मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में -- डॉ. देवराज

गतांक से आगे


मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में
-- डॉ. देवराज
[२३]

==========================
द्वितीय समरोत्तर मणिपुरी कविता: एक दृष्टि
-----------------------------------------



स्वतंत्रता के बाद पहली बार जब भारत और चीन के सम्बंध बिगड़ने लगे तो देश के अन्य भागों के साथ-साथ मणिपुर के साहित्य में भी बदलाव देखे जा सकते हैं जो उस समय की भारतीय मानसिकता को दर्शाता है। इसी परिप्रेक्ष्य में मणिपुरी कविता के बारे में बताते हैं डॉ. देवराज : "सन १९६० के काल में मणिपुरी भाषा की कविता ने एकदम नए दौर में प्रवेश किया। इसमें कविता की यात्रा यथार्थ से अतियथार्थ की ओर प्रारम्भ हुई। इस बडे़ परिवर्तन का मुख्य श्रेय मोहभंग, धार्मिक प्रतिक्रिया और पाश्चात्य कविता के प्रभाव को है। चीन के साथ युद्ध ने ऐतिहासिक मोहभंग को जन्म दिया, फिर मणिपुरी भाषा ही इससे कैसे बच सकती थी! वस्तुतः चीन के हाथों भारत की पराजय हमारे सैनिक साहस की पराजय नहीं थी, बल्कि वह हमारे राजनीतिक दिवालियेपन की आमन्त्रित पराजय थी। "इन्हीं दिनों बेरोज़गारी, आर्थिक भ्रष्टाचार, नौकरी पाने के लिए विभिन्न रूपों में रिश्वत का प्रचलन तथा पूँजी का केन्द्रीकरण जैसी बातें भी सामने आने लगीं। सरकारी योजनाओं का पैसा बडी़ चालाकी से नेताओं, बडे़ ठेकेदारों और पूँजीपतियों की जेबों में जाने लगा। "सन १९६० के आसपास मणिपुर में एकाएक ब्राह्मणवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया तीव्र हो गई और ‘मैतै मरूप’ आन्दोलन भड़क उठा। वस्तुतः यह आंदोलन सन १९३० में कछार निवासी ‘नाओरिया फुलो’ द्वारा शुरू किया गया था, किन्तु परिस्थितियाँ अनुकूल न होने के कारण यह उस समय फल-फूल नहीं सका। इसका विकास आश्चर्यजनक रूप में अपने जन्म के तीस वर्ष पश्चात हुआ। ‘मैतै मरूप’ आन्दोलन के मूल में यह भावना थी कि वैष्णव परम्परा पर आधरित ब्राह्मणवाद मणिपुरी समाज की हज़ारों वर्ष पुरानी पहचान का विनाशक है, क्योंकि यह मूल मैतै संस्कृति के प्रतीकों, आख्यानों, कथाओं, धार्मिक रीतियों और इतिहास की इस प्रकार प्रतीकधर्मी व्याख्या करता है कि सम्पूर्ण मैतै संस्कृति, हिन्दू संस्कृति के महासमुद्र में विलीन हो जाती है। "इस प्रतिक्रियावाद के पीछे एक ठोस कारण मैतै इतिहास की हिन्दूवादी व्याख्या भी है। आधुनिक ऋषि कहे जाने वाले अतोमबाबू शर्मा मणिपुरी संस्कृति के सम्बन्ध में विचार और शोध करने वाले सबसे पहले व्यक्ति थे। उन्होंने अपने लेखन में मैतै संस्कृति के प्रत्येक पक्ष को हिन्दू संस्कृति की प्रतीकात्मक व्याख्या दी है और व्यक्तियों तथा स्थानों के नामों को संस्कृत मूल से जोडा़ है। ‘मैतै-मरूप’ आन्दोलन इसके पूर्ण विरुद्ध है। इसके संचालकों का मानना है कि ऐसा करके हिन्दू संस्कृति के रक्षक उन्हें उनके पूर्वजों और मूल इतिहास से काट रहे हैं।"


....क्रमशः



प्रस्तुति: चंद्र मौलेश्वर प्रसाद

हिंदी : जो सिर्फ शब्द या अक्षर नहीं है : आलोक तोमर

हिंदी : जो सिर्फ शब्द या अक्षर नहीं है



टीवी की हिंदी पर और खास तौर पर लोकप्रिय चैनलों की हिंदी पर लगातार कई मंचों पर इन दिनों टिप्पणियाँ पढ़ने को मिल रही हैं। आम तौर पर टीवी पर जो भाषा चलती है उसे अगर एक वाक्य में नमूने के तौर पर कहना हो तो - ''विदित हुआ है कि अमुक कुमार ने अपने काम काज के चलते इस शानदार खबर को लिखने को अंजाम दिया है'' यह टीवी की आजकल प्रचलित भाषा है। दरअसल टीवी नया माध्यम तो है ही, अचानक टीवी चैनलों के प्रस्फुटन और विस्फोट ने मीडिया में ग्लैमर और पैसा दोनों ही ला दिया है इसलिए भाई लोग एक वाक्य लिखना सीखें, इसके पहले किसी चैनल के न्यूज रूम में प्रोडक्शन असिस्टेंट से शुरू कर के सहायक प्रोडयूसर से होते हुए प्रोडयूसर और सीनियर प्रोडयूसर तक बन जाते हैं और गलत मात्राएँ लगाने और मुहावरों का बेधड़क बेहिसाब और बेतुका इस्तेमाल करते रहते हैं। चूंकि टीवी एक बड़ा माध्यम भी बन गया है इसलिए जो पीढ़ी बड़ी हो रही है वो यही भाषा हिंदी के तौर पर सीख रही है। यह हिंदी के लिए डूब मरने वाली बात है।


हिंदी चैनलों में अति वरिष्ठ पदों पर जो विराजमान हैं और जिन्हें यह गुमान है कि वे खगोल में सबसे ज्ञानी हैं उन बेचारों को तो ठीक से देवनागरी लिपि पढ़ना नहीं आता। वे 56 का मतलब पूछते हैं और यह जानकर संतुष्ट होते हैं कि लिखने वाले का मतलब फिफ्टी सिक्स है। कई तो ऐसे हैं जिन्हें देवनागरी की बजाय रोमन में पटकथा लिख कर दिखानी पड़ती है। सौभाग्य से ऐसे लोग मनोरंजन चैनलों में ज्यादा हैं और स्टार प्लस के लिए एक चर्चित सीरियल लिखते समय एक ऐसी ताड़का से मेरा वास्ता पड़ चुका है जिनकी जिद थी कि मैं उन्हें रोमन में पटकथा लिख कर दूं। पैसा कमाना था इसलिए रोमन में तो नहीं लिखा लेकिन पूरा एपिसोड शूटिंग के पहले पढ़ कर सुनाना जरूर पड़ा।


एक भाषा हुआ करती थी दूरदर्शन की। यह भाषा राजभाषा थी। दूरदर्शन सरकारी है इसलिए कभी पीआईबी तो डीएवीपी से तबादला हो कर साहब लोग समाचार संपादक बन जाते थे और लिखते थे कि ''प्रधानमंत्री ने एक विराट आम सभा में बोलते हुए आश्वासन दिया है कि वे गरीबी मिटाने के लिए हर संभव यत्न करने का प्रयत्न करेंगे''। अब प्रधानमंत्री की सभा है तो उसे विराट ही लिखना है मगर ''यह बोलते हुए कहा'' का क्या मतलब हैं? क्या प्रधानमंत्री को ''नाचते हुए कहना'' चाहिए था? ''यत्न करने का प्रयत्न'' किस देश-प्रदेश की भाषा है?


चैनलों ने ऐलान किया कि वे बोलचाल की भाषा बोलेंगे। चैनलों की बहुसंख्यक आबादी के अनुसार यह भाषा वही है जो मैक डोनाल्ड, पिज्जाहट और पीवीआर पर बोली जाती है और जिसमें कनॉट प्लेस सीपी है, साउथ एक्सटेंशन साउथ एक्स है और प्रेस कांफ्रेंस पीसी है। इसके बाद एक टकली भाषा का अविष्कार हुआ जिसके केश तो थे ही नहीं, चेहरा भी नहीं था। यह देवनागरी में लिखी हुई अंग्रेजी थी। इससे भी अपना पाला पड़ चुका है। कश्मीर में आतंकवाद कवर करते हुए फोन पर मुझे यह बोलने के लिए बाध्य किया गया- ''मिलिटेंट्स के खिलाफ आर्म्ड फोर्सेज के एक्शन में अभी तक किसी कैज्युअल्टी की न्यूज नहीं है'' और ''क्रॉस फायरिंग की वजह से विलेजिज को वैकेट करवाया जा रहा है''। दाल रोटी का सवाल था इसलिए यह भी बोला।


मगर सौभाग्य से अब समाचार चैनल भाषा के प्रति सचेत होते जा रहे हैं। जी न्यूज में पुण्य प्रसून वाजपेयी, एनडीटीवी में प्रियदर्शन और अजय शर्मा, जी में ही अलका सक्सेना और एनडीटीवी में ही निधि कुलपति, आईबीएन-7 में आशुतोष और शैलेंद्र सिंह की भाषा उस तरह की है जिसे टीवी की आदर्श वर्तनी के सबसे ज्यादा करीब माना जा सकता है। सीएनईबी के राहुल देव ने तो बाकायदा चमत्कार किया है। तत्सम, तद्भव, अनुप्रास, रूपक और ध्वनि सौंदर्य से भरी समाचारों की एक नई भाषा का अविष्कार वहाँ हुआ हैं और अब लोग कान लगा कर ध्यान देने लगे हैं।


मैं इस बात के लिए तत्पर और तैयार हूँ कि जल्दी ही मित्र लोग गुमनाम या फर्जी नामों से टिप्पणियाँ करेंगे कि चूंकि मैं सीएनईबी में खुद काम करता हूँ इसलिए राहुल देव का चारण बनना मेरी नियति है। अब इसका क्या किया जाए कि राहुल देव अंग्रेजी और हिंदी दोनों के पत्रकार हैं और दोनों भाषाएँ उन्होंने साध भी रखी हैं। वे अंग्रेजी के बड़े अखबार से निकल कर हिंदी की एक बड़ी पत्रिका और फिर हिंदी के एक मानक अखबार के संपादक भी रहे और महाबली आज तक में सुरेंद्र प्रताप सिंह के उत्तराधिकारी भी। आज तक में वे कैसी भाषा बोला करते थे, मुझे पता नहीं क्योंकि उन्होंने आज तक में माँगने पर भी मुझे नौकरी नहीं दी थी और मैंने आज तक देखना बंद कर दिया था।


मगर राहुल देव और सीनएईबी के बहुत पहले अमिताभ बच्चन ने ''केबीसी यानी कौन बनेगा करोड़पति'' के जरिए इतिहास लिख दिया था। इसी के जरिए उन्होंने यह भी स्थापित किया था कि सीधी सरल और सपाट लेकिन संवाद में सफल हिंदी कैसे लोगों के आत्मा के तंत्र को छूती हैं। अन्नू कपूर अंताक्षरी में यह प्रयोग सफलतापूर्वक कर चुके थे लेकिन उनकी बाकी नौटंकियों के कारण इस पर किसी का ध्यान नहीं गया। हाल के वर्षों में आशुतोष राणा ने भी हिंदी को और प्रांजल हिंदी को स्थापित किया है।


सिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र बहुत वर्ष पहले लिख गए हैं- ''जिस तरह तू बोलता है, उस तरह तू लिख और उसके बाद भी सबसे बड़ा तू दिख''। भवानी भाई की इन पक्तियों को प्रेरणा के तौर पर लेते हुए इसमें बस इतना और जोड़ना हैं कि माध्यम चूंकि नाटकीय गति का हैं और टीवी की भाषा में अगर ध्वनि सौंदर्य नहीं हो तो दृश्य भी लगभग मर से जाते हैं। इसलिए प्रवाह और संप्रेषण के अलावा आज की टीवी की हिंदी को कहीं मोहन राकेश, कहीं कमलेश्वर और कहीं सलीम जावेद से प्रेरणा लेनी ही होगी।


एक बात मैंने ध्यान की है कि जब भी मैं हिंदी पर लिखता हूँ, और यह कहने के लिए मुझे किसी अनाम भाषा वैज्ञानिक के प्रमाण पत्र की कतई आवश्यकता नहीं हैं कि मैं बहुतों से बेहतर हिंदी लिखता हूँ, तो पता नहीं कहाँ-कहाँ से कुकरमुत्तों की तरह मेरे मित्र उग आते हैं और मुझे याद दिलाते हैं कि मुझे हिंदी में पहले दर्जें में स्नातकोत्तर होने के बावजूद भाषा विज्ञान और भाषाओं के मूल का पता नहीं हैं। उनसे निवेदन हैं कि भाषाओं का मूल वे हल्दी की गाँठ की तरह अपने पिटारे में सँजो कर रखें और टिप्पणी तभी करें जब उन्हें मेरी भाषा समझ में नहीं आए। यह चेतावनी नहीं, सूचना है।

कवि हरिवंश राय बच्चन की कुछ पक्तियाँ अमिताभ बच्चन के ब्लॉग से -

शब्द ही के

बीच से दिन-रात बसता हुआ

उनकी शक्ति से, सामर्थ से-

अक्षर-

अपरिचित मैं नहीं हूं।

किंतु सुन लो,

शब्द की भी,

जिस तरह संसार में हर एक की,

कमजोरियां, मजबूरिया हैं-

शब्द सबलों की सफल तलवार हैं तो,

शब्द निबलों की नपुंसक ढाल भी है।


साथ ही यह भी समझ लो,

जीव को जब जब

भुजा का एवजी माना गया है,

कंठ से गाना गया हैं।




- आलोक तोमर

कविता की जातीयता* - प्रभाकर श्रोत्रिय -

पुस्तक चर्चा


'कविता की जातीयता'*
- प्रभाकर श्रोत्रिय -




'जातीय' यहाँ 'राष्ट्रीय' का पर्याय है, परंतु यह राष्ट्र ‘नेशन’ नहीं है। जातीय या राष्ट्रीय का गहरा सांस्कृतिक अर्थ है, जो भौगोलिक या राजनीतिक से अधिक सांस्कृतिक है। इस ग्रन्थ की लेखिका डॉ. कविता वाचक्नवी ने राष्ट्र को परिभाषित करते हुए लिखा है- "जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं, उसके तत्त्वों का अन्वेषण भारतीय जातीयता की व्याख्या करने में समर्थ होगा। " डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने राष्ट्र के तीन घटक माने हैं- भूमि, जन और संस्कृति। इनमें से किसी एक की भी अनुपस्थिति में राष्ट्र की कल्पना संभव नहीं है। भारतीय राष्ट्र में ‘भूमि’ के अंतर्गत, वर्तमान राजनीतिक और भौगोलिक सीमा से बाहर ऐसे भूखण्डों का समावेश भी किया जाता है जो परंपरा से उसके अंग रहे हैं और उसके सांस्कृतिक परिसर में आते हैं, परंतु बाद के दौर में किन्हीं राजनीतिक-भौगोलिक या अन्य कारणों से अलग जा पडे़ हैं। यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि बृहत्तर भारत की अवधारणा उन भागों का अधिग्रहण करने की आकांक्षा नहीं है। [न दूर दूर तक इसकी कल्पना है] क्योंकि वृहत्तर अर्थ में ‘राष्ट्रीयता’ अधिकार का कोई दावा नहीं, वह सांस्कृतिक जुडा़वों की एक अमूर्त संहिति है।


संस्कृति हमारे लिए दार्शनिक, आध्यात्मिक, नैतिक, कलात्मक और प्रवृत्तिगत संसार की अनुगूँज है। वह मूलतः मनुष्य से, प्रकृति से, धर्म से, मूल्य से, आत्मा से, समाज से, विश्व से हमारे संबंधों की प्रकृति सूचित करती है। [इस सूची को बढा़या जा सकता है] अर्थात हमारे अन्तर्सम्बन्धात्मक -बोध और मूल्य-संकल्पना का स्वभाव या प्रकृति क्या है! इसे पहचान कर हम देशों, संस्कृतियों या राष्ट्रों को समझ सकते हैं।




उदाहरण के लिए पश्चिम प्रकृति से मनुष्य के संबंध द्वन्द्वात्मक मानता है। वह प्रकृति पर विजय पाने का लक्ष्य रखता है, जबकि भारत प्रकृति को चिति का स्वरूप मानते हुए प्रणत होता है। धर्म को वह किसी एक समुदाय या पूजा विधि में केन्द्रित न मानते हुए उसकी बहुलता को मान्यता देता है। वह धर्म का अर्थ अभ्युदय और कल्याण की प्राप्ति मानता है। मनुष्य और समाज के बीच द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों को मान्यता न देते हुए वह समूह या समाज से व्यक्ति की लयात्मकता को मान देता है। विश्व से उसके संबंध में आत्मविजय का भाव न होकर ग्रहण और सामंजस्य का भाव है। उसकी चाहत है-‘आ नो भद्राः क्रतवो यंतु विश्वतः -’संसार का जो भी श्रेष्ठ है, भद्र है उसे मैं अपना बना लूँ। यह ग्रहण है अधिग्रहण नहीं; जिसके कारण देव जाति नष्ट हो गई थी। जयशंकर प्रसाद ने लिखा है कि देवताओं को सब कुछ स्वायत्त था- ‘बल, वैभव, आनंद अपार’, परंतु परिणाम क्या हुआ? समूल विनाश। सब कुछ को स्वायत्त करने में नहीं, सब कुछ के श्रेष्ठ ग्रहण में ही कल्याण निहित है। आत्मा से भी भारतीय मनुष्य का संबंध अहम् भाव का अनुभव नहीं है, सर्वात्मवाद को वह अपनी शिराओं में पाता है - सबका विकास, सबका उन्नयन, सबका आनन्द भारतीय स्वभाव की मूल संस्कृति है।



भारत के भौगोलिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक चरित्र में सामासिकता है, जिसके केन्द्र में है सहिष्णुता, जिसे नरेश मेहता, ‘वैष्णवता’ कहते हैं | वैष्णवता का मूल करुणा है। गाँधी की प्रार्थना में था ‘वैष्णवजन तो तेणे कहिए जे पीर पराई जाणे रे’। वैष्णवी भारत एक सहिष्णु, संवेदनशील, सामासिक भारत है, संगम जिसका स्वभाव है। विश्वभर में क्या कहीं ‘संगम’ को पावन मान कर पूजा जाता है? संगम भारत की सामासिकता की बोध-भूमि है। संस्कृति प्रकारांतर से हमारी सर्जनात्मक चेतना है जिसमें सौन्दर्य, गतिशीलता, उर्वरता, संवेदनशीलता और कल्पनाशीलता है। वह भारत के लिए जड़ प्रत्यय नहीं है और जिनके लिए है वे शायद भारत और भारतीय संस्कृति की आत्मा से परिचित नहीं हैं। भारत की संस्कृति का निर्माण, नीति के उपदेशों या धर्म ग्रंथों से नहीं, काव्य ग्रन्थों से हुआ है। रामायण महाभारत तो सांस्कृतिक अवबोधन के काव्य हैं ही, वेद भी एक अर्थ में महान काव्य है। इसलिए भारतीयता का संधान भारतीय काव्य में करना एक सार्थक कार्य है।




डॉ. कविता वाचक्नवी ने अपने पर्यालोचन के लिए जातीयता की संकल्पना की दृष्टि से आधुनिक हिन्दी कविता को चुना है। बीसवीं शती के प्रारम्भ से लगभग ९वें दशक तक के कवियों को इसमें सम्मिलित किया गया है। यह समयावधि निरंतर लंबी हुई है क्योंकि समय की गति निरंतर तीव्र होती गई है और इसी गति से कविता भी बढ़ी है। भारतेंदु से लेकर उदय प्रकाश तक के काव्य-समय ने कितने परिवर्तन देखे हैं। इसलिए कदाचित भारतीयता की अभिव्यक्ति को किसी एक ढांचे में ढालना संभव नहीं हुआ है। भारतेंदु के समय में भारतीयता किस सामयिकता और सांस्कृतिक अवधारणा में व्यक्त हुई है, फिर मैथिलीशरण गुप्त और अन्य राष्ट्रीय भावधारा के कवियों में भारतीयता का क्या स्वरूप रहा है? छायावादी युग, प्रगतिवादी युग, नई कविता और उत्तरकाव्य में भारतीयता किस रूप में उपस्थित है? यह सब देखना सरल काम नहीं है। इसके विवेचन में सर्वसमावेशिता का आग्रह प्रायः रहा है। आशय यह कि ऐसी समस्त बातें यदि हम भारतीयता के भीतर समाहित करते चले जाएँ जो युगानुरूप रचनाओं की विषय-वस्तु रही हैं तो स्वयं राष्ट्रीयता या भारतीयता के अपरिभाषेय होने का संकट बना रहता है। तब यह जानना दूभर हो जाता है कि हमारा आशय राष्ट्रीयता या जातीयता से क्या है और वह कौन-सा काव्य है जिसे हम इसके बाहर रखते हैं? कविता जी को इस समस्या का सामना करना पडा़ है। संभवतः इसीलिए उन्होंने भारतीयता का केनवास काफी विशाल रखा है।




आधुनिक युग की एक दूसरी समस्या यह है कि हम जैसे-जैसे आधुनिकता से उत्तर आधुनिकता और पराआधुनिकता की ओर बढ़ते जा रहे हैं, हमारे संबंध अपनी जातीय विरासत से खिसकते चले जा रहे हैं। ऐसे में यह अपरिहार्य लगता है कि हम नए सिरे से एक ओर तो विरासत की व्याख्या करें और दूसरी ओर अपने व्यवहार की समीक्षा भी करें। क्या कारण है कि नई पीढी़ अपनी विरासत से तो परायापन अनुभव करे जबकि पश्चिम से आती विचारधाराओं या विचारों को अपनाते हुए उसे ही आधुनिकता का पर्याय मानने लगे। यानी दूसरों की विरासत तो नई और अपनी विरासत पुरानी। इस अंतर्विरोध की गंभीर समीक्षा की जानी चाहिए। शायद इनके बीच से ही आधुनिकता का मार्ग प्रशस्त हो सकता है और साहित्य और जातीयता के गतिशील संबंधों की सर्जनात्मकता पहचानी जा सकती है तथा समय की आँधियों में बह जाने वाले समूह से अलग साहित्य का एक नया रचनात्मक पाठ बनाने की पहल की जा सकती है।




डॉ. वाचक्नवी के इस ग्रन्थ की विशेषता यह भी है कि उन्होंने साहित्य और जातीयता के पारंपरिक संबंधों को पहचानते हुए भी इस संबंध को गतिशीलता दी, उनका यह काम किसी हद तक नवीनतम जीन्स प्रौद्योगिकी के अनुरूप ही है जो जीन्स और डीएनए में वंश, जाति, देश आदि के तत्वों की उपस्थिति सिद्ध कर चुकी है। इसी प्रक्रिया में वह विकास की पुष्टि करती है। यह ध्यातव्य है कि संसार में सब कुछ चलित है, यदि आधुनिकता की अवधारणा गतिशील है तो जातीयता की अवधारणा भी गतिशील है। इसी पारस्परिक गतिशीलता में जातीयता और आधुनिकता की प्रीतिकर सन्निधि पहचानने की कोशिश ही इस ग्रंथ का प्रयोजन भी है और चुनौती भी।




जैसे भाव की चिरंतन उपस्थिति होने पर भी भावात्मक संबंधों की प्रणालियाँ बदलती रहती हैं, वैसे ही राष्ट्रीयता की चेतना बनी रहने के बाद भी समयानुसार राष्ट्र से रचनाकार के संबंधों की प्रणालियाँ बदलती रहती हैं। इसका मोटा उदाहरण यह है कि स्वाधीनता-संग्राम के दौर में कवियों के लिए राष्ट्रीयता या भारतीयता से संबंध का अर्थ अलग था। उस समय व्यक्त राष्ट्रीयता मूर्त और सोद्देश्य थी, जबकि आज़ादी के बाद राष्ट्र से जनता की तरह कवि के संबंध भी बदल गए। इसलिए इस दौर में काव्य में राष्ट्रीयता की पहचान अलग ढंग से हो सकती है। यहाँ आकर राष्ट्रीय, सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक प्रश्नों को वह अपने केंद्र में रखती है। इस युग में राष्ट्रीयता की साहित्य में पहचान कठिन हुई है जो बाद के काल में निरंतर कठिनतर और कठिनतम होती चली गई है, इस हद तक कि लगने लगता है कि इन कवियों में राष्ट्रीयता या जातीयता की खोज एक दकियानूसी सोच है। परन्तु कविता के विन्यास के ऐसे अनेक पक्ष होते हैं, जैसे भाषा, प्रतीक, बिम्ब, रूपक आदि, जिनमें राष्ट्र झाँके बिना नहीं रहता। इसके अलावा राष्ट्रीय सोच बहुत कुछ समकालीन राष्ट्रीय प्रश्नों से जुड़ जाता है। यहीं राष्ट्रीयता और इसके इतर काव्य को पहचानना चुनौती बन जाता है। कभी-कभी यह सरलीकरण का शिकार हो जाता है जो मूल आशय तक पहुँचने की दिक्कतें हैं।




डॉ. वाचक्नवी ने यह बेहतर आँका है कि भारतेंदु युग, राष्ट्रीय काव्यधारा युग और छायावादी युग के स्वाधीनता पूर्व के प्रत्यय अलग प्रणाली और संज्ञा में ढले थे जबकि छायावादोत्तर और उसके भी उत्तर युग में अलग प्रत्यय अलग प्रणाली में ढले हैं। अतीत के आदर्श का स्मरण एक युग की जातीयता थी जिसमें प्रकृति और जीवन की अंतश्चेतना का उद्‌घाटन किया गया था। इसके बाद देश में पसरे शोषित पीड़ितों के अधिकार और स्थिति का संज्ञान लिया गया है। इसके बाद वरण कि स्वाधीनता और भिन्न-भिन्न सूक्ष्म मार्गों की तलाश में निहित अभिव्यक्ति में राष्ट्रीयता थी और वर्तमान में अपने समय, परिवेश, मनुष्यता के बाह्यान्तर में घटित परिवर्तनों को व्यक्त करना भारतीयता माना गया। नितांत आज में जो एक तरफ से भूमण्डलीकरण का दौर कहा जाता है, राष्ट्रीयता की खोज शायद राष्ट्र की ओर से खडे़ होकर प्रतिवाद के स्वर हैं या अन्य प्रकार की निष्पत्तियाँ हैं। समयानुसार बदलते साहित्यिक प्रत्ययों और मुहावरों में जातीयता को परिभाषित करने की इस कोशिश पर ध्यान दिया जाना चाहिए।


मैं डॉ. कविता वाचक्नवी को एक अनिवार्य विषय ['' कविता की जातीयता''] पर हिन्दी पाठक का ध्यान आकर्षित करने और दूर तक राष्ट्रीयता की गतिशीलता को कविता-धाराओं में पहचानने के दुस्तर कार्य को सम्पन्न करने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ। प्रवाहों के बीच एक निष्पक्ष धारणा से मूल्याँकन करने का एक कठिन काम उन्होंने किया है।


( लेखक प्रख्यात आलोचक व पूर्वग्रह के सम्पादक हैं तथा भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक नया ज्ञानोदय के संपादक रहे हैं । )


----------------------------------------------------------------------
*
कविता की जातीयता / डॉ. कविता वाचक्नवी / हिन्दुस्तानी एकेडेमी , १२ डी , कमला नेहरु मार्ग , इलाहाबाद - २११ ००१ / २००९ / २२५ रुपये / पृष्ठ
३६६[सजिल्द].

राष्ट्रीय विचार मंच की काव्यगोष्ठी संपन्न





राष्ट्रीय विचार मंच की काव्यगोष्ठी संपन्न









हैदराबाद, २० मई, 2009

राष्ट्रीय विचार मंच के आंध्र प्रदेश प्रकोष्ठ के तत्वावधान में यहाँ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के संगोष्ठी कक्ष में एक विचार एवं काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता प्रो. टी. मोहन सिंह ने की। टीकमगढ़ (मध्य प्रदेश) से पधारे वरिष्ठ गाँधीवादी कार्यकर्ता और लेखक हरिश्‍चद्र पुष्प मुख्य अतिथि के रूप में तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान के आचार्य डॉ. हेमराज मीणा, वरिष्ठ कवि डॉ. दिवाकर पांडेय तथा प्रतिष्ठित पत्रकार डॉ. रामजी सिंह उदयन विशेष अतिथि के रूप में मंचासीन हुए।

आरंभ में विचार मंच की अध्यक्ष डॉ. कविता वाचक्नवी ने अतिथियों का स्वागत किया और उन्हें अंगवस्त्र से सम्मानित किया। उन्होंने राष्ट्रीय विचार मंच की गतिविधियों के बारे में बताते हुए कहा कि राष्ट्रीय अखंड़ता की चेतना प्रसारित करने के लिए समय-समय पर विचार विमर और रचना पाठ के आयोजन किए जाते हैं तथा दिल्ली से त्रैमासिक पत्रिका ‘विचार दृष्टि’ का प्रकाशन किया जाता है।

‘विचार दृष्टि’ (त्रैमासिक) के दो नए अंकों की सामग्री का विवेचन करते हुए डॉ. बलविंदर कौर ने कहा कि राष्ट्रीयता और वैचारिकता इस पत्रिका की स्थायी विशेषता है। उन्होंने पत्रिका की संपादकीय निर्भीकता और स्पष्ट कथन की विशेष प्रशंसा की।

मुख्य अतिथि हरिश्‍चद्र पुष्प ने अपने संबोधन में हिंदी साहित्य के संवर्धन में अपनी जन्मभूमि बुंदेलखंड के योगदान की चर्चा की। उन्होंने दक्षिण भारत के हिंदी लेखकों के कार्य को इस दृष्टि से विशिष्ट बताया कि उसके माध्यम से हिंदी सही अर्थों में सामासिक संस्कृति की द्योतक बन सकी है।

विचार गोष्ठी के अनंतर संपन्न काव्य गोष्ठी का संचालन प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्यकार वेणुगोपाल भट्टड़ ने किया। प्रो. टी. मोहन सिंह, प्रो. हेम राज मीणा, प्रो. ऋषभदेव शर्मा, प्रो. पी.माणिक्यांबा ‘मणि’, डॉ. दिवाकर पांडेय, डॉ. रामजी सिंह उदयन, डॉ. कविता वाचक्नवी, डॉ. अहिल्या मिश्र, डॉ. पी.सी. जैन, गुरुदयाल अग्रवाल, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, कैलासनाथ, विजयकुमार, भँवरलाल उपाध्याय ‘भँवर’, एस.के.जैन लौंगपुरिया, अभिलाषा राठी, श्रद्धा तिवारी, गायत्री देवी, अर्पणा दीप्ति, पवित्रा अग्रवाल, कैलाशवती, वीर प्रकाश लाहोटी ‘सावन’ और वेणुगोपाल भट्टड़ ने अपनी उपस्थिति और सरस काव्य पाठ द्वारा कार्यक्रम को रोचक और सफल बनाया। डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने धन्यवाद प्रकट किया।


- डॉ. कविता वाचक्नवी
अध्यक्ष, राष्ट्रीय विचार मंच
आंध्र प्रदेश प्रकोष्ठ, हैदराबाद





आने वाला समय हिंदी का है*

पुस्तक समीक्षा








आने वाला समय हिंदी का है*
- ऋषभदेव शर्मा



बहुभाषिकता की दृष्टि से भारत संभवतः विश्व भर में सर्वाधिक विविधताओं और विचित्रताओं वाला देश है। हजारों मातृभाषाएँ यहाँ हजारों साल से बोली जाती हैं। भिन्न भाषा भाषियों के बीच परस्पर संवाद के लिए अलग-अलग स्तरों पर कोई-न-कोई भाषा संपर्क भाषा की जिम्मेदारी निभाती दिखाई देती है। विशाल आर्यावर्त की जिस धार्मिक और सांस्कृतिक एकता की प्रायः चर्चा की जाती है उसका आधार संभवतः ऐसी संपर्क भाषा रही होगी जिसके माध्यम से देश भर में पर्यटन, तीर्थाटन और व्यापार-व्यवसाय करनेवाले परस्पर विचार-विनिमय करते रहे होंगे। पहले संस्कृत और फिर हिंदी के जनपदसुखबोध्य रूप ने यह भूमिका निभाई।


भाषा-संपर्क और संपर्क-भाषा की यह प्रक्रिया बहु-भाषी समाज में हजारों-हजार वर्षों से सहज भाव से चल रही थी। जब-जब कोई भी जन जागरण आंदोलन छिड़ा या किसी भी धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक लोकनायक ने संपूर्ण देश को एक साथ संबोधित करना चाहा, तब-तब उन आंदोलनों और लोकनायकों ने उस काल की संपर्क भाषा को अपनाया। यही आवश्यकता 19वीं-20वीं शताब्दी में स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों ने अनुभव की और निर्विवाद रूप से हिंदी को व्यापक जनसंपर्क के लिए सर्वाधिक समर्थ भाषा के रूप में पाया और स्वीकार किया। महात्मा गाँधी और उनके समकालीनों ने इसीलिए हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की। बाद में भारतीय संविधान में भी भारत की बहुभाषिकता को आठवीं अनुसूची के माध्यम से स्वीकार करते हुए हिंदी को अनुच्छेद 343 से 351 तक के द्वारा सैद्धांतिक रूप से भारत संघ की राजभाषा माना गया। राजनैतिक कारणों से भले ही आज तक उन प्रावधानों को व्यावहारिक रूप न प्राप्त हो सका हो, इसमें संदेह नहीं कि संपूर्ण देश में संपर्क भाषा के रूप में हिंदी सहजतापूर्वक व्यावहारिक स्तर पर प्रचलन में है, स्वीकृत है और नई-नई चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है।


बहुभाषिक समाज में किसी भाषा का संप्रेषण घनत्व सर्वत्र एक जैसा नहीं होता बल्कि एक भाषा क्षेत्र से दूसरे भाषा क्षेत्र के संपर्क में आने के क्षितिजों पर वह काफी बदलता है। फिर भी भारतीय भाषाओं के दो मुख्य परिवारों के जो अनेक रूप उत्तर और दक्षिण में प्रचलित हैं, भाषा संपर्क की प्रक्रिया में उनके बीच काफी लेन-देन होता रहा है। इतना ही नहीं, दोनों वर्गों में संस्कृत से आए अर्थात् सम-स्रोतीय शब्दों का प्रतिशत बहुत बड़ा है। सम-स्रोतीय शब्दावली का यह प्राचुर्य यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि मूलतः आर्य और द्रविड भाषाएँ सजातीय हैं। इस सजातीयता का एक प्रमाण इन सारी भाषाओं में वर्णमाला की लगभग समरूपता में निहित है। तमिल जैसी सबसे छोटी वर्णमाला में भी हिंदी की भाँति ही स्वर और व्यंजन समान क्रम में हैं तथा व्यंजनों को क, च, ट, त, प वर्गों के क्रम में रखा गया है - भले ही चार-चार ध्वनियों के लिए एक लिपि चिह्न हो। आधारभूत शब्दावली और वर्णमाला की इस समानता के कारण लंबे समय से एक संपर्क लिपि या राष्ट्र लिपि की भी आवश्यकता अनुभव की जाती रही है। जिस प्रकार सब भारतीय भाषाओं के अपनी-अपनी जगह सुरक्षित रहते हुए हिंदी उनके बीच संवाद के लिए संपर्क भाषा का काम करती है, उसी प्रकार इन सब भाषाओं की अपनी लिपियों को सुरक्षित रखते हुए यदि संपर्क की सुविधा को ध्यान में रखकर देवनागरी लिपि को भी स्वीकार कर लिए जाए तो अखिल भारतीय भाषिक संपर्क में अधिक घनिष्ठता आ सकती है। राष्ट्रीयता की भावना से पे्ररित भारतीय जनता व्यापक संपर्क की इन प्रणालियों (संपर्क भाषा और संपर्क लिपि) को सहजतापूर्वक स्वीकार कर सकती है, परंतु समय-असमय विकराल रूप में सामने आकर शुद्ध राजनैतिक स्वार्थ ऐसे तमाम प्रयासों में पलीता लगा देते हैं!


भारतीय बहुभाषिकता के संदर्भ में उपस्थित होनेवाले इन सब मुद्दों पर डॉ. राजेंद्र मिश्र ने अपनी कृति ‘संपर्क भाषा और लिपि’ (2008) में विस्तार से चर्चा की हैं। डॉ. राजेंद्र मिश्र कवि, कथाकार, समालोचक और शिक्षक के रूप में समादृत हैं और उनकी 45 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वे हिंदी भाषा चिंतन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। केंद्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय की योजना में वे हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण भारत के उच्च शिक्षा और शोध संस्थानों की यात्रा भी कर चुके हैं। साथ ही अखिल भारतीय नागरी लिपि परिषद् से वे सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक उनके व्यापक अनुभव और चिंतन का परिणाम है; और प्रमाण भी।


‘संपर्क भाषा और लिपि’ में संकलित 21 निबंधों में भाषा और लिपि के संबंध में लेखक की विचारधारा भली प्रकार मुखरित हुई है। उनका मानना है कि भारत की भाषा समस्या इतनी उलझ गई है कि भाषा का सवाल भी अब राजनीति से नहीं एक जन चेतना से ही हल हो सकता है। ध्यान देने की बात यह है कि कुछ लोग आज भी यह सोचते हैं कि अंग्रेज़ी ही भारत की संपर्क भाषा हो सकती है। उन्हें यह जान लेना होगा कि कोई भी विदेशी भाषा हमारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक संपदा की सुरक्षा के लिए हमें अपनी भाषाओं के साथ ही एक संपर्क भाषा का भी विकास करना होगा। यह भाषा हिंदी ही हो सकती है। प्रायः यह कहा जाता है कि भूमंडलीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारण दुनिया के उन मुल्कों में भी अंग्रेज़ी का महत्व बढ़ रहा है जहाँ दो दशक पहले तक उसका प्रयोग नहीं होता था। लेकिन ध्यान देने की जरूरत है कि ऐसे देशों में उनकी अपनी भाषाओं को उचित स्थान प्राप्त है। इसलिए वहाँ की भाषाओं को अंग्रेज़ी से कोई खतरा नहीं है। वैसे भी किसी अन्य देश की तुलना भारत के बहुभाषिक परिदृश्य से नहीं की जा सकती। डॉ। राजेंद्र मिश्र याद दिलाते हैं कि बहुभाषिक यथार्थ का एक अकाट्य सत्य यह है कि भारत में हिंदी ही एक मात्र ऐसी भाषा है जिसे बहुसंख्यक भारतवासी बोलते हैं, समझते हैं। वही एक से अधिक प्रांतों की भाषा है। आजादी के बाद हिंदी का साहित्य बढ़ा है। उसके कोशों का विस्तार हुआ है। उसमें नए शब्दों का निर्माण हुआ है। आज वह संसार में सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा है। उसका अंतरभारतीय स्वरूप ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय रूप भी विकसित हुआ है। एशिया ही नहीं यूरोप और अमेरिका के देशों में भी हिंदी समझनेवाले लोग हैं। भारत के विशाल बाज़ार में प्रवेश के लिए उसे जनसंचार माध्यमों में अपनाया गया है। विज्ञापनों से लेकर अंग्रेज़ी के प्रसारणों तक को व्यापक जनता तक पहुँचाने के लिए हिंदी में ‘डब’ किया जाता है। प्रायः कहा जाता है कि आनेवाले समय में वही भाषाएँ जीवित रहेंगी जो बाज़ार की भाषाएँ होंगी। इस कसौटी पर हिंदी दुनिया के सबसे बड़े बाज़ार की संपर्क भाषा है। अतः उसका भविष्य सुरक्षित है।



कनफ्यूशियस ने कई शताब्दियों पहले कहा था कि यदि मुझे बिगड़ी हुई चीजों को सुधारना हो तो सबसे पहले मैं भाषा को सुधारूँगा क्योंकि इसके बिना मनुष्य की कल्पना नहीं की जा सकती। राजेंद्र मिश्र भी यही मानते हैं और उन्हें भी अनेक भाषा पे्रमियों की तरह यह लगता है कि आज का मीडिया, खासकर टेलीविजन, भाषा को बिगाड़ रहा है। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी को अंधाधुंध अंग्रेज़ीमय बनाने की मुहिम हिंदी को कमजोर बनाती है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम बहुभाषिक समाज के सामाजिक यथार्थ से आँख मूँद लें और भाषा संपर्क के परिणामस्वरूप होनेवाले भाषा विकास का मार्ग अवरुद्ध कर दें। भाषा मिश्रण और भाषा परिवर्तन की अपनी शर्तें हैं। यदि उन शर्तों के अनुरूप हिंदी में अंग्रेज़ी का मिश्रण हो रहा है तो यह स्वागत के योग्य है क्योंकि इससे उसकी अपने लक्ष्य भाषा उपभोक्ता वर्ग के बीच संपे्रषणीयता बढ़ रही है। भाषा के आधुनिकीकरण को शुद्धतावाद के नाम पर रोका जाना श्रेयस्कर नहीं होगा।


डॉ. राजेंद्र मिश्र ने भारत की भाषा समस्या के विविध पक्षों पर विचार करते हुए भाषाई अस्मिता का सवाल भी उठाया है और प्रयोजनीयता का भी। संपर्क लिपि के रूप में उन्होंने देवनागरी की जमकर वकालत की है और अखिल भारतीय स्तर पर सर्वमान्य नीति के विकास की जरूरत बताई है। लिपि प्रौद्योगिकी के संदर्भ में कंप्यूटर पर हिंदी और देवनागरी के प्रयोग की आवश्यकता, संभावना और सीमा का भी खुलासा किया गया है। ध्यान रहे कि पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में तेजी से परिवर्तन हुए हैं तथा कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग तीव्र गति से बढ़ा है। अब तो कंप्यूटर को निर्देश देने और ब्राउज़र तक की सुविधा हिंदी में उपलब्ध है। विभिन्न विषयों का ज्ञान-विज्ञान डिजिटल रूप में हिंदी में आ रहा है। भारत में जब व्यापक रूप में कंप्यूटर आरंभ किया गया उस समय सरकार की जल्दीबाजी के कारण भारतीय भाषाओं के लिए अपने फांट की प्रतीक्षा नहीं की गई जिसके कारण काफी अराजकता कंप्यूटर पर हिंदी प्रयोग में देखी जाती है। परंतु अब यूनिकोड की उपलब्धता और कोड परिवर्तकों की खोज ने इस समस्या को बड़ी सीमा तक सुलझा दिया है। इसका अभिप्राय है कि कंप्यूटर पर हिंदी के प्रयोग के लिए अब आसमान दूर-दूर तक खुला है। यहाँ फिर दोहरना होगा कि भविष्य की विश्व भाषाओं के लिए यह भी एक शर्त समझी जाती है कि वे कंप्यूटर की भाषा हों। हिंदी इस कसौटी पर भी खरी उतर रही है। इसलिए आनेवाला समय हिंदी का समय है।


डॉ. राजेंद्र मिश्र ने हिंदी के कल, आज और कल से जुड़े प्रश्नों पर अपनी दो टूक राय ‘'संपर्क भाषा और लिपि’' में लिपिबद्ध की है। उनका यह चिंतन मनन भारत की भाषा समस्या के रूप में फैल धुंधलके को काटने का सार्थक प्रयास है। हिंदी जगत इस कृति का स्वागत करेगा, ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए।

------------------------------


* संपर्कभाषा और लिपि / डॉ। राजेन्द्र मिश्र / २००८ / दिशा प्रकाशन ,१३८/१६, त्रिनगर , दिल्ली - ११००३५ / १५० रुपये / १३६ पृष्ठ [ सजिल्द]

दिया जलाओ,जगमग-जगमग

जयंत देसाई के निर्देशन में बनी तानसेन (१९४३) में मुंशी खेमचंद प्रकाश के संगीत निर्देशन में स्व. कुंदनलाल सहगल के स्वर में एक गीत - दिया जलाओ, जगमग- जगमग, ने अपना जादू बिखेरा। सहगल जी की अभिनय प्रतिभा का भी उस युग में यह फ़िल्म इक स्तम्भ बनी। सहगल जी के गीतों की श्रृंखला में आज इस शास्त्रीय गायकी के गायक के सुर का आनंद लीजिए -







दिन सूना सूरज बिना
औ चन्दा बिन रैन
घर सूना दीपक बिना
ज्योति बिन दो नैन

दिया जलाओ
जगमग जगमग दिया जलाओ ( 2)
दिया जलाओ (4)
जगमग जगमग दिया जलाओ (2)

सरस सुहागन सुन री (4)
तेरे मन्दिर में देख अँधेरा (2)
रूठ न जाए पिया तेरा (2)
आ ~
दिया जलाओ (4)



दिया मनाओ दिया जलाओ
दिया मनाओ मनाओ जलाओ
जगमग जगमग (2)
जगमग जगमग दिया जलाओ



क्योंकि कोई विकल्प नहीं था

रसांतर

क्योंकि कोई विकल्प नहीं था


लोक सभा के चुनाव परिणामों से सिर्फ एक राहत महसूस की जा सकती है और वह यह है कि केंद्र में अस्थिरता का डर नहीं रहा। लेकिन यह राहत भी सिर्फ उनके लिए हैं जो किसी भी कीमत पर स्थिरता को तरजीह देते हैं। सरकार या शासन की स्थिरता अपने आपमें कोई काम्य चीज नहीं है। स्थिरता तब अच्छी होती है जब वह देश को बेहतर ढंग से चलाने का माध्यम बने। अगर बकवास नीतियों और बकवास नेतृत्व के बावजूद स्थिरता बनी रहती है, जैसा नरसिंह राव के जमाने में था, तो वह देश के लिए नुकसानदेह और कभी-कभी खतरनाक भी होती है।



मनमोहन सिंह सरकार की उपलब्धियाँ ऐसी नहीं रही हैं कि उन्हें एक महान प्रधानमंत्री माना जा सके। इसी तरह, सोनिया गाँधी दूसरे नेताओं की तुलना में ज्यादा प्रभावशाली साबित हुई हैं, पर यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि उनके नेतृत्व में हम एक महान भारत का सृजन करने जा रहे हैं। न ही कांग्रेस के बारे में यह दावा किया जा सकता है कि उसका कायाकल्प हो चुका है और अब वह राष्ट्र निर्माण की ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह करने जा रही है।




ये सब ऐसी खामखयालियाँ हैं जो काँग्रेस को इतनी अधिक सीटें मिलने से पैदा हुई हैं। वैसे, इन सीटों की संख्या इतनी भी नहीं है कि बहुमत के लिए उसे अन्य दलों का सहारा न लेना पड़े। इसलिए सीटों की संख्या पर इतराने का कोई वास्तविक कारण दिखाई नहीं देता। राजीव गाँधी को 1984 में तीन-चौथाई बहुमत मिला था। लेकिन उनके शासन की कौन-सी उपलब्धियाँ आज याद आती हैं? बोफोर्स का दाग अभी तक नहीं मिट पाया है। इसी तरह, नरसिंहराव को बहुमत तो नहीं मिल पाया था, पर धीरे-धीरे तोड़-फोड़ की अपनी कुशलता के कारण उन्होंने काँग्रेस पार्टी के लिए बहुमत का प्रबंध कर लिया था। लेकिन अंत में हुआ क्या? आज उन्हें देश के सबसे निस्तेज प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाता है। बाबरी मस्जिद काण्ड उन्हीं के समय में घटित हुआ था।




फिर काँग्रेस की इस अप्रत्याशित जीत की व्याख्या कैसे की जाए? इस व्याख्या पर ही निर्भर है कि हम वर्तमान राजनीति से क्या उम्मीद करते हैं। अगर कोई यह कहता है कि अब क्षेत्रीय दलों की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है तथा यह उनके पराभव का समय है, तो यह मिथक है। बीजू जनता दल, तृणमूल काँग्रेस, द्रमुक, बिहार का जनता दल (यूनाइटेड), उत्तर प्रदेश का समाजवादी दल, बहुजन समाज पार्टी आदि क्षेत्रीय दल नहीं तो और क्या हैं? यह जरूर है कि जिन क्षेत्रीय दलों की उपयोगिता बची हुई है, वे दल ही बचे हैं; जिन्होंने अपनी उपयोगिता का खुद ही भक्षण कर डाला है, वे ढलाव के शिकार हुए हैं। लेकिन यह तो राष्ट्रीय दलों के साथ भी होता रहा है। काँग्रेस और भाजपा, दोनों कई-कई बार नीचे जा चुकी हैं और फिर उभरी हैं। इसी तरह, क्षेत्रीय दल भी नीचे-ऊपर आते-जाते रहे हैं। इस राजनीतिक चक्र को भूल कर किसी एक चुनाव के आधार पर कोई बड़ा निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी राजनीतिक विश्लेषण के बचकानेपन के अलावा कुछ नहीं है।



सवाल यह भी है : अगर राष्ट्रीय दलों का जमाना सचमुच लौट आया है, तो यह सिर्फ कांग्रेस के लिए ही क्यों लौटा? भाजपा को भी तो राष्ट्रीय दल माना जाता है। सच पूछिए तो दोनों में से कोई भी व्यापक और सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय दल नहीं है। इसीलिए जिस अर्थ में काँग्रेस राष्ट्रीय दल है, उसी अर्थ में भाजपा भी राष्ट्रीय दल है। उसी अर्थ में बसपा भी राष्ट्रीय दल बनने की कोशिश कर रही है। राष्ट्रीय दलों की वापसी का समय आ गया है, तो इसका लाभ काँग्रेस के प्रतिद्वंद्वी दलों को भी मिलना चाहिए था, जो नहीं हुआ है। इसलिए यह स्थापना भी निराधार प्रतीत होता है।



फिर काँग्रेस की जीत को कैसे समझा जाए? इसका मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि काँग्रेस का कोई ऐसा विकल्प चुनाव मैदान में नहीं था जिसे काँग्रेस से बेहतर कहा जा सके। चुनाव की घोषणा के पहले ही लालकृष्ण आडवाणी ने अपने को भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिया था। इस नाते भाजपा ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी थी। भाजपा अपने सांप्रदायिक चेहरे के साथ-साथ हर अर्थ में दक्षिणपंथी पार्टी है। काँग्रेस को मध्यमार्गी दल माना जाता है, पर उसकी आर्थिक नीतियाँ भी पूरी तरह से दक्षिणपंथी हैं। अमेरिका से नजदीकी काँग्रेस भी चाहती है और भाजपा भी। यह जरूर है कि काँग्रेस का एक इतिहास, भले ही वह मुखौटा ही हो, गरीबी हटाओ का भी है, जो भाजपा का नहीं है। भाजपा उद्योगपतियों और व्यापारियों की ही नहीं, सवर्ण जातियों की भी पार्टी मानी जाती है। दूसरी ओर, काँग्रेस भी उद्योगपतियों और व्यापारियों की पार्टी है, पर वह गरीबों का नाम भी लेती रहती है और उनके लिए समय-समय पर कुछ कार्यक्रम भी बनाती रहती है। राष्ट्रीय ग्रामीण राजगार गारंटी योजना उसी ने लागू की थी, जिसका कुछ इलाकों में अच्छा असर पड़ा है। इस दृष्टि से देखा जाए, तो मतदाताओं ने काँग्रेस को चुन कर कुछ भी गलत नहीं किया।



काँग्रेस को असली चुनौती तब मिलती जब उसके मुकाबले कोई सचमुच का वामपंथी दल या दल समूह खड़ा होता। वामपंथी दलों ने यही सोच कर तीसरा मोर्चा बनाया था। लेकिन क्या यह वास्तव में तीसरा मोर्चा था? सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि इसका नेतृत्व कर रहे सीपीएम और अन्य वामपंथी दल स्वयं केरल और प. बंगाल में अपनी वामपंथी साख लुटा चुके थे। गरीब किसानों का दमन करने के मामले में वे किसी भी अन्य दल के मुकाबले ज्यादा क्रूर साबित हुए हैं। केरल के सीपीएम में घमासान चल रहा था। तीसरा मोर्चा बनाने के लिए जिन दलों का साथ लिया गया, वे अपने-अपने राज्य में राजनीतिक रूप से दिवालिया हो चुके थे। गैर-काँग्रेस, गैर-भाजपा होने का ऑटोमेटिक मतलब प्रगतिशील या जनवादी नहीं होता। फिर इनमें से अनेक दल ऐसे भी हैं जो अतीत में भाजपा के साथ रह चुके हैं। इसलिए उनकी विश्वसनीयता भी खटाई में थी। सच पूछा जाए तो तीसरा मोर्चा इतना बोगस था कि उसे वोट देने के बारे में कोई गंभीरता से सोच ही नहीं सकता था। इस तरह, बिना कुछ ज्यादा किए-कराए सत्ता एक तरह से मुफ्त में काँग्रेस की झोली में आ गिरी।



यही कारण है कि काँग्रेस पार्टी की जीत स्वयं उसके लिए भी अविश्सनीय है। जब मीडिया के लोग अनुमान लगा रहे थे कि किसी भी दल समूह को बहुमत नहीं मिलेगा, तो वे हवा में कबड्डी नहीं खेल रहे थे। यही आकलन स्वयं राजनीतिक दलों का भी था। राहुल गाँधी तो विपक्ष में बैठने के लिए भी तैयार थे। लालकृष्ण आडवाणी की आशाएँ भी धीरे-धीरे धूमिल हो रही थीं, क्योंकि तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा की कोई लहर नहीं बन पा रही थी। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का खयाल आसमान से नहीं टपका था। इससे भी आडवाणी का भविष्य कुछ धूमिल हुआ।



बहरहाल, जो होना था, हो चुका। एक मान्यता है कि जो हुआ, वही हो सकता था। अगर कुछ और हो सकता था, तो वह हुआ क्यों नहीं? इसलिए काँग्रेस के जीतने को एक ऐसिहासिक घटना मान कर चलना ही उचित है। सवाल अब यह है कि आगे क्या? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि फिलहाल काँग्रेस का कोई प्रगतिशील विकल्प उभरता दिखाई नहीं देता। वामपंथियों में आत्मपरीक्षण के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। कायदे से प्रकाश करात को सीपीएम की शोचनीय पराजय के बाद अपने पद से तुरंत इस्तीफा दे देना चाहिए था। पर इसकी हलकी-सी आहट भी सुनाई नहीं देती। प. बंगाल की हार तो इतनी जबरदस्त है कि वहाँ के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को एक दिन के लिए भी अपने पद पर रहने का नैतिक हक नहीं है। इसी तरह, तीसरा मोर्चा में शामिल अन्य दलों में भी अंत:परीक्षण का कोई साक्ष्य दिखाई नहीं देता। यानी, भविष्य का परिदृश्य अत्यधिक धूमिल जान पड़ता है।



क्या यह चिंता की बात नहीं है कि इतने बड़े देश में कोई राजनीतिक विकल्प न हो जो जरूरत पड़ने पर वर्तमान सत्तारूढ़ दल का स्थान ग्रहण कर सके? कांग्रेस सफल होती है तो और नहीं सफल होती है तो भी, अच्छा लोकतंत्र वही होता है जिसमें वर्तमान का विकल्प हमेशा मौजूद रहे। इसे ही असली विपक्ष कहा जाता है। मौजूदा लोक सभा का सबसे दैन्यपूर्ण पक्ष यह दिखाई देता है कि इसमें कोई मजबूत विपक्ष नहीं है। यह सत्ता को निरंकुश बनाने के लिए काफी है। चूंकि वर्तमान राजनीति में कांग्रेस का कोई ठीक-ठाक विकल्प उभरता दिखाई नहीं देता, इसलिए कम से कम जनतंत्र के हित में आवश्यक है कि इसके लिए ठोस प्रयास किया जाए। ऐसा न हो कि पाँच साल बाद फिर चुनाव की घड़ी आए और हम हाथ पर हाथ धरे पछताते रहें कि हाय, हमारे पास कोई सार्थक विकल्प नहीं हैं। विकल्प दो-चार महीनों में खड़ा नहीं होता। इसके लिए पाँच वर्ष भी कम हैं। पर पाँच वर्ष की अवधि इतनी छोटी भी नहीं है कि कुछ हो ही न सके। सवाल सिर्फ इतना है कि देश की तकदीर बदलने की कोई राजनीतिक इच्छा हमारे मनों में खदबदा रही है या नहीं।



- राजकिशोर



वर्ष २००८ के `केदार सम्मान' का निर्णय संपन्न


वर्ष २००८ के `केदार सम्मान' का निर्णय संपन्न
*
**
*
दिनेश कुमार शुक्ल को



समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवि, दिनेश कुमार शुक्ल को उनके कविता संकलन `ललमुनिया की दुनिया' के लिए वर्ष २००८ का केदार सम्मान देने का निर्णय लिया गया है निर्णय की प्रशस्ति में लिखा गया है कि दिनेश कुमार शुक्ल हमारे समय के उन थोड़े से कवियों में हैं जो आज वैश्वीकरण से उत्पन्न बाजारवाद से आक्रांत दुनिया के सुख - दुःख को हार्दिकता के साथ एक बड़े फलक पर उठाते हैं। उनके नए संग्रह `ललमुनिया की दुनिया' में हमारे जीवनानुभव ही नहीं, जीवनमूल्य और मानवीय सौन्दर्यबोध भी है। कविता की डूबती दुनिया में वे जिस तरह मनुष्यता को अपनी संवेदना से रेखांकित करते हैं, वह पाठकों को चमत्कृत करता है। बिल्कुल कवि कुँवर नारायण की तरह उनकी कविता में भी मनुष्यता को बचाने की चिंता है, संवेदनशीलता के साथ। निराला और मुक्तिबोध की तरह इस कवि ने भी कविता को शब्द- लय और भाषा के सौन्दर्यबोध के साथ इसे अपनी कविता में साधा है।


ज्ञातव्य हो कि दिनेशकुमार शुक्ल का `ललमुनिया की दुनिया'
वर्ष २००८ में अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह इनका पाँचवाँ संकलन है . इसके पूर्व केदार सम्मान से निम्नांकित समकालीन हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवियों को सम्मानित किया जा चुका है - नासिरा अहमद सिकंदर (१९९६) , एकांत श्रीवास्तव (१९९७) , कुमार अम्बुज (१९९८) , विनोद दास (१९९९) , गगन गिल (२०००) , हरिश्चंद्र पाण्डेय (२००१) , अनिल कुमार सिंह (२००२) , हेमंत कुकरेती (२००३) , नीलेश रघुवंशी (२००४) , आशुतोष दुबे (२००५) , बद्री नारायण (२००६) , अनामिका (२००७) ।


-





नरेन्द्र पुण्डरीक ------------- निर्णाय समिति --------------- डॉ. कविता वाचक्नवी
सचिव --------------------------- केदार सम्मान----------------------- सदस्य : कार्यकारिणी
(केदार शोधपीठ न्यास)-------------------------------------------------- केदार सम्मान समिति









Comments system

Disqus Shortname