अब भारत को अगुवाई करनी होगी


अब भारत को अगुवाई करनी होगी



सामा बिन लादेन तो मारा गया, लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि अब पाकिस्तान के प्रति भारत की नीति क्या हो? ओसामा की हत्या ने भारत में इतना उत्साह पैदा कर दिया है कि कई जिम्मेदार नेता और लोग भी माँग कर रहे हैं कि भारत भी अमेरिका की तरह आतंकियों को उनकी माँद में घुसकर  मारे।


न्यूयॉर्क के ट्रेड टॉवर काण्ड में तीन-चार हजार लोग मारे गए थे, लेकिन भारत में अब तक एक लाख से भी ज्यादा लोगों को आतंकियों ने मौत के घाट उतार दिया है। ट्रेड टॉवर तो ट्रेड टॉवर है, भारत की तो संसद पर हमला हुआ। लाल किला, अक्षरधाम और ताज होटल जैसे ऐतिहासिक, पवित्र और व्यावसायिक संस्थानों को आतंक का शिकार बनना पड़ा। ऐसे में, अमेरिका से भी ज्यादा भारत की जिम्मेदारी बनती है कि वह दाऊद इब्राहीम, हाफिज सईद और लखवी जैसे सरगनाओं को जिंदा या मुर्दा पकड़े।


इस इच्छा के तूल पकड़ने की वजह यह रही कि भारत के सर्वोच्च सैन्य अधिकारियों ने कुछ प्रश्नों के जवाब में कह दिया कि देश चाहे, तो वे भी अमेरिका की तरह कार्रवाई कर सकते हैं, यानी हमारी फौज सक्षम है। पाकिस्तान सरकार इस प्रतिक्रिया को ले उड़ी। पाकिस्तानी विदेश सचिव ने तत्काल धमकी दे डाली कि यदि एबटाबाद जैसी कार्रवाई दोहराई गई, तो उसके परिणाम भयंकर होंगे।


दूसरे शब्दों में, पाकिस्तान परमाणु-बम का प्रयोग भी कर सकता है। यों भी पाकिस्तान के सेनाप्रमुख जनरल कियानी परमाणु हथियारों को लेकर काफी आक्रामक हैं। वह भारत की तरह संकोची नहीं हैं। जाहिर है, पाकिस्तान की वह त्वरित प्रतिक्रिया अनावश्यक थी, खासतौर से तब, जबकि भारत के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने दो-टूक शब्दों में कहा कि ओसामा-कांड के बावजूद वे पाकिस्तान से संबंध सुधारने की नीति पर कायम रहेंगे।


भारत सरकार की इस घोषणा को निराशाजनक कहना बहुत आसान है, लेकिन यह भी सोचना होगा कि इसके अलावा भारत सरकार क्या कह सकती थी? अभी भारत पर कोई हमला तो नहीं हुआ कि जिस पर सरकार सख्त प्रतिक्रिया देती। जब देश में हमले हुए थे, संसद पर, अक्षरधाम पर और ताज होटल पर, तो सरकार ने आखिर क्या किया था? जवाबी हमले के लिए हम इसलिए उत्तेजित हो जाते हैं कि हम अमेरिका और भारत को एक ही पलड़े में रख देते हैं। लेकिन उनके बीच का जो अंतर हैं, उन्हें समझना जरूरी है।


पहला अंतर यह है कि अमेरिका पाकिस्तान का पड़ोसी नहीं है। अमेरिका पाकिस्तान से आठ-दस हजार किलोमीटर दूर है, जबकि भारत और पाकिस्तान की सेनाएँ एक-दूसरे की नाक पर खड़ी हैं। दूसरा, क्या अमेरिका में कश्मीर जैसी कोई जगह है, जहाँ पाकिस्तानी आतंकवादियों को सहज शरण मिल सकती है? तीसरा, भारत और पाकिस्तान पड़ोसी तो हैं ही, परमाणु बमधारी देश भी हैं। यह बहुत ही विषैला संयोग है। दो पड़ोसी परमाणु बमधारी देशों में ऐसी दुश्मनी कभी नहीं रही।


चौथा, अमेरिका और भारत की तरह पाकिस्तान की असली सत्ता नेताओं के हाथ में नहीं, फौजियों के हाथ में है। लड़ाई के अभ्यस्त फौजी कुछ भी निर्णय कर सकते हैं। पाँचवाँ, पाकिस्तान के साथ अमेरिका का रिश्ता काफी गहरा और लंबा है। वह अपनी दाल-रोटी और हथियारों के लिए सदा अमेरिका का मोहताज रहा है। उसका एहसानमंद रहा है। यदि अमेरिका कुछ ज्यादती करेगा, तो भी पाकिस्तान उसे बर्दाश्त करेगा, लेकिन भारत की किसी भी कार्रवाई को वह बर्दाश्त क्यों करेगा?


छठा, इस समय आतंकवाद के विरुद्ध चल रहे वैश्विक युद्ध में अमेरिका और पाकिस्तान साझेदार हैं। इस भागीदारी की आड़ में अगर अमेरिका जान-बूझकर या गलती से पाकिस्तान को चपत लगा देता है, तो पाकिस्तान क्या कर सकता है? सातवाँ, क्या भारत के पास अमेरिका की तरह ऐसी तकनीकी और यांत्रिक सैन्य-तैयारी है कि वह एबटाबाद जैसी सफल कार्रवाई कर सके?


ऐसे में, समझदारी यही है कि हमले की बात किसी भी तरह से सोची न जाए। लेकिन भारत के कुछ उग्र   किस्म की सोच वाले लोग अपनी सरकार के रवैये से इसलिए निराश दिखते हैं कि पाकिस्तान को लेकर पिछले साल भर में सरकार कई बार गच्चा खा चुकी है।


अभी तक पाकिस्तान ने न तो काबुल दूतावास के हत्यारों को पकड़ा है और न ही ताज होटल के। वे खुलेआम ‘जिहाद’ का ढोंग करते हैं और अब वे ओसामा का मर्सिया पढ़ रहे हैं। शर्म-अल-शेख में बलूचिस्तान के सवाल पर हम मात खा गए थे। हम आज तक अमेरिकियों को इस बात के लिए तैयार नहीं कर सके कि वे भारत विरोधी आतंकवादियों को आतंकी समझें।


भारत विरोधी आतंकवादियों को जिस दिन अमेरिका ओसामा की तरह मारेगा, उसी दिन माना जाएगा कि वह भारत का दोस्त है। अभी तो वह सिर्फ अपने हितों के लिए लड़ रहा है और इस लड़ाई में हम उसके पिछलग्गू बने हुए हैं। इस लड़ाई को सचमुच विश्व-आतंकवाद के विरुद्ध उसी दिन से माना जाएगा, जिस दिन से अमेरिका अपने और भारत-विरोधी आतंकियों में फर्क करना बंद करेगा। इसके लिए जरूरी है कि अमेरिका हर गलती के बाद पाकिस्तान को बख्शे नहीं, बल्कि उसके साथ सख्ती से पेश आए।


पाकिस्तान अपनी संप्रभुता का मामला उठा रहा है, लेकिन यह मजाक के अलावा क्या है? जो राष्ट्र अपनी धरती पर विदेशी सैनिक अड्डे खुशी-खुशी खड़े करवाता रहा हो, हमेशा मध्यस्थ और अधीनस्थ की भूमिका निभाता रहा हो और जिसकी सीमाओं में विदेशी आतंकवादी बेलगाम घूमते रहते हों, उसके मुँह से संप्रभुता की बातें अटपटी लगती हैं। इस मौके पर चीन उसे पानी पर चढ़ाने को तैयार बैठा है।


पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान से ज्यों ही अमेरिका हटे, चीन उसकी जगह आ जाए। भारत के लिए इससे बड़ी चुनौती क्या हो सकती है? अफगानिस्तान को अपना पाँचवाँ  प्रांत बनाकर भारत को सबक सिखाना पाकिस्तान का सर्वोच्च लक्ष्य है। इस लक्ष्य को भारत ध्वस्त कैसे करे?


आँख मींचकर अमेरिका का पीछा करने से तो यह लक्ष्य हासिल नहीं होगा। पिछले दस साल तक अमेरिका बुद्धू बनता रहा। अब जरूरी है कि भारत की देखरेख में पाँच लाख जवानों की राष्ट्रीय अफगान फौज खड़ी की जाए। इसकी जिम्मेदारी अमेरिका ले। यह अफगान-फौज पाक-अफगान आतंकवाद का खात्मा तो करेगी ही, उस खतरे पर भी लगाम लगाएगी, जो पाकिस्तान के उग्रवादी तत्वों द्वारा भारत के विरुद्ध खड़ा किया जाता है। अब तक अमेरिका आगे-आगे था और भारत उसके पीछे-पीछे। अब भारत आगे-आगे चले और अमेरिका उसके पीछे-पीछे। इसी में अमेरिका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान का भी कल्याण है।

- वेद प्रताप वैदिक
अध्यक्ष, भारतीय विदेश नीति परिषद्  
(ये लेखक के निजी विचार हैं)

3 टिप्‍पणियां:

  1. किसी को नकल करते हुए देखते तो बचपन में एक कहावत कहते थे- देखा देखी, चुल्ला फूकी:) हम कुछ करना था तो मुम्बई हमले के तुरंत बाद करते, अब तो देर हो चुकी है.... सांप के निकल जाने बात लाठी पीतने जैसा :)

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  2. भारत के नेताओं द्वारा अमरीका का पिछलग्गूपन छोड़ने के अभी तो कोई आसार दिखाई देते नहीं. बौद्धिकों के मनोविलास के भी इसी तरह चलते रहने की भविष्यवाणी की जा सकती है जो गलत नहीं निकलेगी. भारत फिलहाल न तो किसी से पंगा लेने की हालत में है और न ही ऐसा नेतृत्व हमारे पास है जो दुनिया की अगुवाई कर सके. पिछलग्गू अगुवाई कईसे करता जी?

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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