हिरना, समझ-बूझ वन चरना




हिरना, समझ-बूझ वन चरना

जिसका शुरू से मुझे डर था, अब वही हो रहा है। लोकपाल के नाम पर उमड़ा अपूर्व जनाक्रोश अब अपूर्व दिग्भ्रम बनता चला जा रहा है। सबसे पहले अन्ना हजारे को ही लें। जब उन्हें अनशन पर बिठाया गया था, तब और अब, जबकि वे लोकपाल विधेयक कमेटी के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य हैं, उनकी अपनी कोई सोच दिखाई ही नहीं पड़ती। उन्हें जो भी तत्काल सूझ पड़ता है, उसे वे अखबारों को बोल देते हैं। उनकी बोली हुई बातों पर जरा ध्यान दें तो पता चलेगा कि न तो गांधीवाद से उनका कुछ लेना-देना है और न ही उनको यह पता है कि भारत का लोकपाल कैसा होना चाहिए।



अनशन के दौरान हिंसा की वकालत जमकर हुई। बार-बार कहा गया कि भ्रष्टाचारियों के हाथ काट दिए जाएँ और उन्हें फाँसी  पर लटकाया जाए। अन्ना ने एक बार भी इसका विरोध नहीं किया। अन्ना ने कई बार भगतसिंह, चंद्रशेखर, राजगुरु आदि क्रांतिकारियों के नाम लिए। नौजवानों को प्रोत्साहित करने के लिए इन सर्वस्व त्यागी क्रांतिकारियों का नाम लेने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन क्या कोई गांधीवादी ऐसी भूल कभी सपने में भी कर सकता है? गांधीजी ने जब भी कोई आंदोलन छेड़ा, अपने स्वयंसेवकों को कठोर प्रशिक्षण दिया, अनुशासन सिखाया और अहिंसा का दर्शन समझाया। अनशन के दौरान इस तरह की कोई बात संभव नहीं थी, क्योंकि सारा अनुष्ठान अचानक हुआ था, लेकिन अब भी इसके कोई आसार दिखाई नहीं पड़ते।




गांधीजी अपने आश्रमों के आय-व्यय के हिसाब पर कड़ी निगरानी रखते थे। आश्रमों के खाते सबके लिए खुले रहते थे। यह बहुत ही अच्छा हुआ कि अन्ना के आंदोलन के लिए आई धनराशि को जगजाहिर कर दिया गया, लेकिन अच्छा हो कि चार-छह दिन में खर्च हुए लाखों रुपए का हिसाब सबके सामने पेश कर दिया जाए, ताकि समस्त समाजसेवी संस्थाओं के लिए वह एक उदाहरण बन सके। यह देखना भी आयोजकों का काम है कि ज्यादातर राशि जनता से प्राप्त की जाए, न कि धन्ना-सेठों से। बड़ी राशि देने वाले या तो खुद किसी दिन नस दबा देते हैं या सरकार उनकी नस दबा देती है। यदि दबावों को ठुकरा देने की हिम्मत हो तो धनराशि कहीं से भी आने दे सकते हैं। लेकिन ऐसी हिम्मत तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती। विधेयक कमेटी की पहली बैठक में ही ‘जनप्रतिनिधि’ ढेर हो गए। पहले ही दिन उन्होंने मान लिया कि लोकपाल को नियुक्त करने वाली कमेटी में प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता होंगे। इन नेताओं को कमेटी में रखने का विरोध आंदोलनकारी डटकर कर रहे थे। यदि प्रधानमंत्री और विपक्षी नेता चयन समिति में होंगे तो उस समिति में किसकी चलेगी? जाहिर है कि उनकी सहमति के बिना कोई लोकपाल नहीं बन सकता? क्या वह लोकपाल इन महानुभावों को दंडित कर सकेगा? क्या ये नेतागण मिलीभगत नहीं कर सकते? क्या ये पीजे थॉमस से भी ‘योग्य’ उम्मीदवार नहीं  ढूँढ लाएँगे ?




अखबार कहते हैं कि बैठक में हुई बातचीत अन्ना हजारे को पल्ले ही नहीं पड़ी, क्योंकि वे सिर्फ मराठी और हिंदी जानते हैं। उन्हें भारत की राजभाषा नहीं आती। वह अंग्रेजी है। यदि अन्ना हजारे गांधीवादी होते और सचमुच सत्याग्रही होते तो इन मंत्रियों को फटकार लगाते और कहते जनभाषा बिना जनलोकपाल कैसे नियुक्त करोगे? लेकिन इन बुनियादी बातों से शायद अन्ना को कोई सरोकार नहीं है। यह भी पक्का नहीं कि अन्ना ‘जनलोकपाल बिल’ की किसी धारा को समझते हैं या नहीं। पूरा जनविधेयक और उसकी व्याख्या लगभग 100 पृष्ठों की है। पूरी की पूरी अंग्रेजी में है। उसमें क्या जोड़ा, क्या घटाया जा रहा है, क्या अन्ना को उसका कुछ पता रहता है? इसके बावजूद अन्ना कमेटी के सदस्य बन गए। वे बाहर रहते तो कहीं अच्छा होता। वे बाबूगिरी के चक्कर में क्यों फँसे? वे अंग्रेजी नहीं जानते, यह शुभ है। वे असली भारत के ज्यादा निकट हैं। जो अंग्रेजी जानने का दावा करते हैं, उन्हें वे विधेयक तैयार करने देते और फिर उस विधेयक को जनता की तुला पर तौलते। इस तौल का आधार अंग्रेजी के उलझे हुए शब्द नहीं होते, बल्कि कसौटी यह होती कि यह सर्वमान्य विधेयक जनलोकपाल के कितना निकट है। कमेटी के सदस्य बनकर वे उन्हीं लोगों के बीच जाकर बैठ गए, जिनके समझौते पर उन्हें अपना निर्णय देना है।




वे अंतिम निर्णय कैसे देंगे? वे तो अभी से फिसले जा रहे हैं। अंग्रेजी अखबार में वे क्या करने गए थे? वहाँ उन्होंने सारे आंदोलन को शीर्षासन करा दिया। उन्होंने एक सवाल के जवाब में कह दिया, ‘यदि संसद हमारे विधेयक को रद्द कर देगी तो हम उसके निर्णय को मान लेंगे।’ इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है? यदि आपको यही करना था तो आंदोलन चलाया ही क्यों? यदि अन्ना हजारे ने गांधीजी का ‘हिंद स्वराज’ सरसरी तौर पर भी पढ़ा होता तो उन्हें पता होता उस समय की ‘ब्रिटिश पार्लियामेंट’ के बारे में उन्होंने कितने कठोर शब्दों का प्रयोग किया था। उन शब्दों का प्रयोग आज हमारी संसद के लिए कतई नहीं किया जा सकता, लेकिन अन्ना को यह बात तो समझनी ही चाहिए कि संसद जनता से ऊपर नहीं होती। यदि संसद ने ही सारे राष्ट्र के विवेक का ठेका ले रखा है तो 42 साल से यह बिल अधर में क्यों लटका है? किसी भी लोकतंत्र में सर्वोच्च संप्रभु जनता ही होती है। डॉ लोहिया ने क्या खूब कहा था कि ‘जिंदा कौमें पाँच साल इंतजार नहीं करतीं।’




इस आंदोलन की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि इसने संयुक्त कमेटी को केंद्रीय मुद्दा बनाकर एक ओर लोकसत्ता और दूसरी ओर चुनी हुई संसद, दोनों की गरिमा गिरा दी। यदि संसद अपना काम करती और आंदोलनकारी अपना तो कहीं बेहतर होता। अब जबकि उनके साथियों ने समझाया तो बेचारे अन्ना क्या करते? उन्होंने संसद संबंधी बयान उलट दिया। भोले-भाले अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के सिर्फ प्रतीक बने रहें, यही काफी होगा। इस मूर्तिपूजक देश में उनकी यह स्थिति ही सर्वहितकारी होगी, अन्यथा ईर्ष्या - द्वेष से ग्रस्त विघ्नसंतोषी और भ्रष्टाचार विरोध से त्रस्त नेतागण उनके माथे पर पता नहीं क्या-क्या बिल्ले चिपका देंगे। हर कदम फूँक -फूँक कर रखने की जरूरत है। वरना, लोकपाल आंदोलन का शीराजा बिखरते ही देश में निराशा की लहर उठेगी। वह सारे देश में अराजकता और हिंसा फैला देगी। हिरना, समझ-बूझ वन चरना।



वेदप्रताप वैदिक
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

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