करगिल, जो सिर्फ मुहावरा नहीं है (यात्रावृत्तांत ) : आलोक तोमर



(
यात्रावृत्तांत )



करगिल, जो सिर्फ मुहावरा नहीं है
आलोक तोमर




करगिल सिर्फ एक शहर का नाम या छोटी सी संज्ञा नही है। वैसे भी और 1999 के भारत-पाक युद्ध, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पता नहीं क्या सोच कर झगड़ा कहा था, के बाद करगिल का नाम लेते ही बोफर्स तोपों, सैनिकों की लाशों, नवाज शरीफ, परवेज मुशर्रफ और ओपरेशन विजय का नाम याद आ जाता है।



लेकिन यह बाद में। दुनिया के सबसे ऊँचे और संभवतः सबसे छोटे हवाई अड्डे पर जब आपका जहाज उतरता है, उसके पहले ही थकी हुई परिचालिकाएँ आपको याद दिला देती हैं कि यहाँ ऒक्सीजन का स्तर बहुत कम है और धीमी गति से चलिए और जितनी लंबी साँस ले सकते हैं, उतनी लीजिए। जहाँ आप ठहरते हैं, वहाँ के शुभचिंतक पूरे आठ घंटे तक सोने की सलाह देते हैं ताकि देह संसार की छत कहे जाने वाले इस इलाके से अच्छी तरह परिचित और अभ्यस्त हो सके।



लेह से करगिल का रास्ता काफी दूरी तक सिंधू नदी के किनारे चलता है और एक तरफ पहाड़ हैं और नीचे बहुत नीचे नदी बह रही है, जिसकी गति इतनी तेज है कि आवाज आप तक पहुँचती है। रास्ते में ढाबों और तिब्बती स्थानीय व्यंजनों के होटलों वाला एक बाजार आता है और उसके बाद सिर्फ ऒक्सीजन की कमी ही आपको दुखी नहीं करती। एक बहुत सँकरी सड़क पर लगातार आप ऊपर बढ़ते जाते हैं। पहाड़ का शिखर दिखाई पड़ता है और जब तक आप यह सोचे कि यह कितना ऊँचा होगा, तब तक आप इस पर होते हैं। फिर नीचे का सर्पित इलाका आपको समतल लगने वाले लेकिन लगभग उतनी ही ऊँचाई पर मौजूद गाँवों से होते हुए रास्ते के स्तूपों और कभी कभार दिखाई पड़ जाने वाली मस्जिदों वाले इलाकों में ले जाता है। बीच-बीच में बर्फ से पिघल कर आ रहे बने झरने आपको एकदम ठंडे और असली मिनिरल वाटर का स्वाद देते हैं और आगे जा कर लामा यारू गोंपा नाम का बौद्ध तीर्थ है, जहाँ आज के जमाने में भी डबल बैड का एक कमरा खाने के साथ दो सौ रुपए में मिल जाता है। लद्दाख की लोकल बीयर यानी छाँग पीना चाहें तो पच्चीस रुपए में एक पूरा जग प्लास्टिक वाला भर कर मिलता है। ठंडा करने की जरूरत नहीं क्योंकि दिन में भी मौसम दो या तीन डिग्री के आसपास होता है और रात में तो जून के महीने में भी दो मोटे कंबल ओढ़ कर सोना पड़ता है। प्रंसगवश लद्दाख ऐसा इलाका है, जहाँ अगर आपका सिर छाया में हो और पाँव धूप में तो पाँव झुलस जाएँगे और सिर ठंड पकड़ लेगा।



आगे आपकी मर्जी है कि बटालिक से होते हुए जाएँ या सीधे करगिल का पहाड़ी रास्ता पकड़ें। बटालिक से होते हुए जाने में लाभ यह है कि आप वे पहाडियाँ देख सकते है, जहाँ करगिल झगड़े के दौरान सबसे पहले चरवाहों की शक्ल में पाकिस्तानी सेना के घुसपैठियों को भारतीय चरवाहों ने पकड़ा था और इसी छावनी में खबर दी थी। यहाँ सिंध नदी पार करनी पड़ती है और वह भी एक झूलते हुए पुल से और जब तक यह हिंडोला खत्म नहीं हो जाता, तब तक बड़े-बड़े बहादुरों की साँस हलक में अटकी रहती है। चाहें जिस तरफ से जाएँ, पहाड़ से करगिल शहर बिछा हुआ दिखता है। एक लगभग नामालूम सा देहाती कस्बा, सिंध नदी जिसके किनारे से बह रही है और जिसके पार पाकिस्तान है। 1971 के युद्ध में भारत ने नदी के पार वाला इलाका भी जीत लिया था लेकिन रोते हुए जुल्फिकार अली भुट्टो को देख कर शिमला में इंदिरा गांधी का मन पसीज गया और यह हिस्सा उन्होंने पाकिस्तान को वापस कर दिया। तर्क समझ में नहीं आता। जब वह भी विवादित कश्मीर है तो उसे वापस करने की ऐसी क्या जल्दी आ पड़ी थी? दिलचस्प बात यह है कि सिंध नदी के पार जो करगिल है, वहाँ के लोग यहाँ के लोगों के लगातार संपर्क में रहते हैं और उन्होंने नदी पार करने के लिए बाँस के पुल बना रखे हैं। सेना के लोग कई बार आ कर इन पुलों को तोड़ जाते हैं लेकिन पुल नए सिरे से बन जाते हैं।



करगिल शहर में या उसे कस्बा कहिए, सबसे बड़ी मुसीबत शाकाहारी होना है। सड़क पर सरेआम बकरे और भेड़ की आंतों से बना हुआ कबाब बिकता है और लोगों की भीड़ लगी रहती है। उत्तर प्रदेश के जिला फर्रूखाबाद के एक भूतपूर्व फौजी की मेहरबानी है कि वह करगिल का एकमात्र शाकाहारी ढाबा चलाता है। इसके अलावा शहर के सबसे बड़े होटल सियाचिन में मिलने को शाही पनीर मिल जाता है लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि उसके अंदर से हड्डियाँ नहीं निकलेंगी। करगिल में एक डिग्री कॊलेज है और सुना है कि लेह की तरह दिल्ली पब्लिक स्कूल की शाखा भी खुलने वाली है। मगर जो शहर शुरू होने से पहले खत्म हो जाता है और जहाँ आधुनिकता का प्रतीक दुकानों में बिकते हुए डीवीडी प्लेयर और एयरटेल तथा बीएसएनएल के सिम कार्ड हैं, वहाँ इतने अभिजात स्कूल में पढ़ने कौन आएगा?



करगिल से द्रास गए बगैर न पर्यटन और न ज्ञान दोनों के हिसाब से यह यात्रा संपन्न नहीं होगी। करगिल की असली लड़ाई तो द्रास के पहाड़ों और मैदानों में हुई थी और क्योंकि जिला करगिल पड़ता है इसीलिए इसे करगिल युद्ध की संज्ञा दी गई थी। द्रास में टाइगर हिल के ठीक नीचे और थ्री पीमपल्स यानी तीन मुहाँसे के नाम से चर्चित पहाड़ियों की श्रृंखला की तलहटी में एक स्मारक उन शहीदों का बनाया गया है, जो इस पागलपन के दौर में शहीद हुए। 26 जुलाई को हर साल यहाँ विजय दिवस मनाया जाता है। इस स्मारक में काले पत्थर पर सुनहरे अक्षरों से उन शहीदों के नाम भी लिखे हैं, जिन्होंने अपनी जान गँवाई और एक पत्थर युवा शहीद बिजयेंद्र थापर के पिता के हाथ का भी लगाया हुआ है। अटपटा सिर्फ यह लगता है कि स्मारक चिन्ह के नाम पर बीयर के मग मिलते हैं, जिनमें एक तरफ तोलोलिंग पहाड़ का चित्र है और दूसरी ओर टाइगर हिल का। शहीदों के नाम पर लोग उनकी अंतिम स्थली के चित्रों के साथ बीयर पीएँ, यह कुछ समझ में नहीं आता।



करगिल पहुँचाने के लिए लेह ही एकमात्र रास्ता नहीं है। एक रास्ता श्रीनगर से सोनमर्ग होते हुए, जो-जिला दर्रे में से जाता है और सोलह किलोमीटर का यह इलाका इतना भयानक है कि वहाँ पहुँचते ही आप भगवान को याद करने लगेंगे। नीचे बहुत गहरी खाई और वह भी इतनी गहरी कि वहाँ से गिरे तो आप सीधे अमरनाथ के रास्ते में आने वाले उस बालटाल में गिरेंगे, जहाँ से अमरनाथ का रास्ता जाता है। गिरे तो हड्डियाँ भी नहीं मिलेंगी। लेकिन यह रास्ता भी खूब चलता है। जम्मू कश्मीर राज्य परिवहन की बसों से ले कर पर्यटकों की गाडियाँ लदी-फदी करगिल की ओर जाती हैं। करगिल, जो हमारा सामरिक तीर्थ है। चलते-चलते करगिल की संस्कृति के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि वहाँ एक ही दुकान पर दलाई लामा और सद्दाम हुसैन दोनों के फोटो लगे मिल जाएँगे। यह बौद्ध और शिया पंथ को मानने वाले लोगों का इलाका है।

वैदिक धर्म और इस्लाम : अ ग्रेट इंटरफेथ डॊयलॊग (कलकत्तावासी भाग लें )




वैदिक धर्म और इस्लाम : अ ग्रेट इंटरफेथ डॊयलॊग




आज कलकत्ता में आयोजित होने जा रहे वैदिक धर्म और इस्लाम : अ ग्रेट इंटरफेथ डॊयलॊग कार्यक्रम में



इन दिनों भारत प्रवास पर आए



को सुनें



















समय - २९ मार्च २००९, रविवार, सायं बजे
स्थल - कला कुञ्ज (कला मन्दिर), ४८ शेक्सपियर सरणी, कलकत्ता -१७


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डॉ. मारिया नेज्यैशी की 'साहित्यकारों से गुफ्तगू' संपन्न



डॉ. मारिया नेज्यैशी की 'साहित्यकारों से गुफ्तगू' संपन्न









हैदराबाद, २७ मार्च २००९



"हंगरी की जनता को अपनी भाषा से अत्यधिक लगाव है। वह अपनी भाषा को सम्मान का प्रतीक मानती है इसीलिए उसने उसे बचा कर रखा है तथा सभी स्तरों पर सारे काम काज वहां हङ्गेरियन भाषा में ही किये जाते हैं। प्रारम्भिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की सभी विषयों की शिक्षा हङ्गेरियन में ही दी जाती है - चाहे वह अर्थ शास्त्र हो या भौतिक विज्ञान। वहां के छात्र भारत और भारतीय संस्कृति को समझने के लिए अत्यंत समर्पण भाव से हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन करते हैं। हंगरी के लोगों को हिंदी सीखने में अधिक कठिनाई नहीं होती और वे जल्दी ही अधिकार पूर्वक हिंदी में वार्तालाप करना सीख जाते हैं॥ मैं भारत की अपनी यात्राओं में सर्वत्र हिंदी में ही बोलती हूँ। और मेरी राय है कि हिंदी के सम्बन्ध में असुरक्षा भाव नहीं रखना चाहिए।"


ये विचार यहाँ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सम्मलेन कक्ष में आयोजित विशेष कार्यक्रम 'साहित्यकारों से गुफ्तगू' में नगरद्वय के विविध भाषाभाषी लेखकों से बात करते हुए तथा उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए डॉ.मारिया नेज्यैशी ने व्यक्त किये. डॉ. मारिया नेज्यैशी हंगरी के युटोस लोरांड विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रीडर हैंतथा इन दिनों भारत प्रवास पर हैं. उनके नगरागमन पर आयोजित इस कार्यक्रम में हैदराबाद के हिंदी सेवियों और रचनाकारों की ओर से पुस्तकें समर्पित कर उनका सम्मान किया गया. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सचिव के.विजयन ने सभा-चिह्न से अलंकृत शाल पहनाकर डॉ.मारिया नेज्यैशी का अभिनन्दन किया.


आयोजन की अध्यक्षता करते हुए 'स्वतंत्र वार्ता ' के सम्पादक डॉ.राधे श्याम शुक्ल ने यूरोप में हंगरी तथा भारत में हैदराबाद की तुलना करते हुए कहा कि ये दोनों ही अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण अपने अपने क्षेत्र में दिल के समान माने जाते हैं. अतः यह आयोजन दो दिलों के मिलन जैसा आह्लादकारी और रोमांचक है. उन्होंने भाषा, साहित्य और संस्कृति के परस्पर संबंधों की चर्चा करते हुए बल देकर यह कहा कि भारतीयों को हंगरी से भाषा प्रेम और सांस्कृतिक स्वाभिमान की प्रेरणा लेनी चाहिए.


आरम्भ में मुख्य अतिथि डॉ. मारिया नेज्यैशी ने दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार, शिक्षण, प्रशिक्षण और शोध के सम्बन्ध में कई प्रकार की जिज्ञासाएँ प्रकट कीं जिनका समाधान करते हुए उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के अध्यक्ष प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने हिंदी भाषा आन्दोलन के इतिहास, लक्ष्य, स्वरूप और संभावनाओं पर प्रकाश डाला. डॉ. मारिया नेज्यैशी ने हिंदी प्रचार में महिलाओं की भूमिका तथा द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी की पाठ्य पुस्तकों के निर्माण की प्रक्रिया में विशेष रुचि प्रकट की.


'गुफ्तगू' के दौरान डॉ.कविता वाचक्नवी, डॉ. रोहिताश्व, डॉ. राजकुमारी सिंह, डॉ. धर्म पाल पीहल और डॉ. पी माणिक्याम्बा ने मुख्य अतिथि से हंगरी भाषा, वहां के जनजीवन, रीति रिवाज़, साहित्य की प्रवृतियों, साहित्यकारों के सम्मान तथा हिंदी सीखने की सुविधा और बाधा जैसे विविध विषयों पर सवाल किए.


बातचीत में डॉ.तेजस्वी कट्टीमनी, डॉ. बी बालाजी, डॉ.रोहिताश्व, डॉ.कविता वाचकनवी, डॉ.रेखा शर्मा, डॉ..बलविंदर कौर, डॉ.मृत्युंजय सिंह, डॉ.कांता बौद्ध, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल,, पवित्रा अग्रवाल, डॉ. अहिल्या मिश्र, संपत देवी मुरारका, डॉ. करण सिंह ऊटवाल , सीमा मेंडोस, श्रीनिवास सोमानी, आशादेवी सोमानी, पुष्पलता शर्मा, सविता सोनी, उमा देवी सोनी, डॉ.सुरेश दत्त अवस्थी. डॉ.आनंद राज वर्मा, डॉ.भास्कर राज सक्सेना, डॉ.विजय कुमार जाधव, के.नागेश्वर राव, रामकृष्णा तथा भगवान दास जोपट आदि ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया.खुर्शीदा बेगम ने गीत प्रस्तुत किया.


कार्यक्रम के संयोजक तथा उर्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाधाक्ष्य प्रो. तेजस्वी कट्टीमनी के धन्यवाद प्रस्ताव के उपरांत ''साहित्यकारों से गुफ्तगू'' का यह विशेष आयोजन युगादि की शुभकामनाओं के आदान प्रदान के साथ संपन्न हुआ.

- ऋषभ देव शर्मा


हिंदी भाषा चिंतन : विरासत से विस्तार तक



पुस्तक चर्चा : ऋषभ देव शर्मा


हिंदी भाषा चिंतन : विरासत से विस्तार तक






यह संभव है कि विश्व की रचना किसी ईश्वर ने की हो , फिर भी यह तयशुदा है कि इसमें निहित वस्तुओं को नाम हम मनुष्यों ने दिए हैं और इसी से ये वस्तुएं हमारी चेतना का अंग बन पाई हैं. अलग अलग शब्दों में भारतीय भाषा चिंतन में यह दोहराया गया है कि हमारी शब्दावली को हमारे बाहरी और भीतरी विकास के साथ कदम से कदम मिला कर चलना पड़ता है. ऐसा न होने पर हमारी संकल्पनात्मक शक्ति धुंधली और अस्पष्ट होने लगती है.इस बात को आधुनिक भाषा चिंतकों ने भी माना है कि किसी समाज की प्रगति उसकी भाषा के आधुनिकीकरण से ही निर्धारित और निर्दिष्ट होती है. इसलिए भाषा विकास की यात्रा में हमें अपनी विरासत को संभालते हुए नै चुनौतियों के अनुरूप परिवर्तनों को आत्मसात करते चलना पड़ता है. हिन्दी इन दोनों पक्षों का संतुलन साधने में सक्षम होने के कारण ही स्थानीयता और वैश्विकता की शर्तों को एक साथ पूरा कर रही है..इसके लिए वह एक ओर जहाँ सस्कृत और लोकभाषा में निहित अपनी जड़ों से जुडी हुई है ,वहीं दूसरी ओर आधुनिक ज्ञान विज्ञान और व्यापार वाणिज्य के निमित्त अन्य देशी विदेशी भाषाओँ से भी शब्द ग्रहण करने में परहेज़ नहीं करती.


प्रो. दिलीप सिंह [१९५१] ने अपने ग्रन्थ ''हिन्दी भाषा चिंतन'' में हिन्दी भाषा के इस सतत विकासमान स्वरूप का सम्यक भाषावैज्ञानिक विवेचन किया है.


ग्रन्थ के पहले खंड 'धरोहर' में हिंदी के शब्द संसार की व्यापकता और शक्ति को डॉ. रघुवीर के कोष पर पुनर्विचार के सहारे रेखांकित करने के बाद हिन्दी व्याकरण के तीनों कालों का लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है. विषद व्याकरण की ज़रुरत बताते हुए लेखक ने सावधान किया है कि हमें एक तो केवल स्थितियों को नियंत्रित करनेवाले भाषा के कामचलाऊ स्टार से बचना होगा तथा दूसरे,सामर्थ्यहीन, बनावटी, निर्जीव और संकीर्ण भाषा और शुद्धतावादी दृष्टिकोण के प्रति भी सावधान रहना होगा. ठीक भी है , वरना भाषा तो अपनी गति से प्रगति करती पहेगी और व्याकरण जड़ होकर पिछड़ जाएगा. यहीं लिखत और मौखिक भाषारूपों की भी चर्चा की गई है. इस खंड की एक बड़ी उपलब्धि के रूप में हिन्दीभाषा विज्ञान में महिलाओं के योगदान के मूल्यांकन की चर्चा की जा सकती है.एक सुलझे हुए समाजभाषावैज्ञानिक के रूप में लेखक ने इस मूल्यांकन द्वारा स्त्री-विमर्श को भी व्यापक परिप्रेक्ष्य से जोड़ा है।


दूसरे खंड में समाज भाषा विज्ञान के सिद्धांतों की व्याख्या करते हुए भाषा प्रयोग की दिशाओं का जायजा लिया गया है. तीसरा खंड मानकीकरण को समर्पित है जबकि चौथे खंड में हिंदी भाषा और साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण दो मुद्दे उठाए गए हैं.यहाँ लेखक ने ''दक्खिनी'' को हिंदी के विकास की मजबूत कड़ी के रूप में प्रस्तावित किया है और हिंदी तथा उर्दू के विवाद को बेमानी माना है.पांचवें खंड में स्वतंत्र भारत के सन्दर्भ में भाषा नियोजन का पक्ष विवेचित है. लेखक ने प्रयोजनमूलक हिंदी के नए नए रूपों के विस्तार को भी नियोजन का व्यावहारिक आयाम मानते हुए विविध ज्ञान शाखाओं और रोजगारपरक क्षेत्रों में प्रयुक्त भाषारूपों को भाषा की संप्रेषण शक्ति और जिजीविषा का प्रतीक माना है.इसीलिये हिन्दी की प्रयोजन मूलक शैलियों की विस्तृत चर्चा करते हुए छठे खंड में जहाँ व्यावसायिक हिंदी के विविध रूप वर्णित हैं , वहीं पत्रकारिता और साहित्य समीक्षा की भाषा के साथ पहली बार पाक-विधि की भाषा का सोदाहरण विवेचन करते हुए आधुनिक हिंदी के अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का दृढ़ता पूर्वक प्रतिपादन किया गया है.


सातवें और अंतिम खंड ''हिंदी का विस्तार'' में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के योगदान का तटस्थ मूल्यांकन करने के साथ हिंदी भाषा के अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य पर विचार किया गया है. इस प्रकार यहाँ हिंदी के स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक सभी सन्दर्भ विविध पक्षों के साथ उभर कर सामने आ सके हैं. इस प्रकार यह कृति इस तथ्य को भली भाँति असंदिग्ध रूप में प्रतिपादित करती है कि -


''हिंदी भाषा मात्र एक व्याकरणिक व्यवस्था नहीं है, वह हिंदी भाषा समुदाय में व्यवस्थाओं की व्यवस्था के रूप में प्रचलित और प्रयुक्त है ; इस तथ्य के प्रकाश में निर्मित हिंदी-व्याकरण ही भाषा के उन उपेक्षित धरातलों पर विचार कर सकेगा जो वास्तव में भाषा प्रयोक्ता के भाषाई कोष की धरोहर हैं. कोई भी जीवंत शब्द और जीवंत भाषा एक नदी की तरह विभिन्न क्षेत्रों से गुजरती और अनेक रंग-गंध वाली मिटटी को समेटती आगे बढ़ती है. हिंदी भी एक ऐसी ही जीती जागती भाषा है. इसके व्यावहारिक विकल्पों को व्याकरण में उभारना , यही एक तरीका है कि हम हिंदी को उसकी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय भूमिका में आगे ले जा सकते हैं.''




हिंदी भाषा चिंतन / प्रो. दिलीप सिंह /
वाणी प्रकाशन,
२१-ऐ, दरियागंज , नई
दिल्ली - ११०००२ /
२००९ / ४०० रुपये /
२८८ पृष्ठ -सजिल्द।

२३ मार्च की चिट्ठाचर्चा : कही न जाए, का कहिए


२३ मार्च की चिट्ठाचर्चा : कही न जाए, का कहिए

कविता वाचक्नवी




कल
२३ मार्च बलिदान दिवस के दिन सोमवार होने के कारण चिट्ठाचर्चा का नियत दिन मेरा था,जिसके लिए मनोयोगपूर्वक तैयार की गयी सामग्री को प्रकाशित करने में नाकों चने चबाने पड़ गएएक पोस्ट के लिए निरंतर लगभग ३२ घंटे की सिटिंग देना भी मेरा निरर्थक हो जाता, यदि अनूप जी ने अंत में उसे अपने यत्न से हल कर के रात को अंततः प्रकाशित करने में सफलता पाई होतीजाने क्या तकनीकी समस्या गयी थी कि बार बार एरर और ब्लोगर की अक्षमता का संदेश रहा था तथा पब्लिश या सेव करने पर संदेश उड़ जाता थाअस्तुसंभवतः कोई अज्ञातशक्ति ऐन मौके पर लगन और प्रतिबद्धता की सच्चाई की परीक्षा ले रही होगी| २३ मार्च व्यतीत होने से कुछ पूर्व ही प्रविष्टि लग पाई

किंतु उस प्रविष्टि के जिस दूसरे भाग को कल सायं लगाने की दृष्टि से मैंने सँजो कर रख लिया था, वह चित्रावली थीअब इसे आगामी सोमवार तक टालने की अपेक्षा यहीं प्रस्तुत कर रही हूँआशा है, सभी इस ऐतिहासिक महत्व की सामग्री को उपयोगी पाएँगे










भगतसिंह का परिवार (बाएँ से) -
माता हुकमकौर (चाची), माता विद्यावती(माँ), माता जयकौर (दादी), माता हरनामकौर (चाची)








माता विद्यावती का युवकों को संदेश






























भगतसिंह को मृत्युदंड के आदेश
































भगतसिंह के trial के आधिकारिक दस्तावेज़

































भगतसिंह का पंजाबी(गुरुमुखी) में लिखा पत्र















भगतसिंह का उर्दू में लिखा पत्र ----------------------भगतसिंह का गुरुमुखी पंजाबी में लिखा पत्र


























क्रांतिकारी सुखदेव की माँ----------------- क्रांतिकारी राजगुरु की माँ




























वीरबलिदानी चंद्रशेखर आजाद -------------------------------- चन्द्रशेखर आजाद की माँ




























हिन्दी हस्तलेख में लिखा गत सिंह का पत्र------------ उर्दू हस्तलेख में गतसिंह की प्रिय पंक्तियाँ *

















*
उर्दू हस्तलेख में भगतसिंह की प्रिय पंक्तियों का देवनागरी पाठ


यह न थी हमारी किस्मत जो विसाले यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तेज़ार होता

तेरे वादे पर जिऐं हम तो यह जान छूट जाना
कि खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता

तेरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था अहदे फ़र्दा
कभी तू न तोड़ सकता अगर इस्तेवार होता

यह कहाँ की दोस्ती है (कि) बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म गुसार होता

कहूँ किससे मैं के क्या है शबे ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता
(ग़ालिब)

इशरते कत्ल गहे अहले तमन्ना मत पूछ
इदे-नज्जारा है शमशीर की उरियाँ होना

की तेरे क़त्ल के बाद उसने ज़फा होना
कि उस ज़ुद पशेमाँ का पशेमां होना

हैफ उस चारगिरह कपड़े की क़िस्मत ग़ालिब
जिस की किस्मत में लिखा हो आशिक़ का गरेबाँ होना
(ग़ालिब)

मैं शमाँ आखिर शब हूँ सुन सर गुज़श्त मेरी
फिर सुबह होने तक तो किस्सा ही मुख़्तसर है

अच्छा है दिल के साथ रहे पासबाने अक़्ल
लेकिन कभी – कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे

न पूछ इक़बाल का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की
कहीं सरेराह गुज़र बैठा सितमकशे इन्तेज़ार होगा

औरौं का पयाम और मेरा पयाम और है
इश्क के दर्दमन्दों का तरज़े कलाम और है
(इक़बाल)
अक्ल क्या चीज़ है एक वज़ा की पाबन्दी है
दिल को मुद्दत हुई इस कैद से आज़ाद किया

नशा पिला के गिराना तो सबको आता है
मज़ा तो जब है कि गिरतों को थाम ले साकी
(ग़ालिब)

भला निभेगी तेरी हमसे क्यों कर ऍ वायज़
कि हम तो रस्में मोहब्बत को आम करते हैं
मैं उनकी महफ़िल-ए-इशरत से काँप जाता हूँ
जो घर को फूँक के दुनिया में नाम करते हैं।

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले महफ़िल
चरागे सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।

आबो हवा में रहेगी ख़्याल की बिजली
यह मुश्ते ख़ाक है फ़ानी रहे न रहे

खुदा के आशिक़ तो हैं हजारों बनों में फिरते हैं मारे-मारे
मै उसका बन्दा बनूँगा जिसको खुदा के बन्दों से प्यार होगा

मैं वो चिराग हूँ जिसको फरोगेहस्ती में
करीब सुबह रौशन किया, बुझा भी दिया

तुझे, शाख-ए-गुल से तोडें जहेनसीब तेरे
तड़पते रह गए गुलज़ार में रक़ीब तेरे।

दहर को देते हैं मुए दीद-ए-गिरियाँ हम
आखिरी बादल हैं एक गुजरे हुए तूफाँ के हम

मैं ज़ुल्मते शब में ले के निकलूँगा अपने दर मांदा कारवाँ को
शरर फशाँ होगी आह मेरी नफ़स मेरा शोला बार होगा

जो शाख-ए- नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना पाएदार होगा।


सौजन्य : प्रो.चमनलाल



The Future of Afghanistan

This is the Text of Special Lecture delivered by the eminent Indian expert on Afghanistan, Dr. V.P. Vaidik, at the end of an International Seminar on “Indigenisation of Afghan Reconstruction : Challenges and opportunities” (18-19 March 2009) organized by Maulana Abul Kalam Azad Institute of Asian Studies, Kolkata, India.






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The Future of Afghanistan *

Dr. V.P. Vaidik



I am quite optimistic about the future of Afghanistan। Afghanistan’s fate is deeply linked with that of India and Pakistan. The history and geography of our region has proved time and again that we can afford to ignore Afghanistan only at our peril. Though Afghanistan appears to be a smaller nation stricken with poverty and ethnic division, it has played a crucial role in the rise and fall of several empires. The latest victim of Afghanistan is the Bush Empire and earlier to it, was the Soviet Empire. The British Empire lost its sheen for the first time at the hands of the brave Afghans. The Afghans shook the British Empire and gave it a bloody nose thrice in the span of 80 years. The Mughals, the Mongols and the Greeks had to swallow the bitter Afghan pill during their own times. The US and India, both are paying the high price for their negligence of Afghanistan after the Soviet withdrawal. Both have become the victims of terrorism.



The Future of Afghanistan will determine not only the fate of its neighbors but also the world powers because it has become the world capital of the Super State called terrorism. Terrorism is a state without borders. Afghanistan has turned into an Abandoned Sarai for the terrorists of more than 50 nationalities. More than 40 powerful and prosperous nations of the world are trying to salvage the situation but they are far away from their objective, their manzile-maqsood. When I use the term Afghanistan, I am using it here in the ethnic sense. It includes areas on both sides of the Durand Line, including those belonging to the state of Pakistan। I urge the International community to pay more attention to Afghanistan in comparison to several other trouble spots in the world like Iraq, Palestine, Somalia and Kosovo. Why am I asking for it ? There is historical reason for it. Let me deal with it briefly. Later on I will come back to the question of handling the present situation and finding a way out of it.



I visualize Afghanistan as a key to the peace and prosperity of Asia, particularly that of South Asia, Central Asia and West Asia। This would constitute the Sixth Major International Movement from the land of the Afghans. The First Major Movement took place thousands of years ago, when the Aryans spread all over the world from Afghanistan. The Second Movement started with the spread of Buddhism.



It is the dynamic Afghan monks who carried Buddhism to the farthest corners of China, Central Asia and Europe. The Third International Movement was that of Islam.Islam could not enter India but for the Afghan force used by the descendants of the Turkish slaves.The Arab invaders struggled for more than 300 years but they failed to enter India.The Fourth Major International Movement got aborted in Afghanistan. The Soviet Communism was eager to reach India via Afghanistan but Amanullah punctured it at the initial stage and it failed second time after the so-called, Inqalab-e-Saur (Red Revolution of April 1978).In fact, it wrote its own epitaph in Afghanistan. The Fifth Movement did succeed. It is terrorism. It spread its tentacles all over the world from New York to Mumbai and from Bali to Spain.Now I see the strong possibility of the emergence of the Sixth most important International Movement from Afghanistan.If Afghanistan is stable and peaceful, it will be a natural bridge between India and Central Asia, between Asia and Europe and between the major civilizations appearing to be at loggerheads.


The main onus of my presentation today is to explore the possibilities of this Sixth Movement of the Afghan history. How do we bring it about ? First of all, Afghanistan must have a political system which can be called all-inclusive. The Zaher shah Regime continued to thrive for forty years because of its above quality. It included not only Royalists and Democrats but also Khalqis, Parchamis and Shole-e-Jawed. It struck a proper balance between the Pathans, Tajiks, Uzbeks, Hazaras and other ethnicities. Its foreign policy was that of unique kind. It was a different and higher kind of non-alignment. It was not about maintaining equi-distance from the Super Powers but of creating equi-propinquity with them. I have seen with my own eyes the cold warriors of the US and USSR sharing the same table in Kabul to help and advise the Afghan Government. Nobody could blame Zaher Shah and any one of his seven Prime Ministers for being a puppet of any Super Power. Even President Daud's Republic was above reproach as far as this phenomenon is concerned.


Today, despite having an elected Parliament and President in Kabul, can we call this system as truly representative of the Afghan people and all-inclusive ? I am not sure। Not only so-called Taliban but also several Mujahideen elements, the leftists, various warlords, local satraps, the drug mafia and a host of other non-state actors are operating at large in Afghanistan. They have made mockery of governance. The election of the President on August 20 and later on Parliament will hardly solve the problem. By holding Presidential election not before May but in August, the constitutional provisions have been already sidetracked. In such a situation, why don't we have a Grand Loya Jirga elected in the traditional Afghan fashion ? Consensus, rather than division of votes, should be the basis of this new set up. The powers, scope and the role of this Loya Jirga would be far superior than any Parliament. Let this Loya Jirga be the interim sovereign body of Afghanistan and let it appoint a Prime Minister or President, who is answerable to this Loya Jirga. The PM or President should be the head of a real Grand Coalition Government, whose main task would be the reconstruction of Afghanistan and to make it a self-reliant proud nation within next five years. The present disconnect between the President and Parliament should be replaced by a necessary harmony between the Excecutive and the Legislative organs of the Government. The Governor of Afghanistan, should be answerable to its people not to a foreign power. This would be the logical culmination of the Bonn Process. The image of a Soviet or an American or a Pakistani puppet is the undoing of a leader of Afghanistan. I have lots of other ideas about the Constitution of Afghanistan. But I would not take them up now.



Once you start setting up this all inclusive-process, do you think the Taliban would join it ? I don't think so. I have an impression, after discussing the matter with many so-called hard and soft Taliban and their supporters based in Peshwar, Kabul, London, New York and Washington,DC that their main demand is the immediate ouster of the foreign forces from Afghanistan. Can any one fullfil this demand ? Not at all. If you do it, the present set up will crucmble within a few hours as did Taliban in year 2001. So what is the solution ? Please pick up the courage to fix up the deadline. May be one year, two years and at the most three years. Every foreign soldier must leave Afghanistan by the declared deadline. In the meanwhile, a National Army consisting of at least 3 Lakh soldiers should be raised on a war footing. You may not need so many soldiers to control Afghanistan but you would be paying so many unemployed young men to keep them away from the Taliban. The expenditure on an Afghan soldier is 70 times less than on an American soldier. A better equipped, better trained and a better dressed Afghan soldier would be much cheaper than any foreign soldier. The Afghan imbroglio can be solved only by the Afghans and not the foreigners.



I am sure the Taliban will listen to this call and respond। I say this on the basis of my own experience of negotiations with them. Somebody must negotiate with them. It does not mean that the State should abdicate its responsibility to protect law and order in Afghanistan. In fact, the strength of the foreign armies should be doubled at the earliest. The policy of doing too late and too little will be disasterous.



I am aware of the anxiety of the Nato countries. They are dying to withdraw their forces from Afghanistan. Afghanistan is proving more cumbersome than Iraq. We must find a way out. I had suggested a way out in the Month of July 2008 in an article published in Nav Bharat Times, an Indian National Hindi Daily. I received a warm response from several high quarters। It is, perhaps, sheer co-incidence that the Nato Commander General David Patraes is repeatedly laying emphasis on the regional solution, which I have been advocating for several months. In my humble view, it is time to find a regional solution to the Afghan problem. The well augmented western forces should be replaced by the regional forces. It may be done within a year or so. By regional forces, I mean the forces of the neighboring countries including India and Turkey. These Asian Jawans will take care of the Afghan sensitivities quite adequately. The upkeep of these soldiers will cost hardly 10% of what is spent on a Western soldier. The Western powers can underwrite the cost of operation. Is it not a matter of shame that sacrifice of the Western armies have stopped earning the laurels from the Afghan people. Their image is nosediving like that of the Soviet armies. A few friends in Kabul told me that some of them are hand in glove with the drug traffickers and warlords. My own view is that the Western armies should quit Afghanistan before they are decimated by the people as they did during the first Afghan War.



The replacement of Western armies by the regional armies should be effected on the basis of the consensual request by the Afghan Loya Jirga or the Parliament। This will have more legitimacy than the Bonn Process. The key to success of this plan lies in the hands of Pakistan. The Pakistani Parliament and Government should welcome this move. Without the support of Pakistan, no such move can succeed in Afghanistan. If the Obama Administration can bring about reconciliation between two warring parties in Pakistan, why can't it use its good offices to see that India and Pakistan join hands together to fight and uproot their common enemy, terrorism. This initiative will completely change the politics of the sub-continent. What the Western armies could not achieve in seven years, the regional armies can achieve in seven months. Once Afghanistan stabilizes, Pakistan would like to seek the economic depth in Afghanistan rather than the strategic depth.



What Afghanistan needs today is the massive dose of economic assistance। The Western powers have spent more than 120 billion dollars in Afghanistan during the last seven years. Hardly ten percent of this amount has gone as development assistance. Even this assistance was not administered by the Government of Afghanistan. The ratio has to be reversed and the real authority to utilize the assistance should be put under the control of the Government of Afghanistan. The foreign assistance and the army operations controled by the foreigners have subverted the Afghan sovereignty and denuded the Afghan Government of its legitimacy. An average Afghan wants to see his government built in his own image that is a sovereign and proud institution. This is the real indigenisation of the Afghan reconstruction process.



The political reconciliation in Pakistan augurs well for Afghanistan. The New situation might ease the recently built tension between India and Pakistan. It is for the first time in the history of South Asia, that India, Pakistan and Afghanistan are friends of the same power. Even Iran is keen to help Afghanistan. Obama is sending right signals to Iran. The Jaranj-Delaram road built by India near the Afghanistan-Iran frontier has immense geo-political potential for Afghanistan. This is the best opportunity to reorganize the entire area of Ancient Aryana spread from Arakan to Khurasan (Myanmar to Iran) and from Tibet to Maldives. This one large family of 1.25 billion people can emerge as an island of peace, prosperity and cooperation. The bright future of Afghanistan will brighten the future of India and Pakistan too. I am very optimistic.



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(Dr. Vaidik received his degree of Ph.D. from Jawaharlal Nehru University on “Afghanistan’s Relations with the USA and the USSR” about 40 Years ago. since then Dr. Vaidik has visited Afghanistan innumerable times. He has been knowing almost every top Afghan leader personally from king Zaher Shah to Hamid Karzai। He has also been in touch with the Leftist, Mujahideen and Taliban leaders. He has been advising the Indian Prime Ministers on Afghanistan. He has three books on Afghanistan (in Hindi), several research papers and dozens of articles. Dr. Vaidik has been the Editor of PTI-Bhasa and Nav Bharat Times (The then largest circulated national daily). He has been a delegate to the UN in 1999.





द्वितीय समरोत्तर मणिपुरी कविता- एक दृष्टि


गतांक से आगे



मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में
--डॉ. देवराज

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द्वितीय समरोत्तर मणिपुरी कविता- एक दृष्टि
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किसी भी युद्ध में आम आदमी ही पिसा जाता है - आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिक रूप से उसी को क्षति पहुँचती है। उसे हर कठिनाई का सामना झेलना पड़ता है। इन्हीं विषम परिस्थितियों का जायज़ा लेते हैं डॉ. देवराज जी: "विश्वयुद्ध को युद्ध के रूप में लेने का वहाँ अवकाश ही नहीं रह गया। इसके विपरीत इस युद्ध को भी उन्होंने आदर्श जीवन-मूल्यों को नष्ट करने वाली बडी़ घटना के रूप में लिया। इस स्थिति में युद्ध उनकी चिन्ता का कारण नहीं बना, बल्कि आदर्श जीवन-मूल्यों की गिरती अवस्था चिन्ता का कारण बन गई। "इस समस्त परिस्थितियों ने मणिपुरी समाज में एक विशेष प्रकार के संघर्ष को जन्म दिया, जिसे निश्चित रूप से सामाजिक सभ्यता के विकास का अनिवार्य परिणाम माना जाना चाहिए। यह संघर्ष राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आस्थाओं के बीच इतनी शक्ति लेकर आया कि इसने मणिपुरी भाषा की कविता के इतिहास में नया पृष्ठ खोला। इसी सन्दर्भ में इ.नीलकान्त सिंह और लाइश्रम सोमरेन्द्र सिंह जैसे कवि सामने आए, जिन्होंने मणिपुरी कविता में नए परिवर्तन की सूचना दी। "उन शैलियों को नकारा गया जिनमॆं बँधकर शब्द किसी राजा के मुकुट के चमकते हुए मोती तो हो जाते हैं किन्तु उनसे प्राणवत्ता की आशा नहीं की जा सकती। अब कविता ने रचना की उन शैलियों को अपनाया, जिनके सहारे वह चारॊं ओर से दबाव डालने वाली परिस्थितियों से घिरे मनुष्य का सही चित्र खींच सके। "सन्धिकालिन कवियों के साथ आधुनिक कविता की जो यात्रा शुरू हुई,वह सन पचास के कुछ बाद ही एक स्वतंत्र अस्तित्व वाली काव्यधारा बन गई। लाईश्रम सोमरेन्द्र सिंह ऐसे कवि सिद्ध हुए, जिन्होंने आधुनिकता से प्रबद्ध होकर अपने संधिकालीन कवि साथी ई.नीलकान्त सिंह का साथ छोड़ दिया और आधुनिक कविता के मुख्य पुरुष हो गए। उन्होंने अपनी ‘लैलाङबा’ कविता से सन्धिकाल में काव्य-परिवर्तन की सूचना दी और वे आधुनिक मनुष्य के जीवन को हानि पहुँचानेवाली दुरभिसंधियों पर चोट करने में जुट गए। आधुनिक कविता की इस यात्रा में राजकुमार मधुवीर, युमलेम्बम इबोमचा सिंह, काङ्जम पदमकुमार, खुमनथेम प्रकाश सिंह, एलाङ बम दिनमणि सिंह, एन. ज्योतिरिन्द्र लुवाङ, रंजीत डब्ल्यू, काङ्जम इबोहल सिंह, इबेमपिशक, हुइद्रोम राधाकान्त, राजकुमार भुवनसना और कयामुद्दीन पुखीमयुम आदि कवियों ने अपनी काव्य-कला का विकास किया।"


...........क्रमशः
प्रस्तुति सहयोग : चंद्र मौलेश्वर प्रसाद


कहाँ हो हमारे बुद्धिजीवी



कहाँ हो हमारे बुद्धिजीवी





मामला यह भी है कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से अँग्रेजी में विचार-विमर्श की परंपरा लगभग अक्षत बनी हुई है, पर भारतीय भाषाओं में यह परंपरा छिन्न-भिन्न हो गई है। एक समय मराठी में महात्मा फुले थे, बांग्ला में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर थे और हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र और दयानंद सरस्वती थे, पर आज उनके बौद्धिक उत्तराधिकारी कहीं दिखाई नहीं देते। इसका एक बड़ा कारण यह है कि अंग्रेजी से होनेवाले अनगिनत लाभों के कारण भारत की उत्कृष्ट प्रतिभाएँ अंग्रेजी में पर्यवसित होती गईं, जिससे भारतीय भाषाओं में बौद्धिक विकास को आघात पहुँचा। दूसरा बड़ा कारण यह है कि हिन्दी क्षेत्र में पुनर्जागरण की कोई बड़ी घटना नहीं हुई है।




पहली बात तो यह है कि भारत में जन बुद्धिजीवी हिन्दी में नहीं हैं और अँग्रेजी में हैं, यह बात ही सिरे से ही खारिज करने लायक है। अँग्रेजी के बुद्धिजीवियों का भारतीय जन से क्या रिश्ता है? कोई रिश्ता है भी या नहीं? बताते हैं कि अंग्रेजी समझनेवालों की संख्या भारत में तीन प्रतिशत के आसपास है। इन तीन प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करनेवाले बुद्धिजीवी देश के 97 प्रतिशत लोगों से कैसे संवाद कर सकते हैं? आशीष नंदी या रामचंद्र गुहा या अमर्त्य सेन को भारत का जन बुद्धिजीवी किस तर्क से कहा जा सकता है? ये मुख्यतः या सिर्फ अँग्रेजी जाननेवाले वर्ग के लिए लिखते या बोलते हैं। निश्चय ही, इनके सरोकारों का संबंध भारत की स्थितियों से होता है, लेकिन विदेशों में रहनेवाले ऐसे दर्जनों विद्वान हैं जो अँग्रेजी में या अपनी-अपनी भाषाओं में भारत के बारे में लिखते रहते हैं।क्या इन विदेशी विद्वानों को भारत का जन बुद्धिजीवी माना जा सकता है? इन विद्वानों में और भारत में रहनेवाले भारतीय विद्वानों में मूलभूत फर्क क्या है? दोनों एक ही पाठक वर्ग के लिए लिखते हैं। दोनों एक ही तरह के परिसंवादों में भाग लेते हैं। उनकी पुस्तकें प्राय: एक ही वर्ग के प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित की जाती हैं। जैसे सिर्फ भारतीय मूल का होने से कोई विद्वान भारतीय नहीं हो जाता, वैसे ही जनता से दूर रहनेवाला बुद्धिजीवी किसी भी हाल में भारत का जन बुद्धिजीवी नहीं कहला सकता। इसलिए हमें इस जाल में पड़ना ही नहीं चाहिए कि कोई विदेशी पत्रिका किन्हें भारत के शीर्ष जन बुद्धिजीवियों में गिनती है और किन्हें नहीं। वास्तव में यह अंग्रेजी भाषा की नट लीला है, जिसकी ओर ध्यान देने से हम अपनी बौद्धिक समस्याओं का निदान नहीं निकाल सकते।



इस ट्रेजेडी के साथ एक बृहत्तर ट्रेजेडी भी जुड़ी हुई है। ऐसा नहीं है कि जन बुद्धिजीवी न होने के कारण भारत के अंग्रेजी बुद्धिजीवियों का योगदान कुछ कम महत्व का है। महत्व है, इसीलिए अफसोस होता है कि ये विद्वान अंग्रेजी में क्यों लिखते हैं जिसका भारत के आम पढ़े-लिखे वर्ग से कोई संबंध नहीं है। इसमें क्या संदेह है कि पिछले साठ वर्षों में ज्ञान और विद्वत्ता के क्षेत्र में जो ज्यादातर काम हुआ है, वह अंग्रेजी में ही हुआ है। उदाहरण के लिए, जाति, गरीबी, भूमंडलीकरण, धर्मनिरपेक्षता, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि में जितना महत्वपूर्ण काम हमारे देश में हुआ है, उसकी भाषा अँग्रेजी ही है। इसी से इसका फायदा अंग्रेजीवालों के बीच ही सीमित रहता है। अन्य भाषाओं के जिज्ञासु भी इन्हें पढ़ते हैं, पर इनकी संख्या ज्यादा नहीं है और इन बुद्धिजीवियों का व्यक्तित्व या कार्य शैली ऐसी नहीं है कि ये भारत के जन मानस को प्रभावित कर सकें। इस तरह, अंग्रेजी में उत्पादित और संग्रहीत ज्ञान भंडार भारत के अधिसंख्य लोगों के लिए किसी काम का नहीं होता। रामचंद्र गुहा या अरुंधति रॉय होंगे बहुत बड़े बुद्धिजीवी, पर उनके मुहल्ले के लोग भी नहीं जानते कि यहाँ हमारे समय का एक बड़ा बुद्धिजीवी रहता है। भारत का अँग्रेजी बुद्धिजीवी लंदन, पेरिस, हेडेलबर्ग की सैर करता होगा, अंतरराष्ट्रीय परिसंवादों में भाग लेता होगा, हर साल उसकी एक नई किताब प्रकाशित होती होगी, पर असल भारतीय समाज से वह उतना ही दूर है जितना इंग्लैंड या अमेरिका भारत से दूर हैं। इसलिए इनका ज्ञान भारतीय लोगों के उपयोग में नहीं आ पाता। ये इंटेलेक्चुअल हैं, पर पब्लिक इंटेलेक्चुअल नहीं।



फिर इन्हें भारत का जन बुद्धिजीवी क्यों मान लिया जाता है? क्योंकि एक छोटा-सा वर्ग ऐसा है, जो अपने को असली भारत माने बैठा है। इस छोटे-से वर्ग के सदस्य एक-दूसरे को संबोधित करते हैं और एक-दूसरे की बात का खंडन-मंडन करते रहते हैं। यह वर्ग जो लिखता है, उसे यही वर्ग पढ़ता है। इस वर्ग का अंग्रेजी के विदेशी बुद्धिजीवियों से भी संपर्क रहता है। यही कारण है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की कोई पत्रिका जब भारत के जन बुद्धिजीवियों की सूची बनाने बैठती है, तो उसकी नजर मेधा पाटकर या अरुणा रॉय या नामवर सिंह या राजेंद्र यादव पर नहीं पड़ती। ये लोग उस मंडली से बाहर हैं जिसे भारत का बौद्धिक क्रीमी लेयर कहा जा सकता है। राजेंद्र यादव की टिप्पणियों को पढ़नेवालों की संख्या रामचंद्र गुहा के पाठकों से कई गुना ज्यादा होगी, पर यादव अमेरिकी पत्रिकाओं की नजर में पब्लिक बुद्धिजीवी नहीं हैं और रामचंद्र गुहा हैं। यह यथार्थ को सिर के बल खड़ा करना नहीं है, तो और क्या है?



नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, सच्चिदानंद सिन्हा, अशोक वाजपेयी की भी सीमाएँ हैं। ये काम तो कर रहे हैं जन बुद्धिजीवी का, पर जन के बीच इनकी कोई खास मान्यता होने की बात को तो छोड़िए, आम हिन्दी भाषी इन्हें जानता तक नहीं है। जिस तरह अंग्रेजी बोलने और लिखनेवालों का एक छोटा-सा परिमंडल बना हुआ है, उसी तरह इन लेखकों और वक्ताओं का भी एक सीमित परिमंडल है। अंग्रेजी के बुद्धिजीवियों की तुलना में इनकी स्थिति ज्यादा ट्रेजिक कही जा सकती है, क्योंकि ये अपनी मातृभाषा में काम करते हैं, उसे समर्थ और सक्षम बनाते हैं, उसके जरिए तरह-तरह की बहसें छेड़ते हैं, पर इसकी आँच या महक अपने ही लोगों के बीच दूर तक नहीं जा पाती। अंग्रेजी के लेखक नदी के द्वीप हैं, तो ये लेखक छोटी-छोटी नदियाँ है, जिन्हें उस व्यापक जन क्षेत्र की प्रतीक्षा है, जहाँ ये वेग के साथ बह सकें।



मामला यह भी है कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से अँग्रेजी में विचार-विमर्श की परंपरा लगभग अक्षत बनी हुई है, पर भारतीय भाषाओं में यह परंपरा छिन्न-भिन्न हो गई है। एक समय मराठी में महात्मा फुले थे, बांग्ला में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर थे और हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र और दयानंद सरस्वती थे, पर आज उनके बौद्धिक उत्तराधिकारी कहीं दिखाई नहीं देते। इसका एक बड़ा कारण यह है कि अंग्रेजी से होनेवाले अनगिनत लाभों के कारण भारत की उत्कृष्ट प्रतिभाएँ अंग्रेजी में पर्यवसित होती गईं, जिससे भारतीय भाषाओं में बौद्धिक विकास को आघात पहुँचा। दूसरा बड़ा कारण यह है कि हिन्दी क्षेत्र में पुनर्जागरण की कोई बड़ी घटना नहीं हुई है। छिटपुट प्रयत्न जरूर हुए हैं, पर वे तृणमूल स्तर पर जन जीवन को प्रभावित नहीं कर सके। इसलिए तर्क-वितर्क का माहौल क्षीण हुआ है। साहित्य को ही प्रमुख बौद्धिक गतिविधि मान लिया गया। फिर भी, महात्मा गाँधी के बाद राममनोहर लोहिया, रामवृक्ष बेनीपुरी, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, किशन पटनायक, माहे·ार (आइपीएफ) आदि ने अपने-अपने समय में सार्वजनिक बहसें चलाईं और बहुत बड़ी संख्या में लोगों की बौद्धिक चेतना में खलबलाहट पैदा की। यह क्रम भी अब टूटता नजर आता है। अंग्रेजी का प्रभुत्व भारत की हर अच्छी चीज को नष्ट कर रहा है। इसलिए हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में जन बुद्धिजीवियों का आविर्भाव हो और उनका प्रभाव क्षेत्र फैले, इसके लिए आवश्यक है कि भारत के सार्वजनिक जीवन से अँग्रेजी को तुरंत विदा किया जाए।


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- राजकिशोर

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