भारत में अन्तरिक्ष युग का उदय : मौलिक विज्ञानलेखन






गतांक पर उठे कुछ प्रश्नों के समाधान तिवारी जी ने ईमेल से सीधे प्रश्नकर्ताओं को भी यद्यपि भेज दिए हैं पुनरपि उन शंकाओं के उत्तर उस आलेख से अगली इस कड़ी के साथ भी देने की अनिवार्यता के कारण प्रथम उन उत्तरों को ही देखें, पश्चात अगली कड़ी को यहाँ प्रश्नोत्तर के नीचे  पढ़ें |  


सत्यनारायण शर्मा कमल जी ने  हिन्दी-भारत याहूसमूह  में ईमेल द्वारा  पूछा था -
 क 
 डा० रघुनाथन ने क्वेसार से निकले तापक्रम की जब खोज की थी  बताया जा रहा है की उस समय ब्रह्माण्ड  की आयु आज की पंचमांश थी | यह कथन  समझ में न आया |

क्या ब्रह्माण्ड की आयु में डा० रघुनाथन के प्रयोगों के समय से अब तक की अल्पावधि में ब्रह्माण्ड की आयु पंचगुनी बढ़ गई है ? ऐसा संभव तो नहीं लगता | इसका स्पष्टीकरण आवश्यक है |
कमल 

प्रश्नोत्तर  हैं

१) 
डा० रघुनाथन ने क्वेसार से निकले तापक्रम की जब खोज की थी  बताया जा रहा है की उस समय ब्रह्माण की आयु आज की पंचमांश थी | यह कथन समझ में न आया |

उत्तर : आज ब्रह्माण्ड की आयु १३.७ अरब वर्ष है, अत: उस समय उसकी आयु २.७ अरब वर्ष थी.

२)
क्या ब्रह्माण्ड की आयु में डा० रघुनाथन के प्रयोगों के समय से अब तक की अल्पावधि में ब्रह्माण्ड की आयु पंचगुनी बढ़ गई है ? ऐसा संभव तो नहीं लगता | इसका स्पष्टीकरण आवश्यक है |
उत्तर :  उपरोक्त उत्तर से इस शंका का भी निवारण हो जाता है. पंचमांश कहने का अर्थ उसकी शिशुता के  बोध को दर्शाना था कि इतनी कम आयु में ऐसा हुआ. क्वेसार ब्रह्माण्ड कि शैशव अवस्था में अधिक मिलते हैं..

धन्यवाद कि आपने यह प्रश्न पूछा क्योंक शायद अन्य के मन में ऐसे प्रश्न हो सकते हैं.
विश्व मोहन तिवारी 

 ख
अर्कजेश ने पूछा -

लेकिन आइन्स्टीन को नोबेल पुरस्कार फोटो इलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट पर मिला था, जिसका आधार क्वांटम सिद्धान्त था। न कि ई = एमसी स्क्वायर पर । 

उत्तर :  
अर्कजेश का कथन सत्य है।
उऩ्हें नोबेल पुरस्कार प्रकाश विद्युत प्रभाव पर ही मिला था।शायद यहाँ यह बतलाना उचित होगा कि ई = एम सी स्क्वएअर सूत्र का उऩ्होने प्रकाश विद्युत प्रभाव वाले प्रपत्र भेजने के तुरंत बाद ही उसी के सिद्धान्त पर आविष्कार किया था। और उसे तुरंत ही प्रकाशन के लिये भेज दिया था इस अनुरोध के साथ कि उसे प्रकाश विद्युत प्रभाव के प्रपत्र के साथ ही प्रकाशित किया जाए। किन्तु तब तक वह प्रपत्र प्रकाशित हो चुका था अतएव वह एक स्वतंत्र प्रपत्र के रूप में प्रकाशित हुआ। 

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भारत में अन्तरिक्ष युग का उदय



मानव जाति का अन्तरिक्ष में विचरण आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की महानतम उपलब्धि है। इससे पहले अन्तरिक्ष सम्बन्धी अनेक किंवदन्तियाँ तथा काल्पनिक अथवा पौराणिक कथाएँ प्रचलित थीं।ऋग्वेद के दसवें मंडल के एक सौ इक्कीसवे सूक्त का दूसरा मंत्र जो अर्थ देता है, उस पर सहसा विश्वास नहीं होता। उसका जो भाष्य मैंने किया है उसे मानक अर्थ के बाद दिया है : पहला मानक अर्थ‘जहाँ सूर्य चंद्रादि पिण्ड विद्यमान हैं, जहाँ सूर्य रश्मियो का क्षय नहीं होता, ऐसे अन्तरिक्ष में चमकरहित विशिष्ट गेरुए वस्त्र धारण कर, मुनि वायु की रस्सी द्वारा प्रदत्त संवेग के अनुसार गमन करते हैंमेरा भाष्य - जहाँ  सूर्य चंद्रादि पिण्ड विद्यमान हैं, जहाँ वातावरण न होने के कारण सूर्य की रश्मियों का क्षय नहीं होता, ऐसे अन्तरिक्ष में सूर्य किरणो को सोखकर, उनसे सौर पटलो की तरह अधिकांश ऊर्जा सोखने वाले चमकरहित विशिष्ट गेरुए स्पेस धारण कर मुनि निर्गत गैसो का रस्सी के समान अथार्त निर्गत गैसो के बल का उपयोग कर गमन करते हैं।



वैदिक युग में राकैट की अभिकल्पना :

     इस मंत्र के अर्थ में आधुनिक विज्ञान के मूलभूत सिद्वान्त छिपे लगते हैं। ‘सूर्यरश्मियों का क्षय नहीं होता’ इससे दो अर्थ निकल सकते हैं, एक तो यह कि ऊर्जा का विनाश नहीं होता और दूसरा यह कि जैसे प्रकाश किरणों का पृथ्वी पर वायुमण्डल के कारण क्षय होता है, वैसा क्षय अन्तरिक्ष में नहीं होता अथार्त वहाँ शून्य है। ‘मुनि वायु की रस्सी के द्वारा’ इसका अर्थ अतिशक्तिशाली रॉकेटो के प्रमोचन को देखने के पहले वैज्ञानिक ढंग से समझ में नहीं आता। किन्तु जिसने भी उपग्रहो का रॉकेट द्वारा प्रमोचन देखा है वह समझ जायेगा कि रॉकेट वास्तव में निर्गत गैसो (वायु की रस्सी) पर कैसे चढ़ता है। इस अर्थ की पुष्टि आगे फिर होती है – ‘वायु द्वारा प्रदत्त संवेग के अनुसार गमन करते हैं’ अथार्त रॉकेट से निर्गत गैसें जो प्रतिक्रिया (वेग तथा दिशा में) रॉकेट को देती हैं, रॉकेट उसी के अनुसार गमन करता है। यहाँ न्यूटन का तीसरा नियम लग रहा है जो कहता है कि प्रत्येक क्रिया की ठीक बराबर ही प्रतिक्रिया होती है। इस अर्थ की गहराई पर सहसा विश्वास नहीं होता, इसे पुष्ट करने के लिए और भी शोध की आवश्यकता है कि क्या उऩ्हे सच ही न्यूटन के इस तीसरे नियम का ज्ञान था



अन्तरिक्ष में यात्रा करने के लिए हमें यह अहसास तो होना चाहिए कि अन्तरिक्ष में जो नक्षत्र टिमटिमा रहे हैं वे मात्र प्रकाश–पिण्ड नहीं हैं वरन उनमें लोको की संभावना है। यह अनुभूति तो हमारे ऋषियों को विश्व में सर्वप्रथम हुई किन्तु तब भी यह अन्तरिक्ष के विभिन्न लोकों में विचरण की कथाएँ मिथक ही हैं, वे मिथक चाहे मिथक के रूप में प्रातिभ रुप से अत्यंत शक्तिशाली क्यो न हो। यह भी कम आश्चर्य नहीं कि उन्हें समय के सापेक्ष होने का स्पष्ट आभास भी था। हमारे हजारों वर्ष पुराने मिथको में अन्तरिक्ष यात्राओं के वर्णन के बरअक्स यूनान में ईसा की दूसरी शती में सामीसटा के लूसियन ने चन्द्रयात्रा पर पूर्णत: काल्पनिक व्यंगात्मक पुस्तिका लिखी थी। बारहवीं शती में भास्कराचार्य ने पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति के होने की घोषणा की थी किन्तु वह एक वैचारिक अवधारणा थी चाहे वह कितनी भी अद्भुत, मौलिक एवं क्रांतिकारी थी। उन्होने गुरुत्वाकर्षण को गणितीय नियमो में पूर्णत: व्याख्यायित नहीं किया था।



न्यूटन का अंतरिक्ष में प्रवेश :  
जो नियम न्यूटन (1642–1727) ने सत्रहवीं शती में खोजे थे वह पृथ्वी पर होने वाली घटनाओं के लिए पूर्ण सत्य उतरते थे किन्तु पृथ्वी से थोड़ी दूर, उदाहरणार्थ बुध ग्रह की गतियो के लिए भी वे कामचलाऊ हो जाते थे। पूर्ण परिशुद्धता के लिए बीसवीं शती में आइन्स्टाइन द्वारा खोजे गए नियमो की आवश्यकता थी, बिना इन नियमों की जानकारी के अन्तरिक्ष में निकटतम पिण्ड चन्द्र तक भी यात्रा नहीं की जा सकती। अतएव अब तक की वैज्ञानिक सोच समझ से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि पुरातन शास्त्रो, मिथको, महाकाव्यो में वर्णित विमान तथा अन्तरिक्ष यात्राएं यथार्थ नहीं कल्पना अथवा मिथक हैं, जिनका उस पुरातन काल में वर्णन अद्वितीय कल्पना शक्ति के होने को प्रमाणित अवश्य करता है।



प्रौद्योगिकी को कितना उन्नत होना चाहिए अन्तरिक्ष में उड़ान भरने के लिए, उसका अनुमान रॉकेटों से तो लगता ही है, एक और छोटी सी बात से भी लगता है कि एक प्रक्षेपकयान में 5–6 लाख कलपुर्जे होते हैं और इनका संयोजन जटिल होता है। आज के अन्तरिक्ष उड़ान की नींव, ऐसा कह सकते हैं, लगभग एक हजार वर्ष पूर्व पड़ी थी जब बारूद से उड़ने वाला रॉकेट बना। हम गर्व से कह सकते हैं कि विस्फोटक पदार्थों का निर्माण भारत में ईसा से 200 वर्ष पूर्व हो चुका था। शुक्रनीति ग्रन्थ में अग्नि चूर्ण नाम से इसका वर्णन है। रॉकेट विज्ञान के विषय में निश्चित प्रमाण भारत में नहीं मिलते यद्यपि अग्नि बाण अथवा अग्नि–आयुधो की चर्चा पुराणो में मिलती है। 1232 ई. में चीन के होनान प्रांत की राजधानी काई फैंग को जब मंगोलो ने घेर लिया था तब चीनियो ने प्राथमिक रॉकेट तथा बमो का उपयोग किया था और इसके तुरंत बाद ही रॉकेट यूरोप में उपयोग किए गए थे। मानव की अन्तरिक्ष में विचरण करने की मिथकीय एवं उदात्त महत्वाकांक्षा, तथा पिछली शताब्दी की चांद तक उड़ने की मूखर्तापूर्ण लगने वाली कथाएं अब अदम्य साहसी वास्तविकता में बदल चुकी हैं और साहसी एवं जिज्ञासु मानव की ज्ञान–पिपासा को पूर्ण करने के लिए अब अन्तरिक्ष खुल गया है। यही शुद्ध जिज्ञासा मनुष्य के ज्ञानवृद्धि के विकास एवं सभ्यता के विकास की आधारशिला है। विज्ञान–गल्प और तथ्य साहित्यिको की कल्पना की उड़ानें यदा–कदा बाद में वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिक तथ्य बन जाते हैं। सन् 1865 में जूल्सवर्न ने ‘पृथ्वी से चन्द्र तक’ नामक उपन्यास लिखा और उसमें जो अनुमान उसने लगाए उनमें से अनेक बाद में सत्य निकले। इसके कुछ वर्षों बाद एक और लेखक एडवर्ड हेल ने सन् 1870 में ‘ब्रिकमून’ नामक पुस्तक लिखी, जिसमें उसने पहली बार कृत्रिम उपग्रहो की स्थापना की बात की और सुझाया कि इनका उपयोग समुद्र यात्रा में दिक्–संचालन के लिए किया जा सकेगा। सन् 1901 में एच. जी. वैल्स की प्रसिद्ध पुस्तक ‘चन्द्र पर पहला आदमी’ आई।



विज्ञान का अंतरिक्ष में प्रवेश : 
सन 1895 में एक रूसी वैज्ञानिक तथा गणित के शिक्षक त्सिओलकोव्स्की ने एक आलेख प्रकाशित किया था, जिसमें उसने सर्वप्रथम ठोस ईंधन के स्थान पर तरल ईंधन के उपयोग को अधिक प्रभावी सिद्ध किया। उसने अन्तरिक्षयानों के अभिकल्प सिद्धान्त स्थापित किए तथा बहुत लम्बी अन्तरिक्ष यात्राओं के लिए अन्तरिक्षयानो में आक्सीजन प्राप्त करने के लिए पौधो के उगाने का भी सुझाव दिया। अमेरिका में गोडार्ड ने भी स्वतंत्र रूप से इसी दिशा में क्रांतिकारी अनुसंधान किए तथा नवीन रॉकेटो की रचना की । सन् 1926 में उसने सर्वप्रथम तरल–ईंधन का उपयोग करने वाले रॉकेट का प्रमोचन किया। बाद में एक आलेख में चन्द्र तक पहुँचने की संभावना दर्शाई। लगभग इसी काल में एक जर्मन आविष्कारक गांसविन्ट ने प्रमोदन का नया तरीका सुझाया और वह पहला वैज्ञानिक है जिसने रॉकेटो द्वारा पृथ्वी से ‘पलायन–वेग’ (वह वेग जिसे प्राप्त कर रॉकेट या अन्तरिक्षयान पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के बाहर जा सकते हैं। यह वेग 40,000 किमी प्रति घंटा या 11 किमी प्रति सैकेंड है) की संभावना की वैज्ञानिक चर्चा की।सन 1928 में त्सिओल्कोवस्की ने सौरमंडल में भ्रमण की भविष्यवाणी की गोडार्ड , त्सिओल्कोवस्की तथा वॉन ब्राउन की त्रिमूर्ति को अन्तरिक्ष प्रौद्योगिकी का पायोनियर माना जाता है। रॉकेट प्रौद्योगिकी ने सबसे अधिक प्रगति द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी में वान ब्राउन के नेतृत्व में की। वी–2 रॉकेट के निर्माता वान ब्राउन ने अमेरिका जाकर महत्वपूर्ण कार्य किए और फिर निर्माण हुआ भयंकर अन्तर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रों का यथा पोलेरिस, माइन्यूटमैन, पोज़ाइडान आदि का । इन्हीं अन्तर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्रो का अन्तरिक्षयानो के लिए अभिवर्धक (बूस्टर इंजन) की तरह उपयोग किया गया । पृथ्वी की सतह से लगभग 400–500 किमी की ऊँचाई अर्थात वायुमंडल के बाद अन्तरिक्ष ही अन्तरिक्ष माना जाता है। मौसम की जानकारी के लिए भी रॉकेटों का उपयोग सन् 1946 से प्रारंभ हुआ। परिज्ञापन रॉकेट द्वारा वायुमंडल में तापक्रम, दबाव, वायुवेग इत्यादि गुणों को मौसम की जानकारी के लिए मापा जाता है।



थुम्बा गाँव का अंतरिक्ष : 
भारत में सन् 1963 में संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता से अरब सागर के तट पर त्रिवेन्द्रम शहर से 10 किलोमीटर दूर थुम्बा भूमध्यरेखीय रॉकेट प्रमोचन केन्द्र स्थापत किया गया। चुम्बकीय भूमध्यरेखा के अत्यन्त समीप होने के कारण इस स्थान से पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल का अध्ययन करना एक विशेष महत्व रखता है। थुम्बा से सर्वप्रथम अमेरीका से प्राप्त रॉकेट, नाइक–अपाची को 21 नवम्बर, 1963 को प्रमोचित किया गया। थुम्बा के इस प्रमोचन स्थल को सन् 1968 में संयुक्त राष्ट्र संघ को समर्पित किया गया। भारत में रोहिणी शृंखला के अनेक मॉडल के परिज्ञापन रॉकेटों का विकास किया गया, जिनमें से प्रमुख हैं आर. एच.–200, आर. एच–300 एवं आर. एच–560। इसमें आर. एच. अक्षरों को रोहिणी शब्द के लिए प्रयोग किया गया, तथा साथ अंक में दी गयी संख्या रॉकेट के व्यास (मिलीमीटर में) का सूचक है। भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन का विक्रम साराभाई अन्तरिक्ष केन्द्र (थिरुअनन्तपुरम) परिज्ञापन रॉकेटों के विकास का मुख्य केन्द्र है। यहाँ के विकसित रॉकेटों का उपयोग जर्मनी, इंग्लैड, रुस, फ्रांस, जापान तथा बुल्गेरिया के वैज्ञानिकों ने किया है । सन १९९८ तक यहाँ से 500 से अधिक राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रयोग सम्पर्क हो चुके हैं। शार केन्द्र से 6 अप्रैल, 1997 को रोहिणी शृंखला के मॉडल के समुन्नत रॉकेट का प्रमोचन किया । यह नवीनतम उच्च–क्षमतावाला रॉकेट अपनी प्रायौगिक उड़ान में 102 किलोग्राम नीतभार 464 किलोमीटर की ऊँचाई तक ले गया । आर. एच. – 200 की क्षमता 10 किलोग्राम नीतभार को 75 किलोमीटर तक तथा आर. एच.–300 की क्षमता 60 किलोग्राम ऊँचाई तक ले जाने की है।





‘अन्तरिक्ष–युग’ : 
  4 अक्तूबर, 1957 को अन्तरिक्ष–विज्ञान के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण सफलता मिली जब सोवियत संघ ने पहला अन्तरिक्ष यान ‘स्पुतनिक–1’ अन्तरिक्ष में भेजा। कुछ ही महीनो के अन्दर, जनवरी 1958 में अमेरिका ने भी एक उपग्रह ‘एक्सप्लोरर’ अन्तरिक्ष में भेजा। इसके बाद तो सिलसिला चल पड़ा और अन्तरिक्ष में विभिन्न प्रकार के उपग्रहो की बाढ़ सी आ गई। फ्रांस, जापान, चीन, ब्रिटेन और भारत आदि देशो ने भी अन्तरिक्षयान बनाए और अन्तरिक्ष में पदार्पण किया। बाद में विशेष प्रयोजनो के लिए विशिष्ट उपग्रहो का विकास किया गया। पृथ्वी तथा जीव की उत्पत्ति, मौसम, प्राकृतिक विपदाओं की पूर्व—सूचना, संचार व्यवस्था, टी. वी. प्रसारण सेवा, आसूचना एकत्र करना, सामरिक सर्वेक्षण तथा निरीक्षण इत्यादि कार्यों में उपग्रह प्रणाली ने क्रांति ला दी। आज उपग्रह–संचार–व्यवस्था ने इस विशाल विश्व को एक गांव–सा बना दिया है। वह दिन दूर नहीं जब भारत में एक सुदूर गांव में बैठा व्यक्ति सैकड़ो–हजारो मील दूर वांछित व्यक्ति से केवल फोन पर बात ही नहीं कर सकेगा, वरन पर्दे पर उसका चित्र भी देख सकेगा–जैसे आमने–सामने वार्तालाप हो रहा हो। विदेशो में तो वीडियो फोन की सुविधा उपलब्ध हो ही गई है। अत: इस युग को ‘अन्तरिक्ष–युग’ कहना उचित है। सन 1945 में विज्ञान कथाकार आर्थर क्लार्क ने लिखा था कि यदि भू–स्थिर कक्षा में समान दूरी पर मात्र तीन उपग्रह स्थापित कर दिए जाएं तो विश्व भर में दूरसंचार संभव हो सकेगा। उसने जो स्वप्न देखा था, वह तब पूरा हुआ जब उसकी इस सोच को कार्यान्वित कर सन 1964 में एक साथ लाखो अमरीकी घरो में '(रियल टाइम ) तत्काल टी. वी.' पर टोकियो ओलम्पिक देखा गया।



भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम :   
भारत ने अन्तरिक्ष अनुसंधान के कार्यक्रम का शुभारंभ सन् 1957 में किया। इस दिशा में प्रथम प्रयास था नैनीताल स्थित वेधशाला में प्रकाशीय अनुवर्तन केन्द्र की (टेलिस्कोप द्वारा उपग्रहों का अनुवर्तन करना) स्थापना। इस छोटी सी शुरूआत के बाद भारतीय वैज्ञानिको ने 23 वर्ष की अवधि में ही 18 जुलाई 1980 को रोहिणी–1, का प्रमोचन कर अन्तरिक्ष खोज की दौड़ में भारत को विकसित राष्ट्रो की श्रेणी में पहुँचा दिया। भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रम की योजनाबद्ध शुरूआत सन 1961 में हुई जब ‘परमाणु ऊर्जा आयोग’ में ‘अन्तरिक्ष अनुसंधान अनुभाग’ की स्थापना हुई। सन् 1969 में इसने एक विशाल संस्था का रूप ले लिया और उसका नाम रखा गया ‘भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन’ (इण्डियन स्पेस रिसर्च आर्गनाइज़ेशन–आई.एस.आर.ओ.–इसरो)। सन् 1962 में ‘भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान अनुभाग’ ने थुम्बा ‘भूमध्यरेखीय रॉकेट प्रमोचन केन्द्र’ का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया। सन् 1963 में थुम्बा में ‘अन्तरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी केन्द्र’ की स्थापना हुई। सन् 1972 में ‘अन्तरिक्ष आयोग’ (स्पेस कमीशन) की स्थापना हुई। 1972 से 1976 तक विभिÙ वैमानिक दूर–संवेदन प्रयोग किये गये।



19 अप्रैल, 1975 को भारत ने सोवियत संघ की सहायता से अपना पहला उपग्रह आर्यभट्ट छोड़ा और उसके बाद जून 1979 में भास्कर–1 का प्रमोचन हुआ। 18 जुलाई 1980 को इसरो ने भारत भूमि से एस. एल. वी–3 की सहायता से रोहिणी–1 उपग्रह छोड़ा। सन् 1980 तक भारत ने विभिन्न प्रयोजनों के लिए उपयुक्त उपग्रहों के विकास की दिशा मैं पर्याप्त योग्यता प्राप्त कर ली थी परन्तु रॉकेट के विकास में हमारी क्षमता सीमित ही रही। उपग्रह प्रमोचन के क्षेत्र में हम अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग पर ही निर्भर रहे। थुम्बा में ‘भूमध्यरेखीय रॉकेट प्रमोचन केन्द्र की स्थापना’, ‘उपग्रह प्रशिक्षण टी. वी – प्रयोग’ (सैटेलाइट इन्स्ट्रक्शनल. टी. वी. एक्सपैरीमेन्ट्स–साइट), ‘सिम्फोनी दूर–संचार प्रयोग’ (सिम्फोनी टेलीक्म्युनीकेशन एक्सपैरीमैन्ट–स्टैप), ‘आर्यभट्ट’, ‘भास्कर–प्रथम’ तथा ‘द्वितीय’, आई. आर. एस. श्रेणी उपग्रह, ‘एपल’, तथा ‘इन्सैट’ श्रेणी के उपग्रह छोड़ने में विभन्न देशों का सहयोग रहा। उनमें विशेष हैं अमरीका, सोवियत यूनियन, फ्रांस, जर्मनी तथा यूरोपियन स्पेस एजेन्सी। प्रारम्भिक समय में भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम की उन्नति में तत्कालीन सोवियत संघ ने विशेष सहायता की। भारतीय अन्तरिक्ष कार्यक्रम के लिए नब्बे का दशक अत्यंत महत्वपूर्ण रहा।



मई 1994 में ए एस. एल. वी.–डी 4, अक्तूबर 1994 में – पोलार सैटेलाइट लांच व्हीकिल–पी. एस. एल. वी.–डी2, दिसम्बर 1995 में इन्सैट–2 सी, मार्च 1996 में पी. एस. एल. वी.–डी 3 के प्रमोचन। ए. एस. एल. वी. – डी 4 ने 115 किलोग्राम का एक उपग्रह निम्न–भू कक्षा में स्थापित किया तथा उसके प्रमोचन सम्बन्धी सभी तकनीकी कलपुर्जों का सफल परीक्षण किया। ए. एस. एल. वी. की पहली दो (1987 तथा 1988 की) असफलताओं तथा 1992 की आंशिक सफलता के पश्चात यह एक अत्यन्त हर्ष का विषय था।



दिसम्बर 1995 में इन्सैट–2सी, जून 1997 में इन्सैट–2डी, अप्रैल 1999 में इन्सैट–2 मई के सफल प्रमोचन से भारत की अन्तरिक्ष–प्रौद्योगिकी में चार चाँद लग गए। सन् 1993 में पी. एस. एल. वी–डी 1 का प्रथम परीक्षण भी असफल रहा था पर अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों ने हिम्मत न हारी। अक्तूबर 1994 में 283 टन के 44 मीटर लम्बे पी.. एस. एल. वी –डी 2 ने 870 किलोग्राम के भारतीय सुदूर – संवेदन उपग्रह (इण्डियन रिमोट सैन्सिंग सैटैलाइट) आई.. आर. एस. को 817 किलोमीटर ऊँची पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करके विश्व में विशिष्ट स्थान प्राप्त किया। ऐसी क्षमता केवल चार अन्य राष्ट्रों (रुस, पश्चिमी यूरोप, चीन, तथा अमरीका) में ही विकसित है।



मार्च 1996 में पी. एस. एल. वी. –सी 1 द्वारा आई. आर. एस. – 1 डी का प्रमोचन करके इस श्रेणी के उपग्रहों के प्रमोचन के लिए भारत की विदेशी निर्भरता समाप्त हो गई।



मई 1999 में पी. एस. एल. वी–सी 2 द्वारा एक साथ तीन उपग्रहों (दो विदेशी ) को अन्तरिक्ष में स्थापित करके विश्व में एक अग्रणी राष्ट्र हो गया। इस प्रमोचन से भारत ने इस प्रौद्योगिकी को वाणिज्यक रूप दिया।



अप्रैल २००१ में ‘भू–समकालिक उपग्रह प्रमोचनयान’ (जियोसिन्क्रोनस सैटैलाइट लांच व्हीकिल) १. के द्वारा जी सैट १ का सफ़ल प्रमोचन किया गया जिसका नियत भार था १५३० किग्रा. और इसने उस उपग्रह को ३६००० किमी. की ऊँचाई पर स्थापित किया। इसके बाद अनेक बेहतर उपग्रहों के प्रमोचन किए गए।



जनवरी २००७ की विशेषता थी कि ध्रुवीय उपग्रह प्रमोचन यान सी ७ के द्वारा चार उपग्रहो का एक साथ प्रमोचन किया गया था, जिसमें एक तो हमारा कार्टोसैट् २ था, दो विदेशी थे, और एक अति विशिष्ट प्रयोग था - अंतरिक्ष संपुट (कैप्स्यूल) के अंतरिक्ष से लौटने के पश्चात वातावरण में उसका पुनर्प्रवेश। इसी जनवरी माह उस पुनर्प्रवेश संपुटिका को सफ़लतापूर्वक बंगाल की खाडी में उतारा गया और मार्च में इन्सैट ४ बी और अप्रैल २००७ में इटली के एक खगोलीय उपग्रह का सफ़ल प्रमोचन भी किया गया । सितम्बर माह में इन्सैट ४ सी आर की सफ़ल स्थापना की ।


२००८ अत्यंत विशिष्ट था : एक उपग्रह तो वाणिज्य अनुबन्ध के अनुसार स्थापित किया गया, दूसरा, ध्रुवीय उपग्रह प्रमोचन यान के द्वारा १० उपग्रहो का एक साथ प्रमोचन किया गया । और इसी वर्ष इतिहास में स्वर्ण अक्षरो से लिखा जाने वाला 'चन्द्रयान' का सफ़ल प्रमोचन किया गया । यद्यपि चन्द्रयान अपना पूरा जीवन नहीं जी सका किन्तु उसने अल्प काल में ही अधिकांश कार्य कर लिया था, और् उसने चन्द्रयान २ के लिये भारत को बहुत उपयोगी जानकारी दी।



२००९ के अप्रैल माह में ध्रुवीय उपग्रह प्रमोचन यान 'सी १२'के द्वारा २ उपग्रहॊं का, और सितंबर माह में एक साथ ७ उपग्रहो का प्रमोचन किया गया ।



भारत निकट भविष्य में इज़राइलियो के लिये एक समुन्नत खगोलीय उपग्रह का प्रमोचन करने वाला है। चन्द्र की परिक्रमा करने के बाद अब भारत की 'आदित्य' उपग्रह के द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने की भी योजना है।



भारत उपग्रह के अंतरिक्ष की दौड में अग्रिम पन्क्ति में आ गया है । अन्तरिक्ष अनुसंधान में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग .आनिवार्य है क्योकि इस ‘अन्तरिक्ष यान – पृथ्वी’ पर हम सब अन्तरिक्ष के यात्री हैं। अन्तरिक्ष सहयोग को पारस्परिक सामरिक स्पर्धा से पृथक रखना आवश्यक है। क्या हम आशा करें कि अन्तरिक्ष अनुसंधान तथा उपग्रह की उड़ानें सभी देशो के लिए शांति तथा सह–अस्तित्व की स्थापना करेंगी। प्रत्येक देश का आम नागरिक एक दूसरे की सहायता करने को तत्पर है, स्वयं शांति चाहता है तथा दूसरो के लिए शांति की कामना करता है। कोई युद्ध नहीं चाहता। कोई नहीं चाहता कि प्रेक्षपास्त्रो या बमो से मानव जाति का विनाश हो, परन्तु इसके लिए सभी देशो में लालच के स्थान पर आवश्यकता, प्रतियोगिता के स्थान पर सहयोग, तथा भय के स्थान पर प्रेम का होना आवश्यक है।



अन्तरिक्ष प्रयोगशालाएँ : 
अन्तरिक्ष स्टेशनो को अन्तरिक्ष प्रयोगशालाएँ, अन्तरिक्ष प्लेटफार्म आदि कई नामो से जाना जाता है। ये वे बड़े–बड़े यान हैं, जो लगातार पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं और इनके अन्दर कई यात्री महीनो तक कई तरह के प्रयोग कर अत्यन्त उपयोगी जानकारियां इकठ्ठी करते हैं। इन स्टेशनो की मुख्य विशेषता यह भी है कि इनमें ‘डॉकिंग’ (आपस में जुड़ने) की सुविधा है। पृथ्वी से भेजे यान इनसे जुड़ जाते हैं और साजो–सामान और यात्रियो की अदला–बदली के बाद ये यान पृथ्वी पर वापस आ जाते हैं। अन्तरिक्ष में तैरते इन विशाल भवनो का मुख्य उद्देश्य है, अन्तरिक्ष की व्यापक खोज। इनकी सहायता से अनेक वैज्ञानिक प्रयोग किये जाते हैं। प्रतिकूल स्थितियो में मनुष्यो, पौधो, जानवरो, और जीव–जन्तुओं पर पड़नेवाले प्रभावो का अध्ययन किया जाता है। संक्षेप में कहा जाये तो इन कामो में वे सभी अध्ययन हैं जो कि सुदूर ग्रहो की यात्रा तथा वहाँ मानव बस्तियाँ बसाना संभव बना सकेंगे, और साथ ही इस पृथ्वी की समस्याओं के हल निकालना भी। हालांकि अन्तरिक्ष स्टेशनो को पृथ्वी के इर्द गिर्द स्थापित करने की कोशिश में सोवियत संघ और अमेरिका दोनो प्रयासरत थे, फिर भी सोवियत संघ ने यहाँ भी मैदान मार लिया था किन्तु बहुत बडी कीमत पर । अप्रैल 1971 में रूस ने सल्युत–1 नामक अन्तरिक्ष स्टेशन को स्थापित करने में सफलता पायी। कुछ ही समय बाद सोयुज–11 यान द्वारा तीन यात्री इसमें पहुंचा दिये गये, जिन्होंने 24 दिनो तक मनुष्य व पौधों पर भारहीनता के प्रयोग किये। दुर्भाग्य से पृथ्वी पर वापस आते समय इन यात्रियो की मृत्यु हो गयी। 1972 में सल्युत–2 अन्तरिक्ष में गया, मगर वह भी विस्फोट में नष्ट हो गया। फिर 1984 तक सोवियत संघ ने 5 और स्थापित किये। इनमें सल्युत–4 अन्तरिक्ष में पाँच वर्षों तक रहा जिसमें 16 अन्तरिक्ष यात्रियो ने क्रिस्टल, जैवचिकित्सा तथा खगोल भौतिकी सहित कई महत्वपूर्ण काम किये। सन् 1976 एक बडा कदम सोवियत संघ ने उठाया और इन स्टेशनों में चल रहे प्रयोगों में अपने मित्र देशो के वैज्ञानिकों को भी शामिल किया।




14 मई, 1973 को अमेरिकी अन्तरिक्ष–वैज्ञानिकों ने ‘स्काईलैब’ नाम का स्टेशन अन्तरिक्ष में छोड़ा। तीन–तीन अन्तरिक्ष यात्रियो के तीन दल बारी–बारी से वहाँ गये और क्रमश: 28, 60 तथा 84 दिन रहकर प्रयोग करते रहे। बाद में सौर–झंझावातो के कारण स्काईलैब अपने परिपथ (ऑरबिट) से भटक गया और पृथ्वी के वातावरण में जलकर खाक हो गया। मगर इससे पहले कई प्रयोग सफल हुए और सूर्य की 30,000 तस्वीरें ली गयी। इन प्रयोगों से यह भी पता लगा कि अन्तरिक्ष में मांसपेशियाँ, दिल तथा हड्डडियाँ कमजोर होती हैं और इसके लिए खास व्यायामो की जरूरत है। एक बच्चे के सुझाव पर पता लगाया गया कि 'क्या मकड़ी अन्तरिक्ष में जाला बुन सकती है'। 70 के दशक में ही अमरीका और सोवियत संघ ने कुछ साझे प्रयोग भी किए। इन अन्तरिक्ष – स्टेशनो के बाद सोवियत संघ और अमरीकी प्रयास तो और भी ज्यादा बड़े और महत्वाकांक्षी हो गये। इसके तहत ‘अमेरिकी स्पेसलैब परियोजना’ उल्लेखनीय है, जिसे यूरोपियन स्पेस एजेंसी के सहयोग में बनाया गया। पहली स्पेसलैब को कोलंबिया द्वारा 28 नबम्बर, 1983 को अन्तरिक्ष में भेजा गया। स्पेसलैब प्रोजेक्ट में बन्दरो, चूहो, मछलियो व मधुमक्खियों पर विशेष अध्ययन हुए। इधर सल्युत शृंखला के बाद सोवियत संघ ने ‘मीर’ नामक स्टेशन को अन्तरिक्ष में बैठा दिया। फरवरी 1986 में भेजे गए इस स्टेशन ने अद्भुत काम किये हैं। मीर 11 वर्षों तक अत्यन्त उपयोगी शोध कार्य करने के बाद जीर्ण—शीर्ण हो गया था। अमेरिका ने एक विशाल स्टेशन स्थापित करने की योजना बनाईम - ‘फ्रीडम’। यह १९८६ में प्रारम्भ की गई ।यह स्टेशन इतना बड़ा होगा कि इसे कई किश्तो में प्रक्षेपित किया जायेगा और अन्तरिक्ष में इन खंडो से समूचा अन्तरिक्ष स्टेशन बनाया जायेगा। किन्तु अरर्बों डालर खर्च करने के बाद 'फ़्रीडम' को १९९३ में बन्द करना पडा । यह स्पष्ट दर्शाता है कि खगोलीय योजनाओं के खर्च भी 'खगोलीय' मात्रा में ही होते हैं । तब भी अन्तरिक्ष स्टेशन आज उन सभी समस्याओं के निदान और समाधान में लगे हैं, जिससे मनुष्य मंगल या अन्य ग्रहों तक जा सकेगा और साथ–साथ पृथ्वी की समस्याओं के वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिक हल भी खोजेगा । अन्तरिक्ष में उपग्रह छोड़ने अथवा अन्तरिक्ष से अनचाहे उपग्रह हटाने का भी काम होगा । गौरतलब है कि पौधों की नई किस्म, एकदम गोलाकार कण, अथवा एकदम शुद्ध धातुएँ हमें अन्तरिक्ष ही दे पायेगा।



सोवियत अन्तरिक्षयान में प्रथम भारतीय : 
 भारतीय अन्तरिक्ष विज्ञान के प्रारंभिक चरणों में सोवियत संघ की तकनीकी सहायता अत्यन्त सराहनीय रही है। भारतीय वायु – सेना के स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा तथा विंग कमाण्डर रवीश मेहरोत्रा को मास्को के पास स्थित सोवियत स्टार सिटी में एक लम्बे समय तक प्रशिक्षण दिया गया और अन्तत: राकेश शर्मा को अन्तरिक्ष यात्रा के लिए चुना गया। 13 अप्रैल, 1984 को सोयूज़ टी – 11 नामक अन्तरिक्षयान राकेश शर्मा को ले उड़ा और फलस्वरूप वह अन्तरिक्ष में जाने वाले प्रथम भारतीय हुए। उन्होंने अन्य सहयात्रियों के सहयोग से सल्युत – 7 में विभिन्न वैज्ञानिक प्रयोग किए, जिनमें प्रमुख था अन्तरिक्ष में मांसपेशियों की क्षीणता रोकने के लिए योग–आसनों का प्रभाव। उन्होंने चाँदी तथा जर्मेनियम तत्वों को मिला कर एक नई मिश्र धातु का निर्माण किया, जो पृथ्वी पर नहीं हो सकता था। इस मिश्र धातु का उपयोग विद्युत–शक्ति के प्रवाह के लिए विशेष लाभदायक है। उन्होंने भारतवर्ष के साठ प्रतिशत क्षेत्र के चित्र भी खींचे। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से दूर–संचार के माध्यम से बातचीत भी की।और 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' गीत भी गाया .




स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा की अन्तरिक्ष यात्रा के तेरह वर्ष बाद डा. कल्पना चावला को भारतीय मूल की प्रथम महिला (प्रथम एशियाई महिला भी) अन्तरिक्षयात्री होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। करनाल (हरियाणा) में जन्मी कल्पना ने सन् 1982 में चंडीगढ़ से इंजिनियरी तथा सन् 1988 में कोलोरैडो (अमरीका) से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की । सन 1994 में अन्तरिक्ष अभियान के लिए नासा द्वारा 3000 अभ्यार्थियों में से चुने गये 19 विशिष्टों में से वह एक थीं। टेक्सास के जोनसन अन्तरिक्ष केन्द्र में इस विषम कार्य के लिए उन्होंने गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया। डा चावला ने अभियान विशेषज्ञ की हैसियत से 19 नवम्बर, 1997 को भारतीय समयानुसार प्रात: 1:16 बजे कोलम्बिया एस. टी. एस. – 87 अन्तरिक्ष शटलयान में 16 दिनों की अन्तरिक्ष यात्रा के लिए प्रयाण किया । यह कोलम्बिया शटलयान की 88 वीं अन्तरिक्ष यात्रा थी। सोलह दिनो की यात्रा के पश्चात वह पाँच अन्य सहयात्रियो के साथ आवश्यक वैज्ञानिक परीक्षण करके पृथ्वी पर सकुशल वापस आ गयीं। इस अभियान का मुख्य ध्येय अन्तरिक्ष के सूक्ष्म–गुरुत्वीय (माइक्रो ग्रैविटी) वातावरण में विभिन्न पदार्थों के विभिन्न गुणो का अध्ययन करना था। यद्यपि पृथ्वी पर संबन्धित प्रयोग तो किये जा चुके थे पर विचार था कि पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण संभवत: प्रायौगिक परिणामो में कुछ आंशिक त्रुटि रह गई हो। अन्तरिक्षयान की भारहीनता के वातावरण में संभव है कि भौतिक गुणो तथा प्रक्रियाओं के बारे में कुछ अतिरिक्त जानकारी प्राप्त हो सके जो पृथ्वी पर संभव न हुई हो, जिससे अनुसंधानकर्त्ता को नयी राह दिखे तथा प्रकृति के कुछ अन्य गूढ़ रहस्य खुलें। इस कार्य के लिए कोलम्बिया शटलयान पृथ्वी से 10 लाख मील तथा सूर्य से 920 लाख मील दूरी पर था, जोकि ऐसा स्थान है जहाँ पृथ्वी तथा सूर्य दोनो की गुरुत्वाकर्षण शक्तियों का प्रभाव एक दूसरे को निरस्त कर देता है।


मालदीव में भारतीय सहायता से उपग्रह टी. वी सेवा मालदीव के शहर ‘माले’ में भारतीय दूरदर्शन ने 7. 5 मीटर का ‘एस –बैंड’ एन्टैना लगाया है जिससे वहाँ उपग्रह द्वारा प्रसारित टी वी कार्यक्रम देखना संभव हो सका है। दूरदर्शन अपने नैटवर्क में प्राय: 6.1 मीटर का ‘डिश एन्टैना’ लगाते हैं पर उन्होंने माले के लिए विशेष रूप से एक बड़ा एन्टैना विकसित किया जिसके द्वारा मालदीव में प्राप्त क्षीण टी वी संकेत भी ग्राह्य हों। यह भारतीय दूरदर्शन के लिए किसी भी अन्य देश के लिये प्रथम परियोजना थी।



सोवियत अन्तरिक्ष स्टेशन मीर में अमरीकी अन्तरिक्ष यात्री : विश्व के इतिहास में पहली बार नासा के एक अमरीकी अन्तरिक्ष यात्री नार्मन थेगार्ड को कज़ाकिस्तान के बैकोनूर अन्तरिक्ष केन्द्र से सोयूज़ नामक रूसी राकेट द्वारा 14 मार्च, 1995 को अन्तरिक्ष यात्रा पर भेजा गया। साथ में दो रूसी अन्तरिक्ष यात्री, व्लादिमीर डेजुरोव तथा गेनाडी स्ट्रेकलोव भी थे। इस यान से वे अन्तरिक्ष में स्थापित ‘मीर अन्तरिक्ष केन्द्र’ गए और तीन माह तक वैज्ञानिक प्रयोग करते रहे। अन्तरिक्ष में पूर्व-स्थापित सल्युत नामक प्रयोगशाला में कार्यरत लोगों को ‘मीर’ में स्थानान्तरित करने के लिए ‘मीर’ का केन्द्रीय सारभाग फरवरी, 1986 अन्तरिक्ष में भेजा गया था, जो कि पिछले लगभग ग्यारह वर्षों से पृथ्वी की उसी कक्षा में है। सोयूज़ निश्चित समय पर पृथ्वी की कक्षा में घूमते हुए मीर के समीप आया, अन्तरिक्ष यात्रियों ने मीर से अपने यान को जोड़ने से सम्बन्धित यंत्रों की जाँच की और यान का दरवाजा खोल कर तैरते हुए मीर में चले गए। सारी प्रक्रिया स्वचालित थी। मीर में पहले से उपस्थित तीन अन्तरिक्ष यात्रियों ने भी उल्लासपूर्वक सोयूज यान को धीरे–धीरे अपने समीप आते देखा। व्लादीमीर पोल्याकोव, (जो उस समय मीर में एक वर्ष से अधिक समय से थे) के लिए विशेष रूप से यह एक हर्ष का क्षण था। विश्व में अन्तरिक्ष में सर्वाधिक समय तक रहने का उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किया है। अमेरिकी अन्तरिक्ष यात्री, थैगार्ड, मीर पर जाने वाले 44 वें व्यक्ति तथा 13 वें विदेशी थे। मीर (का अर्थ शान्ति) अन्तरिक्ष प्रयोगशाला में 1997 फरवरी में एक आक्सीजन उत्पादन संयंत्र में आग लग गई, जिससे अन्तरिक्ष स्टेशन में धुँआ हो गया था। इसको ठीक करने के बाद मार्च 1997 में दोनों आक्सीजन उत्पादन संयंत्रों ने फ़िर काम ही बन्द कर दिया। अप्रैल 1997 में पहले शीतकरण संयंत्र में त्रुटि आ गयी, जिससे मीर के अन्दर का तापक्रम यकायक बढ़ गया और अन्तरिक्ष यात्रियो को साँस लेने में भी कष्ट होने लगा, फिर वायु–शुद्धिकरण संयंत्र में त्रुटि आ गई। 25 जून, 1997 को तो एक बड़ी अप्रत्याशित दुर्घटना घटी। ‘प्रोग्रेस’ आपूर्ति यान, जो पृथ्वी से मीर के लिए आवश्यक सामग्री ले गया था, डाकिंग के समय टकरा गया, जिससे मीर के माड्यूल में एक छेद हो गया। अन्तरिक्ष यात्रियों ने उस छेद के रिसन को शीघ्रता से बन्द तो कर दिया परन्तु इस प्रयास में मीर अन्तरिक्ष स्टेशन को विद्युत–ऊर्जा आपूर्ति करने वाली केबल का सम्बन्ध–विच्छेद हो गया। इसकी मरम्मत करने के अथक प्रयास किये गये। भू–केन्द्र में विभिन्न तरीके सोचे गये जिन्हें अन्तरिक्ष में कार्यान्वित करने का प्रयास किया गया। चूँकि इस यान में एक अमरीकी अन्तरिक्ष यात्री भी था, रूस के अतिरिक्त अमरीका में भी बड़ी खलबली मची। सभी परेशान थे कि मीर कैसे ठीक किया जाए और अन्तरिक्ष–दल को कैसे बचा कर पृथ्वी पर वापस लाया जाए। इसी बीच मीर के कम्प्यूटर में भी खराबी आ गयी। इस बूढ़े मीर को अब तक अन्तरिक्ष में रखने के फैसले पर भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगने लगे। रूसी वैज्ञानिकों ने हौसला रखा तथा इस कार्य को करने के लिए अगस्त 1997 में दूसरा अन्तरिक्ष–दल मीर भेजा और पुराने दल को पृथ्वी पर वापस बुला लिया। इस नये दल ने मीर को अपने साथ ले गए उपकरणों की सहायता से ठीक कर लिया। अक्तूबर 1997 में अमरीकी सहयात्री माइकेल फोल पृथ्वी पर सकुशल वापस आ गये। अक्तूबर 1997 में ही एक मानव–रहित अन्तरिक्ष–यान, प्रोगेस एम –36 नये कम्प्यूटर, विभिन्न वैज्ञानिक उपकरण, ईंधन, पेयजल तथा अन्य सामग्री लेकर मीर पहुँचा। इन सभी उपकरणों की सहायता से मीर फिर से कार्यशील हो गया। मीर का दूसरा अर्थ 'विश्व' भी‌है। विश्व में यह अकेला अन्तरिक्ष–स्टेशन है और अपने समय का सबसे विशाल था। इसमें विभिन्न राष्ट्रों के अन्तरिक्ष यात्रियो को प्रशिक्षण दिया जा चुका है। रूस में जनवरी 1999 में हुए फैसले के अनुसार मीर का जीवन काल तीन वर्ष और बढ़ा दिया गया था क्योंकि इस पर होने वाले व्यय की जिम्मेदारी कुछ व्यक्तिगत संस्थाओं ने ले ली है। इसे पुन: जीवन दान दिया गया और अन्त में २३ मार्च २००१ को इस वयोवृद्ध मीर को सेवानिवृत्त किया गया। इसे अंतरिक्ष परिपथ से हटाया गया और दक्षिणी प्रशान्त महासागर में इसे जल समाधि दी गई ।




अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन :  
 मुख्यत्: यह यूएस ए की पहल से १९९८ से प्रारम्भ किया गया अंतर्राष्ट्रीय (रूस, यूरोप, कैनेडा तथा जापान आदि ) सहयोग से निर्मित विश्व का विशालतम (इसे हम बिना दूरबीनों के भी रात्रि में देख सकते हैं) अन्तरिक्ष अनुसंधान स्टेशन है, यद्यपि इसका निम्न भू कक्षा (२७८ से ४६० किमी.ऊपर) में ही निर्माण किया जा रहा है जिसके २०११ तक पूरे होने की योजना है । इसके सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में होने वाले अनुसंधान के क्षेत्र होगे - जैव शास्त्र, मानव जैव शास्त्र, भौतिकी, खगोल शास्त्र, मौसमविज्ञान। इसमें स्वभावत: अन्तरिक्ष यानों की सुरक्षा, उनकी दक्षता तथा विश्वसनीयता के परीक्षण भी होंगे। किसी भी अन्तरिक्ष यान के लिये यह तीन गुण अत्यंत मह्त्वपूर्ण हैं। कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं. अभी तक के अनुसंधान से यह निष्कर्ष निकला है कि दीर्घ कालीन अंतरिक्ष यात्रा के बाद यदि दिक्चालक (एस्ट्रोनाट) किसी ग्रह पर उतरेंगे तब उनकी अस्थियो के टूटने का खतरा अधिक होगा । इसमें जो दूरचालित पराश्रव्य क्रम्वीक्षण (अल्ट्रासाउन्ड् स्कैन) का अनुसंधान किया गया है उसकी जानकारी से दिक्चालकों को तो लाभ होगा ही, भूस्थित रोगियों को भी बहुत लाभ होगा। भू वातावरण में एरोसोल, ओज़ोन, वाष्प और ऒक्साइड के प्रभावों को परखा जाएगा। और निश्चित ही ब्रह्माण्ड किरणों, अन्तरिक्ष धूल, प्रति पदार्थ, अदृश्य पदार्थ आदि पर अनुसंधान होंगे । ऐसा नहीं है कि अन्तरिक्ष कार्यक्रमो का उपयोग केवल रक्षा विभाग तथा अत्यंत समृद्ध देशो की विलासिता की निशानी है; इसके अनेकनेक उपयोग समान्य जन को भी मिल रहे हैं और मिलेंगे । भारत को इस दिशा में प्रयत्नशील रहना आवश्यक है, क्योकि आज के विश्व में जो भी देश अनुसंधान में पिछड गया वह पिछडा ही रहेगा ।



इस प्रकार का संयुक्त अन्तरिक्ष कार्यक्रम, वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान–वर्धन के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग तथा मित्रता के अनूठे उदाहरण हैं। अन्तरिक्ष के रहस्योद्घाटनो के लिए परस्पर सहयोग अत्यन्त आवश्यक है। विश्व की महाशक्तियों के मध्य स्पर्धा व द्वेष समाप्त हो जाने से आशा है कि भविष्य में इस सहकारिता की दिशा में निरन्तर प्रगति होगी, और रक्षा विभाग पर कम खर्च होगा ।



द्यौ शान्ति:, अन्तरिक्षं शान्ति:, पृथिवी शान्ति:



विश्वमोहन तिवारी, पूर्व एयर वाइस मार्शल
ई 143/21, नौएडा 201301







3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढिया आलेख. यह जानकारी भी मिली थी कि १८९५ में ही एक भारतीय शिवाजी बापू तलपदे ने चौपाटी में पहला हवाई जहाज उड़ाकर दिखाया था.

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  2. अन्तरिक्ष के बहुत सारे पहलुओं को उजागर करते इस सारगर्भित आलेख ने भूतनाथ के दिमाग के तंतु भी खोल दिए....इसके लिए आपका आभार....!!

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  3. भाषा सरल और रोचक रखें, हम ब्लॉग पढ़ रहे हैं किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी नहीं कर रहे. कोरे तथ्य किसी काम के नहीं.

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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