अदृश्य पदार्थ की चुनौती




अदृश्य पदार्थ की चुनौती
ब्रह्माण्ड के खुलते रहस्य (८)
गतांक से आगे




अदृश्य पदार्थ के अस्तित्व का सैद्धान्तिक आधार भी है। स्फीति युग के सिद्धान्त के अनुसार स्फीति युग में तो पदार्थ का घनत्व क्रान्तिक घनत्व1 के बराबर था। अतः इस समय भी बराबर होना चाहिये। किन्तु आकलन करने के बाद यह स्पष्ट होता है कि ब्रह्माण्ड में पदार्थ का घनत्व क्रान्तिक–घनत्व से बहुत कम है। स्फीति सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भिक क्षणों में जब अकल्पनीय तीव्र स्फीति हुई, उस समय के सूक्ष्म ब्रह्माण्ड में सूक्ष्म अन्तरों के अतिरिक्त पूर्ण समांग था। यही सूक्ष्म अन्तर बाद में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के कारण विशाल शून्य के भीतर मन्दाकिनियाँ आदि पिण्ड बने। इनके बनने के लिये भी दृश्य पदार्थों का गुरुत्वाकर्षण पर्याप्त नहीं था, उसे भी अतिरिक्त पदार्थ की विशाल मात्रा में आवश्यकता थी। यह घटना स्फीति सिद्धान्त का, जो कि अन्य दृष्टियों से बहुत सफल सिद्धान्त है, विरोध करती हैं। अर्थात स्फीति सिद्धान्त के अनुसार भी ब्रह्माण्ड में जो ‘दृश्य’ पदार्थ है वह अनेक घटनाओं को समझने के लिये पर्याप्त नहीं है और चूँकि उस ‘अदृश्य’ का प्रभाव हमें गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के तुल्य दिखता है, उसे हम अदृश्य पदार्थ कहते हैं। किन्तु आज यह सत्य है कि वैज्ञानिकों को नहीं मालूम कि ब्रह्माण्ड का 96 प्रतिशत किन पदार्थों या ऊर्जा से बना है। यह तो हमारा तार्किक निष्कर्ष है कि अदृश्य पदार्थ होना चाहिये। वास्तव में हम यह भी नहीं जानते कि अदृश्य पदार्थ कौन से मूल कणों से बना है। किन्तु जिस तरह वैज्ञानिकों ने तार्किक आधार पर उस समय सौर मंडल में अदृश्य यूरेनस तथा नैप्टियून ग्रहों के अस्तित्व और स्थिति की भविष्यवाणी की थी और जो खोजने पर उसी स्थान पर मिले थे, उसी तरह यह घोषणा है जो अदृश्य पदार्थ के वैज्ञानिक खोज की माँग करती है।


अदृश्य ऊर्जा‘ (डार्क इनर्जी) की चुनौती


दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है ‘अदृश्य ऊर्जा‘ (डार्क इनर्जी) की। समान आवेशित कण या चुम्बकीय ध्रुव एक दूसरे को विकर्षित करते हैं, किन्तु गुरुत्वाकर्षण दो पदार्थों में आकर्षण पैदा करता है। पदार्थों में विकर्षण पैदा करने वाली ऊर्जा – प्रतिगुरुत्वाकर्षण ऊर्जा सामान्य बुद्धि के विपरीत लगती है। विशालतारों में गुरुत्वाकर्षण से जब संकुचन होता है तब उस संकुचन को कौन शक्ति रोकती है? संकुचन से तारों के अन्दर का तापक्रम बढ़ता जाता है और तब तक बढ़ता जाता है जब तक कि वह संकुचन को रोक न दे। वही उस तारे की उसके एक जीवनकाल की स्थायी दशा होती है। हमारे सूर्य का आन्तरिक तापक्रम करोड़ों शतांश है। तापक्रम के बढ़ने से प्रभावित तत्त्वों का कम्पन और इसलिये उनका दबाव बढ़ता है, जो गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव पर रोक लगाता है और यह विकर्षण पदार्थों द्वारा उत्पन्न ऊर्जा की मदद से होता है। किन्तु ब्रह्माण्ड में मन्दाकिनियों का जो त्वरण है उसके लिये विकर्षण शक्ति या ऊर्जा कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। ब्रह्माण्ड का औसत तापमान तो परमशून्य के लगभग तीन कैल्विन ऊपर ही है। यही अद्भुत रहस्य है, अबूझ पहेली है। स्फीति सिद्धान्त मानता है कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति का इस प्रतिगुरुत्वाकर्षण शक्ति या अदृश्य ऊर्जा से संतुलन आवश्यक है। यदि अदृश्य ऊर्जा कम होगी तब गुरुत्वाकर्षण शक्ति ब्रह्माण्ड को बिन्दु में संकुचित कर देगी, और यदि गुरुत्वाकर्षण शक्ति कम हुई तो न केवल ब्रह्माण्ड अनन्तकाल तक प्रसार करता रहेगा, वरन ये तारे, ये मन्दाकिनियाँ आदि भी टूट जाएँगे। ब्रह्माण्ड के महान विस्फोट के बाद से लगता है कि अदृश्य ऊर्जा का प्रभाव अधिक है और इसीलिये ब्रह्माण्ड के प्रसार में त्वरण है।




अदृश्य पदार्थ के कुछ प्रत्याशी पिंड ऐसे दिखे हैं जो संभवतः गुरुत्वाकर्षण को बढ़ा रहे हों और जिन्हें हमने पहले इस दृष्टि से नहीं देखा है। एक उदाहरण है ‘भूरा बौना’ (ब्राउन ड्वार्फ), और भी उदाहरण हैं -‘धवल बौना’ (ह्वाइट ड्रवार्फ), न्यूट्रान तारे,  कृष्ण विवर आदि। भूरा बौना वे विशाल तारे हैं जो अपनी ‘तीव्र ऊर्जा आयु’ को पारकर ठंडे हो रहे हैं अतएव इनका विकिरण दुर्बल होता है अतएव ये कठिनाई से ही दृष्टिगत होते हैं, अत: अदृश्य की श्रेणी में आते हैं। एक ऐसा भूरा बौना वैज्ञानिकों को ‘देखने’ में आया है।




न्यूट्रिनो अत्यन्त सूक्ष्म, आवेश रहित, अत्यन्त अल्प द्रव्यमान तथा अत्यधिक वेग वाले कण हैं। इसमें इतनी ऊर्जा तथा इसका वेग इतना अधिक है, तथा यह सारे ब्रह्माण्ड में विपुल मात्रा में मिलता है कि लगता है कि यह भी वह 'अदृश्य पदार्थ’ हो सकता है जिसकी खोज हम कर रहे हैं। किन्तु वैज्ञानिक अभी इससे संतुष्ट नहीं है। क्योंकि न्यूट्रिनों यदि यह कार्य कर रहे हैं तो वह केवल विशाल पैमाने पर कर सकते हैं। छोटे पैमाने पर भी अदृश्य पदार्थ की आवश्यकता होती है। अदृश्य पदार्थ के उपरोक्त उदाहरण ‘उष्ण अदृश्य पदार्थ‘ कहलाते हैं क्योंकि इनमें से ऊर्जा, चाहे अल्प मात्रा में सही, विकिरित हो सकती है। जो अदृश्य पदार्थ सामान्य भारी कणों से बने हैं उन्हें ‘बेर्यानी (प्रोटान, न्यूट्रानों) अदृश्य पदार्थ‘ भी कहते है। उष्ण अदृश्य पदार्थ का एक उदाहरण है ‘मैकौस’ (संपुंजित अन्तरिक्षी संहत प्रभा मंडल), जिनका अस्तित्त्व प्रमाणित हो चुका है। इनके गुणों पर शोध हो रहा है। इनका औसत द्रव्यमान हमारे सूर्य का भी लगभग आधा निकलता है। और इनकी संख्या भी अधिक है, किन्तु उससे अदृश्य पदार्थ की आवश्यक मात्रा में विशेष योगदान नहीं होता। अतएव अन्यत्र खोज जारी है। अदृश्य पदार्थ का दूसरा वर्ग है ‘शीतल अदृश्य पदार्थ‘। इसके उदाहरण हैं ‘विम्प्स’ (वीकली इंटरैक्टिव मैसिव पार्टिकल्स) ये वे संपुंजित द्रव्य कण हैं जिनकी क्रियाशीलता दुर्बल होती है - ‘एक्सआयन’, ‘फ़ोटिनोज़’, ‘अतिसममित कण’ आदि।



‘विम्प्स’ अर्थात ‘दुर्बल क्रियाशील संपुंजित कण’ विशाल पैमाने पर कार्य न कर, तारों या मन्दाकिनियों के स्तर पर कार्य कर सकते हैं। अतएव शीतल तथा उष्ण दोनों तरह के अदृश्य पदार्थों की आवश्यकता लगती है।




यदि उष्ण तथा शीतल दोनों वर्ग के अदृश्य पदार्थों को हम प्रत्याशी मानकर जोड़ लें तब स्थिति कुछ बेहतर अवश्य होती है किन्तु तब भी पदार्थ की आवश्यक मात्रा प्राप्त नहीं होती। नाभिकीय संश्लेषण सिद्धान्त ने आशातीत सफलता न केवल हाइड्रोजन, हीलियम, लीथियम आदि के निर्माण की प्रक्रिया में दर्शाई थी और उनके अस्तित्व का पूर्वानुमान किया था वरन उनका आपस में सही अनुपात भी बतलाया था। इन पूर्वानुमानों की, जो सही निकले थे, आधारभूत मान्यता थी कि उस काल में मूल बैर्यौनिक पदार्थों (प्रोटान, न्यूट्रान) की कुल मात्रा का घनत्व W = 0.1 था। बैर्यानिक पदार्थों का घनत्व हमें आज भी इससे थोड़ा कम ही मिल रहा है। और यदि शेष मिल भी जाए तो अदृश्य पदार्थ की मात्रा में उसका योगदान नगण्य ही होगा। इसका एक निष्कर्ष यह भी निकल सकता है कि अदृश्य प्रदार्थ बैर्योनेतर अर्थात प्रोटान, न्यूट्रानों से इतर होना चाहिये। उसे समझने का भौतिक शास्त्र ही अलग हो सकता है। मुझे मुण्डक उपनिषद का एक मंत्र (1.1.4–5) सटीक लगता है, “द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति – परा चैव अपराच। तत्र अपरा ऋग्वेदो यजुर्वेद सामवेदो अथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।।” अर्थात ज्ञान प्राप्त करने के लिये दो प्रकार की विद्याएँ हैं – परा तथा अपरा। अपरा वेदों में है तथा परा वह है जिससे उस अक्षर ‘अदृश्य’ परमात्मा का ज्ञान होता है। यह दोनों विद्याएँ नितान्त अलग हैं। यही बात ईशावास्योपनिषद में (11) कही है - “विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदो भयं सह। .. . .” अर्थात जो विद्या तथा अविद्या दोनों को जानता है वही मृत्यु को पारकर अमृतत्व पाता है। इसी तरह दृश्य पदार्थ तथा अदृश्य पदार्थ को देखने की विधियाँ या उपकरण नितान्त भिन्न हो सकते हैं।


‘अदृश्य’ होने से यह अवधारणा विस्मयकारी तो निश्चित हो जाती है, और चुनौती देने वाली भी। प्रसारी ब्रह्माण्ड सिद्धान्त का विरोध करने वाले वैज्ञानिक उपरोक्त दोनों – अदृश्य–पदार्थ तथा अदृश्य–ऊर्जा का सहारा लेकर प्रसारी–सिद्धान्त को मृतप्राय घोषित करते रहे हैं।



अदृश्य ऊर्जा
ब्रह्माण्ड का प्रसार पदार्थों की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बावजूद त्वरण के साथ हो रहा है, अर्थात कोई शक्ति है जो गुरुत्वाकर्षण की विरूद्ध दिशा में कार्य कर रही है। ज्ञात शक्तियों में ऐसी कोई बलवान शक्ति नहीं है। यद्यपि फोटान जैसी कम शक्ति वाली ऊर्जा भी अपने संचरण की दिशा में दबाव डालती हैं, किन्तु गुरुत्वाकर्षण विरोधी ऐसे कोई फोटान अथवा अन्य ऊर्जा ‘दृष्टिगत’ नहीं हो पाई है। अतएव इस प्रसारकारी ऊर्जा का नाम ‘अदृश्य ऊर्जा' रखा गया है।




‘साइन्स’ पत्रिका के 19 दिसम्बर, 2003 के अंक में यह समाचार प्रकाशित हुआ है, “अब अदृश्य ऊर्जा के गुण भी जाँच–पड़ताल के घेरे में आ रहे हैं। ‘विल्किंसन माइक्रोवेव एनाइसोट्रोपी प्रोब’ (डब्ल्यू एम ए पी) तथा ‘द स्लोन डिजिटल स्काई सर्वे‘ (एस डी एस एस) से प्राप्त जानकारी तथा सुपरनोवा पर किये गये नवीन अवलोकनों से ऐसा प्रतीत होता है कि अदृश्य ऊर्जा के व्यवहार शीघ्र ही समझने में आने लगेंगे। विल्किंसन प्रोब (डब्ल्यू ़एम ए पी) ने 2003 में ब्रह्माण्डीय पृष्ठभूमि सूक्ष्मतरंग विकिरण के पर्याप्त विवरण सहित स्पष्ट फोटो लिये हैं। इनके विश्लेषण के बाद वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि ब्रह्माण्ड में मात्र 4 प्रतिशत सामान्य पदार्थ हैं, 23 प्रतिशत अदृश्य पदार्थ हैं तथा शेष 73 प्रतिशत अदृश्य ऊर्जा हैं। इसकी स्वतन्त्र पुष्टि नासा ने १८ मैइ २००४ को 'चन्द्र एक्सरे वेधशाला' द्वारा किए गए अवलोकनों के आध्ययन के पश्चात की है। यह अध्ययन २६मंदाकिनी समूहों पर अंतर्राष्ट्रीय खगोलज्ञों के एक दल ने किया था। इस दल का एक निष्कर्ष यह भी था कि ब्रह्माण्ड का त्वरक प्रसार अदृश्य ऊर्जा द्वारा लगभग ६ अरब वर्षों पूर्व शुरु हुआ था। खोजों में उत्तेजना बहुत है। किसी नई विधि की आवश्यकता है जो स्वतंत्र रूप से इन खोजों की परख करे ।



- विश्वमोहन तिवारी (पूर्व एयर वाईस मार्शल)


काश, यही काम भारत करता !




काश, यही काम भारत करता !
डॉ. वेदप्रताप वैदिक


कई बार मैं सोचता हूँ  कि क्या दुनिया में ईरान जैसा भी कोई देश है ? इतना निडर, इतना निष्पक्ष और इतना सच बोलनेवाला देश ईरान के अलावा कौनसा है ?किसी ज़माने में माना जाता था कि गाँधी और नेहरू का भारत निष्पक्ष है, निडर है और सत्यनिष्ठ है| इस मान्यता के बावजूद जवाहरलाल नेहरू की नीतियाँ  किस मुद्दे पर कितनी लोच खा जाती थीं, यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विद्यार्थी भली-भांति जानते हैं| लेकिन ईरान में जबसे इस्लामी क्रांति हुई है, ईरान ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बहादुरी का नया रेकार्ड कायम किया है| इस्लामी क्रांति के पिता आयतुल्लाह खुमैनी कहा करते थे कि अमेरिका बड़ा शैतान है और रूस छोटा शैतान है| हम दोनों शैतानों से अलग रहना चाहते हैं| एक अर्थ में ईरान ने दुनिया को बताया कि सच्ची निर्गुटता क्या होती है| अब जबकि गुट खत्म हो गए हैं, ईरान अकेलादेश है, जो विश्व अंत:करण की आवाज़ बन गया है| काश कि यह काम भारत करता ! ईरान ने सारे परमाणु शस्त्र को खत्म करने का शंखनाद कर दिया है|



ईरान की हिम्मत देखिए कि उसने तेहरान में परमाणु निरस्त्रीकरण सम्मेलन कर डाला| अभी ओबामा के वाशिंगटन-सम्मेलन की स्याही सूखी भी न थी कि तेहरान ने वही मुद्दा उठाया और नारा लगाया कि परमाणु ऊर्जा सबको और परमाणु हथियार किसी को नहीं| जैसा सम्मेलन अमेरिका ने किया, वैसा ही ईरान ने भी कर दिया लेकिन ईरान के सम्मेलन में 60 देश पहुँचे  जबकि अमेरिका में 47 ! यह ठीक है कि वाशिंगटन में राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों की भीड़ थी और तेहरान में ज्यादातर विदेश मंत्री और अफसरगण थे, लेकिन तेहरान के भाषणों और प्रस्ताव पर गौर करें तो हम चकित रह जाते हैं|



वाशिंगटन सम्मेलन की मूल चिंता ईरान थी और तेहरान सम्मेलन की अमेरिका| ये दोनों सम्मेलन एक-दूसरे के विरूद्घ थे| अमेरिका ने ईरान को नहीं बुलाया लेकिन ईरान ने अमेरिका को बुलाया| ईरानी सम्मेलन में अमेरिका शामिल हुआ| अन्य परमाणु महाशक्तियों के प्रतिनिधि भी आए| भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधि भी ! ईरान को अमेरिका ने इसलिए नहीं बुलाया कि वह सम्मेलन परमाणु प्रसार के खिलाफ था और ईरान के बारे में अमेरिका को गहरा शक है कि वह परमाणु हथियार बना रहा है| अमेरिकी सम्मेलन का दूसरा प्रमुख लक्ष्य परमाणु हथियारों को आतंकवादियों के हाथों में जाने से रोकना था| इन दोनों लक्ष्यों का उल्लंघन करनेवाला पाकिस्तान वाशिंगटन में बुलबुल  की तरह चहक रहा था| उसके प्रधानमंत्री ने अपने देश की कारस्तानियों के लिए क्षमा माँगने  की बजाय परमाणु-सुरक्षा के बारे में तरह-तरह के उपदेश झाड़े| ओबामा उनसे अलग से मिले भी ! अमेरिकी सम्मेलन में अनेक मीठी-मीठी बातें कही गईं| दुनिया को परमाणु-शस्त्र रहित बनाने की बातें भी कही गईं लेकिन किसी भी परमाणु-शक्ति ने यह नहीं बताया कि वे अपने शस्त्र-भंडार में कहाँ तक कटौती कर रहे हैं| यह ठीक है कि अमेरिका और रूस ने आठ अप्रैल को चेक राजधानी प्राहा में एक संधि पर दस्तखत किए, जिसके तहत वे अपने परमाणु-शस्त्र में 30 प्रतिशत की कटौती करेंगे लेकिन जो शेष 70 प्रतिशत शस्त्र हैं, वे इस समूची दुनिया का समूल नाश कई बार करने में समर्थ हैं| यह भी सराहनीय है कि कुछ राष्ट्रों ने अपने-अपने परमाणु-ईंधन के भंडारों को घटाने का भी वादा किया है लेकिन अमेरिका में आयोजित यह विश्व सम्मेलन कुछ इस अदा से संपन्न हुआ कि मानो कुछ बड़े पहलवान अपनी चर्बी घटाने के नाम पर अपने बाल कटवाने को तैयार हो गए हों| ऐसा लगता है कि ओबामा ने यह सम्मेलन अपनी चौपड़ बिछाने के लिए आयोजित किया था| हमले की चौपड़ ! ईरान पर हमला करने के पहले वे शायद विश्व जनमत को अपने पक्ष में करने की जुगत भिड़ा रहे हैं| वे नहीं जानते कि वे क्लिटन और बुश से भी ज्यादा दुर्गति को प्राप्त होंगे| ईरान एराक़ नहीं है| क्या वे भूल गए कि राष्ट्रपति जिमी कार्टर को ईरान ने कितना कड़ा सबक सिखाया था ? दुनिया के देश ईरान पर हमले का घोर विरोध तो करेंगे ही, वे उस पर कठोर प्रतिबंध लगाने के भी विरूद्घ हैं| भारत, रूस, चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रों ने प्रतिबंधों का तीव्र विरोध किया है| भारत और रूस चाहते हैं कि ईरान परमाणु अप्रसार संधि का उल्लंघन नहीं करे लेकिन अगर अमेरिका इन दोनों राष्ट्रों पर दबाव डालेगा तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी| ईरान ऐसा राष्ट्र नहीं है कि जिसे कोई ब्लेकमेल कर सके| अमेरिका की खातिर भारत और रूस ईरान को क्यों दबाएँगे ? ईरान को दबाया नहीं जा सकता| उसे समझाया जा सकता है|



ईरान कैसा राष्ट्र है, इसका अंदाज़ सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली खामेनई, राष्ट्रपति अहमदीनिजाद और विदेश मंत्री मुत्तकी के भाषणों से ही हो जाना चाहिए| इन नेताओं ने अमेरिका को दुनिया का सबसे बड़ा दुश्मन घोषित किया है| खामेनई ने पूछा है कि मानव जाति के इतिहास में परमाणु बम-जैसा पापपूर्ण हथियार सबसे पहले किसने बनाया और किसने उसे चलाया ? अमेरिका ने ! इस्लाम के मुताबिक यह 'हराम' है| ऐसा काम करनेवाले देश को विश्व के सभ्य समाज से निकाल बाहर क्यों नहीं किया जाए ? ऐसा धाँसू बयान तो निकिता ख्रश्चेव ने महासभा में जूता बजाते समय भी नहीं दिया था| अहमदीनिजाद ने माँग की है कि सुरक्षापरिषद में पाँचो महाशक्तियों को वीटो से वंचित किया जाए या अन्य महत्वपूर्ण देशों को भी यह अधिकार दिया जाए| अमेरिका को क्या अधिकार है कि वह जून में परमाणु-अप्रसार सम्मेलन बुलवाए ? जिस देश ने परमाणु प्रसार में सबसे कुटिल भूमिका अदा की, जिसने इस्राइल जैसे देश को गुपचुप मदद की, वह राष्ट्रअंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी का सदस्य रहने के काबिल नहीं है| विदेश मंत्री मुत्तकी ने माँग की है कि कुछ ईमानदार राष्ट्र मिलकर परमाणु अप्रसार संधि के प्रावधान चार और छह को लागू करवाने पर ज़ोर दें ताकि हम सचमुच परमाणु शास्त्र रहित विश्व का निर्माण कर सकें| वास्तव में 40 साल पहले संपन्न हुई यह संधि घोर सामंती है| भारत इसका सदस्य नहीं बना लेकिन उसने इसका कड़ा विरोध भी नहीं किया| यह परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों को हथियार बढ़ाने की पूरी छूट देतीहै लेकिन परमाणु शक्ति रहित राष्ट्रों का गला घोंट देती है| ईरान की कमजोरी यह है कि उसने इस संधि पर उस समय दस्तखत कर दिए थे और अब वह इसका विरोध कर रहा है| इस मामले में भारत का पक्ष कहीं अधिक मजबूत है| वास्तव में भारत को चाहिए था कि परमाणु शक्ति बनते ही वह परमाणु विश्व-निरस्त्रीकरणका शंखनाद करता|



1959 में नेहरू ने जिस पूर्ण और व्यापक निरस्त्रीकरण की बात महासभा में कहीं थी, उसे अमली जामा पहलाने का सही वक्त यही है| जो झंडा आज ईरान उठाए हुआ है, वह आज भारत के हाथ में होता तो बात ही कुछ और होती !





मोसे नैना मिलइ के : आबिदा प्रवीण

विख्यात ग़ज़ल गायिका आबिदा  प्रवीण  के स्वर में अमीर खुसरो के  "छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलइ के "  -








क्रिकेट की बीमारी और गुलामी



क्रिकेट की बीमारी और गुलामी 
डॉ. वेदप्रताप वैदिक 



शशि थरूर और ललित मोदी तो बीमारी के ऊपरी लक्षण हैं। असली बीमारी तो खुद क्रिकेट ही है। क्रिकेट खेल नहीं है, बीमारी है। यह कैसा खेल है, जिसमें ११ खिलाड़ियों की टीम में से सिर्फ एक खेलता है और शेष १० बैठे रहते हैं ? विरोधी टीम के बाकी ११ खिलाड़ी खड़े रहते हैं। उनमें से भी एक रह-रहकर गेंद फेंकता है। कुल २२ खिलाड़ियों में २० तो ज्यादातर वक्त निठल्ले बने रहते हैं, ऐसे खेल से कौन-सा स्वास्थ्य लाभ होता है ? पाँच-पाँच दिन तक दिन भर चलने वाला यह खेल क्या खेल कहलाने के लायक है ? जिंदगी में खेल की भूमिका क्या है ? काम और खेल के बीच कोई अनुपात होना चाहिए या नहीं ? सारे काम-धाम छोड़कर अगर आप सिर्फ खेल ही खेलते रहें तो खाएँगे क्या ? जिंदा कैसे रहेंगे ? क्रिकेट का खेल ब्रिटेन में चलाया ही उन लोगों ने था, जिन्हें कमाने-धमाने की चिंता नहीं थी। दो सामंत खेलते थे। एक ‘बेटिंग’ करता था और दूसरा ‘बॉलिंग’ ! शेष नौकर-चाकर पदते थे। दौड़कर गेंद पकड़ते थे और उसे लाकर ‘बॉलर’ को देते थे। यह सामंती खेल है। अय्याशों और आरामखोरों का खेल ! इसीलिए इस खेल के खिलौने भी खर्चीले होते हैं। जैसे रात को शराबखोरी मनोरंजन का साधन होती है, वैसे ही दिन में क्रिकेट फालतू वक्त काटने का साधन होता है। दो आदमी खेलें और २० पदें, इससे बढ़कर अहं की तुष्टि क्या हो सकती है? यह मनोरंजनों का मनोरंजन है। नशों का नशा है। असाध्य रोग है।




अंग्रेजों का यह सामंती रोग उनके गुलामों की रग-रग में फैल गया है। यदि अंग्रेज के पूर्व-गुलाम राष्ट्रों को छोड़ दें तो दुनिया का कौन सा स्वतंत्र राष्ट्र है, जहाँ क्रिकेट का बोलबाला है? ‘इंटरनेशनल क्रिकेट कौंसिल’ के जिन दस राष्ट्रों को अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने का अधिकार है, वे सब के सब अंग्रेज के भूतपूर्व गुलाम-राष्ट्र हैं। चार तो अकेले दक्षिण एशिया में हैं - भारत,पाक, बांग्लादेश और श्रीलंका ! कोई यह क्यों नहीं पूछता कि इन दस देशों में अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, फ़्रांस और जापान जैसे देशों के नाम क्यों नहीं हैं? क्या ये वे राष्ट्र नहीं हैं, जो ओलम्पिक खेलों में सबसे ज्यादा मेडल जीतते हैं? यदि क्रिकेट दुनिया का सबसे अच्छा खेल होता तो ये समर्थ और शक्तिशाली राष्ट्र इसकी उपेक्षा क्यों करते ? क्रिकेट का सौभाग्य तो यह है कि इस खेल में गुलाम अपने मालिकों से भी आगे निकल गए हैं। क्रिकेट के प्रति भूतपूर्व गुलाम राष्ट्रों में वही अंधभक्ति है, जो अंग्रेजी भाषा के प्रति है। अंग्रेजों के लिए अंग्रेजी उनकी सिर्फ मातृभाषा और राष्ट्रभाषा है लेकिन ‘भद्र भारतीयों’ के लिए यह उनकी पितृभाषा, राष्ट्रभाषा, प्रतिष्ठा-भाषा, वर्चस्व-भाषा और वर्ग-भाषा बन गई है। अंग्रेजी और क्रिकेट हमारी गुलामी की निरंतरता के प्रतीक हैं।




जैसे अंग्रेजी भारत की आम जनता को ठगने का सबसे बड़ा साधन है, वैसे ही क्रिकेट खेलों में ठगी का बादशाह बन गया है। क्रिकेट के चस्के ने भारत के पारंपरिक खेलों, अखाड़ों और कसरतों को हाशिए में सरका दिया है। क्रिकेट पैसा, प्रतिष्ठा और प्रचार का पर्याय बन गया है। देश के करोड़ों ग्रामीण, गरीब, पिछड़े और अल्पसंख्यक लोग यह मंहगा खेल स्वयं नहीं खेल सकते लेकिन देश के उदीयमान मध्यम वर्ग ने इन लोगों को भी क्रिकेट के मोह-जाल में फँसा लिया है। आई पी एल जैसी संस्था के पास सिर्फ तीन साल में अरबों रूपए कहाँ से इकटठे हो गए ? उसने टी वी चैनलों, रेडियो और अखबारों का इस्तेमाल बड़ी चतुराई से किया। भारतीयों के दिलो-दिमाग में छिपी गुलामी की बीमारी को थपकियाँ दीं। जैसे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भोले लोग अपने बच्चों को अपना पेट काटकर पढ़ाते हैं, वैसे ही लोग क्रिकेट-मैचों के टिकिट खरीदते हैं, टीवी से चिपके बैठे रहते हैं और खिलाड़ियों को देवताओं का दर्जा दे देते हैं। क्रिकेट-मैच के दिनों में करोड़ों लोग जिस तरह निठल्ले हो जाते हैं, उससे देश का कितना नुकसान होता है, इसका हिसाब किसी ने तैयार किया है, क्या ? क्रिकेट-मैच आखिरकर एक खेल ही तो है, जो घोंघा-गति से चलता रहता है। यह कोई रामायण या महाभारत का सीरियल तो नहीं है। ये सीरियल भी दिन भर नहीं चलते। घंटे-आधे-घंटे से ज्यादा नहीं ! कोई लोकतांत्रिक सरकार अपने देश में धन और समय की इस सार्वजनिक बर्बादी को कैसे बर्दाश्त करती है, समझ में नहीं आता।




समझ में कैसे आएगा ? हमारे नेता जैसे अंग्रेजी की गुलामी करते हैं, वैसे ही वे क्रिकेट के पीछे पगलाए रहते हैं। अब देश में कोई राममनोहर लोहिया तो है नहीं, जो गुलामी के इन दोनों प्रतीकों को खुली चुनौती दे। अब नेताओं में होड़ यह लगी हुई है कि क्रिकेट के दूध पर जम रही मोटी मलाई पर कौन कितना हाथ साफ करता है। बड़े-बड़े दलों के बड़े-बड़े नेता क्रिकेट के इस दलदल में बुरी तरह से फंसे हुए हैं। क्रिकेट और राजनीति के बीच जबर्दस्त जुगलबंदी चल रही है। दोनों ही खेल हैं। दोनों के लक्ष्य भी एक-जैसे ही हैं। सत्ता और पत्ता ! सेवा और मनोरंजन तो बस बहाने हैं। क्रिकेट ने राजनीति को पीछे छोड़ दिया है। पैसा कमाने में क्रिकेट निरंतर चौके और छक्के लगा रहा है। उसकी गेंद कानून के सिर के ऊपर से निकल जाती है। खेल और रिश्वत, खेल और अपराध, खेल और नशा, खेल और दुराचार तथा खेल और तस्करी एक-दूसरे में गडडमडड हो गए हैं। ये सब क्रिकेट की रखैलें हैं। इन रखैलों से क्रिकेट को कौन मुक्त करेगा ? रखैलों के इस प्रचंड प्रवाह के विरूद्ध कौन तैर सकता है? जाहिर है कि यह काम हमारे नेताओं के बस का नहीं है। वे नेता नहीं हैं, पिछलग्गू हैं, भीड़ के पिछलग्गू ! इस मर्ज की दवा पिछलग्गुओं के पास नहीं, भीड़ के पास ही है। जिस दिन भीड़ यह समझ जाएगी कि क्रिकेट का खेल बीमारी है, गुलामी है, सामंती है, उसी दिन भारत में क्रिकेट को खेल की तरह खेला जाएगा। भारत में क्रिकेट किसी खेल की तरह रहे और अंग्रेजी किसी भाषा की तरह तो किसी को कोई आपत्ति क्यों होगी ? लेकिन खेल और भाषा यदि आजाद भारत की औपनिवेशिक बेड़ियाँ बनी रहें तो उन्हें फिलहाल तोड़ना या तगड़ा झटका देना ही बेहतर होगा।


जिन्ना से बड़े किसी नेता इंतज़ार














‘अदृश्य’ पदार्थ (डार्क मैटर) और ‘अदृश्य’ ऊर्जा (डार्क इनर्जी)






‘अदृश्य’ पदार्थ (डार्क मैटर) और ‘अदृश्य’ ऊर्जा (डार्क इनर्जी)
ब्रह्माण्ड के खुलते रहस्य (७)
गतांक से आगे 



इस प्रतिगुरुत्वाकर्षण जैसे बल को समझाने के लिये ही अदृश्य ऊर्जा की संकल्पना की गई है। किन्तु इसके साथ ही अदृश्य पदार्थ की भी संकल्पना की गई है। पहले हम अदृश्य पदार्थ पर चर्चा करें। अदृश्य पदार्थ क्या केवल कल्पना है या इसके कुछ ठोस प्रमाण भी हैं? जब कोई पिण्ड गोलाकार घूमता है तब उस पर अपकेन्द्री बल कार्य करने लगता है। इसी बल के कारण तेज मोटरकारें तीखे मोड़ों पर पलट जाती हैं, मोटरसाइकिल वाला सरकस के मौत के गोले में बिना गिरे ऊपर–नीचे मोटरसाइकिल चलाता है। इसी अपकेन्द्री बल के कारण परिक्रमा-रत पृथ्वी को सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति अपनी ओर अधिक निकट नहीं कर पाती है, और वह अपनी नियत कक्षा में परिक्रमा करती रहती है। जो अपकेन्द्री बल पृथ्वी के परिक्रमा–वेग से उत्पन्न होता है वह गुरुत्वाकर्षण बल का संतुलन कर लेता है। इसी तरह की परिक्रमा हमारा सूर्य 200 कि.मी.प्रति सैकण्ड के वेग से अन्य तारों के साथ अपनी मन्दाकिनी–आकाश गंगा– के केन्द्र के चारों ओर लगाता है। चूँकि यह सारे पिण्ड अपनी नियत कक्षाओं में परिक्रमा रत हैं अर्थात उन पर पड़ रहे गुरुत्वाकर्षण बल तथा उनके अपकेन्द्री बल में संतुलन है।



एक और विस्मयजनक घटना है। एक तारा और कुछ ग्रह मिलकर सौरमंडल (सोलार सिस्टम) के समान तारामंडल बनाते हैं; कुछ करोड़ों तारे मिलकर मन्दाकिनी बनाते हैं; कुछ मन्दाकिनियाँ मिलकर ‘स्थानीय समूह’ (लोकल क्लस्टर) बनाती हैं; ऐसे कुछ समूह मिलकर विशाल गुच्छ (बिग क्लस्टर) बनाते हैं; कुछ विशाल गुच्छ मिलकर मन्दाकिनि–चादर (गैलैक्सी शीट) बनाते हैं; और ऐसी चादरें मिलकर ब्रह्माण्ड बनाती हैं। हमारी मन्दाकिनी आकाश गंगा अपनी पड़ोसन एन्ड्रोमिडा तथा कोई पन्द्रह पड़ोसन छोटी मन्दाकिनियां मिलकर स्थानीय समूह बनाती हैं जो ‘कन्या’ (’वर्गो‘) नामक विशाल गुच्छ के किनार पर स्थित है। आकाश गंगा तथा एन्ड्रोमिडा एक दूसरे की ओर गतिमान हैं; स्थानीय समूह विशाल कन्या गुच्छ के केन्द्र की ओर गतिमान है। पूरा कन्या गुच्छ एक अन्य विशाल गुच्छ के साथ ‘विशाल आकर्षक’ नामक किसी अतुलनीय पदार्थ की ओर तीव्र गति से भाग रहा है। यह समस्त गतियाँ ‘प्रसारी’ गतियों के अतिरिक्त हैं, अर्थात प्रसारी गतियों के कारणों से इन गतियों को नहीं समझा जा सकता अथवा प्रसारी गतियों को इन गुरुत्वीय गतियों से नहीं समझा जा सकता। किन्तु इन दोनों गतियों को अलग से समझना आवश्यक है।



हबल के अभिरक्त विस्थापन का उपयोग कर किसी भी परिक्रमा रत पिण्ड का वेग जाना सकता है, और उस वेग का संतुलन करने के लिये आवश्यक गुरुत्वाकर्षण बल की गणना की जा सकती है। तत्पश्चात गुरुत्वाकर्षण पैदा करने वाले पदार्थ की भी गणना की जा सकती है। ऐसी गणनाएँ करने पर ज्ञात हुआ कि अन्तरिक्ष में विशाल पिण्डों के अपकेन्द्री बलों का सन्तुलन कर सकने वाली पदार्थ की जो मात्रा आवश्यक है, वह दृश्य पदार्थ की मात्रा से कई गुना अधिक है। अर्थात प्रसारी वेग की‌ तो बात ही न करें, यह तो अपकेन्द्री बल को भी नहीं समझा पा रहे हैं ! और चूँकि संतुलन कर सकने वाला वह पदार्थ हमें ‘दिख’ नहीं रहा है, इसलिये वह ‘अदृश्य पदार्थ‘ है। अन्य विधियों से भी यही निष्कर्ष निकलता है। यथा ब्रह्माण्ड में पदार्थ के घनत्व का आकलन करने के लिये वैज्ञानिक विशाल मन्दाकिनियों द्वारा उत्सर्जित प्रकाश ऊर्जा तथा उनके द्रव्यमान के अनुपात का उपयोग करते हैं। यह अनुपात भी दर्शाता है कि ब्रह्माण्ड में जितनी मात्रा में पदार्थ होना चाहिये उतना नहीं है। अतएव वैज्ञानिकों ने 1999 में उस पदार्थ को अदृश्य–पदार्थ की संज्ञा दी है।


गुरुत्वाकर्षण का लैंस
जिस तरह काँच के लैंस किरणों को केन्द्रित या विकेन्द्रित कर सकते हैं, उसी तरह अत्यधिक द्रव्यमान वाले पिण्ड अथवा पिण्डों का गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र प्रकाश के लैंस की तरह कार्य कर सकता है, आइन्स्टाइन ने अपने व्यापक सापेक्षवाद में ऐसी भविष्यवाणी की थी। जिसके फलस्वरूप कोई मन्दाकिनी अधिक प्रकाशवान दिख सकती है, तथा एक पिण्ड के अनेक बिम्ब दिख सकते हैं। ‘नेचर’ पत्रिका के 18/25 दिसम्बर 2003 के अंक में एक प्रपत्र प्रकाशित हुआ है। इसमें स्लोन तंत्र (एस डी एस एस) की टीम ने रिपोर्ट दी है कि चार निकट दिखते हुए क्वेसार वास्तव में गुरुत्वाकर्षण लैंस के द्वारा एक ही क्वेसार के चार बिम्ब हैं। सामान्यतया क्वेसारों के बीच पाई जाने वाली दूरी अब तक अधिकतम 7 आर्क सैकैण्ड पाई गई है। इन चारों के बीच अधिकतम दूरी 14 आर्क सैकैण्ड है। इतनी अधिक दूरी के लिये जितना द्रव्य–घनत्व चाहिये वह दृश्य पदार्थ से नहीं बनता। अतएव वहाँ पर अदृश्य पदार्थ होना चाहिये जिससे इतना शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण लैंस बना है। और उसे ‘शीतल अदृश्य पदार्थ‘ होना चाहिये जिसका घनत्व ‘उष्ण’ अदृश्य पदार्थ से कहीं अधिक होता है। दिसम्बर 2003 तक अस्सी से अधिक गुरुत्वाकर्षी लैंस–क्वेसार खोजे जा चुके हैं। इस तरह के बड़े गुरुत्वाकर्षण लैन्स कम संख्या में अवश्य हैं किन्तु सिद्धान्त के अनुरूप ही अपेक्षित संख्या में हैं, और महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इनसे दृश्य तथा अदृश्य पदार्थों के संबन्धों की खोज में सहायता मिलती है।



पदार्थों को जो दूरदर्शी उपकरण देखते हैं वे विद्युत चुम्बकीय वर्णक्रम के केवल प्रकाश पट्ट का ही उपयोग नहीं करते, वरन रेडियो तरंगें, सूक्ष्म तरंगें, अवरक्त किरणें, परावैंगनी, एक्स, गामा किरणों आदि पूरे वर्णक्रम का उपयोग करते हैं। जब वैज्ञानिक ‘अदृश्य’ शब्द का उपयोग करते हैं तब वे इन सभी माध्यमों के लिये ‘अदृश्य’ शब्द का उपयोग करते हैं। पदार्थ वह है जो उपरोक्त उपकरणों की पकड़ के भीतर है। इसलिये ‘अदृश्य पदार्थ‘ पद के दोनों शब्दों में अन्तर्विरोध है एक तो पदार्थ है और फिर अदृश्य! इसका समन्वय आज ब्रह्माण्डिकी के लिये एक सबसे बड़ी चुनौती है। यद्यपि यह भी सत्य है कि दृश्य जगत की कार्यविधियाँ, यथा तारों, मन्दाकिनियों, ‘ब्लैक होल’ आदि के निर्माण, मूलभूत कणों के गुण इत्यादि वैज्ञानिकों को काफी सीमा तक ज्ञात हो चुके हैं। किन्तु दृश्य जगत ब्रह्माण्ड का मात्र 4 प्रतिशत है।



- विश्वमोहन तिवारी (पूर्व एयर वाईस मार्शल)





प्रकाश का अन्धमहासागर


ब्रह्माण्ड के खुलते रहस्य
 ६
गतांक से आगे 
प्रकाश का अन्धमहासागर




लगभग तीन लाख वर्षों तक ब्रह्माण्ड में प्रोटॉन, न्यूट्रॉन तथा अन्य नाभिक, फोटॉन, इलैक्ट्रॉन तथा न्युट्रिनो के अपारदर्शी महासागर में एक दूसरे से टकराते रहे किन्तु दिख नहीं रहे थे! यह सब इतना घना था कि फोटान अन्य कणों से लगातार टकराते रहे और इसलिये वे बाहर नहीं निकल सकते थे और इसलिये ब्रह्माण्ड दिख नहीं सकता था। इसलिये इसे ‘प्रकाश का अन्धमहासागर’ भी कह सकते हैं। इस काल के अन्त तक ब्रह्माण्ड का तापक्रम लगभग 3000 कै. हो गया था। अतएव टकराहट कम हो गई थी और वे उस महासागर से बाहर निकल सकते थे। फोटॉनों को पूरी मुक्ति मिलने में लगभग दस लाख वर्ष लगे। इस युग को ‘पुनर्संयोजन युग’ (रीकॉम्बिनेशन एरा) कहते हैं। पुनर्संयोजन युग में निर्मित फोटॉनों का विशाल सागर अभी तक मौजूद है और यही हमें ‘पृष्ठभूमि सूक्ष्म तरंग विकिरण’ के रूप में सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त दिखाई देता है। इसका नाप सर्वप्रथम 1965 में लिया गया था, जो बाद में कई बार संपुष्ट किया गया। इस विकिरण की शक्ति लगभग 1370 करोड़ वर्षों में बहुत क्षीण हो गई है और इसका तापक्रम मात्र 2 .73कै. (परम शून्य से 2.73 शतांश ऊपर) है। लगभग सभी वैज्ञानिक इस तथ्य को महान विस्फोट की सुनिश्चित पहचान मानते हैं।





यह विकिरण सारे ब्रह्माण्ड में समरूप है अर्थात पुनर्संयोजन युग के काल में ब्रह्माण्ड एकरस था। तब आज के दृश्य–ब्रह्माण्ड में शून्य के महासागर में तारों से लेकर मन्दाकिनियों, मन्दाकिनि–गुच्छों तथा मन्दाकिनि–चादरों जैसी अल्प द्वीपों के रूप में अवस्थिति क्यों है? ब्रह्माण्ड के पैमाने पर कम ही सही किन्तु तब भी क्यों? 1992 में ‘पृष्ठभूमि सूक्ष्मतरंग विकिरण’ के पदार्थ के घनत्व के वितरण में विचलनों की परिशुद्ध खोज की गई और पाया गया कि उस वितरण में यहां वहां बहुत सूक्ष्म विचलन थे। वही विचलन हमें आज गुरुत्वाकर्षण बलों द्वारा संवर्धित होकर तारों, मन्दाकिनियों आदि के रूप में दिखाई दे रहे हैं। तारों के निर्माण की प्रक्रिया समझाने में इस सूक्ष्म विचलन से बहुत सहायता मिलती है।




मन्दाकिनियों का विकास

सृष्टि की रचना में कणों के निर्माण पश्चात पहले तो हाइड्रोजन तथा हीलियम के विशाल बादल बनें। शनैः शनैः जब ये विशाल बादल इतने बड़े हो गये कि वे अपने ही गुरुत्वाकर्षण से दबकर संकुचित होते गये तब तारे तथा मन्दाकिनियाँ बनी। पहली मन्दाकिनियों तथा तारों को बनने में लगभग 100 करोड़ वर्ष लगे उस समय ब्रह्माण्ड का विस्तार आज के विस्तार का पंचमांश ही था। उपग्रह स्थित हबल टेलिस्कोप से लगभग 170 करोड़ वर्ष आयु की (अर्थात आज से 1200 करोड़ वर्ष पूर्व की स्थिति में) अंडाकार मन्दाकिनी देखने में जो आनन्द आता है वह सन 1609 में गालिलेओ द्वारा दूरदर्शी से देखे गए बृहस्पति के चार चांदों को देखने वाले आनन्द का ही संवर्धित रूप है। इसके बाद कुण्डलाकार मन्दाकिनियाँ आदि बनी। ब्रह्माण्ड की 1370 करोड़ वर्ष की आयु का आकलन सबसे ताजा है और अधिक परिशुद्ध माना जाता है। पहले इसकी याथार्थिकता पर संदेह बना रहता था क्योंकि यह हबल–नियतांक के मान पर निर्भर करता है। जिसका निर्धारण संदेहास्पद ही रहता था। अभिरक्त विस्थापन प्रकाश का एक महत्वपूर्ण गुण है जिसकी सहायता से हमें ब्रह्माण्ड के प्रसार की जानकारी मिलती है। मन्दाकिनियों के अभिरक्त डाप्लरी विस्थापन में उनके भागते–वेग के अतिरिक्त अन्य वेग भी रहते हैं जिन पर प्रसार के अतिरिक्त गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव भी होता है। अतएव किसी भी मन्दाकिनी का अभिरक्त विस्थापन का माप सुनिश्चित न होकर एक फैलाव लिये रहता है। हमें इस अभिरक्त विस्थापन के अवलोकन पर और भी विश्लेषण करना चाहिये।




अभिरक्त विस्थापन (इन्फ्रारैड शिफ्ट)

एक और घटना अभिरक्त विस्थापन के आकलन पर संदेह डालती है। क्वेसार संभवतया प्राचीनतम शिशु मन्दाकिनियों से संबन्धित हैं जो अपेक्षाकृत अधिक दीप्तिमान होते हैं तथा हम से सैकड़ों करोड़ों प्रकाशवर्षों की दूरी पर स्थित हैं। किन्तु कभी कभी वे किसी अन्य सामान्य मन्दाकिनी के निकट पड़ोस में दिखते हैं और तब उस क्वेसार के तथा उस मन्दाकिनी के अभिरक्त विस्थापनों में हमें महत्त्वपूर्ण अन्तर मिलता है। ऐसी घटनाएँ और भी शोध तथा खोज की माँग करती हैं तथा तारों, क्वेसारों, मन्दाकिनियों आदि के निर्माण की प्रक्रियाओं पर मंथन की मांग करती हैं। अतएव मूल प्रसारी ब्रह्माण्ड सिद्धान्त का इस तरह की अपवाद–सी घटनाओं को समझाने के लिये परिवर्धन किया जा रहा है। इसलिये उसके भिन्न रूप सामने आ रहे हैं।




इनमें से कोई ब्रह्माण्ड को खुला मानता है तो कोई बन्द और कोई समतल। खुले ब्रह्माण्ड का अर्थ है ब्रह्माण्ड का अनन्त काल तक प्रसार और इस तरह मृत्यु। बन्द ब्रह्माण्ड का अर्थ है एक काल पश्चात ब्रह्माण्ड के प्रसार का रुकना और फिर संकुचन होना। तथा समतल का अर्थ है कि ब्रह्माण्ड का विस्तार एक काल के पश्चात रुकना और फिर स्थिर होना। दृष्टव्य है कि भारतीय ऋषियों ने ब्रह्माण्ड को ऐसा ही चाक्रिक माना है अर्थात उसका साधारण अर्थों में ‘जन्म’ (यद्यपि वह मूलरूप में अजन्मा ही है) होता है और विलय होता है और यह चक्र अनन्त है। ब्रह्माण्ड में अज्ञात–पदार्थ की मात्रा तथा घनत्व–विचलनों के विषय में वैज्ञानिकों की मान्यताओं में भी इनमें आपस में भेद है। कुछ वैज्ञानिक हैं जो हबल नियतांक के सूक्षमाता से न मापे जा सकने के कारण तथा अन्य अपवाद–सी घटनाओं के कारण प्रसारी–ब्रह्माण्ड सिद्धान्त को नकारते रहे हैं। डा . आर्प तो अभिरक्त विस्थापन की व्याख्या पर ही घोर संदेह करते हैं। किसी भी सिद्धान्त को परखते रहना, उसमें आवश्यकतानुसार समंजन करते रहना जीवन्त–विज्ञान का ही उत्तम गुण है। फ्रैड हायल के शिष्य विश्व प्रसिद्ध खगोलज्ञ जयन्त नार्लीकर भी सावधान रहने की चेतावनी देते रहते हैं। यही घटनाएँ नए शोध या नई खोजों की प्रेरणा देती हैं। किन्तु डॉ. आर्प आदि का ऐसा कठोर विरोध थोड़ा अतार्किक–सा लगता है।




त्वरक ब्रह्माण्ड (एक्सिलरेटिंग यूनिवर्स)

‘प्रसारी ब्रह्माण्ड’ की एक घटना सर्वाधिक विस्मयकारी है और उसने दुविधाएँ भी बहुत उत्पन्न की हैं - वह है ब्रह्माण्ड के प्रसार के वेग का दूरी के साथ बढ़ना। अर्थात न केवल ब्रह्माण्ड में मन्दाकिनियों का प्रसार हो रहा है, वरन उस प्रसार का वेग न तो स्थिर है और न कम हो रहा है वरन बढ़ रहा है ! सामान्य समझ तो यह कहती है कि विस्फोट के समय प्रसार–वेग तीव्रतम होना चाहिये था और समय के साथ उसे यदि कम न भी होना हो तो बढ़ना तो नहीं ही चाहिये वैसे ही जैसे पृथ्वी पर वेग से (मुक्ति वेग से कम) ऊपर फेकी गई वस्तु का वेग धीरे धीरे कम होता जाता है। यदि ब्रह्माण्ड के विस्तार में त्वरण है तब भूतकाल में आज की तुलना में विस्तार का वेग कम था। अर्थात पिण्डों के बीच की दूरियां अब अधिक तेजी से बढ़ रही हैं।




सुपरनोवा तारों के विस्फ़ोट को कहते हैं, यह ब्रह्माण्ड के तीव्रतम प्रकाश के स्रोत हैं और सभी सुपरनोवाओं की द्युति या दीप्ति बराबर होती है। अत: इनका उपयोग दूरियाँ नापने के लिये एक मानक प्रकाश स्रोत के लिये किया जाता है। अब जो दूरी हमें हमारे और किसी एक सुपरनोवा के बीच दिख रही है वह उस सुपरनोवा के विस्फोट (महान विस्फोट नहीं) काल की हमारे बीच की दूरी से कहीं अधिक है। हम दो सुपरनोवा लें जिनके विस्फोट भिन्न समयों पर हुए हैं। अधिक दूरी के सुपरनोवा की दीप्ति कम दूरी वाले सुपरनोवा की दीप्ति से वर्ग नियम के अनुसार तो कम ही होगी। किन्तु अब दूरियों के कारण, अधिक दूर वाले सुपरनोवा की हमारे बीच की दूरी, कम दूरी वाले सुपरनोवा की हमारे बीच की दूरी की बढ़त से, अधिक बढ़ी है। अत्यधिक दूरी के सुपरनोवा कम दूरी के सुपरनोवा की तुलना में कहीं अधिक, अर्थात दूरी के अनुपात द्वारा आपेक्षिक से अधिक, मद्धिम दिखाई पड़ेंगे। और अवलोकनों में ऐसा ही पाया गया है। अर्थात मन्दाकिनियों का वेग बढ़ रहा है और चारों दिशाओं में बढ़ रहा है अतएव ब्रह्माण्ड के अन्दर से ही कोई प्रतिगुरुत्वाकर्षण जैसा बल या ऊर्जा है जो उन्हें गुरुत्वाकर्षण के विरोध में बाहर ठेल रहा या रही है जिस तरह रॉकेट अन्तरिक्षयोनों को ठेलकर उनका वेग बढ़ाते रहते हैं। ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई ऊर्जा या बल तो अभी तक देखा नहीं गया है।


 तब?


क्रमश:

-  विश्वमोहन तिवारी (पूर्व एयर वाईस मार्शल)





१३ अप्रैल बैसाखी १९१९ को जलियाँवाला बाग के इस प्रांगण में






१३ अप्रैल बैसाखी १९१९ को जलियाँवाला बाग के इस प्रांगण में गोलियाँ खाकर बलिदान हुई हुतात्माओं को शत शत प्रणाम।






















आज की हिंदी कविता और उसकी पर्यावरण संलग्नताएँ





इक्कीसवीं शती की प्रमुख चिंताओं में से एक है पर्यावरण संरक्षण की चिंता. पर्यावरण अर्थात्‌ हमारे आस-पास का वातावरण. वात्‌ (हवा) का आवरण. यह सर्वविदित है कि हवा विभिन्न गैसों का मिश्रण है जिसमें ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन-डाई-ऑक्साइड तथा सल्फर-डाई-ऑक्साइड प्रमुख हैं. गुरुत्वाकर्षण के कारण भारी गैसें पृथ्वी की सतह पर रहती हैं और हल्की गैसें ऊपरी वातावरण में. गुरुत्वाकर्षण के साथ साथ ताप एवं सघनता के कारण भी गैसों की परतें बनती हैं. वस्तुतः वायुमंडल में 79% नाइट्रोजन, 20% ऑक्सीजन, 0.3% कार्बन-डाई-ऑक्साइड और शेष में पानी तथा अन्य गैसें होती हैं. इनकी मात्रा कम या ज्यादा होने से पर्यावरण का संतुलन परिवर्तित होता है.


पर्यावरण में उपस्थित ऑक्सीजन गैस प्राणदायक है. प्राणी श्‍वास द्वारा ऑक्सीजन (प्राणवायु) अंदर लेते हैं और कार्बन-डाई-ऑक्साइड को बाहर निकालते हैं. इस कार्बन-डाई-ऑक्साइड को पेड़-पौधे भोजन बनाने के लिए उपयोग करते हैं और ऑक्सीजन बाहर छोड़ते हैं. रात में सूर्य की रोशनी न होने के कारण पेड़-पौधे कार्बन-डाई-ऑक्साइड बाहर निकालते हैं. पर्यावरण में वायु के साथ साथ जल, पृथ्वी, जीव जंतु, वनस्पति तथा अन्य प्राकृतिक संसाधान भी शामिल हैं. ये सब मिलकर संतुलित पर्यावरण की रचना करते हैं.



प्रकृति की रमणीयता हर एक को अपनी ओर आकर्षित करती है. सहृदय साहित्यकार भी पर्यावरण के प्रति सहज रूप से आकर्षित होते हैं. अतः आदिकालीन साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य तक में पर्यावरण / प्रकृति चित्रण दिखाई देता है. आज की कविता में पर्यावरण के रमणीय दृश्‍यों के साथ साथ प्राकृतिक विपदाओं के भी हृदय विदारक चित्र अंकित हैं.



प्रकृति मानव जीवन का अटूट अंग है. प्रकृति से वह सब कुछ प्राप्त होता है जो आरामदायक हैं. अतः कवयित्री कविता वाचक्नवी कहती है कि
"प्रकृति / सर्वस्व सौंपती / लुटाती - रूप रंग / पूरती है चौक मानो / फैलाती भुजाएँ स्वागती." (पर्यटन - प्रेम / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ.146)



वन विभिन्न जातियों और प्रजातियों के वृक्षों, वनस्पतियों तथा जीव जंतुओं का समूह है. वन मूल रूप से सूर्य ताप, आँधी और सॉइल इरोशन को रोकते हैं. वनों में उगे वृक्ष और वनस्पतियाँ निरंतर ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं जो समस्त जीवधारियों के लिए हितकर है. हरे भरे वनों को देखकर सबका मन पुलकित होता है
- "जंगल पूरा / उग आया है / बरसों - बरस / तपी / माटी पर / और मरुत्‌ में / भीगा-भीगा / गीलापन है / सजी सलोनी / मही हुमड़कर / छाया के आँचल / ढकती है / और हरित - हृदय / पलकों की पांखों पर / प्रतिपल / कण - कण का विस्तार... / विविध - विध / माप रहा है / ... गंध गिलहरी / गलबहियाँ / गुल्मों को डाले." (आषाढ़ / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 53)


सतपुडा़ की पर्वत श्रेणियाँ और वन्य प्राणियों से भरपूर जंगल की रमणीयता से मुग्ध होकर आर.के.पालीवाल कहते हैं कि "सतपुडा़ की, बूढ़ी पर्वत शृंखलाओं की / तलहटी में स्थित मड़ई का जंगल / सिर्फ़ निवास स्थान नहीं हैं वन्य जीवों का / इस जंगल की रमणीयता / क़लम बयानी के सीमित संशोधनों के बाहर है. /.../ तवा नदी की सहायक / एक सदानीरा नदी के तट से होती है / मड़ई के खूबसूरत जंगल की शुरुआत / यहाँ पूरब की दो छोटी पहाड़ियों के / ऐन बीच से उगता है सूरज / मानों उग रहा है / किसी षोडशी के उन्न्त उरोजों के बीच" (मड़ई का जंगल / आर.के.पालीवाल / समकालीन भारतीय साहित्य / जुलाई - अगस्त 2008 / पृ. 155)



पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने में वृक्षों और वनस्पतियों का महत्वपूर्ण योगदान है. इसके कारण ही हमारे देश की संस्कृति को ‘अरण्य संस्कृति ’ के नाम से पुकारा जाता था. विकास के नाम पर मनुष्य पर्यावरण से छेड़छाड़ कर रहा है. उसका संतुलन बिगाड़ रहा है. वनों की रक्षा करने के बजाय वह उनका विनाश कर रहा है. अवैध रूप से वृक्षों को काटकर वन संपदा को लूट रहा है. इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक विपदाएँ घटित हो रही हैं. कवयित्री कविता वाचक्नवी ने धरती की इस पीड़ा एवं वेदना को अपनी कविता में इस तरह उकेरा है
- "मेरे हृदय की कोमलता को / अपने क्रूर हाथों से / बेध कर / ऊँची अट्टालिकाओं का निर्माण किया/उखाड़ कर प्राणवाही पेड़-पौधे/बो दिए धुआँ उगलते कल - कारखाने / उत्पादन के सामान सजाए / मेरे पोर-पोर को बींध कर / स्‍तंभ गाड़े / विद्‍युत्वाही तारों के / जलवाही धाराओं को बाँध दिया. / तुम्हारी कुदालों, खुरपियों, फावडों, / मशीनों, आरियों, बुलडोज़रों से / कँपती थरथराती रही मैं. / तुम्हारे घरों की नींव / मेरी बाहों पर थी / अपने घर के मान में / सरो-सामान में / भूल गए तुम. / ... मैं थोड़ा हिली / तो लो / भरभराकर गिर गए / तुम्हारे घर. / फटा तो हृदय / मेरा ही." (भूकंप / कविता वाचक्नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 119)



उद्‍योगीकरण के फलस्वरूप पर्यावरण में हरित गैस (Green gas) बढ़ रही है और पृथ्वी हरित गृह (Green House) के रूप में परिवर्तित हो रही है. कार्बन-डाई-ऑक्साइड, फ्रिओन, नाइट्रोजन ऑक्साइअड और सल्फर-डाई-ऑक्साइड जैसी हरित गैसों की मात्रा दिन ब दिन बढ़ रही है जिसके कारण पृथ्वी का तापमान भी लगातार बढ़ रहा है. ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि होने के कारण ओजोन परत (Ozone Layer) में छेद हो रहे हैं. अतः दिन ब दिन तापक्रम बढ़ रहा है. वस्तुतः ओजोन परत सूर्य से आनेवाली 90% घातक अल्ट्रा वॉयलेट किरणों (UV Rays) को सोखने का काम करती है. यह परत वातावरण का कवच है. मनुष्य इसी कवच को नुकसान पहुँचाकर अनेक चर्म रोगों का शिकार हो रहा है.
अतः प्रेमशंकर मिश्र कहते हैं कि "ताप के ताए दिन हैं / तोल तोल मुख खोलो मैना / बड़े कठिन पल-छिन हैं / ताप के ताए दिन हैं. / आँगन की गौरैया / चुप है / चुप है / पिंजरे की ललमुनिया / हर घर के चौबारे / चुप हैं / चुप है / जन अलाव की दुनिया. / दुर्बल साँसों की धड़कन है / बदले सूरज के दुर्दिन हैं / बड़े कठिन पल-छिन हैं" (ताप के ताए दिन हैं / प्रेमशंकर मिश्र / साहित्य अमृत / अक्तूबर -2009/पृ. 7)


वैश्‍विक गर्मी (Global Warming) के कारण अनेक जलस्रोत सूख रहे हैं. पेयजल और प्रकृति के लिए आवश्‍यक जल की कमी के कारण कृषि पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय संगठन विश्‍व वन्य जीव कोश द्वारा जारी तथ्यों के अनुसार "ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हिमाचल में स्थित हिमनदियों का दुनिया भर में सबसे तेजी से क्षरण हो रहा है. इसके परिणामस्वरूप हिमनदियों से जल प्राप्त करनेवाली नदियाँ सूखने लगेंगी और भारतीय उपमहाद्वीप में जल संकट उत्पन्न होने की आशंका उत्पन्न होगी." अतः कविता वाचक्नवी उद्वेलित होकर पूछती हैं कि "यह धरती / कितना बोएगी / अपने भीतर / बीज तुम्हारे / बिना खाद पानी रखाव के ? / सिर पर सम्मुख / जलता सूरज / भभक रहा है / लपटों में घिर देह बचाती / पृथ्वी का हरियाला आंचल / झुलस गया है / चीत्कार पर नहीं करेगी / इसे विधाता ने रच डाला था / सहने को / भला-बुरा सब / खेल-खेल में अनायास ही, / केवल सब को / सब देने को." (धरती / कविता वाचक्‍नवी / मैं चल तो दूँ / पृ. 139)


घटते हुए वन, बढ़ती हुई जनसंख्या, उद्‍योगीकरण, नगरीकरण और आधुनिकीकरण के कारण प्रदूषण तेजी़ से बढ़ रहा है. जल और वायु के साथ साथ मिट्टी भी प्रदूषित हो गई है. "बहुत-सी चीजें थीं वहाँ / मिट्टी के ढेर के नीचे, दबीं / वर्षों से, समय की परतों को / हटाने पर देखा - / महानगरीय कचरे में / पंच महाभूतों के ऐसे-ऐसे सम्मिश्रण / नए सभ्य उत्पाद-रासायनिक / और पॉलिथीन / धरती पचा नहीं पाई / इस बार. / ... / इतने वर्षों बाद भी / असमंजस, असमर्थ, अपमान में / अपना धरती होने का धर्म / निभा नहीं पाई... / मनुष्य जीवन के आधुनिक / आयामों के सामने / लज्जित थी धरती / हाँ ! इतना जरूर हुआ / कि उस ठिठकी हुई धरती पर / मिट्टी के ढेर पर / अब कुछ कोमल कोंपलें / सगर्व लहरा रहीं थीं." (कूड़ा कचरा और कोंपलें / बलदेव वंशी /समकालीन भारतीय साहित्य /जुलाई-अगस्त 2008/ पृ. 147)


प्रदूषण इतना बढ़ रहा है कि
"सरवर के अधिवासी पंछी / जाने कहाँ उड़े जाते हैं / मंजिलवाली पगडंडी के / रास्ते / स्वयं मुड़े जाते हैं / कदम -कदम / पतझड़ में छिपकर / विष काँटे / बिखरे अनगिन हैं / बड़े कठिन पल-छिन हैं," (ताप के ताए दिन हैं / प्रेमशंकर मिश्र / साहित्य अमृत / अक्तूबर-2009 / पृ. 07)

चारों ओर व्याप्त प्रदूषण के कारण पशु-पक्षियों की अनेक जातियों एवं प्रजातियों का अस्तित्व मिट चुका है और मिटने की खतरा भी मंडरा रहा है. चिड़ियों की चहचहाट से तथा गौरैयों के अंडों को छूने से जो रोमांच का अनुभव होता है उससे शायद आनेवाली पीढ़ियाँ वंचित रह जाएँगी. इसलिए राजेंद्र मागदेव कहते हैं कि "हमने गौरैयों के घोंसले / रोशनदानों में देखे थे / हमने गौरैयों के घोंसले / लकड़ी की पुरानी अलमारी पर देखे थे / हमने वहाँ गौरैयों के अंडे / पंखों, तिनकों और सुतलियों के बीच रखे देखे थे / हमने अंडों को चुपचाप छूकर देखा था / हम छूते ही अजीब रोमांच से भर गए थे / वह रोमांच, आनेवाली पीढ़ियों को / किस तरह से समझाएँगे हम?" (गौरैया नहीं आती अब / राजेंद्र मागदेव /समकालीन भारतीय साहित्य / मई-जून 2009 / पृ.39)


राजनेता प्रदूषण नियंत्रण और वन संरक्षण की बातें करते हैं. उनकी बातें महज भाषण तक ही सीमित हैं.......... "जिसने भी लिया हो मुझसे बदला / वह उसे दे जाए / वनमंत्री ने कहा उत्सव की ठंड में / जंगल जल रहा है उत्तराखंड में / जनता नहीं समझती / कितना कठिन है इस जाड़े में / राज चलाना / आँकडेवाली जनता, समस्यावाली जनता / और स्थानीय जनता तो क्या चीज है / अब तो और भी महान हो गई है / भारतीय जनता. / .... / किस जनता से किस जनता तक जाने में / किस जनता को किस जनता तक लाने में / कितनी कठिनाई होती है इस जाड़े में." (कार्यकर्ता से / कवि ने कहा :लीलाधर जगूड़ी / पृ. 63)


पर्यावरण का संबंध संपूर्ण भौतिक एवं जैविक व्यवस्था से है. यदि प्रदूषण को नहीं रोका गया तो प्राकृतिक संपदा के साथ साथ मनुष्य का अस्तित्व भी इस पृथ्वी से मिट सकता है -
"बचाना हे तो बचाए जाने चाहिए गाँव में खेत, जंगल में पेड़, शहर में हवा, पेड़ों में घोंसलें, अख़बारों में सच्चाई, राजनीति में नैतिकता, प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी"
(बचाओ/कवि ने कहा : उदय प्रकाश/पृ. 93)


‘स्फीति युग’ : ब्रह्माण्ड के खुलते रहस्य (५)

 ५
गतांक से आगे 
‘स्फीति युग









इस पहेली को समझाने के लिये एलन गुथ ने यह परिकल्पना प्रस्तुत की कि ब्रह्माण्ड का प्रसार उस समय अत्यंत तेजी से हुआ, जितनी तेजी से आज हो रहा है उससे कहीं अत्यधिक तेजी से हुआ। इस तेजी के कारण जो भी असमांगिकता उस ब्रह्माण्ड में रही वह खिँचकर समांग हो गई। इस परिकल्पना का कोई भी प्रमाण नहीं मिला है किन्तु यह ब्रह्माण्ड के प्रसार को समझाने में अन्य परिकल्पनाओं की अपेक्षा अधिक सहायता करती है।



10–35 सैकैण्ड के तुरन्त बाद प्रसार के वेग में अत्यधिक वृद्धि हुई। इस स्फीति युग में, प्रसारी सिद्धान्त के अनुसार पर्याप्त मात्रा में ‘शून्य–ऊर्जा घनत्व’ का अस्तित्व था। इस स्फीति युग के पश्चात प्रसार की गति कम हुई किन्तु प्रसार होता रहा है। प्रसार के कारण ब्रह्माण्ड में शीतलता बढ़ती रही है।



एक सैकैण्ड के भीतर ही चारों बल स्वतंत्र होकर अपने अपने कार्य करने लगे थे। पदार्थ और प्रतिपदार्थ का टकराकर ऊर्जा तथा पदार्थ में बदलना (किन्तु ऊर्जा का वापिस पदार्थ तथा प्रतिपदार्थ में बनना नहीं) ब्रह्माण्ड की 1 सैकैण्ड की आयु तक चला तथा प्रतिपदार्थ समाप्त हो गए।



नाभिकीय संश्लेषण युग

प्रसार का अगला चरण 1 सैकैण्ड से 100 सैकैण्ड तक चला, इसे ‘नाभिकीय–संश्लेषण युग’ (न्यूक्लीय सिंथैसिस एरा)(एरा का सही अनुवाद तो 'महाकल्प है, किन्तु सरलता के लिये मैने 'युग' शब्द का ही उपयोग किया है) कहते हैं। प्रोटॉन तो इस नाभिकीय संश्लेषण युग के पूर्व ही बन चुके थे जो हाइड्रोजन के नाभिक बने। इन निन्न्यानवे सैकैण्डों के नाभिकीय संश्लेषण युग में आज तक मौजूद लगभग सारे हाइड्रोजन, हीलियम, भारी हाइड्रोजन आदि नाभिक तथा अल्प मात्रा में लिथियम के नाभिक बने।



पुराने प्रसारी सिद्धान्त (एलन गुथ के पूर्व वाला) के अनुसार इस काल में जैसा भी प्रसार हुआ उससे आज का समांगी ब्रह्माण्ड नहीं निकलता। तथा उसके अनुसार यदि आज ब्रह्माण्ड समतल है तो प्रारम्भ के उस क्षण में भी उसे समतल होना आवश्यक था जिसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता। इसी तरह आज जो विकिरण का प्रसार है वह भी समांगी है। इसे भी नहीं समझाया जा सकता। इसे ‘क्षितिज समस्या’ भी कहते हैं। पुराने प्रसारी सिद्धान्त के अनुसार उस अत्यधिक उष्ण तथा घनी स्थिति में कुछ विचित्र कणों तथा पिण्डों का निर्माण होना चाहिये था। और उनमें से कुछ यथा ‘एक ध्रुवीय चुम्बक’, ‘ग्रैविटिनोज़’, एक्सिआयन्स आदि आदि के अवशेष तो मिलना चाहिये जो नहीं मिलते। पुराना प्रसारी सिद्धान्त इसे समझा नहीं पा रहा था।



.एलन गुथ का ‘स्फीति सिद्धान्त

इस तरह की समस्याओं का समाधान करने के लिये 1979 में एलन गुथ ने ‘स्फीति सिद्धान्त’ को पुराने प्रसारी सिद्धान्त में जोड़ा। सिद्धान्त कहता है कि लगभग १०28 कैल्विन से 1027 कैल्विन तापक्रम के बीच ब्रह्माण्ड की स्थिति में परिवर्तन होता है जिसे ‘सममिति विभंजन’ (सिमिट्री ब्रेकिंग) कहते हैं। इस समय जो तीन मूलभूत बल एक होकर कार्य कर रहे थेÊ उनमें से ‘सशक्त नाभिक बल’ ‘दुर्बल नाभिक बल’ तथा ‘विद्युत चुम्बकीय बलों’ से अलग हो जाता है। इसके फलस्वरूप अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा मुक्त हुई। वास्तव में हुआ यह था कि जब तापक्रम लगभग 1028 या 1027 कैल्विन पहुंचा तब यह अपेक्षित सममिति विभंजन नहीं हुआ। यह कुछ वैसा ही है कि जब हम जल को ठंडा करके शून्य डिग्री तक ले जाते हैं तब भी बर्फ नहीं जमती। जब हम उस पानी को शून्य से कुछ अंश नीचे तक ले जाते हैं तब पानी एकाएक बर्फ बनने लगता है और तापक्रम शून्य शतांश हो जाता है। इसी तरह ब्रह्माण्ड का तापक्रम 1027 कै . से भी कम होता गया और फिर एकदम से कोई 10–33 सैकेण्ड पर सममिति विभंजन हुआ। जब तापक्रम 1027 कै हो गया, अत्यधिक ऊर्जा मुक्त हुई और प्रसार का वेग अत्यधिक बढ़ गया और बह्माण्ड की त्रिज्या लगभग 1050 (कुछ लाख खरब खरब खरब खरब) गुनी बढ़ कर 1017 से.मी. (एक हजार अरब कि. मी.) हो गई। तापक्रम भी तेजी से कम हुआ।



फिर जब 10–12 सैकैण्ड पर तापक्रम लगभग 1015 (दस लाख अरब) कैल्विन पहुंचा तब दुर्बल नाभिक बल तथा विद्युत चुम्बकीय बल भी अलग हो गए। जब 10–2 सैकैण्ड पर तापक्रम लगभग 1012 कै. पहुंचा तब क्वार्क हेड्रानों में बदल गये। प्रोटानों तथा एन्टी प्रोटानों ने मिलकर अत्यधिक ऊर्जा उत्पन्न की तथा पिछले युगों में जो प्रोटान एन्टीप्रोटानों की तुलना में अधिक बन गये थे, वे ही बचे। इन नाभिकों के साथ इलैक्ट्रॉनों को जुड़ने में अनेक वर्ष लगे जब तक कि ब्रह्माण्ड इतना शीतल नहीं हो गया कि इलैक्ट्रान जुड़ सकें। इलैक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर तीव्र वेग से परिक्रमा करते हैं। उनकी नाभिक से स्थिति उनकी ऊर्जा के अनुसार उचित दूरी पर स्थित ऊर्जास्तर चक्र में होती है। ज्यों ज्यों बढ़ते तापक्रम या अन्य कारणों से इलैक्ट्रॉनों की ऊर्जा बढ़ती जाती है, उनके ऊर्जास्तर चक्र का व्यास बढ़ता जाता है। और एक सीमा के बाद इलैक्ट्रॉन अपने नाभिक से मुक्त होकर स्वतंत्र हो जाते हैं। एक तापक्रम के नीचे ही इलैक्ट्रॉन प्रोटानों के आकर्षण में बँध सकते हैं। कुल मिलाकर इस युग में इतना अधिक विस्तार (1050 गुना) इतने कम समय (10–33 सैकैण्ड) में हुआ, इसीलिये इसे ‘स्फीति युग’ कहते हैं। ब्रह्माण्ड की इस स्फीति के समक्ष हमारी आज ( मार्च २०१० की) मुद्रास्फीति तो नगण्य ही कहलाएगी, या शायद नहीं !!



इस आश्चर्यजनक स्फीति के क्या परिणाम हुए? पहला, सारा प्रसार इतनी तीव्रता से हुआ (प्रकाश वेग से भी अधिक !!) कि उस काल का ब्रह्माण्ड समांगी बना। दूसरा, इस तीव्र प्रसार के कारण जो भी वक्रता थी वह खिंचकर सीधी हो गई अर्थात ब्रह्माण्ड समतलीय हो गया। तीसरा, इस तीव्र विस्तार में जो भी विचित्र कण या पिण्ड थे उनकी संख्या भी नगण्य हो गई। ब्रह्माण्ड का प्रसार होता गया, तापक्रम कम होता गया। महान विस्फोट के एक सैकैण्ड बाद तक जब तापक्रम 1010 (दस अरब) कै. था तब प्रोटान तथा न्यूट्रान का अनुपात छ हो गया तथा समांगी दिक की त्रिज्या का प्रसार लगभग 1019 से.मी. (करोड़ करोड़ किमी) हो गया। लगभग 100 सैकैण्ड बाद तापक्रम एक अरब कै. था तथा इलैक्ट्रॉनों एवं पॉज़िट्रॉनों ने मिलकर पुनः अत्यधिक फोटॉन उत्पन्न किये। फोटानों तथा न्यूट्रानों ने मिलकर ड्यूट्रान उत्पन्न किये। तथा ड्यूट्रानों ने मिलकर हीलियम बनाई। इस सबके परिणाम स्वरूप, उस समय ब्रह्माण्ड में 75 % हाइड्रोजन तथा 25% हीलियम थी। इस प्रक्रिया को बैर्योजैनैसिस कहते हैं।



इन हल्के तत्त्वों के नाभिकों के निर्माण की व्याख्या ‘फ्रीडमान–लमेत्र’ के सूत्र नहीं समझा सके थे। तब 1948 में जार्ज गैमो तथा रेल्फ एल्फर ने उन सूत्रों पर क्वाण्टम सिद्धान्त लगाकर उनका परिष्कार किया तथा इनकी समुचित व्याख्या की और इस तरह प्रसारी–सिद्धान्त पर आए संकट को टाला। नाभिकीय संश्लेषण भी प्रसारी–सिद्धान्त का एक नया आधार स्तम्भ बना। ताजे अवलोकनों से ज्ञात हुआ है कि दृश्य–ब्रह्माण्ड में हाइड्रोजन की मात्रा 75 प्रतिशत है, हीलियम की 24 प्रतिशत तथा अन्य की मात्रा 1 प्रतिशत। यह जार्ज गैमो आदि द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुकूल है तथा उसकी पुष्टि करती है। किन्तु यह सिद्धान्त भारी तत्त्वों के निर्माण के विषय में सहीं नहीं उतरे। अन्य भारी तत्त्वों यथा कार्बन, आक्सीजन, नाइट्रोजन, लोहा, ताम्बा, सोना इत्यादि का निर्माण तारों के जन्म–मृत्यु चक्र से सम्बन्धित है। फ्रैड हॉयल आदि ने इन भारी तत्त्वों के निर्माण को ‘सुपरनोवा’ के आधार पर समझाया था।


--      विश्वमोहन तिवारी 
(पूर्व एयर वाईस मार्शल )



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