स्त्री मुक्ति का संघर्ष और मीरा (पुस्तक-चर्चा)

पुस्तक-चर्चा






स्त्री मुक्ति का संघर्ष और मीरा
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गणेशलाल मीणा


मीरा भक्तिकाल की सबसे बड़ी कवि हैं। वे मूलतः कृष्ण भक्त के रूप में विख्यात हुईं लेकिन इधर विमर्शों के नये दौर में उनका पुनर्पाठ हो रहा है और उन्हें स्त्री मुक्ति के संघर्ष के बड़े प्रतीक के रूप में देखा जा रहा है। वैसे तो मीरा पर समय-समय पर अनेक अध्ययन और उनके पदों के सैकड़ों संग्रह प्रकाशित होते रहे हैं किन्तु अभी हाल में डॉ. पल्लव द्वारा सम्पादित पुस्तक “मीराः एक पुनर्मूल्यांकन" अपनी नयी आलोचना दृष्टि के कारण उल्लेखनीय बन पड़ी है। प्रस्तुत पुस्तक में लगभग पच्चीस विद्वानों ने मीरा के व्यक्तित्व और प्रदाय पर आलेख लिखे है


पुस्तक की खास बात यह है कि समकालीनता की दृष्टि से मीरा का पुनर्पाठ किया गया है। प्रस्तावना में डॉ. पल्लव ने लिखा है कि मीरा की कविता की अर्थवत्ता इसलिए उनकी निजी अनुभूतियों, उनके अनन्य समर्पण और वियोग की एकांत संवेदना से अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि उसका मूल्य आधुनिक है। भारतीय स्त्री की अस्मिता का प्रतीक है मीरा, जिसका स्वरूप आधुनिक चेतना से उपजा है और जिसकी रोशनी में भारतीय स्त्री तो क्या समूचा स्त्री मुक्ति आन्दोलन राह पा सकता है। मीरा कविता का ऐसा संसार रचती हैं जिसमें तमाम मध्ययुगीन जकड़बन्दी और कल्पनातीत घुटन के बावजूद नयी चेतना के विकास की पूरी गुंजाइश मौजूद है। चार सौ-पाँच सौ तो क्या हजार वर्ष पुरानी समस्याओं में भी आज की समस्याएँ ढूँढनी होंगी क्योंकि मानसिक जकड़बन्दी अभी पूरी तरह टूटी नहीं है।


पुस्तक का पहला अध्याय सुप्रसिद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी का है, ‘‘वर्ण व्यवस्था, नारी और भक्ति आन्दोलन‘‘ में उन्होंने विस्तार से मध्यकालीन सामंती दौर में स्त्री की पराधीनता का वर्णन करते हुए मीरा के महत्व का उद्घाटन किया है। वे भक्ति कवियों के अन्तर्विरोधों को देखने से परहेज नही करते और यहाँ उन्होंने तुलसीदास व कबीर जैसे कवियों की भी प्रकारान्तर से चर्चा की है। वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने अपने लेख ‘‘मीरा की कविता और मुक्ति की चेतना‘‘ में मीरा के बहाने प्रेम जैसे गूढ़ और कोमल विषय पर बड़ी सुन्दर टिप्पणी की है - प्रेम स्वभाव से ही सत्ताविरोधी और स्वतंत्र होता है। वह अपने प्रिय को छोड़कर और किसी की सत्ता स्वीकार नहीं करता। सत्ता से प्रेम के संघर्ष की कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी मानव-समाज में प्रेम की कहानी है। यह आवश्यक नहीं कि प्रेम की कविता में विरोधी सत्ता हमेशा सामने हो। वह कहीं प्रत्यक्ष होती है, कहीं परोक्ष भी। प्रेम ही मीरा के सामाजिक संघर्ष का साधन है और साध्य भी। यद्यपि कबीर भी कहते हैं कि प्रेम का घर खाला का घर नहीं है, लेकिन मीरा की प्रेम साधना कबीर से भी अधिक कठिन है। पाण्डेय जी ने मीरा की कविता में उपजे विद्रोह के संबंध में लिखा है कि मीरा का विद्रोह एक विकल्पहीन व्यवस्था में अपनी स्वतंत्रता के लिए विकल्प की खोज का संघर्ष भी है। उनको विकल्प की खोज में संकल्प की शक्ति भक्ति से मिली है। मीरा की कविता में सामंती समाज और उसकी संस्कृति की जकड़न आध्यात्मिक है उतनी ही सामाजिक भी। मीरा का जीवन-संघर्ष, उनके प्रेम का विद्रोही स्वरूप और उनकी कविता में स्त्री-स्वर की सामाजिक सजगता भक्ति आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि है, जिसकी ओर हिंदी आलोचना में अब ध्यान दिया जा रहा है।


विमर्शवादी चर्चाओं के बीच मीरा का सहज मूल्यांकन अवश्य ही एक बड़ी चुनौती है। वरिष्ठ समालोचक नवलकिशोर ने अपने आलेख ‘‘मीरा चर्चा में जैनेन्द्रीय सुनीता प्रसंग‘‘ में इस सवाल पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। यहाँ वे एक ओर जैनेन्द्र के चर्चित उपन्यास सुनीता का प्रसंग लाकर मीरा की नयी अर्थवत्ता की तलाश करते हैं तो दूसरी ओर विमर्श प्रसंग पर उनका मत है - ‘‘मीरा का साहित्येतर अनुशीलन कितना ही वांछनीय हो - उनके समग्र अध्ययन के लिए वह बहुत जरूरी भी है - उनके काव्य का सौन्दर्यात्मक अनुभव हम काव्य रसिक के रूप में ही कर सकेंगे। इस दिशा में हमारी आलोचना - परंपरा हमारे लिए साधक और बाधक दोनों हैं। हम उनके काव्य को भक्ति काव्य की परिधि में ही पढ़ते और सुनते हैं तो उनके काव्य में मन्द-मुखर आत्मकथा और समाजाख्यान को सुन ही नहीं पाएँगी लेकिन उनके प्रेम निवेदन का उनकी भक्ति और उसकी परंपरा से उसे अलगा कर विखंडन करते हैं तो हमारी सारी उद्घोषणाएँ आरोपणाएँ ही होंगी - मीरा के काव्य और काल से संदर्भित स्थापना नहीं।‘‘ इस संदर्भ में रमेश कुन्तल मेघ, शिवकुमार मिश्र, अनुराधा और चन्द्रा सदायत के आलेख देखे जा सकते हैं। अच्छी बात यह है कि सम्पादक ने एक तरह का खुलापन लाने की कोशिश पुस्तक में की है, जिसमें वे एक दूसरे आलेखों में परस्पर बहस की गुंजाइश पैदा करते हैं।


बहस को जीवंत करता हुआ आलेख माधव हाड़ा का है, ‘‘मीरा की निर्मित छवि और यथार्थ‘‘ में वे लिखते है कि उन्नीसवीं सदी में जेम्स टॉड और उनके अनुकरण पर श्यामलदास और बीसवीं सदी के आरंभ में गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने मीरा की जो लोकप्रिय संत-भक्त महिला छवि निर्मित की, कालांतर में साहित्य सहित दूसरे प्रचार माध्यमों में यही छवि चल निकली। मीरा ने राजसत्ता और पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष किए और इन संघर्षों के लिए ही वह भक्ति का एक खास ढंग गढ़ती है, यह तथ्य लगभग भुला दिया गया। प्रेम, रोमांस, भक्ति, अध्यात्म और कविता आदि से मिला-जुला मीरा का इतिहास से कटा हुआ स्त्री रूप ही सब जगह लोकप्रिय हो गया। हिन्दी के अधिकांश साहित्यिक मीरा की इसी निर्मित छवि का विश्लेषण करते रहे। डॉ. हाड़ा इस आलेख में विस्तार से चर्चा करने के बाद मत देते है कि दरअसल भक्ति मीरा के यहां लैंगिक दमन और शोषण के विरुद्ध स्त्री के निरंतर संघर्ष की युक्ति मात्र है। मीरा की कविता में, संत-भक्तों से अलग, एक पीड़ित-वंचित स्त्री का दुःख और असंतोष इतना मुखर है कि यह उसकी निर्मित छवि को ध्वस्त करने के लिए पर्याप्त है। डॉ. आशीष त्रिपाठी का आलेख भी पर्याप्त बहस का अवसर देता है क्योंकि वे जहाँ मीरा के भक्ति तत्व का विश्लेषण करते है वही मीरा की मध्यकालीन सीमाओं को पहचान कर उनके भाग्यवाद की आलोचना भी करते हैं। इस अन्तर्विरोध का कारण वे यह बताते हैं कि मीरा की वैचारिकता आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण सी नहीं हो सकती थी और उनका प्रेम भी एक हद तक भावावेशी था। लेकिन डॉ. त्रिपाठी लिखते है कि अपनी सीमित क्रान्तिकारिता के बावजूद आज भी मीरा के विद्रोह का आत्यंतिक महत्व है क्योंकि मीरा का समाज एक मायने में आज भी मौजूद है। जिस समाज ने आज से लगभग पांच सौ बरस पहले मीरा को बिगड़ी हुई लोक लाज हीन, कुलनासी, भटकी हुई और बावरी कहा था, वही समाज आज तसलीमा नसरीन को ‘नष्ट लड़की‘ तथा किश्वर नाहिद को ‘बुरी औरत‘ कहकर संबोधित कर रहा है।


युवा आलोचना का एक भिन्न आस्वाद हिमांशु पण्ड्या के आलेख ‘‘मीरा की कविता : प्रेम के निहितार्थ‘‘ में मिलता है। इस आलेख में पण्ड्या ने हिन्दी आलोचना की मीरा संबन्धी असफलता को प्रकाशित किया है। वे मीरा की छवि के मिथकीयकरण का हवाला देते हुए लिखते हैं कि समाज में अपनी सजग उपस्थिति के कारण मीरा को साहित्यिक इतिहास में मिटाया नहीं जा सकता था। अतः उनके कामनामूलक निहितार्थों को - जिनसे ग्लानिबोध उपजता था - दबाया गया और सामंती विरोध जैसे पक्षों को, जो नवीन मध्यवर्ग के आधुनिक बोध को गौरव से भर देता था, आगे किया गया।


अनुवाद के माध्यम से मधु किश्वर और रुथ वनिता का चर्चित आलेख पुस्तक में मिलता है तो परिता मुक्ता की प्रसिद्ध पुस्तक ‘अपहोल्डिंग दि कॉमन लाइफ : दि कम्यूनिटी ऑफ़ मीराबाई‘ पर सुरेश पण्डित का आलेख भी विशेष तौर पर पुस्तक का महत्व बढ़ाने वाला है। पंकज बिष्ट का यात्रावृत्त पुस्तक में शामिल किया गया है जो एक संवेदनशील कथाकार की आँख से मीरा के जीवन और उसके देश को देखता है। मीरा की भाषा और कविता के सौन्दर्य को जीवन सिंह, सत्यनारायण व्यास और निरंजन सहाय के आलेखों में देखा गया है। परिशिष्ट रूप में मिश्र बन्धु विनोद और हिन्दी साहित्य का इतिहास जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थों से मीरा संबंधी टिप्पणियाँ पुस्तक को शोध की दृष्टि से भी सम्पूर्णता देती है।


कहना न होगा कि मीरा का यह पुनर्पाठ स्त्री विमर्श के चालू दौर में एक गंभीर अध्ययन है और इस अध्ययन में वरिष्ठ समालोचकों के साथ युवा आलोचकों की नयी पीढ़ी ने भी सार्थक हस्तक्षेप किया है। उम्मीद की जा सकती है कि यह पुस्तक मीरा पर नये सिरे से विचार करने का अवसर देगी।


(शोध छात्र, हिन्दी विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर - 313001 मो. ०९४६०४८८५२९)


पुस्तक
- मीरा एक पुनर्मूल्यांकन/
सम्पादक - पल्लव /
आधार प्रकाशन, पंचकूला
/
मूल्य - 450 रुपये

प्रभाषजी, आप समुद्र थे, हैं, रहेंगे

प्रभाषजी, आप समुद्र थे, हैं, रहेंगे

आलोक तोमर



फिराक गोरखपुरी के शेर को अगर थोड़ा सा मोड़ कर कहा जाय तो मै यह कहूँगा कि ''आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी, हम असरों, जब तुम उनसे जिक्र करोगे कि तुमने प्रभाष को देखा था।'' हमारी पीढ़ी इस मामले में सौभाग्य से भी दो कदम आगे है कि हममे से ज्यादातर ने इस और बीती हुई शताब्दी के सबसे बड़े संपादकों राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जी को देखा है और कई ने उनके साथ काम भी किया है। प्रभाष जोशी बहत्तर के हो गये, मगर मुझे चालीस पार के वे ही प्रभाष जी याद हैं जो दीवानों की तरह जनसत्ता निकाल रहे थे। वे हम बच्चों को सिखाते भी थे और करके दिखाते भी थे। संपादक जी कब समाचार डेस्क पर उप-संपादक बनकर बैठे हैं, कब प्रूफ पढ़ रहे हैं, कब संपादकीय लिख रहे हैं, कब प्रधानमंत्री के घर भोजन करके आ रहे हैं और कब देवीलालों और विश्वनाथ प्रताप सिंहों को हड़का रहे हैं कि अपनी राजनीति सुधार लो।




हर वक्त कभी न कभी ऐसा होता ही रहता था। लिखावट ऐसी जैसे मोती जड़े हों। आज भी कोई फर्क नहीं आया। अब अगर आपको ये बताया जाए कि एक बार फेल होकर मेट्रिक के आगे नहीं पढ़ने वाले प्रभाष जोशी भरी जवानी में लंदन के बड़े अखबारों में काम कर आये थे और इसके पहले इंदौर के चार पन्ने के नई दुनिया में संत बिनोवा भावे के साथ भूदान यात्रा में शामिल भी रहे थे और इस भूदान यात्रा की डायरी से ही नई दुनिया से उन्होंने पत्रकारिता शुरू की थी तो आप चाहें तो मुग्ध हो सकते हैं या स्तब्ध हो सकते हैं। प्रभाष जी दोनों कलाओं में माहिर हैं। लिख्खाड़ इतने कि चार पन्नों का अखबार अकेले निकाल दिया और घर जाकर कविताएँ लिखीं।



सर्वोदय के संसर्ग से जिंदगी शुरू की थी और जिंदगी के साथ जितने प्रयोग प्रभाष जोशी ने किए उतने तो शायद महात्मा गांधी ने भी नहीं किए होंगे। जन्म हुआ आष्टा में जो तब उस सीहोर जिले में आता था जिसमें तब भोपाल भी आता था। पढ़ाई छोड़ी और माता पिता जाहिर है कि दुखी हुए मगर प्रभाष जी बच्चों को पढ़ाने सुनवानी महाकाल नाम के गाँव में चले गये। वहाँ सुबह सुबह वे बच्चों के साथ पूरे गाँव की झाड़ू लगाया करते थे और खुद याद करते हैं कि खुद चक्की पर अपना अनाज पीसते थे। गाँव की कई औरतें भी अनाज रख देती थीं, उसे भी पीस देते थे। राजनैतिक लोगों को लगने लगा कि बंदा चुनाव क्षेत्र बना रहा है। मगर प्रभाष जी पत्रकारिता के लिए बने थे। यहाँ यह याद दिलाना जरुरी है कि संत बिनोवा भावे के सामने चंबल के डाकुओं ने पहली बार जो आत्मसमर्पण 1960 में किया था उसके सहयोगी कर्ताओं में से प्रभाष जी भी थे और हमारे समय के सबसे सरल लोगों में से एक अनुपम मिश्र भी।



प्रभाष जी इंदौर से निकले और दिल्ली आ गये और गाँधी शांति प्रतिष्ठान में काम करने लगे। एक पत्रिका निकलती थी सर्वोदय उसमें लगातार लिखते थे। गाँधी शांति प्रतिष्ठान के सामने गाँधी निधि के एक मकान में रहते थे। रामनाथ गोयनका खुद घर पर उन्हे बुलाने आये। प्रभाष जी ने उन्हे साफ कह दिया कि वे बँधने वाले आदमी नहीं हैं। मगर रामनाथ गोयनका भी बाँधने वाले लोगों में से नहीं थे । वे अपनाने वाले लोगों में से थे। प्रभाष जोशी और रामनाथ गोयनका ने एक दूसरे को अपनाया और सबसे पहले प्रजानीति नामक साप्ताहिक निकाला और फिर जब आपातकाल का टंटा हो गया तो आसपास नाम की एक फिल्मी पत्रिका भी निकाली। क्रिकेट के उनके दीवानेपन के बारे में तो खैर सभी जानते ही हैं । वे जब टीवी पर क्रिकेट देख रहे हों तो आदमी क्रिकेट देखना भूल जाता है। फिर तो प्रभाष जी की अदाएँ देखने वाली होती है। बालिंग कोई कर रहा है, हवा में हाथ प्रभाष जी का घूम रहा है। बैटिंग कोई कर रहा है और प्रभाष जी खड़े होकर बैट की पोजीशन बना रहे हैं। कई विश्वकप खुद भी कवर करने गये। कुमार गंधर्व जैसे कालजयी शास्त्रीय गायक से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक से दोस्ती रखने वाले प्रभाष जोशी के सामाजिक और वैचारिक सरोकार बहुत जबरदस्त हैं औऱ उनमें वे कभी कोई समझौता नहीं करते। जनसत्ता का कबाड़ा ही इसलिए हुआ कि प्रभाष जी उस पाखंडी कांग्रेसी विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार बनाने में जुटे हुए थे। इसके पहले जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शरीक थे और जे पी जिन लोगों पर सबसे ज्यादा भरोसा करते थे उनमें से एक हमारे प्रभाष जी थे।




प्रभाष जी ने जिंदगी भी आंदोलन की तर्ज पर जी। आखिर अपना वेतन बढ़ने पर शर्मिंदा होने वाले और विरोध करने वाले कितने लोग होंगे। जिस जमाने में दक्षिण दिल्ली और निजामुद्दीन में रहने के लिए पत्रकारों में होड़ मचती थी उन दिनों उन्हे भी किसी अभिजात इलाके में रहने के लिए कहा गया मगर वे जिंदगी भर यमुना पार रहे और अब तो गाजियाबाद जिले में घर बना लिया है। आष्टा से इंदौर होते हुए गाजियाबाद का ये सफर काफी दिलचस्प है। मगर जो आदमी भोपाल जाकर सिर्फ वायदों के भरोसे दैनिक अखबार निकाल सकता है और वहाँ खबर लाने वाले चपरासी का नाम पहले पन्ने पर संवाददाता के तौर पर दे सकता है और अखबार बंद न हो जाय इसलिए अपनी मोटरसाइकिल बेच सकता है, पत्नी के गहने गिरवी रख सकता है वह कुछ भी कर सकता है। लेकिन ऐसे लोग कम होते हैं। सब प्रभाष जोशी नहीं होते जो जिसे सही समझते हैं उसके लिए अपने आपको दाँव पर लगा देते हैं। यह उनकी चकित करने वाली विनम्रता है कि वे कहते हैं कि दिल्ली में आकर वे कपास ही ओटते रहे। यही उनकी प्रस्तावित आत्मकथा का नाम भी है। हिंदी पत्रकारिता का इतिहास दूसरे ढ़ंग से लिखा जाता अगर प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर और उनके बाद की पीढ़ी में उदयन शर्मा और सुरेंद्र प्रताप सिंह पैदा नहीं हुए होते ।



ये प्रभाष जी का ही कलेजा हो सकता है कि पत्रकारिता में सेठों की सत्ता पूरे तौर पर स्थापित हो जाने के बाद भी वे मूल्यों की बात करते हैं और डंके की चोट पर करते हैं। अखबार मालिक या संपादक दलाली करें, पैसे लेकर खबरें छापे ये सारा जीवन सायास अकिंचन रहने वाले प्रभाष जी को मंजूर नहीं। इसके लिए वे दंड लेकर सत्याग्रह करने को तैयार हैं और कर भी रहे हैं। इन दलालों में से कुछ नये प्रभाष जी की नीयत पर सवाल उठाया है लेकिन वे बेचारे यह नहीं जानते कि प्रभाष जी राजमार्ग पर चलने वाले लोगों में से नहीं हैं और बीहड़ों में से रास्ता निकालते हैं। उन्होने सरोकार को थामकर रखा है और जब सरकारें उन्हे नहीं रोक पायी तो सरकार से लाइसेंस पाने वाले अखबार मालिक और उनके दलाल क्या रोकेंगे।



आखिर में प्रभाष जी को जन्मदिन की बधाई के साथ याद दिलाना है कि आप समुद्र थे, समुद्र हैं लेकिन अपन जैसे लोगों की अंजुरी में जितना आपका आशीष समाया उसी की शक्ति पर जिंदा हूँ ।





प्रभाषजी, आपने तो 'बिगाड़' दिया था!

सुमंत भट्टाचार्य


मैं शायद प्रभाष जोशी जी की छौनों वाली टीम का हिस्सा था। पहली मुलाकात उनसे कलकत्ता (अब कोलकाता) के ताज बंगाल होटेल में हुई। जनसत्ता कोलकाता के लिए मुझे चुन लिया था और नियुक्ति पत्र देने वाले थे। ना तो प्रभाषजी के सहयोगी रामबाबूजी के पास टंकण सुविधा थी और ना ही प्रभाषजी ने कभी लेखन की इस आधुनिक कारीगरी का इस्तेमाल किया। तब लैपटॉप भी दूर की चीज थे, प्रभाष जी के लिए तो शायद आज भी है। बोले, भैया नियुक्ति पत्र कहां से दूँ? मैं बोला कि ताज होटेल के इसी लेटरहेड पर लिख कर दे दीजिए। सलाह पसंद आ गई और 3300 रुपए में जनसत्ता कोलकाता में उप संपादक पद पर काम करने का हुक्म दे दिया। सन 1991 की बात है यह। वह नियुक्ति पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित रखा है प्रभाषजी। एक धरोहर की तरह। एक और चीज है मेरे पास, बाद में बताऊँगा।



अखबार की लांचिंग के कुछ रोज पहले फिर कोलकाता आए और किसी काम से इंडियन एक्सप्रेस के अशोक रोड वाले गेस्ट हाउस तक अपनी गाड़ी में साथ ले गए। पता नहीं क्यों पहले ही दिन से प्रभाषजी के करीब पहुँच कर लगा ही नहीं कि देश के इतने बड़े संपादक हैं। मुझे तो हमेशा लगा कि इनके पास जो चाहे बतिया लीजिए, खुद ही छान कर काम का निकाल लेंगे, बकिया फेंक देंगे। ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं।



रास्ते में प्रभाष जी ने पूछा, और भैया कैसा काम चल रहा है? सर्तक होते हुए मैं बोला, ठीक-ठाक। थोड़ा गौर से मेरा चेहरा देखा और दूसरा सवाल फेंका, लोग ठीक से काम कर रहे हैं ना? और चौकन्ना हुआ, जवाब दिया, मैं कैसे बता सकता हूं, मैं तो सबसे नीचे वाली पायदान का चोबदार हूँ। मुझे लगा कि जासूसी करा रहे हैं। उस दिन पत्रकारिता का पहला सबक सीखा, एक संपादक को कैसा होना चाहिए। प्रभाषजी मेरे मन की संशय को ताड़ गए। बोले,,।भैया मेरे पूछने का मतलब है कि लोग मन लगा कर काम कर रहे हैं ना। फिर बोले देखो भैया, अपन तो एक चीज जानते हैं, बस आदमी सही होना चाहिए...पत्रकार तो संपादक बना लेता है। फिर एक अच्छे संपादक के एक और गुर को पेश किया पलथी मार कर बैठे प्रभाषजी ने। हम दोनों के बीच एक गाव तकिया था, सफेद कपड़े से ढका। उस पर धौल मार प्रभाषजी बोले, देखों भैया, हम तो एक बार जोड़ते हैं, छोड़ते कभी नहीं। पूछा, ऐसा क्यों? प्रभाषजी बोले, हम इतना बिगाड़ देते हैं कि कहीं जाने लायक नहीं रहता। तब नहीं समझा था प्रभाषजी, बाद में जब जनसत्ता से बाहर आया तो समझ में आया, वाकई कितना बिगाड़ दिया था आपने। कहीं का नहीं छोड़ा। जनसत्ता में मेरे पहले की पीढ़ी तो बेहतरीन उदाहरण हैं। सोच के एक नाम बताइए। प्रभाषजी के जनसत्ता से निकला एक भी शख्स बाहर किसी दूसरे अखबार में फिट हो पाया हो? आलोक भाई (तोमर), सुशील भाई (सुशील कुमार सिंह) दुरुस्त हूँ ना मैं? यह क्या दंभ था या एक संपादक का खुद पर विश्वास? यकीकन विश्वास। प्रभाषजी के साथ मेरी स्मृतियाँ टुकड़ों में हैं। पर इन सभी में एक अंतर्संबंध पाता हूँ । जो कुछ भी उनसे सीखा, गाँठ बांधी, उनसे भोगा ज्यादा पाया कम।



जनसत्ता में शायद ही किसी संवाददाता की खबर रुकी हो। बस तथ्यों के लिहाज से दुरुस्त होना चाहिए। सन 1996 में जब दिल्ली जनसत्ता में आया तो लगा, हर कोई हाँका लगा रहा है। सब्जी मंडी सरीखा माहौल। धीरे-धीरे समझ में आया, यहाँ हांके का नहीं, निथारने का शोर है। हर किसी को अपनी बात करने की बेलगाम आजादी। चाहे अभय भाई (अभय दुबे) से भिड़ लीजिए या फिर अपने मित्र संजय सिंह (अब अनुवाद कम्युनिकेशन वाले) से देर तक बहसिया लें। पर जो भी कहें, तथ्यों के साथ कहें। विरोध में एक तर्क हो। जनसत्ता में जब तक रहा, पीछे छूटे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दिनों की कमी नहीं महसूस की।



दिल्ली जनसत्ता में रात में श्रीशजी (श्रीश मिश्र) प्रभाषजी का हाथ का लिखा कागद कारे थमा दिया करते थे और कहते थे संपादित कर लो। मेरी औकात! प्रभाषजी के लिखे का संपादन करुँ। एक बार कुछ हो ही गया। रात को डेढ़ बजे थे प्रभाषजी का कागद कारे टाइप होकर आया। नीचे अभय भाई संस्करण निकलवा रहे थे। श्रीशजी ने कहा, पढ़ लो। पढ़ने लगा तो पाया कि प्रभाषजी ने हर जगह त्योहार को त्यौहार लिख रखा है। श्रीश जी से पूछा तो मुस्करा (बहुत साजिश वाली मुस्कराहट होती है श्रीश जी आपकी) बोले, बुढ़ऊ (प्रभाष जी के लिए दुलार वाला संबोधन था यह जनसत्ता के साथियों के बीच) को फोन कर लो। ताव में आकर मैंने भी फोन लगा दिया, रात डेढ़ बजे भी फोन प्रभाषजी ने फोन उठाया। आवाज में दिन वाली ताजगी। कहीं कोई खीज नहीं। बोले, हाँ भैया बोलो। मैं बोला, सर आपके कागद कारे में त्योहार की जगह त्यौहार लिखा है। उधर से आवाज आई, तो भैया होता क्या है? एक क्षण के लिए लगा, बुढऊ खींच रहे हैं। मैं बोला, जहाँ तक मैं जानता हूं त्योहार होता है, त्यौहार नहीं। साथ में नए मुल्ले की तरह दलील दी, फादर (कामिल बुल्के) में भी यही लिखा है। इस पर प्रभाषजी ने जो कहा, उस समय तो उनकी बात घर वाली बात लगी पर वक्त के साथ समझ में आया किस हिमालय के साथ हमने काम किया है। प्रभाष जी आप घर के बुढ़ऊ थे हम सब के लिए। इस जीवन में अब तक तो दूसरे प्रभाषजी नहीं मिले। प्रभाषजी बोले, भैया रात का संस्करण जो निकालता है वही संपादक होता है, अपन तो कल 11 बजे संपादक होंगे। अभी तो हमें भी अपना संवाददाता या कॉलम लिखने वाला समझो। मैंने त्यौहार को त्योहार कर दिया। दूसरे दिन प्रभाषजी कुछ नहीं बोले। उनकी चुप्पी को अपनी भारी जीत समझी मैंने। बहुत बाद में समझा, यह तो प्रभाषजी की अपनी मालवी शैली का लेखन था और कागद कारे उनका अपना स्थान था। और मैंने उनके घर में सेंध मारी थी। अब इस बात पर नहीं जाऊँगा कि आज का संपादक क्या करता इस पर।



बातें तो बहुत है प्रभाषजी पर एक बात जरूर कहना चाहूँगा। एक पूरी नस्ल को खराब कर दिया आपने। आपके बताए राह पर चला तो धकिआया गया। सुधरने की कोशिश कर रहा हूँ पर सुधरने की उम्मीद कम ही है। जयपुर में राजस्थान पत्रिका और मिड डे (मुंबई) का साझा दोपहर का अखबार न्यूज़ टुडे निकाला। मुख्यमंत्री वसुंधरा के खिलाफ दीन दयाल उपाध्याय ट्रस्ट में जमीन हड़पने की खबर हो या तिरंगा मुद्दा खड़ा कर आईपीएल चेयरमैन ललित मोदी के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी करवाने का मसला। आप की सीख पर चल 26 साल पुराने यूनिवर्सिटी के दोस्त राजेश्वर सिंह को नहीं छोड़ा, जो उस वक्त जयपुर के कलेक्टर थे। क्योंकि खबर रिपोर्टर लाया था। हर मुकाम पर जन को आगे रख सत्ता को ठोका। पर क्या हुआ, सत्ता और सत्ता में समझौता हुआ और अपन एक गैर दुनियादार संपादक करार दे बाहर कर दिए गए। यह दीगर है, इसमें मालिकों की कम बीच के लोगों की भूमिका ज्यादा रही। ऐसे लोगों की जो आपके सिपाहियों से सीधे टकराने की बजाय खाने में जहर मिलाकर मारने में यकीन रखते हैं। जहर मिलाने की यह कला आपने हमें क्यों नहीं सिखाई?



प्रभाषजी एक पूरी नस्ल खराब कर दी आपने, फिर भी आपसा कोई नहीं। आप शतायु हों। आपसे मिलूँ भले नहीं पर एकलव्य की तरह आपकी द्रोण प्रतिमा ही मेरे लिए प्रेरणा है।



हाँ, एक बात और। आपकी दी एक और चीज मेरे पास है। शादी के बाद जब मैं और सौम्या आपसे मिलने गए थे तो आपने बतौर आशीर्वाद पाँच सौ रुपए का नोट सौम्या के हाथों में थमाया था। आग्रह पर आपने लिखा था, पैसा हाथ का मैल है जो मिलाने से मिलता है, 15 जुलाई 1996, प्रभाष जोशी। इस नसीहत पर बढ़ा जा रहा हूँ । हाथ मिलाए जा रहा हूँ , पर पैसा है कि जमीन पर झरा जा रहा है। हाथ नहीं आ रहा है। यह भी आपकी ही सीख है ना?


मील का 73 वाँ पत्थर



मील का 73 वाँ पत्थर
संजय तिवारी

मिथक बन चुका वह पत्रकार अभी भी अथक दिखाई देता है. बंगाली किनारे वाली धोती पर मटके के माड़ीदार कुर्ते में गांधी शांति प्रतिष्ठान के पुरातन और सनातन व्यवस्था की अद्यतन मिसाल बन चुके इस स्रोतशाल में उस 73 साल के अदम्य उत्साही 'नौजवान' पत्रकार ने केक पर चाकू फेरा तो लगा कि उस नौजवान के मन में पैदाइश के 73 साल बाद आगे और 73 मील पत्थर पार करने की ललक शिशुवत हो चली है. वह केक काटनेवाले 'नौजवान' कोई और नहीं, भारतीय पत्रकारिता के एकमात्र जीवित स्तंभ पुरुष प्रभाष जोशी हैं.



बुधवार 15 जुलाई को उनका 73वाँ जन्मदिन था. यह आयोजन साल दर साल इसी तरह से इसी शांति प्रतिष्ठान के किसी कोने में होता है. कभी पूजा करनी हो तो बाहर बरामदे में व्यवस्था बन जाती है. खाने की व्यवस्था लान में हो जाती है और मिलना जुलना कहीं भी. तीन चार सालों से मैं भी लगातार जा रहा हूँ. लोग आते हैं लेकिन मैंने कभी यह नहीं देखा कि कोई बधाई लेकर आया हो. प्रभाष जोशी के इस बेहद निजी कार्यक्रम में जो लोग भी आये हुए दिखते हैं वे सब कृतज्ञता ही जताते हैं. आखिर ऐसा क्या दिया है प्रभाष जोशी ने कि हर आगंतुक अपने आप को ऋणी महसूस करता है? ऐसे उल्लास और आनंद के दिन पर भी उनके सामने सिर्फ अपने होने का अहसास कराता है. इस व्यक्ति ने पिछले दौर में ऐसा क्या किया है कि इस दौर के धुरंधर और नामी पत्रकार ऋण उतारते से प्रतीत होते हैं?



पिछले दौर की तो देखी नहीं, जो सुनी उसमें किस्से कहानियाँ अधिक हैं. भारत किस्सागोई का देश है. और अगर पत्रकार हो तो फिर कहने ही क्या. पत्रकार किस्सों की किताब लिखता रहता है सुबह से शाम. आईएनएस से प्रेस क्लब और नोएडा के अट्टों चौहट्टों तक. जब मिलो एक नया किस्सा. आम आदमी को लगता है कि पत्रकार है तो जो बोलेगा वह सही बोलेगा लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता. कम से कम जब वह अपने लोगों के बारे में बात करता है तो शायद ही कभी सही और सटीक बात करे. इसे आप पत्रकारिता की त्रासदी भी मान सकते हैं कि पत्रकार भी किस्सागोई करता है, पर यही सच है. भारतीय पत्रकारिता के लिए प्रभाष जोशी भले ही न मिटनेवाली नाम पट्टी हो लेकिन हिन्दी पत्रकारों के लिए यह नाम किस्सागोई का दूसरा नाम है. न जाने कितनी कहानियाँ और न जाने कितने प्रसंग. अब तो पाठक भी पत्रकार को लेखनी से कम उनकी मिथकीय चर्चाओं से अधिक जानते हैं. किसी जमाने में एक अखबार निकला था जनसत्ता. वह आज भी निकल रहा है. उस जमाने में प्रभाष जोशी नामक एक आदमी ने इतिहास लिख दिया था. दिल्ली से बाहर पूरे देश में कालेज के हास्टल से लेकर गाँव की पगडंडियों तक अखबार का दूसरा नाम जनसत्ता ही होता था. जैसे आजकल मुंबई के नौजवान अंग्रेजी का मिड-डे अखबार सिर्फ इसलिए खरीदते हैं ताकि वे अपने संगी साथियों के बीच साबित कर सकें कि वे मिड-डे पढ़ते हैं वैसे ही पिछले दौर में जनसत्ता ने अपना मुकाम हासिल किया था. ऐसा वक्त भी आया कि अखबार को लिखना पड़ा कि अब और नहीं छाप सकते.



अखबार की इस बुलंदी के पीछे बस यही एक नर्बदा का सपूत खड़ा था जिसने साहित्यकारों को बिना किनारे किये पत्रकारिता को स्थापित कर दिया. अस्सी और नब्बे के दशक ऐसे दशक थे जब हिन्दी पत्रकारिता का अर्थ ही होता था-साहित्यिक शुद्धि. आश्चर्य होता है कि पत्रकारिता के इतने लंबे अनुभव के बाद भी भारतीय पत्रकारिता में साहित्य के बिना पत्रकारिता की कल्पना नहीं की गयी थी. लेकिन प्रभाष जोशी ने कांकर पाथर का ऐसा प्रयोग किया कि नामवर सिंह उनके अजीज और अग्रज बने रहे लेकिन पत्रकारीय भाषा से लालित्य बोध का आग्रह समाप्त हो गया. जब जनसत्ता निकला तो तकनीक का ऐसा व्यापक प्रभाव नहीं था जैसा आज है. इसलिए शब्द ब्रह्म और नाद की कोटि में विराजते थे. उन शब्दों को खड़खड़ करते किसी सांचे में उतारकर पान की दुकान और साहित्यकार के भवन में एक साथ स्थापित कर देने का काम प्रभाष जोशी ने ही किया. इन बातों का ज्यादा अर्थ तब समझ में नहीं आता जब आप सिर्फ सूचनाओं के लेन-देन में ही व्यस्त रहते हैं. लेकिन जैसे ही आपको यह आभास होता है कि सूचना सीधे तौर पर संवेदनाओं से जुड़ी हुई है तो भाषा का आग्रह पूर्वाग्रह होने लगता है. इन दो पाटों के बीच पत्रकारिता को सही सलामत अपनी मंजिल तक पहुँचा देना तब चुनौती थी, अब भी है बस संदर्भ और शब्द बदल गये हैं.



ऐसे प्रभाष जोशी के पिछले कई सारे जन्मदिन चुपचाप ही देखता रहा हूँ. किस्से भी सुनता रहा हूँ और कई अवसरों पर मिलता भी रहा हूँ. अभी भी मेरा उनके साथ कोई प्रगाढ़ संबंध हो गया हो ऐसा नहीं है. प्रगाढ़ता की जरूरत भी नहीं है. प्रभाष जोशी ने भारतीय पत्रकारिता में हिन्दी को जनसत्ता के जरिए जो विश्वसनीयता दिलाई उसका कुछ तो फायदा हम जैसे नौसिखिए पत्रकारों को भी मिल रहा है. इतना ऋण तो कोई भी पत्रकार उनका मानेगा ही कि कहीं किसी प्रभाष जोशी नामक आदमी ने एक अखबार के जरिए कुछ प्रयोग किये जो आनेवाली कई पीढियों के लिए मशाल रूप में विद्यमान रही. भाषा के सामने जैसी चुनौती आगे दिखाई देती है उसमें प्रभाष जोशी का यह काम और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. हमारी संपर्क भाषा का विस्तार किस ओर हो? नीचे जड़ की ओर या फिर ऊपर आसमान की ओर? हमारी संपर्क भाषा को पोषण हमारी लोकभाषाओं और बोलियों से मिले या फिर तकनीक के प्रभाव में अचानक ही अबूझ शब्दों की बमबारी से शब्द उठाये जाएँ? यह तय करना पत्रकारिता के लिए बहुत जरूरी होगा. क्योंकि इसी को तय करने के बाद हम तय कर पायेंगे कि हमें काम क्या करना है? पत्रकारिता करनी है तो किसकी, कैसे और किस रूप में? विदेशी शब्द हमारी जड़ों को वह आवाज नहीं दे सकते जो मुद्दा बन जाएँ. जड़ों में दबे हुए शब्द जो पोषण दे रहे हैं हम न जाने क्यों उससे जानबूझकर कटना चाहते हैं. जवाब आपको भी तलाशना है.


ऐसे प्रभाष जोशी की किस्सागोइयों में जाने की जरूरत नहीं है. मिथकों की किंवदंतियाँ बनती ही हैं. उनके साथ भी ऐसा ही है. स्याह सफेद के अलौकिक आवरण में ब्रह्माण्ड लिपटा हुआ है. फिर यहाँ तो हम सब लौकिक जीवन जी रहे हैं. क्षण भर की चेतना लेकर आये हैं और अगले क्षण विदा हो जाएँगे. ब्रह्माण्ड के अनंत आकाशगंगाओं में जुगनुओं की कोई बिसात होती है क्या? पल में प्रकाश और पल में अंधेरा. लेकिन मनुष्य देह में यह पल प्रतिपल का खेल ब्रह्माण्ड की इस अद्भुद रचना धरती का इतिहास लिखती है. कलम की स्याही और शब्दों की साधना आनेवाले कल के अखबार और सूचना तंत्र को हमसे जोड़ती है. वेद कितेब तो रोज दरवाजे पर चलकर नहीं आते लेकिन अखबार आते हैं. उन अखबारों में वही शब्द लिखे होते हैं जिन्होंने बेद कितेब को कालजयी जीवनसूत्र का मार्गदर्शक बना दिया है. जब कोई अनहद को सुनता है तो वही शब्द वहाँ भी नाद रूप में प्रकट होते हैं. तब समझ में आता है कि कल के अखबार और परसों की पत्रिका में जिन शब्दों को सूचना प्रसारण के लिए इस्तेमाल किया गया है वह भी ध्वनियाँ उत्पन्न करेंगे. प्रभाव पैदा करेंगे और मनुष्य के मन में ही नहीं वातावरण में भी तरंगे उठायेंगे. उन तरंगो का समाज और जीवन पर प्रभाव होगा जिसके लिए आखिरकार शब्द ही जिम्मेदार होंगे. सूचना लेने देने के कठोर और नीरस कार्य में प्रभाष जोशी ने अनहद का जो प्रभाव पैदा किया है वह पूरी पत्रकारिता के लिए बेद कितेब है.



यह कहना तो काल के नियम के खिलाफ होगा कि अगले तिहत्तर साल बाद भी प्रभाष जोशी रहेंगे ही. लेकिन तिहत्तर साल बाद भी बहुत कुछ रहेगा. दिल्ली की ये सड़कें रहेगीं, ईंट पत्थरों के ये भवन रहेंगे, अखबार रहेंगे और अखाबारों में काम करनेवाले पत्रकार भी रहेंगे. शायद उनमें से कोई कभी यह किस्सागोई छेड़ दे कि एक प्रभाष जोशी थे..........हिन्दी के पत्रकार.........तब शायद किस्सागोई भी पत्रकारिता का पाठ बन जाएगा. इस जुगनू का आकाशगंगाओं के बीच बस यही इतना योगदान है. क्या यह कम है?


व्यंग्य का समय

 
परत-दर-परत


व्यंग्य का समय

राजकिशोर
हमारे हाजी साहब बहुत काम के आदमी हैं। उनसे किसी भी विषय पर राय ली जा सकती है और वे किसी भी विषय पर टिप्पणी कर सकते हैं। सुबह-सुबह पढ़ा कि दिल्ली की हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष एक व्यंग्यकार को बनाया गया है, तो उनके पास दौड़ गया। हाजी साहब की एक खूबी और है। कई बार वे मन की बात भाँप लेते हैं। उन्होंने ठंडे पानी के गिलास से मेरा स्वागत किया और बोले, ‘बैठो, बैठो। मैं समझ गया कि कौन-सी बात तुम्हें बेचैन कर रही है।’ मैंने आपत्ति की, ‘हाजी साहब, मैं किसी राजनीतिक मामले पर चरचा करने नहीं आया हूँ।’ हाजी साहब – ‘हाँ, हाँ, मैं भी समझता हूँ कि तुम जी-5, जी-8 और जी-14 पर बात करने नहीं आए हो। ये पचड़े मेरी भी समझ में नहीं आते। इस तरह सब अलग-अलग बैठक करेंगे, तो संयुक्त राष्ट्र का क्या होगा? कुछ दिनों के बाद तो वहाँ कुत्ते भी नहीं भौंकेंगे। लेकिन तुम आए हो राजनीतिक चर्चा के लिए ही, यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ।’ मुझे हक्का-बक्का देख कर उन्होंने अपनी बात साफ की, ‘तुम्हें यही बात परेशान कर रही है न कि हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष पहली बार एक व्यंग्यकार को बनाया गया है!’


मैं विस्फारित नेत्रों से उनकी ओर देखता रह गया। वे बोले जा रहे थे, ‘बेटे, यह मामला पूरी तरह से  राजनीतिक है। यह तो तुम्हें पता ही होगा कि दिल्ली की मुख्यमंत्री ही यहाँ की हिन्दी अकादमी की अध्यक्ष हैं। वे साहित्यकर्मी नहीं, राजनीतिकर्मी हैं। साहित्यकर्मी होतीं, तो इस प्रस्ताव पर ही उनकी हँसी छूट जाती। राजनीतिकर्मी हैं, सो आँख से नहीं, कान से देखती हैं। उनके साहित्यिक सलाहकारों ने कह दिया होगा कि इस समय एक व्यंग्यकार से ज्यादा उपयुक्त कोई अन्य व्यक्ति नहीं हो सकता। मुख्यमंत्री जी ने बिना कुछ पता लगाए, बिना सोचे-समझे ऑर्डर पर हस्ताक्षर कर दिए होंगे। इसमें परेशान होने की बात क्या है? बेटे, दुनिया ऐसे ही चलती है। हमारा राष्ट्रीय मोटो भी तो यही कहता है - सत्यमेव जयते। आज का सत्य राजनीति है। सो राजनीति ही सभी अहम चीजों का फैसला करेगी। वाकई कुछ बदलाव लाना चाहते हो, तो तुम्हें राजनीति ज्वायन कर लेना चाहिए।’


मेरे मुँह का स्वाद खट्टा हो आया। मैंने यह तो सुना था कि साहित्य में राजनीति होती है, पर यह नहीं मालूम था कि राजनीति में भी साहित्य होता है। आजकल राजनीति की  मुख्य खूबी यह है कि मेसेज छोड़े जाते हैं और संकेत दिए जाते हैं।
    हाजी साहब से पूछा, ‘फिर तो आप कहेंगे कि एक शीर्ष व्यंग्यकार के हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने में भी कुछ संकेत निहित हैं !’ हाजी साहब ने मुसकराते हुए कहा, ‘तुम मूर्ख हो और मूर्ख ही रहोगे। संकेत बहुत स्पष्ट है कि यह व्यंग्य का समय है। पहले दावा किया जाता था कि यह कहानी का समय है, कोई कहता था कि नहीं, कविता का समय अभी गया नहीं है, तो कोई दावा करता था कि उपन्यास का समय लौट आया है। हिन्दी अकादमी का नया चयन बताता है कि यह व्यंग्य का समय है। व्यंग्य से बढ़ कर इस समय कोई और विधा नहीं है।’


मैंने अपना साहित्य ज्ञान बघारने की कोशिश की, ‘हाजी साहब, आप ठीक कहते हैं। आज हर चीज व्यंग्य बन गई है। हिन्दी में तो व्यंग्य की बहार है। कविता में व्यंग्य, कहानी में व्यंग्य, उपन्यास में व्यंग्य, संपादकीय टिप्पणियों में व्यंग्य -- व्यंग्य कहां नहीं है? एक साहित्यिक पत्रिका ने तो अपने एक विशेषांक के लेखकों का परिचय भी व्यंग्यमय बना दिया था। क्या इसी आधार पर आप कहना चाहते हैं कि व्यंग्य इस समय हिन्दी साहित्य की टोपी है -- इसके बिना कोई भी सिर नंगा लगता है। शायद इसीलिए सभी लेखक एक-दूसरे पर व्यंग्य करते रहते हैं। कभी सार्वजनिक रूप से कभी निजी बातचीत में।’

हाजी साहब बोले, ‘तुम कहते हो तो होगा। पर मेरे दिमाग में कुछ और बात थी। हिन्दी में तो दिल्ली शुरू से ही व्यंग्य का विषय रही है। इस समय मुझे दिल्ली पर दिनकर जी की कविता याद आ रही है - वैभव की दीवानी दिल्ली ! /  कृषक-मेध की रानी दिल्ली ! / अनाचार, अपमान, व्यंग्य की / चुभती हुई कहानी दिल्ली ! डॉ. लोहिया ने लिखा है कि दिल्ली एक बेवफा शहर है। यह कभी किसी की नहीं हुई। पूरा देश दिल्ली की संवेदनहीनता पर व्यंग्य करता है। लेकिन दिल्ली पहले से ज्यादा पसरती जाती है। हड़पना उसके स्वभाव में है। इसी दिल्ली में कभी हड़पने को ले कर कौरव-पांडव युद्ध हुआ था। इसलिए अगर आज दिल्ली में व्यंग्य को इतना महत्व दिया जा रहा है, तो इसमें हैरत की बात क्या है? तुम भी मस्त रहो और जुगाड़ बैठाते रहो। यहाँजुगाड़ बैठाए बिना जीना मुश्किल है।’


मैंने कहा, ‘हाजी साहब, लगता है, आज आपका मूड ठीक नहीं है। मुझ पर ही व्यंग्य करने लगे ! मेरा जुगाड़ होता, तो मैं मुँह बनाए आपके पास क्यों आता?’ हाजी साहब – ‘नहीं, नहीं, मैं तुम्हें अलग से थोड़े ही कुछ कह रहा था। मैं तो तुम्हें युग सत्य की याद दिला रहा था। हर युग का सत्य यही है कि युग सत्य को सभी जानते हैं, पर उसे जबान पर कोई नहीं लाता। अपनी रुसवाई किसे अच्छी लगती है?’

मैंने हाजी साहब का आदाब किया और चलने की ख्वाहिश जाहिर की। हाजी साहब का   आखिरी कलाम था – ‘आदमी की  फितरत ही ऐसी है। फर्ज करो, तुमसे पूछा जाता कि जनाब, आप हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष बनेंगे, तो क्या तुम इनकार कर देते? क्या तुम यह कहने की हिम्मत दिखाते कि ‘मुआफ कीजिए, दिल्ली में बड़े बड़े काबिल लोग बैठे हैं। मैं तो उनके पाँवों की धूल हूँ। मुझसे पहले उनका हक है।’ आती हुई चीज को कोई नहीं छोड़ता। यहाँ तो लोग तो जाती हुई चीज को भी बाँहों में जकड़ कर बैठ जाते हैं। और जब आना-जाना किसी नियम से न होता हो, तो अक्लमंदी इसी में है कि हवा में तैरती हुई चीज को लपक कर पकड़ लिया जाए। सागर उसी का है जो उठा ले बढ़ाके हाथ।’  

बुर्के से क्‍यों डरता है फ्रांस

 
 
 
बुर्के से क्‍यों डरता है फ्रांस
    डॉ. वेदप्रताप वैदिक
 



बुर्के के पक्ष में जितने तर्क हो सकते हैं, उससे कहीं ज्यादा उसके विरूद्घ हो सकते हैं लेकिन बुर्के पर प्रतिबंध लगाने का तर्क काफी खतरनाक मालूम पड़ता है। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सारक़ोजी यदि अपनेवाली पर उतर आए तो कोई आश्चर्य नहीं कि वे बुर्का-विरोधी कानून पास करवा ले जाएँगे।बुर्के पर प्रतिबंध लगानेवाले सारकोजी पहले समाज सुधारक नहीं हैं। अब से लगभग 85 साल पहले तुर्की के महान नेता कमाल पाशा ने बुर्के पर प्रतिबंध ही नहीं लगाया था बल्कि कहा था कि केवल वेश्याएँ ही बुर्का ओढ़ें। भले घर की औरतें अपना चेहरा क्यों छुपाएँ ? मिस्र की प्रसिद्घ समाज-सुधारिका हौदा चाराउई ने अपनी सैकड़ों सहेलियों के साथ मिलकर बुर्के का बहिष्कार किया और 1923 में समारोह-पूर्वक सारे बुर्के समुद्र में बहा दिए। 1927 में सोवियत उज़बेकिस्तान में लगभग एक लाख मुस्लिम महिलाओं ने बुर्के के बहिष्कार की शपथ ली थी। 1928 में अफगानिस्तान के साहसी बादशाह अमानुल्लाह की पत्नी महारानी सुरय्रया ने खुले-आम बुर्का उतार फेंका था। 1936 में ईरान के रिज़ा शाह पहलवी ने भी बुर्के या चादर पर प्रतिबंध लगा दिया था। ये मिसाले हैं, मुस्लिम राष्ट्रों की लेकिन यूरोपीय राष्ट्रों ने भी इस दिशा में पहले से कई कदम उठा रखे हैं।



     2004 में फ्रांस ने कानून बनाया कि स्कूलों में छात्राएँ और शिक्षिकाएँ न तो बुर्का पहन सकती हैं और न चेहरे पर स्कार्फ लपेट सकती हैं। जर्मनी के अनेक शहरों में इसी तरह के प्रतिबंध लागू हैं। बेल्जियम के एक शहर में सड़कों पर कोई औरत बुर्का या नक़ाब पहनकर नहीं निकल सकती। हालैंड के पिछले चुनाव में बुर्का काफी महत्वपूर्ण मुद्रदा बन गया था। ब्रिटेन के स्कूलों को कानूनी अधिकार है कि वे ऐसी अध्यापिकाओं को निकाल बाहर करें, जो अपना चेहरा नक़ाब या बुर्के में छिपा कर आती हैं। 1981 से ट्रयूनीसिया में बुर्के पर प्रतिबंध है। यह भी उत्तर अफ्रीका का मुस्लिम देश है|


     कहने का मतलब यही है कि बुर्के पर प्रतिबंध लगानेवाले सारकोजी पहले नेता नहीं होंगे लेकिन बुर्के पर प्रतिबंध लगाकर न तो वे फ्रांस का भला करेंगे और न ही मुस्लिम औरतों का ! बुर्के से फ्रांस की संस्कृति कैसे चौपट होती है, क्या वे बताएँगे ? बुर्के से फ्रांस की संस्कृति नष्ट होती है और बिकिनी से उसकी रक्षा होती है, यह कौनसा तर्क है ? बुर्का ज्यादा बुरा है या बिकिनी ? बुर्का पहननेवाली औरतें खुद को नुकसान पहुँचाती हैं लेकिन चोली-चड्रडीवाली औरतें सारे समाज को चौपट करती है।| फ्रांस ने औरत को वासना का थूकदान बनाने के अलावा क्या किया है ? फ्रांसीसी समाज में स्वतंत्र्ता और मानव अधिकार के नाम पर औरत मर्दों की उद्रदाम वासना का पात्र बनकर रह गई है। बुर्के पर प्रतिबंध लगाने के पहले बिकिनी पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता ? यदि बुर्का पुरुषों की दमित वासना का पिटारा है तो क्या बिकनी उनकी नग्न-वासना को निमंत्रण नहीं है ?


       सारक़ोजी का यह तर्क भी गलत है कि बुर्का फ्रांस की धर्म-निरपेक्ष व्यवस्था के विरूद्घ है। धर्म-निरपेक्ष या सेक्यूलर होने का अर्थ क्या है ? क्या यह कि जो अपने-जैसा न दिखे, वह सेक्यूलर नहीं है। सेक्यूलर होने के लिए क्या सबको एक-जैसा दिखना जरूरी है ? क्या विविधता और सेक्यूलरिज्म एक-दूसरे के दुश्मन हैं ? यदि बुर्का इस्लाम का प्रतीक है, संप्रदाय-विशेष का प्रतीक है तो टाई क्या है, क्रॉस क्या है, यहूदी-टोपी क्या है ? क्या ये धार्मिक और सांप्रदायिक प्रतीक नहीं हैं ? इन पर प्रतिबंध क्यों नहीं है ? फ्रांसीसी नागरिक होने के बावजूद यदि सिख पगड़ी नहीं पहन सकते तो फ्रांसीसी सरकार आखिर चाहती क्या है ? इसके पहले कि वह फ्रांस के सिखों और मुसलमानों को बदले, वह फ़्रांस को ही बदल डालेगी। यह प्रतिबंधोंवाला फ्रांस लोकतांत्रिक नहीं, फाशीवादी फ्रांस बन जाएगा। फ्रांसीसी राज्य क्रांति अब शीर्षासन करती दिखाई पड़ेगी। सारकोजी राबिस्पियर के नए संस्करण बनकर अवतरित होंगे।


   बेहतर तो यह होगा कि मुस्लिम औरतों को बुर्का पहनने की पूरी छूट दी जाए, जैसी कि कैथोलिक सिस्टर्स को शिरोवस्त्र रखने की छूट है। क्या सारकोजी मदर टेरेसा का पल्लू हटवाने की भी हिमाकत करते ? यदि कोई घोर पारंपरिक हिंदू महिला फ्रांस की नागरिक है और वह एक हाथ लंबा घूंघट काढ़े रखना चाहती है तो उसे वैसा क्यों नही करने दिया जाए ? उसके नतीजे वह खुद भुगतेगी। उन्हें कई नौकरियाँ बिल्कुल नहीं मिलेंगी। उन्हें कोई ड्राइवर या पायलट कैसे बनाएगा ? वे शल्य-चिकित्सा कैसे करेंगी ? वे ओलंपिक खेलों में हिस्सा कैसे लेंगी ? वे समाज में मज़ाक और कौतूहल का विषय बनेंगी। वे तंग आकर खुद तय करेंगी कि उन्हें बुर्का या पर्दा रखना है या नहीं। नागरिक को अपने लिए जो फैसला करना चाहिए, वह अधिकार सरकार क्यों हथियाना चाहती है ?



     इस पहल के पीछे सारकोज़ी का इरादा कुछ और ही हो सकता है| वे बुर्के से नहीं, मुसलमानों से डर रहे होंगे। अल्जीरिया, तुर्की, ईरान आदि देशों से आकर फ्रांस में बसे 30-40 लाख मुसलमानों ने अपनी आवाज़ में कुछ दम भी पैदा कर लिया है। कुल आबादी का 7-8 प्रतिशत होना मामूली बात नहीं है। अब संसद और मंत्रिमंडल में भी उनके लोग हैं। फ्रांसीसी मुसलमानों ने पिछले कुछ वर्षों में दंगे और आगज़नी में भी जमकर भाग लिया। डेनमार्क में उठे पैगम्बर के कार्टून-विवाद ने सारे यूरोप की नसों में सिहरन दौड़ा दी थी ।फ्रांस को यह डर भी है कि बुर्का आतंकवाद को बढ़ाने में सहायक हो सकता है। बुर्के में छिपा चेहरा किसी का भी हो सकता है, पुरूष आतंकवादी का भी। अल्जीरिया के क्रांतिकारियों ने बुर्के की ओट में कभी काफी धमाके किए थे। ऐसे बुर्काधारियों पर सरकार कड़ी निगरानी रखे, यह जरूरी हैं लेकिन उन पर प्रतिबंध लगाने की कोई तुक नहीं है। कुल 30 लाख मुसलमानों में औरतें कितनी हैं और उनमें भी बुर्केवालियाँ कितनी होंगी ? कुछेक हजार बुर्केवाली औरतों पर निगरानी रखने के लिए सारक़ोजी अपने लोकतंत्र को फाशीवादी राज्य में क्यों बदलना चाहते हैं ? फ्रांस अपने आपको सउदी अरब और ईरान के स्तर पर क्यों उतारना चाहता है ? इन देशों में बुर्का या चादर पहनना अनिवार्य है। यह उलट-प्रतिबंध है। इन राष्ट्रों में औरतों ने लाख बगावत की लेकिन उनकी कोई सुननेवाला नहीं है। यदि फ्रांस अपनी मनमानी करेगा तो इस्लामी जगत की औरतों पर प्रतिबंधों का शिकंजा ज्यादा कसेगा। जो मुस्लिम औरतें बुर्का, चादर, हिजाब आदि को मध्ययुगीन पोंगापंथ मानती हैं, वे भी बुर्के के पक्ष में बोलने लगेंगी। सारक़ोजी अपने दुराग्रह के कारण बुर्के को मजबूत बना देंगे।



सारक़ोजी का दुराग्रह इस्लाम के पुनर्जागरण की बाधा बनेगा| जो मुल्ला-मौलवी कुरान-शरीफ की प्रगतिशील व्याख्या कर रहे हैं और मुस्लिम औरतों को अरबी मध्ययुगीनता से बाहर निकालने की कोशिश कर रहे हैं, सारक़ोजी उन्हें कमज़ोर करेंगे| सारकोजी की पहल के पीछे चाहे कोई दुराशय न हो लेकिन उनका यह कदम बुर्के पर नहीं, इस्लाम पर प्रहार माना जाएगा| विश्व-आतंकवाद के कारण इस्लाम पहले से ही सकपकाया हुआ है| अब सारकोजी का यह कदम उसे हमलावर बनने के लिए उकसाएगा|


 



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