भारतीय गणतन्त्र चिरायु हो




भारतीय गणतन्त्र चिरायु हो 
इस राष्ट्रीय पर्व पर समस्त हार्दिक शुभकामनाएँ 



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(डॉ.) कविता वाचक्नवी
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"हिन्दी सीखो और प्रांतीयता का त्याग करो" : बंगालियों को सुभाष चन्द्र बोस की सलाह

 "हिन्दी सीखो और प्रांतीयता का त्याग करो"
बंगालियों को सुभाष चन्द्र बोस की सलाह 





8 जुलाई 1939 के "हिंदुस्तान" समाचार पत्र में बाबू सुभाष चन्द्र बोस के विषय में एक समाचार छपा था जिसमें अन्य कई विषयों सहित सुभाष बाबू ने जबलपुर के बाङ्ला समाज को हिन्दी सीखने व प्रांतीयता का त्याग करने की सलाह दी।

आज सुभाष बाबू के जन्मदिवस (23 जनवरी) पर, अमर सेनानी को प्रणाम सहित, प्रस्तुत है उस ऐतिहासिक समाचार की रिपोर्ट - 







हिंदी विदेशी भाषा की तरह है





हिंदी विदेशी भाषा की तरह है
डॉ. वेदप्रताप वैदिक 



गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले पर किसी भी हिंदीभाषी को जबरदस्त गुस्सा आ सकता है। उसने अपने एक निर्णय में कह दिया कि हिंदी तो किसी भी विदेशी भाषा की तरह है। गुस्सा करने से पहले जरा सोचें कि उसने ऐसा क्यों कहा? उसने ऐसा इसलिए कहा कि गुजरात के एक सुदूर गाँव के लोगों ने शिकायत की कि राष्ट्रीय राजमार्ग पर जो नामपट लगे हुए हैं, वे सिर्फ अंग्रेजी और हिंदी में हैं। वे गुजराती भाषा में क्यों नहीं हैं ?


गाँववालों का यह सवाल बिल्कुल वाजिब है। उनमें से ज्यादातर लोग अनपढ़ या अल्पशिक्षित होंगे। वे न रोमन लिपि पढ़ सकते होंगे और न ही देवनागरी। उनमें से कई तो गुजराती लिपि भी नहीं पढ़ पाते होंगे। अपनी समस्या लेकर वे अदालत में गए, यह उन्होंने ठीक किया। यदि कोई नागरिक अनपढ़ है, तो क्या उसके मानव अधिकार का हनन करने की छूट सरकार को दी जा सकती है? क्या वह नागरिक नहीं है? क्या वह मनुष्य नहीं हैं?


गुजरात में लगा हर सरकारी नामपट गुजराती में होना चाहिए। हर सरकारी काम-काज भी गुजराती में होना चाहिए। इस सिद्धांत का पालन हर प्रांत में होना चाहिए लेकिन होता क्या है? प्रांतों में प्रांतीय भाषाओं की उपेक्षा होती है और उनकी जगह अंग्रेजी और हिंदी लाद दी जाती है। खासतौर से केंद्र सरकार के दफ्तरों और कामकाज में! हिंदी तो राजभाषा है। राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा है। जोड़ भाषा है। जनभाषा है, लेकिन अंग्रेजी किसलिए थोपी जाती है? अंग्रेजी के कारण प्रांतीय भाषाओं का हक मारा जाता है। 


यदि गुजरात के गांवों के नामपटों पर गुजराती के साथ-साथ हिंदी होती तो क्या अदालत वे शब्द बोलती, जो उसने हिंदी के बारे में बोले? कभी नहीं। उसे जो अंग्रेजी के बारे में बोलना चाहिए था, वह उसने हिंदी के बारे में बोल दिया। जरा जुबान फिसल गई। वरना, इस देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का श्रेय जिन दो महापुरूषों को है, वे गुजराती ही थे। महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी


गुजराती और देवनागरी लिपियों में जितना साम्य है, दुनिया की किन्हीं दो लिपियों में नहीं है। गुजराती और हिंदी के असंख्य शब्द और मुहावरे एक जैसे है। इसीलिए गुजरातियों के लिए हिंदी को विदेशी भाषा का दर्जा दे देना अत्यंत अतिरंजनापूर्ण है। कुछ गाँव वालों के लिए देवनागरी अजनबीपन सही, हो सकता है लेकिन उसको विदेशीपन तक खींच ले जाना उपमा का गलत प्रयोग है। लड़ाई हिंदी और गुजराती के बीच नहीं है। गुजराती का हक मारने वाली अंग्रेजी के साथ है। सर्वत्र प्रांतीय भाषाओं और हिंदी का प्रयोग होना चाहिए और अंग्रेजी के प्रयोग पर सामान्यता कानूनी प्रतिबंध होना चाहिए।



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