रोमन कथा वाया बाईपास अर्थात् हिन्दी पर एक और आक्रमण

रोमन का रोमांस


श्री असगर वजाहत के इस आह्वान को स्वीकार करते हुए मुझे प्रसन्नता है कि 'आज समय का तकाजा है कि हम हिन्दी भाषा की लिपि पर विचार करें और इस संबंध में जनमत बनाने पर विचार करें।' मेरा खयाल है, विचार करने पर कोई नई बात सामने आती है, तभी जनमत बनाने का सवाल उठता है। स्वयं असगर ने बताया है कि इस प्रश्न पर पहले भी काफी विचार हुआ था, लेकिन इस प्रस्ताव के पक्ष में कभी हवा नहीं बनी कि हिन्दी भाषा को रोमन लिपि में लिखा जाए। दरअसल, यह प्रस्ताव कमजोर और तर्कहीन होने के अलावा इतना बोदा और क्रूर था कि इस पर गंभीरतपूर्वक विचार करना बुद्धि का अपमान होता। तब हिन्दी की स्थिति आज जैसी बुरी नहीं थी । शेर पर वार करना कठिन होता है। चींटी को तो कोई भी कुचल देगा। हिन्दी अब गरीब की भौजाई हो चुकी है। यही वजह है कि आज हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने की सलाह दी जा रही है।


इस सिलसिले में प्रगतिशील लेखक संघ आंदोलन द्वारा कभी दी गई यह सलाह दिलचस्प है कि सभी भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि स्वीकार कर लेनी चाहिए। इस सलाह के बारे मे ज्यादातर लोगों को मालूम नहीं है, वरना इस किस्म की प्रगतिशीलता की आलोचना करने का एक और कारण उपलब्ध हो जाता। कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रगतिशील लेखक संघ आंदोलन के दौरान सभी भारतीय भाषाओं को रूसी लिपि अपनाने की सलाह दी गई थी और असगर वजाहत की याददाश्त उन्हें धोखा दे रही है? लेकिन हो सकता है, असगर ठीक ही कह रहे हों, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी, देश की दूसरी पार्टियों की तरह ही, अंग्रेजीपरस्त रही है। कम्युनिस्ट पार्टियों के सभी दस्तावेज आज भी अंग्रेजी में ही तैयार होते हैं। यहाँ तक कि नक्सलवादी समूहों के भी, जो जमीन से ज्यादा जुड़े हुए हैं। कम्युनिस्टों की इस परंपरा पर ज्यादा चिंता इसलिए प्रगट की जानी चाहिए कि वे अपने को देश भर में सबसे ज्यादा लाकतांत्रिक और जन-हितैषी भी मानते हैं। काश, जिन प्रगतिशील लोगों ने रोमन लिपि अपनाने की सलाह दी थी, उन्होंने अपनी सलाह पर खुद अमल करना शुरू कर दिया होता। भारत का समकालीन इतिहास अनेक मजेदार दृश्यों से वंचित रह गया।


कमाल अतातुर्क एकमात्र शासक थे, जिन्होंने अपने देश की भाषा तुर्की के लिए रोमन लिपि अपनाने का चलन शुरू किया। जैसा कि असगर वजाहत ने खुद बताया है, यह किसी जन आंदोलन का परिणाम नहीं था। न ही इसके लिए व्यापक विचार-विमर्श किया गया था। कमाल अतातुर्क के मात्र एक आदेश से इतना मूलभूत परिवर्तन हो गया। उन्होंने तुर्की को एक आधुनिक - उनकी आधुनिकता पूर्ण पश्चिमीकरण पर आधारित थी - राष्ट्र बनाने की दिशा में अथक प्रयास किया, पर तुर्की को रोमन में लिखने का आदेश तानाशाही का एक उदाहरण है। किसी भी शासक को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी भाषा की लिपि बदल डाले। यह सुधार नहीं, ज्यादती है। शुक्र है कि किसी और देश के शासक या शासकों ने यह ज्यादती दुहराने की हिम्मत नहीं की। यह भारत के नए तानाशाह मिजाज का ही एक उदाहरण है कि हिन्दी की लिपि बदलने की मुहिम शुरू हो गई दिखती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि या तो यह तानाशाही रहेगी या नागरी रहेगी।


दुख को कैसे खुशी में बदला जा सकता है, इसका उदाहरण भी असगर वजाहत के इस लेख में मिलता है। लेख के पहले भाग में बार-बार यह रोना रोया गया है कि हिन्दी की हालत रोज-ब-रोज खस्ता होती जा रही है। यह न अकादमिक भाषा बन सकी, न प्रशासनिक। विश्व भाषा बनने का तो सवाल ही नहीं उठता। हाँ, विज्ञापन जगत ने हिन्दी को जरूर अपना लिया है, जिसके बारे में बताया गया है कि यह तेरह हजार करोड़ रुपए का उद्योग है। लेकिन 'महत्वपूर्ण बात यह है कि विज्ञापन की भाषा में हिन्दी तो आई है, पर नागरी लिपि नहीं आई। विज्ञापन की हिन्दी रोमन लिपि में ही सामने आती है।' लेकिन इसमें खुश होने की बात क्या है? विज्ञापनदाता ठहरा व्यापारी। उसे न भाषा से मतलब है न लिपि से। वह सिर्फ एक भाषा जानता है - रुपए पर छापे गए अंकों की। उसके लिए भाषा की अपनी ध्वनियों का कोई महत्व नहीं है। वह सिर्फ एक ही ध्वनि को पहचानता है, वह है सिक्के की ठनठन। उसे तो अपना माल बेचना है। कल अगर भोजपुरी भारत की राष्ट्रभाषा हो गई, तो उसके विज्ञापन भोजपुरी में दिखाई-सुनाई देने लगेंगे। क्या अब वही हमारा एकमात्र पथ-प्रदर्शक रह गया है?


यह सूचना मानीखेज है कि '...पिछले पचीस-तीस सालों में हिन्दी समझनेवालों की संख्या में बड़ी तेजी से वृद्धि हुई है लेकिन नागरी लिपि का ज्ञान उतनी तेजी से नहीं बढ़ा है।' इस भयावह तथ्य के दो पहलू हैं। पहली बात का संबंध भारत में शिक्षा के कम फैलाव से है। जब भारत में साक्षरता निम्नतम स्तर पर थी, तब भी हिन्दी समझनेवालों की संख्या बहुत ज्यादा थी, पर नागरी लिपि जाननेवाले बहुत कम थे। लोग रामचरितमानस और कबीर वाणी पढ़ते नहीं थे, सुनते थे। कहते हैं, कबीर तो नागरी क्या, किसी भी लिपि में नहीं लिख सकते थे, हालाँकि इस पर मुझे यकीन नहीं है। आज अगर देश में हिन्दी समझनेवालों की संख्या ज्यादा है, पर हिन्दी लिख सकनेवालों की संख्या कम, तो इसका मतलब यह है कि अब भी साक्षरता की कमी है। इतने करोड़ लोगों का हिन्दी जानना, पर उसकी लिपि से अपरिचित रहना कोई स्वाभाविक घटना नहीं है, लोगों को पिछड़ा रखने के राष्ट्रीय षड्यंत्र का नतीजा है।


दूसरा पहलू भी कम चिंताजनक नहीं है। सोनिया गाँधी, मनमोहन सिंह, सैम पित्रोदा और प्रकाश करात जैसे लोग हिन्दी समझ लेते हैं, पर हिन्दी न ठीक से पढ़ सकते हैं न लिख सकते हैं। इनकी तिजारत हिन्दी से चलती है, इसलिए ये हिन्दी में बोल लेते हैं, पर हिन्दी के भले से इन्हें कोई मतलब नहीं है। टीवी पर विचार-विमर्श के दौरान अंग्रेजीदाँ लोगों को हम अकसर टूटी-फूटी हिन्दी में अपनी बात रखते हुए सुनते हैं। यह उनका हिन्दी-प्रेम नहीं, व्यावसायिकता का दबाव है। टीवी और एफएम चैनलों में भी तमाम फैसले अंग्रेजी में होते हैं, पर गाया-बजाया हिन्दी में जाता है। लेकिन हिन्दी प्रदेश के नेताओं का, जो अमूमन अंग्रेजी नहीं जानते, हाल भी अच्छा नहीं है। जहाँ तक मुझे पता है, लालू-मुलायम-मायावती जैसे नेता, जिनकी रोटी ही हिन्दी से चलती है, दो-चार लाइनें हिन्दी में भले ही लिख लें, पर बारह शब्दों की एक लाइन में पाँच में से सात गलतियाँजरूर होंगी। यह दुरवस्था किसी भी अन्य भारतीय भाषा में नहीं है। जहाँ तक भारत को त्याग कर विदेश में रहनेवाले तथाकथित सफल लोगों का सवाल है, उन्हें न अपने देश से प्यार है, न अपनी भाषा से। उनकी मजबूरी यह है कि भारत के अपने 'कम विकसित' रिश्तेदारों से संवाद करने के लिए हिन्दी में लिखना पड़ता है। यही वे विदेशी भारतीय हैं जो रोमन में हिन्दी लिखते हैं। रोमन में हिन्दी लिखवाने का कुछ दोष हिन्दीवालों का भी है। उन्होंने न वर्तनी का मानकीकरण किया न कंप्यूटर के कुंजी पटल का। ऐसे में और हो ही क्या हो सकता था? पर इस कारण हम भगोड़ों की नकल क्यों करने लगें? क्या हमें पागल कुत्ते ने काटा है?



मैं ठीक से नहीं जानता कि भाषा और लिपि का संबंध किस तरह का है। मुझे इतना जरूर पता है कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा छपनेवाली किताब बाइबल, जो मूल रूप से हिब्रू (ओल्ड टेस्टामेंट) और ग्रीक (न्यू टेस्टामेंट) में है, का अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ है, तो उस भाषा की लिपि को भी स्वीकार किया गया है। भारत की सभी भाषाओं में बाइबल का अनुवाद हो चुका है, पर एक भी अनुवाद रोमन लिपि में नहीं छपा है। यह फर्क तिजारत और राजनीति तथा समाज और संस्कृति का है। व्यापारी उस भाषा का इस्तेमाल करता है जिस भाषा में माल ज्यादा बिक सकता है। इसीलिए न केवल हिन्दी में अंग्रेजी डाली जा रही है (ये दिल माँगे मोर) बल्कि अंग्रेजी में भी हिन्दी डाली जा रही है -सन बोले हैव फन। । पत्रकारिता में टाइम्स ऑफ इंडिया ने सबसे पहले यह भाषाई संकरता शुरू की थी। अब उसकी नकल लगभग सारे अखबार कर रहे हैं । अंग्रेजी और वर्नाकुलर, दोनों का मजा एक साथ। कीमत सिर्फ तीन रुपए।


यह शुद्ध भ्रम है कि रोमन में लिखने से हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ेगी और उसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिल सकेगी। कहते हैं, एक अधेड़ आदमी को नजदीक का चश्मा देते हुए डाक्टर ने कहा, अब आप आसानी से पढ़-लिख सकते हैं। वह आदमी बहुत खुश हुआ। उसने जवाब दिया, आपकी मेहरबानी से यह सहूलियत हो गई, वरना मैं तो अनपढ़ हूं। चश्मा किसी को साक्षर नहीं बना सकता। मुझे नहीं लगता कि रोमन में लिखी हिन्दी को अमेरिका के ओबामा या फ्रांस के सरकोजी समझ जाएँगे। यही बात रोमन में लिखी चीनी या जापानी के बारे में भी कही जा सकती है। नागरी में लिखी उर्दू हम कुछ-कुछ समझ लेते हैं, क्योंकि इतनी उर्दू हमें पहले से ही आती है। यह जरूर है कि नागरी में लिखने पर विदेशियों को हिन्दी पढ़ाना आसान हो जाएगा, पर यह हमारा इतना बड़ा सरोकार क्यों हो कि हम अपनी लिपि ही बदल डालें? इसके पहले क्या यह जरूरी नहीं है कि हिन्दी बोलनेवालों को हिन्दी पढ़ा दी जाए? तब हो सकता है कि असगर वजाहत के खूबसूरत उपन्यासों और कहानियों को पढ़नेवालों की तादाद बढ़ जाए।


यह बात सही नहीं है कि 'नागरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि भविष्य में चुनौतियाँ देगी।' ये चुनौतियाँ नहीं होंगी, नागरी लिपि के साथ बलात्कार होगा। इसे स्वीकार कर लेने के पीछे यही मनोभाव हो सकता है कि बलात्कार को रोक नहीं सको, तो उसका मजा लेना शुरू कर दो। इसी तरह यह व्याख्या भी उचित नहीं है कि 'ऐतिहासिक शक्तियाँ परिवर्तन की भूमिका निभाती रहेंगी।' ऐसा कहने के पीछे इतिहास की प्रभुतावादी अवधारणा है। हो सकता है, ऐतिहासिक शक्तियों ने भारत को अंग्रेजों का गुलाम बनाया, पर वे शक्तियाँ भी कम ऐतिहासिक नहीं थीं जिन्होंने अंग्रेजों को भारत से भगा कर छोड़ा। 'अंग्रेजी हटाओ आंदोलन' के पीछे ऐतिहासिक शक्तियाँ हैं, तो कामनवेल्थ खेलों जैसी गुलामी की परंपरा को ढोनेवाली घटना के पीछे भी ऐतिहासिक शक्तियाँ हैं। सवाल यह है कि हमें किन ऐसिहासिक शक्तियों का साथ देना चाहिए और किन ऐतिहासिक शक्तियों का विरोध करना चाहिए। मार्क्स के अनुसार, इतिहास की गति इकहरी नहीं, द्वंद्वात्मक है। इतिहास उससे उलटी दिशा में भी जा रहा है जिसकी ओर असगर वजाहत ने संकेत किया है। इसका एक प्रमाण यह है कि जब 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ, तो उसका चार्टर पाँच भाषाओं (चीनी, फ्रेंच, अंग्रेजी, रूसी और स्पेनिश) में लिखा गया था। पर 1980 में अरबी को भी राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाना पड़ा।

एक बात मैं जरूर मानता हूँ और चाहता भी हूँ। किसी एक भाषा को विश्व भाषा बनाया जाना चाहिए। पता नहीं यह कभी संभव होगा या नहीं। जिस दिन यह होगा, वह दिन 'विश्व मानवता दिवस' मनाने लायक होगा। हो सकता है, उस भाषा की एक ही लिपि हो। तब तक मैं जीवित रहूँगा, तो इसका हार्दिक स्वागत करूँगा। एस्पेरेंटो को विश्व भाषा के रूप में विकसित करने का प्रयोग किया गया है, पर यह प्रयास अभी भी शैशवावस्था में है। नोम चॉम्स्की की यह स्थापना सही है कि दुनिया की सभी भाषाओं का मूल ढांचा एक है। ऐसा इसलिए है कि दुनिया का ढांचा भी सभी जगह एक ही है। इस आधार पर भाषाई एकता की कल्पना की जा सकती है। जरूरी नहीं कि वह लिपि रोमन ही हो। किसी भी कसौटी का इस्तेमाल करें, नागरी लिपि रोमन लिपि से ज्यादा वैज्ञानिक है। यों ही नहीं था कि जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने अपनी वसीयत का एक हिस्सा अंग्रेजी भाषा को सुधारने के लिए रख छोड़ा था।


लेकिन आज के वातावरण में, जब अंग्रेजी और रोमन लिपि भारत में विध्वंसक की भूमिका निभा रही हैं तथा सभी भारतीय भाषाओं का भविष्य खतरे में है, हिन्दी को या कि किसी भी अन्य भारतीय भाषा को रोमन लिपि अपनाने की सलाह देना कटे में नमक छिड़कने की तरह है। मैं तो इसी विचार के विरोध में ही जनमत बनाने की कोशिश करूँगा। मैं समझता हूँ, यही वैज्ञानिक भी है। आज रोमन लिपि का इस्तेमाल करनेवालों के हाथ में विज्ञान की नियामतें केंद्रित हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि अमेरिका, इंग्लैंड या दूसरे यूरोपीय देश जो कुछ कर रहे हैं, वह भी वैज्ञानिक है। ऐसी वैज्ञानिकता से खुदा बचाए।
राजकिशोर

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10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    हम आपकी इस मुहिम में साथ हैं।

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  2. हमारे देश में किराए के मकान को अपना समझ लेने की आम आदत है.
    लोगों को पढ़ना या बोलना नहीं आता हो लेकिन आज हिन्दी निर्विवाद रूप से देश के आम लोगों के संपर्क भाषा बन चुकी है .
    इसका उदाहरण देश के हर कोने में देखा जा सकता है . जो काम प्यार से हो सकता है वही स्थायी होता है, दबाव से केवल विवाद की रोटियाँ सेकी जाती हैं

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  3. चिंता काहे करते हो भाई....यूनिकोड आने के बाद से इन भाई लोगों को बहुत धक्का लगा होगा....दरअसल मेरे जैसे लोगों को अब अंग्रेजी मैं टाईप करते बहुत जोर आता हैं....और हिंदी फटाफट....खैर आप का लेख बहुत ही अच्छा है.....बधाई...थोङा छोटा होता तो ठीक रहता..

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  4. ईमेल द्वारा प्राप्त सन्देश -

    पहले हमें यह सोचना होगा कि अंग्रेज़ी का प्रभुत्त्व क्यों है !
    अपने भारत में, अगर हम भिन्न-भिन्न भाषाओं की लिपि देखें, तो नेपाली, और मराठी भाषाओं का उदाहरण काफी प्रेरक होगा .
    लेकिन इसके भी पहले हमें चाहिए कि यदि एक-लिपि-भाषा-आन्दोलन शुरू किया जाए, जिसके अंतर्गत दूसरी सारी भारतीय भाषाओं
    के लोकप्रिय साहित्य को देवनागरी लिपि में तुलनात्मक रूप से कम मूल्य पर उपलब्ध कराया जा सके, तो सभी भारतीय भाषाओं
    का व्यवहार करनेवाले, भारतीय-भाषा-भाषी, धीरे-धीरे हिन्दी से जुड़ जायेंगे . उर्दू का उदाहरण हमारे सामने है, सिंधी का भी, और शायद
    पंजाबी का भी . उर्दू के सिवा शेष सभी भाषाओं तथा उनकी लिपि के उद्गम को संस्कृत में देखा जा सकता है . इन सभी भारतीय
    भाषाओं में जहाँ एक ओर बोली के तौर पर संस्कृत भाषा के शब्दों और समासों को, प्रत्ययों और उपसर्गों को, अपभ्रंश स्वरूप प्राप्त
    हुआ, वहीं लिपि में भी देवनागरी के वर्ण-विन्यास में विरूपण (या परिवर्त्तन) आया .
    अब यदि पालि भाषा के बारे में देखें, तो जिसे संस्कृत अच्छी तरह से आती है, वह पालि के संस्कृत उद्गम को सरलता से पहचान सकेगा .
    मैंने विधिवत पालि नहीं सीखी, लेकिन पालि के एक-दो प्रसिद्ध ग्रंथों के यत्किंचित अध्ययन से लगता है कि पालि भाषा, खासकर बौद्ध
    और जैन दर्शन के ग्रंथों में प्रयोग की जानेवाली भाषा संस्कृत के इतनी निकट है, जितनी कि हिंदी या दूसरी कोई भी भारतीय भाषा शायद
    ही हो .
    तात्पर्य यह, कि हिन्दी के लिए अनायास प्राप्त विरासत को कचरे में फेंककर, देवनागरी जैसी, वैज्ञानिक लिपि को छोड़कर, रोमन जैसी
    अपेक्षाकृत अविकसित, अवैज्ञानिक लिपि को अपनाना, माता को नौकरानी के समान तथा नौकरानी को माता का स्थान देने जैसा होगा .
    शुरुआत दक्षिण भारतीय भाषाओं से होनी चाहिए, क्योंकि, दक्षिण भारतीय भाषाएँ, जैसे कि मलयालम, कन्नड़, और तेलुगु के शब्दों का
    उच्चारण जहाँ, हिन्दी के ही समान है, वर्ण-विन्यास के अनुरूप ही होता है, वहीं तमिळ में ऐसा नहीं है .
    अब यदि तमिळ की संरचना देखें, तो उसका अपना वैज्ञानिक आधार है, जो स्वरोच्चार (फोनेटिक्स) के कुछ ऐसे नियमों का पालन करता है,
    जो संस्कृत में अपवादस्वरूप ही मान्य है . इसका अर्थ यह नहीं, कि वह अवैज्ञानिक है . उसका अपना महत्त्व है, लेकिन यहाँ उस का उल्लेख
    करना अनावश्यक जान पड़ता है . विचारणीय है कि 'द्रविड़' शब्द भी संस्कृत भाषा का ही शब्द है . तमिळ का अपना समृद्ध इतिहास रहा है,
    किन्तु वह संस्कृत के विरोध में नहीं हुआ .
    तात्पर्य यह कि कि अंग्रेज़ी का प्रभुत्त्व जिस प्रकार स्थापित हुआ, हिंदी तथा देवनागरी का वर्चस्व भी उसी रीति से हो सकता है .
    जब हम किसी वृक्ष की एक ही जड़ को पोषण देते हैं, तो पूरा वृक्ष ही नष्ट हो जाता है . किन्तु जब हम उसकी सभी जड़ों को, (जो कि एक ही मूल
    की अलग-अलग शाखाएँ होती हैं,) एक साथ और साथ-साथ पोषित करते हैं, तो पूरा वृक्ष विक्सित होता है, पुष्ट होता है . इससे तमाम भारतीय
    भाषाओं का भला होगा . किन्तु संस्कृत को अन्य भाषाओं से भिन्न साबित कर, इन भाषाओं में परस्पर वैमनस्य पैदा करना तो अंग्रेजों की बहुत
    पुरानी चाल रही है .
    मुझे लगता है कि उपरोक्त बिन्दुओं के आधार पर देवनागरी के लिए कुछ किया जा सके तो यह न सिर्फ हमारे अपने लिए, वरन हमारी सारी
    भाषाओं के लिए भी परम हितकर होगा . आज जैसे अंग्रेज़ी हमारी आदत बन रही है, उससे उबरना ज़रूरी है .

    देवनागरी के सन्दर्भ में मैंने आज ही एक ब्लॉग पोस्ट http://vinaysv.blogspot.com किया है, कृपया पढ़कर उपकृत करें . धन्यवाद !

    सादर,
    विनय .

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  5. हिन्दी के लिये देवनागरी ही होनी चाहिये और इसके लिये तकनीकी दक्षता के साथ राजनैतिक संकल्प भी ज़रूरी है । किसी भी स्थिति में रोमन का पक्ष नही लिया जा सकता ।

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  6. रोमनगिरी बढ़ती गयी क्योंकि हम स्वीकार करते गये । ईमेल व एसेमेस में वही हाल है ।

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  7. असग़र वजाहत का मूल लेख जनसत्ता अख़बार में छपा था। जिसके जवाब में ये लेख भी उसी अख़बार में छपा था। ये दोनों लेख इधर छपें हैं:
    http://janatantra.com/index.php?s=%E0%A4%B5%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%A4

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  8. पिछले पंद्रह सौलह वर्षों में विदेशियों को हिंदी व्याकरण एवं साहित्य पढ़ाने दौरान मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि देवनागरी लिपि इतनी कठिन एवं क्लिष्ट है जितना दावा कुछ लोगों द्वारा किया जा रहा है। अधिकतर विद्यार्थी तीन हफ़्तों में देवनागरी लिपि सीख लेते हैं और उन्हें यह लिपि बहुत अच्छी लगती है। चीनी एवं जापानी से तो कहीं आसान। समस्या तो देवनागरी में लिखे गए अंग्रेज़ी शब्दों को लेकर होती है। लिपियों का विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है जो समाज-साँस्कृतिक तत्वों से भी प्रेरित रहती है। हिंदी के लेखकों द्वारा देवनागरी लिपि को रोमन में लिखने का सुझाव समझ से परे है और एकदम तर्कहीन। क्या इनको यह मालूम नहीं कि रोमन लिपि की भी अपनी सीमाएँ हैं और वहाँ भी लिप्यांतरण की समस्या है? इससे बेहतर तो यही है कि ऐसी कृतियों का निर्माण किया जाए जिन्हें पढ़ने के लिए लोग मज़बूर हो जाएँ जैसा कि अन्य भाषाओं में होता है। अधिकतर हिंदी लेखकों के बच्चे ठीक से हिंदी भी नहीं बोल पाते इसका क्या कारण है?

    जवाब देंहटाएं

  9. India is divided by complex scripts but not by phonetic sounds needs simple nukta and shirorekha free Gujanagari script at national level along with Roman script.

    In internet age all Indian languages are taught to others in Roman script. Think! why?

    Writing Hindi in Roman script is nothing but reviving our old Brahmi script which was modified by Roman people to their use. We need more research in this area.

    If Hindi can be learned in a complex Urdu script then why it can't be done in easy regional script?

    We need to Provide education to children in a simple Gujanagari script and free India from complex scripts.

    One may go through these links.
    http://www.omniglot.com/writing/brahmi.htm
    http://www.omniglot.com/writing/gujarati.htm

    Also we need standard Roman Alphabet to write Hindi in Roman script
    .Each consonant produces these 15 sounds when combined with vowels.
    ્,ા,િ,ી,ુ,ૂ,ૅ,ે,ૈ,ૉ,ો,ૌ,ં ,ં,ઃ
    ə ɑ ɪ iː ʊ uː æ ɛ əɪ ɔ o əʊ əm ən əh .........IPA........ɑɪ ,ɑʊ,æʊ,
    ạ ā i ī u ū ă e ại ǒ o ạu ạm ạn ạh.........Gujạlish
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    कमल कामल कामाल कमाल
    kạmạlạ kāmạlạ kāmālạ kạmālạ

    https://groups.google.com/forum/?hl=hi&fromgroups=#!topic/hindishikshakbandhu/aP2VEOwD0cQ

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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