीं। यह क्रिकेट मैच नहीं है कि क्रिकेट टीम को आमन्त्रण का मुद्दा हो, यह राष्ट्राध्यक्ष के सम्मान का मामला है और कोई भी कभी देश दूसरे राष्ट्राध्यक्ष का अपमान नहीं कर सकता, जब तक कि प्रकट रूप में पूरी तरह युद्ध की स्थिति न हो। अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों, कूटनीति, विदेश नीति, राष्ट्रीय प्रोटोकॉल, औपचारिकताएँ आदि ढेरों चीजें इसमें संयुत हैं, उन्हें समझे बिना स्वयं को सर्वनिर्णयसम्पन्न समझना बंद करना चाहिए और जनता को विवाद में धकेलने का खेल नहीं खेलना चाहिए। राजनैतिक पूर्वाग्रहों को लेकर पार्टी की राजनीति हो सकती हैं, राष्ट्रनीति नहीं चल सकती। कॉंग्रेस ने यही सब कर तो देश को बर्बाद किया कि अपने राजनैतिक पूर्वाग्रहों और अपनी पसन्द-नापसन्द को पूरे देश पर थोपा। अब देश उस से ऊब चुका है। नई सरकार को नई तरह से और बड़प्पनपूर्वक निर्णय लेते हुए अपनी कार्यप्रणाली तय कर लेने दीजिए। अभी तो सरकार सत्ता में आई भी नहीं। 

और हाँ, जो लोग यह आशा लगाए बैठे हैं कि नई सरकार के पास कोई जादू की छड़ी है कि घुमाई और कायाकल्प हो जाएगा देश का, वे भ्रम में हैं। 60 वर्ष से अधिक तक ध्वस्त, बर्बाद व नष्ट किए गए देश को अधिक नष्ट होने से तो इस क्षण से रोका जा सकता है पर जो लुट और बर्बाद हो चुका है उसे लौटाना कभी संभव हो सकता है क्या ? वैसे भी तोड़ना और नष्ट करना किसी भी चीज को बहुत सरल होता है, निर्माण करना बहुत कठिन व समयसाध्य / श्रमसाध्य होता है ; एक मकान को बनाने और तोड़ने का उदाहरण देख लिया जाए। इसलिए यदि आप निर्माण में सहयोग देना चाहते हैं तो देश के इस कायाकल्प में नई सरकार का सहयोग करना चाहिए और सब से बढ़कर अपने दैनन्दिन जीवन में राष्ट्रनिर्माण के कर्तव्यों और अपने आचरण में राष्ट्रीय कर्तव्यों, मर्यादा और उच्चादर्शों का समावेश करना होगा यही हम सब का सहयोग होगा।


देश, जनादेश और केजरीवाल - कविता वाचक्नवी

देश,जनादेश और केजरीवाल
- कविता वाचक्नवी 


जो व्यक्ति काश्मीर पाकिस्तान को देना चाहता है, जो देश के संविधान को पैर की जूती समझता है (कि विधानसभा भंग करने का आवेदन सौंपने के बाद अब पलटी मार रहा है), जो पदलोभ में अंधा है कि त्यागपत्र देने के बाद पुनः गद्दी की लालच में कल कॉंग्रेस से समर्थन माँगने गया था और संविधान व जनता के निर्णय को कुचल कर मुख्यमंत्री दुबारा होने की जुगत करता रहा, जो जनता द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने के बाद छल से पुनः जनता पर शासन करना चाहता है, जिसके देशद्रोहिता के प्रमाण वीडियो में इसके साथियों ने स्वयं दिए हैं, उस व्यक्ति के प्रति अपनी आस्था रखने वाले अपने मित्रों से मैं खेद पूर्वक कहना चाहूँगी कि मुझे उनकी समझ व निष्पक्षता और विवेक पर संदेह होने लगे हैं।


इस व्यक्ति ने देश और संविधान के साथ तो भीषण गद्दारियाँ की ही हैं, जनता के साथ भी भयंकर छल किया है। मुझे सुदर्शन जी की 'हार की जीत' कहानी बार बार याद आती है। जनता के मन से भ्रष्टाचार हटाओ का विश्वास ही इस धूर्त ने समाप्त कर दिया।कानून को, जनता को और देश को और ईमान को अपनी जेब में रखी इकन्नी समझ रखा है इस व्यक्ति ने। प्रधानमंत्री तक को कानून के डायरे में लाने की बात करने वाले ने कानून का मज़ाक उड़ा रखा है। आज यदि वह जेल गया है तो यह कोई महानता या बलिदान नहीं अपितु देश की संवैधानिक प्रक्रिया है। संविधान के साथ खेलने का अधिकार किसी को नहीं। .... और कौन नहीं जानता कि जमानत को स्वयं ठुकरा कर इसने कोर्ट को जेल भेजे जाने को बाध्य किया है। जिसका परिवार दुबई में छुट्टियाँ मनाने जाता है, जो चुनाव सम्पन्न हो जाने के बाद वाराणसी से फ्लाईट लेकर दिल्ली आता है, जो प्रायोजित धन से भाड़े के कार्यकर्ता 25000 प्रतिमाह का भुगतान कर खरीदता है, उसके पास मामूली जमानतराशि भी नहीं है भला? यह नीतीश कुमार की तरह जनता की सहानुभूति लेने की नौटंकी है जो यह समझता है कि जनता इसे उसका बलिदान व त्याग समझेगी और उसके पक्ष में हो जाएगी। यदि यह इतना ही ईमानदार व जनता के प्रति प्रतिबद्ध होता तो स्वयं कहता कि जनता ने इस बार दिल्ली से एक भी आप प्रतिनिधि को न जिता कर जो जनादेश दिया है मैं उसका सम्मान करता हूँ। और स्वयं को इस कुर्सी की दौड़ से अलग ही रखूँगा। पर वह यह कभी नहीं कर सकता। यह एक तरह से जनादेश द्वारा बाहर का रास्ता दिखा दिए जाने के बावजूद जनता पर छल कपट और तिकड़म से शासन करने की मंशा के चलते अब खेला जा रहा नाटक है इसका कि संविधान का दुरुपयोग कर पुनः मुख्यमंत्री बन जाए।   


मुझे आश्चर्य होता है उन बुद्धिजीवी मित्रों पर जो कॉंग्रेस से मोह भंग हो जाने पर अब भाजपा विरोधी होने की कारण मोदी जी का समर्थन न कर पाने की अपनी विवशता में इतना बंधे हैं कि उन्हें कजरी बाबू के काले कारनामों नजर ही नहीं आते। कजरी के अपने सभी साथी, यहाँ तक कि किरण बेदी और अन्ना जी जैसों ने उसे निष्कासित कर उसका साथ छोड़ दिया, उन पर तो भरोसा रखिए। या कजरीभक्ति में सच भी देखना नहीं चाहते ! वस्तुतः यह आप लोगों की आस्था के संकट की घड़ी है, कॉंग्रेस के बाद अब कजरी के अतिरिक्त कोई आधार ही नहीं बचा इसलिए कजरी को महान सिद्ध करना आपकी मजबूरी है। यही समझ आता है।


60 बरस से अधिक समय से साहित्य, पत्रकारिता, अध्यापन, राजनीति शिक्षा और अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों पर कब्जा कर जनता और देश विदेश को छला गया, सच्चाई के गले घोंटे गए, जिसे चाहा हत्यारा, बर्बर और जाने शब्दकोश की किन किन गालियों से नवाजा गया, केवल और केवल कॉंग्रेस और देशद्रोहिता की राजनीति हुई है, हो रही है, भीषण और गंदी से गंदी राजनीति। हम चुप रहे। अब देश के ऐसे संक्रमण काल में भी यदि चुप रहेंगे और जनाधार का निर्माण करने में सहयोगी न बनेंगे तो अपने देशधर्म का निर्वाह न करने का अपराध करूँगी। इसलिए जनता को जिस भाषा और जिस लहजे में समझ आता है उसी भाषा और लहजे में अपना देशधर्म निभाना अनिवार्य है। निभाना चाहिए। निभा रही हूँ।


जिनकी विचारधारा चीन से और अरब देशों के पैसों द्वारा पोषित विचारधारा के हाथों गिरवी है, उन्हें मेरे देशधर्म के निर्वाह पर आपत्ति होना स्वाभाविक है क्योंकि उनकी आस्थाओं की जड़ें कहीं अन्यत्र हैं। मैंने कभी उनके यहाँ जाकर उनकी विचारधारा का गला घोटने का काम नहीं किया, ऐसी ही अपेक्षा मैं भी उनसे करती हूँ।

 जिनकी आँखें न खुली हों, उनकी सहायतार्थ यह वीडियो - 




और यह भी - 


यह लोकतंत्र की अपूर्व विजय है

यह लोकतंत्र की अपूर्व विजय है
डॉ. वेदप्रताप वैदिक


यह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की अपूर्व विजय है। टीवी चैनलों के कुछ एंकरों ने पूछा कि 2014 की विजय, 1971 और 1984 की विजय से भी बड़ी कैसे है? 1971 में इंदिरा गांधी को 352 सीटें मिली थीं और 1984 में राजीव गांधी को 410 सीटें मिली थीं। भाजपा और मोदी को तो अभी 350 सीटें भी नहीं मिलीं हैं और आप इस जीत को अपूर्व कह रहे हैं? इसका कारण क्या है?

ज़रा याद करें कि 1971 में क्या हुआ था? इंदिराजी पाँच साल तक भारत की प्रधानमंत्री रह चुकी थीं। नेहरु की बेटी थीं। कांग्रेस अध्यक्ष होने का भी उनका अनुभव था। इसके अलावा उन्होंने कांग्रेस के सारे खुर्राट नेताओं को पटकनी मारकर इंदिरा कांग्रेस खड़ी कर दी थी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और उसके बाद गरीबी हटाओ के नारे ने देश का ध्यान खींचा था। 1971 के चुनाव में क्या हुआ? वे कम सत्ता से ज्यादा सत्ता में आ गईं लेकिन मोदी मात्र मुख्यमंत्री थे। वे किसी प्रधानमंत्री के बेटे भी नहीं थे। वे पार्टी अध्यक्ष भी नहीं रहे। उनका अखिल भारतीय अनुभव भी अत्यंत सीमित था। वे एक ऐसी पार्टी का नेतृत्व कर रहे थे, जो दस साल से सत्ता से बाहर थी और जिसका नेतृत्व भी एकजुट नहीं था। लेकिन 2014 के चुनाव में क्या हुआ? पहली बार एक प्रांतीय नेता ने देश का दौरा किया। कोई प्रांत नहीं छोड़ा। करोड़ों लोगों को साक्षात् संबोधित किया। लाखों कि.मी. यात्राएं कीं। दस साल प्रधानमंत्री रहने पर भी जितना देश को मनमोहनसिंह ने देखा, उससे भी ज्यादा देश को साल भर में जाना और पहचाना मोदी ने। मोदी की वजह से मतदान का जो प्रतिशत बढ़ा, वह अपूर्व था। मोदी की सभाओं में जैसा उत्साह का ज्वार उमड़ता था, वैसे मैंने 1952 से अब तक के किसी चुनाव में नहीं देखा। इसीलिए पिछले दो माह से मैं कहता रहा कि भाजपा-गठबंधन को 300 से ज्यादा सीटें मिलेंगी। सारे लोकमत और लगभग सभी मतदानों के अंदाजी घोड़े गलत साबित हुए। विपक्ष पहले भी हारा है लेकिन कांग्रेस जैसी महान पार्टी का आकार हाथी से सिकुड़कर बकरी का रह जाए, क्या यह अपूर्व नहीं है?

जहाँ तक 1984 की विजय का प्रश्न है, वह राजीव की नहीं, शहीद इंदिरा गांधी की विजय थी। शहीद इंदिराजी को विरोधी दलों के समर्थकों ने भी वोट दिए थे। वह चुनाव नहीं था। वह एक महान शहीद को राष्ट्र की श्रद्धांजलि थी। 2014 के वोट ने फिरोज गांधी-परिवार को राजनीतिक श्रद्धांजलि दे दी है। इंदिराजी चुनाव के पहले शहीद हुई थीं और फिरोज गांधी-परिवार चुनाव के बाद शहीद हो गया है। 2014 के चुनाव में लोगों को 1984 की तरह गुस्सा नहीं था। निराशा थी। देश को लगा कि वह ठगा गया है। उसने अपना देश अ-नेताओं को थमा दिया है। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे सज्जन में प्रधानमंत्री की कोई भी कुव्वत नहीं है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का श्रेय सबसे ज्यादा मैं किसी को देता हूँ तो वह सोनियाजी और मनमोहनसिंहजी को देता हूँ। राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो ज्ञानी जैलसिंह की कृपा से बने लेकिन नरेंद्र मोदी बन रहे हैं तो वे अपने पुरुषार्थ से बन रहे हैं। कांग्रेस को अपने किए और अनकिए का फल भुगतना ही था। उसे तो हारना ही था। नरेंद्र मोदी की खूबी यह है कि उन्होंने इस हार को अपूर्व और एतिहासिक बना दिया। कहा भी है कि ‘आशिक का जनाजा है, जरा धूम से निकले’।

इस चुनाव की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें 1971 की तरह कोई नाटकीयता नहीं थी और इसमें 1984 की तरह खौलता हुआ गुस्सा नहीं था। एक ठंडी समझ थी। इस गंभीर समझ के कारण भारत के लोगों ने भारतीय राजनीति के जातिवादी और सांप्रदायिक चरित्र को बदल दिया। प्रांतों के जातिवादी दिग्गजों ने जैसी पटकनी इस चुनाव में खाई, क्या इससे पहले किसी चुनाव में खाई? लालू, नीतिश, मुलायम, मायावती, देवेगौड़ा आदि कहाँ हैं? क्या हुआ, उनके जातीय वोट-बैंकों का? भारत के नागरिकों को मवेशियों की तरह थोकबंद वोट डालने से इस बार मुक्ति मिली हैं जहाँ तक वोटों के सांप्रदायिक बँटवारे का सवाल है, वह अपरिहार्य था। उसे टाला नहीं जा सकता था। लेकिन उसे ठीक से समझा जाना चाहिए। अल्पसंख्यकों ने मोदी को जिस वजह से वोट नहीं दिए, वह समझ में आती है लेकिन देश के अन्य सभी लोगों ने मोदी को जो वोट दिए, उसकी वजह अल्पसंख्यक नहीं थे। याने वास्तव में वह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को वोट नहीं है। वह विकास का वोट था। आशा का वोट था। वह ठगी के विरुद्ध वोट था। उसके पीछे किसी प्रकार की सांप्रदायिक संकीर्णता या घृणा नहीं थी। सच पूछा जाए तो 2014 के चुनाव में सांप्रदायिकता कोई मुद्दा ही नहीं था। जाहिर है कि प्रधानमंत्री मोदी ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की राह पर निष्ठापूर्वक चलेंगे तो जो वोट उन्हें 2014 में नहीं मिले हैं, वे भी 2019 में उन्हें मिलेंगे।

इस चुनाव में भारतीय राजनीति की शक्ल को एक और ढंग से बदला है। इसने भाजपा को अखिल भारतीय दल और कॉंग्रेस को प्रांतीय दल बना दिया है। एकाध राज्य को छोड़कर सभी राज्यों में भाजपा का खाता खुल गया है जबकि कई राज्यों में कांग्रेस का सूंपड़ा ही साफ है। जहाँ वह बची है, वहाँ भी एकदम लहूलुहान होकर! महान से लहूलुहान, ऐसी दुर्गति पहली बार हुई है।

पहली बार ऐसा व्यक्ति भारत का प्रधानमंत्री बना है, जिसकी माँ घरेलू सेविका का काम करके अपने बच्चों का पोषण और शिक्षण करती रही है। वह स्वयं स्टेशन पर चाय बेचकर अपना गुजारा करता था। यह देश के 100 करोड़ गरीब और मजलूमों से तदाकार होना नहीं है तो क्या है? ला.ब. शास्त्रीजी के अलावा नरेंद्र मोदी ऐसे एकमात्र प्रधानमंत्री बने हैं, जिनकी अपनी माँ के चरणस्पर्श करके आशीर्वाद प्राप्त किया है। ऐसे प्रधानमंत्री को तो वर्ग-चेतना के हामी कम्युनिस्टों को भी क्या सलाम नहीं करना चाहिए?



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