प्रकाश का अन्धमहासागर


ब्रह्माण्ड के खुलते रहस्य
 ६
गतांक से आगे 
प्रकाश का अन्धमहासागर




लगभग तीन लाख वर्षों तक ब्रह्माण्ड में प्रोटॉन, न्यूट्रॉन तथा अन्य नाभिक, फोटॉन, इलैक्ट्रॉन तथा न्युट्रिनो के अपारदर्शी महासागर में एक दूसरे से टकराते रहे किन्तु दिख नहीं रहे थे! यह सब इतना घना था कि फोटान अन्य कणों से लगातार टकराते रहे और इसलिये वे बाहर नहीं निकल सकते थे और इसलिये ब्रह्माण्ड दिख नहीं सकता था। इसलिये इसे ‘प्रकाश का अन्धमहासागर’ भी कह सकते हैं। इस काल के अन्त तक ब्रह्माण्ड का तापक्रम लगभग 3000 कै. हो गया था। अतएव टकराहट कम हो गई थी और वे उस महासागर से बाहर निकल सकते थे। फोटॉनों को पूरी मुक्ति मिलने में लगभग दस लाख वर्ष लगे। इस युग को ‘पुनर्संयोजन युग’ (रीकॉम्बिनेशन एरा) कहते हैं। पुनर्संयोजन युग में निर्मित फोटॉनों का विशाल सागर अभी तक मौजूद है और यही हमें ‘पृष्ठभूमि सूक्ष्म तरंग विकिरण’ के रूप में सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त दिखाई देता है। इसका नाप सर्वप्रथम 1965 में लिया गया था, जो बाद में कई बार संपुष्ट किया गया। इस विकिरण की शक्ति लगभग 1370 करोड़ वर्षों में बहुत क्षीण हो गई है और इसका तापक्रम मात्र 2 .73कै. (परम शून्य से 2.73 शतांश ऊपर) है। लगभग सभी वैज्ञानिक इस तथ्य को महान विस्फोट की सुनिश्चित पहचान मानते हैं।





यह विकिरण सारे ब्रह्माण्ड में समरूप है अर्थात पुनर्संयोजन युग के काल में ब्रह्माण्ड एकरस था। तब आज के दृश्य–ब्रह्माण्ड में शून्य के महासागर में तारों से लेकर मन्दाकिनियों, मन्दाकिनि–गुच्छों तथा मन्दाकिनि–चादरों जैसी अल्प द्वीपों के रूप में अवस्थिति क्यों है? ब्रह्माण्ड के पैमाने पर कम ही सही किन्तु तब भी क्यों? 1992 में ‘पृष्ठभूमि सूक्ष्मतरंग विकिरण’ के पदार्थ के घनत्व के वितरण में विचलनों की परिशुद्ध खोज की गई और पाया गया कि उस वितरण में यहां वहां बहुत सूक्ष्म विचलन थे। वही विचलन हमें आज गुरुत्वाकर्षण बलों द्वारा संवर्धित होकर तारों, मन्दाकिनियों आदि के रूप में दिखाई दे रहे हैं। तारों के निर्माण की प्रक्रिया समझाने में इस सूक्ष्म विचलन से बहुत सहायता मिलती है।




मन्दाकिनियों का विकास

सृष्टि की रचना में कणों के निर्माण पश्चात पहले तो हाइड्रोजन तथा हीलियम के विशाल बादल बनें। शनैः शनैः जब ये विशाल बादल इतने बड़े हो गये कि वे अपने ही गुरुत्वाकर्षण से दबकर संकुचित होते गये तब तारे तथा मन्दाकिनियाँ बनी। पहली मन्दाकिनियों तथा तारों को बनने में लगभग 100 करोड़ वर्ष लगे उस समय ब्रह्माण्ड का विस्तार आज के विस्तार का पंचमांश ही था। उपग्रह स्थित हबल टेलिस्कोप से लगभग 170 करोड़ वर्ष आयु की (अर्थात आज से 1200 करोड़ वर्ष पूर्व की स्थिति में) अंडाकार मन्दाकिनी देखने में जो आनन्द आता है वह सन 1609 में गालिलेओ द्वारा दूरदर्शी से देखे गए बृहस्पति के चार चांदों को देखने वाले आनन्द का ही संवर्धित रूप है। इसके बाद कुण्डलाकार मन्दाकिनियाँ आदि बनी। ब्रह्माण्ड की 1370 करोड़ वर्ष की आयु का आकलन सबसे ताजा है और अधिक परिशुद्ध माना जाता है। पहले इसकी याथार्थिकता पर संदेह बना रहता था क्योंकि यह हबल–नियतांक के मान पर निर्भर करता है। जिसका निर्धारण संदेहास्पद ही रहता था। अभिरक्त विस्थापन प्रकाश का एक महत्वपूर्ण गुण है जिसकी सहायता से हमें ब्रह्माण्ड के प्रसार की जानकारी मिलती है। मन्दाकिनियों के अभिरक्त डाप्लरी विस्थापन में उनके भागते–वेग के अतिरिक्त अन्य वेग भी रहते हैं जिन पर प्रसार के अतिरिक्त गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव भी होता है। अतएव किसी भी मन्दाकिनी का अभिरक्त विस्थापन का माप सुनिश्चित न होकर एक फैलाव लिये रहता है। हमें इस अभिरक्त विस्थापन के अवलोकन पर और भी विश्लेषण करना चाहिये।




अभिरक्त विस्थापन (इन्फ्रारैड शिफ्ट)

एक और घटना अभिरक्त विस्थापन के आकलन पर संदेह डालती है। क्वेसार संभवतया प्राचीनतम शिशु मन्दाकिनियों से संबन्धित हैं जो अपेक्षाकृत अधिक दीप्तिमान होते हैं तथा हम से सैकड़ों करोड़ों प्रकाशवर्षों की दूरी पर स्थित हैं। किन्तु कभी कभी वे किसी अन्य सामान्य मन्दाकिनी के निकट पड़ोस में दिखते हैं और तब उस क्वेसार के तथा उस मन्दाकिनी के अभिरक्त विस्थापनों में हमें महत्त्वपूर्ण अन्तर मिलता है। ऐसी घटनाएँ और भी शोध तथा खोज की माँग करती हैं तथा तारों, क्वेसारों, मन्दाकिनियों आदि के निर्माण की प्रक्रियाओं पर मंथन की मांग करती हैं। अतएव मूल प्रसारी ब्रह्माण्ड सिद्धान्त का इस तरह की अपवाद–सी घटनाओं को समझाने के लिये परिवर्धन किया जा रहा है। इसलिये उसके भिन्न रूप सामने आ रहे हैं।




इनमें से कोई ब्रह्माण्ड को खुला मानता है तो कोई बन्द और कोई समतल। खुले ब्रह्माण्ड का अर्थ है ब्रह्माण्ड का अनन्त काल तक प्रसार और इस तरह मृत्यु। बन्द ब्रह्माण्ड का अर्थ है एक काल पश्चात ब्रह्माण्ड के प्रसार का रुकना और फिर संकुचन होना। तथा समतल का अर्थ है कि ब्रह्माण्ड का विस्तार एक काल के पश्चात रुकना और फिर स्थिर होना। दृष्टव्य है कि भारतीय ऋषियों ने ब्रह्माण्ड को ऐसा ही चाक्रिक माना है अर्थात उसका साधारण अर्थों में ‘जन्म’ (यद्यपि वह मूलरूप में अजन्मा ही है) होता है और विलय होता है और यह चक्र अनन्त है। ब्रह्माण्ड में अज्ञात–पदार्थ की मात्रा तथा घनत्व–विचलनों के विषय में वैज्ञानिकों की मान्यताओं में भी इनमें आपस में भेद है। कुछ वैज्ञानिक हैं जो हबल नियतांक के सूक्षमाता से न मापे जा सकने के कारण तथा अन्य अपवाद–सी घटनाओं के कारण प्रसारी–ब्रह्माण्ड सिद्धान्त को नकारते रहे हैं। डा . आर्प तो अभिरक्त विस्थापन की व्याख्या पर ही घोर संदेह करते हैं। किसी भी सिद्धान्त को परखते रहना, उसमें आवश्यकतानुसार समंजन करते रहना जीवन्त–विज्ञान का ही उत्तम गुण है। फ्रैड हायल के शिष्य विश्व प्रसिद्ध खगोलज्ञ जयन्त नार्लीकर भी सावधान रहने की चेतावनी देते रहते हैं। यही घटनाएँ नए शोध या नई खोजों की प्रेरणा देती हैं। किन्तु डॉ. आर्प आदि का ऐसा कठोर विरोध थोड़ा अतार्किक–सा लगता है।




त्वरक ब्रह्माण्ड (एक्सिलरेटिंग यूनिवर्स)

‘प्रसारी ब्रह्माण्ड’ की एक घटना सर्वाधिक विस्मयकारी है और उसने दुविधाएँ भी बहुत उत्पन्न की हैं - वह है ब्रह्माण्ड के प्रसार के वेग का दूरी के साथ बढ़ना। अर्थात न केवल ब्रह्माण्ड में मन्दाकिनियों का प्रसार हो रहा है, वरन उस प्रसार का वेग न तो स्थिर है और न कम हो रहा है वरन बढ़ रहा है ! सामान्य समझ तो यह कहती है कि विस्फोट के समय प्रसार–वेग तीव्रतम होना चाहिये था और समय के साथ उसे यदि कम न भी होना हो तो बढ़ना तो नहीं ही चाहिये वैसे ही जैसे पृथ्वी पर वेग से (मुक्ति वेग से कम) ऊपर फेकी गई वस्तु का वेग धीरे धीरे कम होता जाता है। यदि ब्रह्माण्ड के विस्तार में त्वरण है तब भूतकाल में आज की तुलना में विस्तार का वेग कम था। अर्थात पिण्डों के बीच की दूरियां अब अधिक तेजी से बढ़ रही हैं।




सुपरनोवा तारों के विस्फ़ोट को कहते हैं, यह ब्रह्माण्ड के तीव्रतम प्रकाश के स्रोत हैं और सभी सुपरनोवाओं की द्युति या दीप्ति बराबर होती है। अत: इनका उपयोग दूरियाँ नापने के लिये एक मानक प्रकाश स्रोत के लिये किया जाता है। अब जो दूरी हमें हमारे और किसी एक सुपरनोवा के बीच दिख रही है वह उस सुपरनोवा के विस्फोट (महान विस्फोट नहीं) काल की हमारे बीच की दूरी से कहीं अधिक है। हम दो सुपरनोवा लें जिनके विस्फोट भिन्न समयों पर हुए हैं। अधिक दूरी के सुपरनोवा की दीप्ति कम दूरी वाले सुपरनोवा की दीप्ति से वर्ग नियम के अनुसार तो कम ही होगी। किन्तु अब दूरियों के कारण, अधिक दूर वाले सुपरनोवा की हमारे बीच की दूरी, कम दूरी वाले सुपरनोवा की हमारे बीच की दूरी की बढ़त से, अधिक बढ़ी है। अत्यधिक दूरी के सुपरनोवा कम दूरी के सुपरनोवा की तुलना में कहीं अधिक, अर्थात दूरी के अनुपात द्वारा आपेक्षिक से अधिक, मद्धिम दिखाई पड़ेंगे। और अवलोकनों में ऐसा ही पाया गया है। अर्थात मन्दाकिनियों का वेग बढ़ रहा है और चारों दिशाओं में बढ़ रहा है अतएव ब्रह्माण्ड के अन्दर से ही कोई प्रतिगुरुत्वाकर्षण जैसा बल या ऊर्जा है जो उन्हें गुरुत्वाकर्षण के विरोध में बाहर ठेल रहा या रही है जिस तरह रॉकेट अन्तरिक्षयोनों को ठेलकर उनका वेग बढ़ाते रहते हैं। ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई ऊर्जा या बल तो अभी तक देखा नहीं गया है।


 तब?


क्रमश:

-  विश्वमोहन तिवारी (पूर्व एयर वाईस मार्शल)





2 टिप्‍पणियां:

आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

Comments system

Disqus Shortname