देवी सरस्वती के चरणों में

परत-दर-परत


देवी सरस्वती के चरणों में
- राजकिशोर









बंगाल में सरस्वती पूजा के दिन जो खास बात देखने में आती है, उसका संबंध छात्राओं के उत्साह से है।
दिल्ली में रहते हुए वसंत का तो कभी-कभी पता चलता है, पर वसंत पंचमी का बिलकुल नहीं। इस दिन पश्चिम बंगाल में देवी सरस्वती की पूजा होती है। यह विद्यार्थियों के लिए खास दिन होता है। वे सरस्वती की मिट्टी की मूर्ति खरीद कर लाते हैं और पूजा करते हैं। पूजा के समय मूर्ति के समय अपनी किताबें -- ज्यादातर टेक्स्ट बुक्स -- रखते हैं। मैं भी बचपन में अपने घर की गली में सरस्वती पूजा का छोटा-सा निजी आयोजन किया करता था। मेरे बेटे ने भी कई वर्षों तक किया। लेकिन बेटी को इसकी कोई याद नहीं है, क्योंकि जब तक वह समझने-बूझने लायक हुई, हम दिल्ली आ चुके थे। यहाँ सरस्वती का वास है, पर सरस्वती की पूजा कोई नहीं करता।


बंगाल में सरस्वती पूजा के दिन जो खास बात देखने में आती है, उसका संबंध छात्राओं के उत्साह से है। सबेरे से ही पढ़नेवाली लड़कियाँ नहा-धो कर पीली साड़ी में और मुक्त केशराशि लहराते हुए सड़कों पर चलते हुए दिखाई पड़ने लगती हैं। उनका सौंदर्य अद्भुत होता है। इस कोमल और अवयस्क सुंदरता के आगे रमणियों का सौंदर्य साल भर पानी भरता रहता है। ये ही लड़कियाँ जब दुर्गा पूजा के अवसर पर सज-धज कर पूजा देखने निकलती हैं, तो उनका रूप बदल जाता है। तब वे सेक्सी दिखाई पड़ने की कोशिश करती हैं। पर सरस्वती पूजा के दिन उनके अस्तित्व के हर आयाम से पवित्रता छलकती रहती है। वे स्वयं छोटी-छोटी सरस्वतियाँ नजर आती हैं। मुझे लगता है, देवी सरस्वती का साहचर्य उन्हें कुछ पवित्र बना जाता है। इससे पता चलता है कि दुनिया में कोई भी चीज निरपेक्ष नहीं है -- हमारा आसंग तय करता है कि हम क्या होंगे और कैसा दिखेंगे। इस दृष्टि से सरस्वती पूजा की निर्मलता और पवित्रता अनोखी है। ऐसी ऊँचाई किसी और पर्व में दिखाई नहीं देती।


पर्व-त्यौहारों में अब मुझे कुछ खास आनंद नहीं आता। शायद यह उम्र का असर है। लेकिन पहले भी कुछ विशेष आनंद आता था, ऐसा याद नहीं पड़ता। इसका एक कारण शायद यह है कि पर्वों के साथ जो भावनाएँ जुड़ी हुई होनी चाहिए, वे नदारद हो चुकी हैं। सिर्फ होली अपने समस्त रंगों के साथ जारी है। हालाँकि उसे निरंतर अश्लील बनाने का सिलसिला जारी है। वसंतोत्सव या रंगोत्सव के रूप में उसकी जो मधुर सांस्कृतिक कल्पना की जा सकती है, उसके लिए समाज में कोई जगह नहीं देती। बहरहाल, अगर किसी एक हिन्दू त्यौहार को बचाए रखने के मामले में मेरी राय माँगी जाए, तो मैं सरस्वती पूजा के पक्ष में वोट दूँगा।


सरस्वती सिर्फ ज्ञान की देवी नहीं हैं। वे साहित्य और कला की भी देवी हैं। वे वाग्देवी भी हैं। इस तरह वे रचनात्मकता के सभी पहलुओं का प्रतिबिंबन करती हैं। हमें ज्ञान चाहिए, क्योंकि अज्ञानी रह कर न अपना भला कर सकते हैं न किसी और का। पर ज्ञान को शुष्क नहीं होना चाहिए -- उसके साथ भावना भी जुड़ी होनी चाहिए। इससे साहित्य तथा विभिन्न कलाओं की नदियाँ फूटती हैं। अंत में, सरस्वती का वाहन कहीं कमल का फूल और कहीं हंस दिखाई देता है। दोनों ही इस बात के प्रतीक हैं कि जो ज्ञान की आराधना करता है, वह धीरे-धीरे धवलबुद्धि, नीर-क्षीर विवेकी तथा नि:संग होता जाता है। इस प्रशांत अवस्था को हासिल किए बिना ज्ञान-कला-साहित्य की उपासना व्यर्थ है। इस लक्ष्य तक पहुंचने का एक रास्ता अध्यात्म से भी हो कर जाता है, पर जीवन के इस गुह्र आयाम तक सबकी गति नहीं हो सकती। इसलिए इसे आपवादिक मान कर चलना ही उचित और सुरक्षित है।


कहा जा सकता है कि यह ज्ञान का युग है। भक्ति मार्ग बहुत पीछे छूट चुका है। ज्ञान मार्ग प्रशस्त हो रहा है। हर आधुनिक व्यक्ति के पास जो न्यूनतम ज्ञान होता है, वह पहले बड़े-बड़े ज्ञानियों को नसीब नहीं होता था। यह आपत्ति आधारहीन नहीं है कि यह ज्ञान नहीं, सूचना है। इस युग को भी सूचना युग ही कहा जाना चाहिए। बात काफी हद तक सही है। लेकिन ज्ञान वह फूल है जो सूचनाओं के पेड़ पर ही खिलता है। वह जमाना चला गया जब लोग आँख बंद करके साधना करते थे और सहसा एक दिन ज्ञानी हो जाया करते थे। ऐसे ज्ञान से आज हमारा काम नहीं चल सकता। आज हमें वह ज्ञान चाहिए जो खुली आँखों से देखने पर हासिल होता है। बल्कि सिर्फ देखने से ही नहीं, बल्कि प्रयोगशाला में परीक्षण करके, क्योंकि आँखों को धोखा हो सकता है। सामाजिक विज्ञानों की अपनी प्रयोगशालाएँ हैं।


दुःख की बात यह है कि ज्ञान या सूचना जो कहिए, उसके विस्फोट ने हमारे जीवन बोध को किसी उल्लेखनीय पैमाने पर नहीं बदला है। हमारी जीवन शैली मोटे तौर पर वैसी ही है जैसी तब थी जब हम अपेक्षाकृत कम जानकार थे। शोषण, अन्याय, युद्ध, हिंसा आदि की समस्याएँ बनी हुई हैं। स्त्रियों और बच्चों का जीवन अभी भी असुरक्षित है। तरह-तरह के भेदभाव कायम हैं। पर्यावरण पर खतरा रोज बढ़ता जाता है। हम आज जिस पृथ्वी को जानते हैं, वह सौ साल बाद भी इसी रूप में मिलेगी? कोई नहीं जानता। नदियाँ, भूजल, वायु -- सब प्रदूषण का शिकार होते जा रहे हैं। इसी तरह हमारी भावनाएँ और व्यवस्थाएँ भी। समाजवाद अब फिर एक स्वप्न हो गया है। सुबह का अखबार पढ़ कर कहीं से क्या ऐसा लगता है कि यह ज्ञानी या जानकार लोगों की सभ्यता है?

इसका एक कारण शायद यह है कि पर्वों के साथ जो भावनाएँ जुड़ी हुई होनी चाहिए, वे नदारद हो चुकी हैं।



ऐसी सभ्यता में ही वह चीज फूल-फल सकती है जिसे ज्ञान का उद्योग (नॉलेज इंडस्ट्री) कहा जाता है। यह एक नया उद्योग है जिसका आधार सूचनाओं का आदान-प्रदान है। वैसे तो हर उद्योग का आधार ज्ञान ही है, पर इस उद्योग में ज्ञान स्वयं ही खरीद-बिक्री की चीज बन जाता है। ज्ञान का यह व्यापारीकरण हमारी सभ्यता के बुनियादी चरित्र की ओर संकेत करता है। यहाँ कोई भी चीज तुरंत व्यापार बना दी जाती है - कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे? यह ज्ञान की उपासना नहीं, ज्ञान का भक्षण है। ऐसे माहौल में ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा और ज्यादा उपयोगी तथा मूल्यवान हो जाती है। आराधक में विनम्रता होती है। ज्ञान की खोज में लगे लोगों में भी विनम्रता होनी चाहिए -- अहंकार नहीं। आराधक सभी के कल्याण की कामना करता है। ज्ञान के क्षेत्र में काम करनेवालों को भी नहीं भूलना चाहिए कि उनका लक्ष्य निजी या राष्ट्रीय लाभ नहीं, बल्कि मानव मात्र का कल्याण है। देवी सरस्वती निश्चय ही एक मिथक हैं -- पर एक ऐसा मिथक, जो हमारे समस्त यथार्थ बोध का मानदंड बन सकता है।

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४ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का लोकार्पण और सम्मान समारोह






४ महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का लोकार्पण और सम्मान समारोह





२७ जनवरी, २00९ को अपनी पुस्तक समाज-भाषाविज्ञान ( रंग-शब्दावली: निराला-काव्य ) के (तथा अन्य 3 पुस्तकों के) लोकार्पण समारोह में सम्मिलित होने के लिए कल सुबह तड़के इलाहाबाद की यात्रा पर जा रही हूँ। निस्संदेह मेरे लिए यह क्षण जाने कितनी स्मृतियों के भाव बोधन का और साधना की पूर्णाहुति जैसा है, अपितु फलश्रुति ही है। यद्यपि स्वयं इस पर कुछ कहना अपने आप में उचित तो जान नहीं पड़ता, बहुत संकोच भी हो रहा है, पुनरपि पुस्तक की प्रकाशक,ऐतिहासिक संस्था हिन्दुस्तानी एकेडेमी  के सहयोगी मित्रों (विशेषत:संथा के सचिव डॉ.एस.के.पाण्डेय जी  की इच्छानुसार) उनकी ओर से प्राप्त जानकारी को नेट पर सुरक्षित रखने व इस बहाने सभी को सूचना देकर आमंत्रित करने का यह सुअवसर भी बार बार नहीं मिलता। एकेडेमी के अधिकारी श्री सिद्धार्थशंकर त्रिपाठी जी के माध्यम व सौजन्य से प्राप्त इस सामग्री को आप से यथावत् बाँट रही हूँ व स्वयं अपनी ओर से भी कार्यक्रम में आमंत्रित कर रही हूँ।


आपकी उपस्थिति व शुभकामनाएँ मेरे लिए सुखदायी व हर्ष का कारण होंगी। इलाहाबाद में श्री ज्ञानदत्त जी पाण्डेय व श्रीमती रीता पाण्डेय जी की शुभकामनाएँ व स्नेह तो वहाँ साक्षात मिलेगा ही, ऐसा पूर्ण विश्वास है।
- कविता वाचक्नवी





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हिन्दुस्तानी एकेडेमी की ओर से हिन्दी, संस्कृत एवं उर्दू के कुछ लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों का सम्मान समारोह २७ जनवरी २००९ ,मंगलवार को एकेडेमी सभागार में अपरान्ह ४ बजे आयोजित किया जा रहा है। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि माननीय मंत्री, उच्च शिक्षा, उत्तरप्रदेश डॉ. राकेश धर त्रिपाठी जी होंगे। कार्यक्रम की अध्यक्षता माननीय न्यायमूर्ति श्री प्रेम शंकर गुप्त जी करेंगे। इस अवसर पर आपकी सादर उपस्थिति प्रार्थनीय है।



निवेदक

डॉ. एस. के. पाण्डेय
सचिव
हिन्दुस्तानी एकेडेमी
इलाहाबाद













इस लोकार्पण समारोह में जिन पुस्तकों को लोकार्पित किया जाएगा, उन का संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है



१)

हर्षवर्द्धन
लेखक : गौरीशंकर चटर्जी
पृष्ठ : ३०८
मूल्य : २००.००


भारतवर्ष के मध्ययुग के इतिहास में सम्राट हर्षवर्द्धन की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इस पुस्तक में हर्षवर्द्धन के वंशजों का परिचय, तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था, शासन-प्रबन्ध का वर्णन इत्यादि विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। यह पुस्तक भारत के गौरवमयी इतिहास की परम्परा का मानक है जहाँ भारतीय इतिहास एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा था।




)




राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और दिनकर का तुलनात्मक अध्ययन

लेखक : डॉ० दादूराम शर्मा
पृष्ठ : ३४४
मूल्य : २००.००


प्रस्तुत पुस्तक में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और दिनकर के काव्य में भारतीय संस्कृति, राष्ट्रीयता और युगचेतना को प्रस्तुत करते हुए उनका तुलनात्मक अनुशीलन करने का विनम्र प्रयास है। यह शोध-प्रबन्ध दोनों महान कवियों की कृतियों के प्रति गंभीर अवगाहन और साथ ही उनके अध्यवसाय के प्रति सहज ही हमारे मन में सम्मान का भाव उभारता है।






3)
सूर्य विमर्श
सम्पादक - डॉ० सुरेन्द्र कुमार पाण्डेय
पृष्ठ : ३२४
मूल्य : १७५.००







पुस्तक में वैदिक वाड्.मय में सूर्य की स्थिति, उपनिषदों में सूर्य की महिमा, पुराणों में सूर्य का महत्त्व एवं लौकिक संस्कृत साहित्य में सूर्य-विषयक साहित्य पर ५२ लेखकों के विचारों को प्रस्तुत किया गया है। यह भी प्रयास किया गया है कि सूर्य का धार्मिक, ज्योतिषीय, वैज्ञानिक, वास्तुशास्त्रीय, खगोलीय एवं वृष्टिविज्ञान सम्बन्धी स्वरूप पाठकों के समक्ष इस पुस्तक के माध्यम से उजागर हो।








४)

समाज - भाषाविज्ञान

रंग-शब्दावली : निराला-काव्य

लेखक : डॉ. कविता वाचक्नवी
पृष्ठ : २२५
मूल्य : १५०.००




"प्रस्तुत पुस्तक में हिंदी के रंग शब्दों कीसमाज-सांस्कृतिक संबद्धता को देखने का सराहनीय प्रयास किया गया है। महाप्राण निराला का चयन हिंदी की रंग शब्दावली को खोलने में सर्वथा समर्थ है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है। निराला की कविताएँ जितनी विविधरंगी हैं, रंग शब्दों का काव्यात्मक उपयोग भी उन्होंने उतनी ही अर्थछटाओं में बाँध कर किया है। इन सबका अत्यंत सम्यक् और सूक्ष्म विश्लेषण लेखिका ने करके यह जता दिया है कि कविता की आत्मा और कवि का व्यक्तित्व जब जीवन के साथ एकमेक होते हैं तब उसके इर्द-गिर्द बिखरे शब्द किस तरह काव्यार्थ को द्विगुणित कर देते हैं। वाक्य की परिधि के ऊपर जाकर यह अध्ययन प्रोक्ति-विश्लेषण का एक नया रास्ता प्रशस्त करता है। रंग शब्द हमारे जीवन का अटूट हिस्सा हैं। मूल रंग शब्दों के न जाने कितने लोकनिर्मित पर्याय हैं; और फिर रंग मिश्रण के लिए अभिव्यक्ति के अनेक तरीके हिंदी भाषा समाज अपनाता है। इन सबकी अच्छी परख इस पुस्तक में निराला के काव्य संसार के माध्यम से की गई है। इस काव्य संसार में प्रयुक्त रंग शब्दावली का वर्गीकरण अत्यंत संवेदनात्मक ढंग से किया गया है। रंगों में छिपी मनुष्य की संवेदनात्मक गहराई और सृजनात्मक ऊँचाई को मापने का यह पुस्तक सार्थक प्रयास करती है। हिंदी भाषा में निहित रंग संसार की शाब्दिकता को डाॅ. रघुवीर के सहारे सामने लाने का यत्न भी सराहनीय है। रंगों का जीवन और शब्दों का जीवन इस अध्ययन में एकरस हो गए हैं। हिंदी भाषा की शब्द संपदा और इस संपदा में आबद्ध लोकजनित, मिथकीय और सांस्कृतिक अर्थवत्ता की पकड़ से यह सिद्ध होता है कि हिंदी भाषा की व्यंजनाशक्ति का कोई ओर-छोर नहीं है। इस फैलाव को पुस्तक में मानो चिमटी से पकड़कर सही जगह पर रख दिया गया है। भाषा अध्ययन को बदरंग समझने वालों के लिए रंगों की मनोहारी छटा बिखेरने वाला कविताकेंद्रित यह अध्ययन किसी चुनौती से कम नहीं। इस तरह के साहसी और श्रमसाध्य भाषा अध्ययन का यह अनुप्रयोगात्मक तरीका पाठकों को भीतर तक सराबोर कर देगा। "



प्राक्कथन से ( डॉ. दिलीप सिंह,  प्रख्यात भाषावैज्ञानिक )




आमंत्रण : शरद व्‍याख्‍यानमाला



आमंत्रण
शरद व्‍याख्‍यानमाला



महोदय /महोदया

साहित्येतर विषयों पर हिन्‍दी में संवाद हेतु आयोजित शरद व्‍याख्‍यानमाला में आप सादर
आमंत्रित हैं।
आमंत्रण-पत्र संलग्न है -











- जवाहर कर्नावट
भोपाल।

गाँव आखिर किसके लिए हैं

परत-दर-परत
गाँव आखिर किसके लिए हैं


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दिल्ली में ऐसे लेखक और कवि बहुतायत में हैं जो शहर को मिथ्या और गाँव को सत्य मानते हैं। इन्होंने दर्जनों उपन्यास, सैकड़ों कहानियाँ और हजारों कविताएँ लिखी हैं जिनमें पीछे छूट गए गाँव की जबरदस्त कसक दिखाई देती है। इनमें से सभी कृतिकार ग्रामीण परिवेश से ही आए हैं और उसके प्रति ममता इनके हृदय से गई नहीं हैं। इनके लेखन के मर्म में देहात का रोमांस उसी तरह अंकित है जैसे हनुमान के हृदय में राम बसा करते थे। गाँव की बड़ाई या अपने खोए हुए गाँव की स्मृतियाँ ही वह पूँजी है जिसके बल पर बार-बार एक ऐसी रामांटिक कविता या कहानी लिखी जाती है जो उन्हें धिक्कारती-सी प्रतीत होती है जो शहर में रहते हैं और शहर के बारे में ही लिखते या पढ़ते हैं। इन रचनाओं को पढ़ कर ऐसा लगता है जैसे गाँव अपनी सादगी, ईमानदारी और भावमयता के साथ लौट आया, तो भारत फिर एक रहने लायक देश हो जाएगा।


बहुत पहले जब मैथिलीशरण गुप्त ने वह अमर कविता लिखी थी जिसकी यह पंक्ति मुहावरे में तब्दील हो चुकी है कि अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है, तो शुरू में तो वह बहुत पसंद की गई (यह कविता मैंने कक्षा सात या आठ के कोर्स में पढ़ी थी), लेकिन बाद में सादगी के महान कवि मैथिलीशरण गुप्त की काव्य प्रतिभा की हँसी उड़ाने या ग्रामीण जीवन की नई जटिलताओं की ओर ध्यान खींचने के लिए इसका व्यापक उपयोग होने लगा। गुप्त जी ने जब यह कविता लिखी थी, उस समय हमारे गाँव लगभग ऐसे ही थे -- गुप्त जी के शब्दों में 'यहाँ गँठकटे चोर नहीं हैं, तरह-तरह के शोर नहीं हैं'। इस कविता के दो और प्रयोजन थे। एक तो गाँधी जी की आस्थाओं का प्रचार करना। महात्मा आधुनिक युग में गाँवों के सबसे बड़े वकील थे। उनकी नजर में कोई भी सभ्य देश गाँवों का समूह ही हो सकता है। दूसरे, यह आडंबरयुक्त शहरी जीवन की आलोचना भी थी। गुप्त जी के आलोचकों को भूलना नहीं चाहिए कि मैथिलीशरण भी मूलत: एक ग्रामीण आत्मा थे - थोड़ा और बढ़ कर कहना चाहें, तो एक हिन्दू ग्रामीण आत्मा। वे एक ठेठ देहाती आदमी की तरह ही गाँव की तारीफ में सहजता से लिखे जा रहे थे । इसलिए उन पर हँसना गाँव मात्र पर हँसना है, जो सभ्यता के दायरे में नहीं आता।


परवर्ती कवियों और लेखकों ने गाँव की बड़ाई कुछ इसलिए की कि वहाँ बहुत कुछ बचा हुआ है और कुछ इसलिए कि वहाँ से बहुत कुछ विलुप्त हो चुका है। स्वर कुछ यों होता है -- वहाँ अभी भी टोपियाँ सिलते हैं कासिम चाचा, ईद की सेवइयाँ होड़ करती हैं दीवाली की मिठाइयों से, यहाँ एक नदी थी, कहाँ गए वे जंगल जहाँ हम पाँच दोस्त तितलियाँ पकड़ते थे आदि। ऐसी रचनाओं को पढ़ते हुए लगता है कि दिल्ली या मुंबई जैसे महानगर के प्रदूषित और छल-कपटमय वातावरण में रहते हुए कवि या कथाकार की साँस घुट रही है और वह अपने गाँव लौट जाना चाहता है। वे कविताएँ और कहानियाँ झूठी हैं, ऐसा कहने वाला मैं कौन होता हूँ? लेकिन मैं यह जरूर कहना चाहता हूँ कि ऐसे सभी लेखक नौकरी से रिटायर होने के बाद दिल्ली या मुंबई में ही बस गए हैं। यहाँ उन्होंने फ्लैट या घर बनवा लिए हैं । इनमें कई लेखक ऐसे भी हैं जिनका शेष परिवार गाँव में ही रहता है और ये स्वयं महानगर की प्रदूषित हवा से मुक्त होना नहीं चाहते। अनुमान किया जा सकता है कि उनकी अरथी यहीं से उठेगी।



स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान गाँवों के बारे में दो तरह की धारणाएँ थीं। गाँधी मानते थे कि भारत की सभ्यता गाँव में ही बची हुई है -- जितनी बची हुई है। लेकिन देश के तत्कालीन गाँवों को वे आदर्श नहीं मानते थे। वे गाँवों को आत्मनिर्भर, सुंदर और सुविधा-संपन्न बनाना चाहते थे। इस तरह गाँव के यथार्थ और आदर्श, दोनों के प्रति वे संबोधित थे। लेकिन आंबेडकर और नेहरू गाँवों को बहुत ही नापसंद करते थे। उनके हिसाब से ये ऐसी जगहें नहीं थीं जहाँ सभ्य और शिक्षित आदमी रह सकते हैं। दलितों के लिए तो गाँव बूचड़खाना ही थे। पिछले साठ वर्षों में गाँवों का विकास करने के प्रयत्न किए गए हैं और देश के एक बहुत बड़े हिस्से में उनका कायाकल्प हो गया है। लेकिन आज भी एक शिक्षित रिटायर्ड आदमी के लिए वहाँ कुछ है नहीं। यहाँ तक कि वह सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन भी नहीं हैं जिसकी कामना एक पढ़ा-लिखा आदमी करता है। इस बीच शहरों की सुविधाएँ तथा वहाँ उपलब्ध अवसर तेजी से बढ़े हैं। कुछ मामलों में गाँव और शहर के बीच का अंतराल कम हुआ है, तो कुछ मामलों में बढ़ा भी है। लेकिन कुल मिला कर गाँवों की हालत बेहद नागवार है। बताते हैं कि वहाँ रहना जीवन को नष्ट करना है।


तो गाँव किसके लिए हैं? जवान वहाँ रहना नहीं चाहते। अवसर की तलाश में वे शहर भागते हैं। गाँव से आ कर जिन्होंने अपनी जवानी शहर में बिता दी, वे अंत समय में गाँव लौटना नहीं चाहते। ये लौटते, तो ग्रामीण समाज को एक नई दिशा दे सकते थे। किसान भी नहीं चाहते कि उनके बेटे-बेटियाँ गाँव में सड़ती रहें। इस तरह, आज गाँव में वही रहता है जो वहाँ रहने के लिए मजबूर है या कहिए अभिशप्त है। यह इतना बड़ा क्षेत्र नए भारत का कालापानी है। एक विशालकाय आजाद जेल है, जिसके दंडित बाशिंदे खुलेआम घूम-फिर सकते हैं। यह आजादी उन्हें इसलिए दी गई है कि भारत भाग्य विधाताओं को पता है कि ये जाएँगे भी तो कहाँ जाएँगे? ये गाँव न तो महात्मा के सपनों के गाँव बन पाए हैं न आधुनिक शहरों में बदल सके हैं जैसा कि नेहरू चाहते थे। ये एक ऐसी अंधी गली में फँसे हुए हैं जहाँ से कोई रास्ता खुलता दिखाई नहीं देता। अगर हमारे विरोधी राजनीतिक दलों का गाँव के लोगों से थोड़ा भी संबंध होता, तो वहाँ से कभी-कभी नहीं, रोज संघर्ष की लपटें निकलती होतीं। नक्सलवादी कई इलाकों में ये लपटें पैदा कर रहे हैं, लेकिन इन लपटों की रोशनी में इन गाँवों के भविष्य का कोई सुंदर चित्र दिखाई नहीं देता। इस गतिरोध के सामने उदीयमान भारत (जिसे पहले चमकता भारत कहते थे), जो हमारे शासकों को और अंधा कर रही है, क्या एक बहुत बड़ा फ्रॉड नहीं है?

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- राजकिशोर

सत्य के प्रयोग, सेक्स,ब्रह्मचर्य और गाँधी



सत्य के प्रयोग, सेक्स,ब्रह्मचर्य और गाँधी
- कविता वाचक्नवी





बहुधा मैं उन विषयों पर लिखती नहीं जो विषय त्वर-प्रसरण का शिकार हो कर खूब चर्चा का अंग बनते हैं। बहस के केन्द्र में न रहने की प्रवृत्ति या इसे मेरी भीरुता भी कहा जाए तो कोई आपत्ति नहीं। विषयों, अनुभवों या रस के परिपाक होने का ऐसा रंग चढ़ा भी कहा जा सकता है, या कुछ भी कह लें| हर बात को कहने, और वह भी अपनी तरफ़ से अपने शब्दों में, से अधिक उचित यही मुझे लगता है मुझ से श्रेष्ठ विचारक, विद्वान या रचनाकार जो कह गए हैं, उसे स्थान दिया जाए, दोहराया जाए, सहेजा, बताया जाए| फिर भी कभी कभी कुछ अवसर स्वयं को व्यक्त करने से बचने नहीं देते व एक प्रकार की विचारतीव्रता से ग्रस लेते हैं, जहाँ चुप रहते बनता नहीं व मत व्यक्त हो ही जाता है।



गाँधी पर कभी सिलसिलेवार अधिक कुछ लिखा नहीं। परन्तु सम्भवत: यह डॉ. अनुराग आर्य की अभिव्यक्ति की शक्ति थी कि उनके लिखे (व उस पर आई अनेक प्रकार की टिप्पणियों से हुए विचलन) के बाद स्वयं को लिखने से रोक नहीं पाई।



गाँधी तर्क की कसौटी पर तो कभी आदर्श या राष्ट्रीय नायक नहीं प्रमाणित होते, उनका अपनी कमजोरियों को दूसरे पर थोपने का आग्रह ( बल्कि हठ या जिद) ही तो थी कि अलग मुस्लिम देश की स्थापना का दंश झेलकर व बाँटने पर भी देश उनकी उदारता का दंश झेलने को बाधित हुआ। उनकी जिद ही तो थी कि भगत, राजगुरु और सुखदेव को संभव व सुगम होते हुए भी वे फाँसी-मुक्त करवाने के लिए दबाव की कोई प्रक्रिया नहीं अपनाते। वरना बात बात में अनशन, सत्याग्रह, पदयात्रा और जाने कितनी किस्मों के ऐसे मारक हथियार होते हुए भी वे कुछ नहीं करते। बस, एक ही तो कारण का आधार लेकर - कि वे (गर्म दल वाले) हिंसा के अनुयायी हैं और मैं अहिंसावादी। अहिंसा का यह अर्थ भी उनकी निजी उपज था, जिसके प्रति वे अत्यन्त हठधर्मी रहे। राम के भक्त गाँधी यदि राम की अहिंसा की मर्यादा का लेश भी समझ जाते तो हिंसा और अहिंसा का सही अर्थ तो समझते ही, देश का इतिहास भी दूसरा होता।



उनके अतिवाद का ही परिणाम था कि उनका अपना बेटा धर्मान्तरण का शिकार हुआ, जिसे आर्यसमाज और आर्यसमाज के पं. रामचन्द्र देहलवी(शास्त्रार्थ महारथी) ने दल- बल के साथ जाकर मुस्लिमों से शास्त्रार्थ कर, उन्हें पराजित कर (बेटे को) बचाया था व वापिस गाँधी जी को लाकर सौंपा था।


ब्रह्मचर्य के प्रयोग भी गाँधी की उसी हठधर्मिता और अतिवाद का परिणाम थे। जहाँ वे अपने को अपनी नजर में विजयी घोषित देखने के लिए स्त्री का वस्तु की भाँति प्रयोग करते रहे। साफ़ साफ़ कहें तो युवतियों के साथ नग्न होकर सोने का परीक्षण करना ताकि अपनी ब्रह्मचर्य के लक्ष्य की पूर्णता जाँची -परखी जा सके।


इस विषय में विनोबा का स्त्री के प्रति दृष्टिकोण बेहद सम्मानजनक व मातृवत् था। गाँधी के संस्कारों में वह बात थी नहीं, जिसे आप तलाश रहे हैं - स्त्री को मातृस्थान मानना। वे स्वयं कभी बा को लंबे वर्षों तक पीटते भी रहे थे।


अभी वाणी प्रकाशन से दयाशुक्ल सागर की एक पुस्तक आई है - ‘महात्मा गाँधी : ब्रह्मचर्य का प्रयोग’(२५०/-रु.), जो बहुत भयंकर रूप में गाँधी को इस विषय में कटघरे में खड़ा करती है। इस से पूर्व भी अन्य भाषाओं में इस बात को लेकर मौखिक लिखित आक्षेप गाँधी पर होते आए हैं। यह कोई नई बात नहीं है।



मेरी दृष्टि में गाँधी का वैशिष्ट्य उनका वह होने में नहीं है, जो वे न थे या होना चाहते थे या होने के लिए करते थे और हो नहीं पाये या पाए। गाँधी के इन या ऐसे अनेक अन्य विषयक प्रयोगों के प्रति मेरी कोई सहानुभूति, श्रद्धा या स्वीकृति भी नहीं और निजी तौर पर मैं गाँधी की विरोधी ही के रूप में स्वयं को पाती हूँ, इन अर्थों में भी और सुभाष, भगत, राजगुरु, चन्द्रशेखर,सुखदेव आदि वाले गर्म दल के प्रति अपनी निजी आस्था व श्रद्धावनतता के कारण भी।


फिर भी, गाँधी को एकदम सिरे से नकार देने की पक्षधर भी मैं नहीं हूँ, जैसा कि दयाशंकर या और भी कई लोग करते/सकते हैं।


कमजोरियाँ होना एक बात है, उनकी आत्मस्वीकृतियाँ और सार्वजनिकीकरण उनसे भी बड़ी। गाँधी अपनी कमजोरियों और गलतियों के जितने भागी या उत्तरदायी और बल्कि दोषी हैं, उसी के समानान्तर वे इन अर्थों में विशिष्ट भी हैं। विशेषतः ब्रह्मचर्य के प्रयोग वाली कसौटी पर तो| हम जिस सेक्सपूर्ण और पोर्नोग्राफी वाले खुले समय में जी रहे हैं और जिसका एक भाग ही हैं वस्तुत: , उस जमाने में इनकी प्रवृत्ति के विरोध को स्वर दिए बिना, पाप या अपराध के विरोध को स्वर दिए बिना, किसी की भूल या आत्मस्वीकृति के विरोध को स्वर देना, नैतिक उत्थान के मार्ग के सत्य को अनुभूत करने के विरोध को स्वर देना मुझे निजी रूप में स्वीकार उचित नहीं लगता, बल्कि कटघरे में खडा करता है - नैतिकता के कटघरे में। आत्मा इसकी गवाही नहीं देती|





बात बिगड़ेगी अगर बात शुरू न होगी




बात बिगड़ेगी अगर बात शुरू न होगी

डॉ. वेदप्रताप वैदिक



पहले किलिनोचई, फि एलीफेंट पास और अब जाफना ! अब लिट्टे के पास रह क्या गया है ? उसके सारे गढ़ गिर गए हैं। अब वन्नी के जंगलों के अलावा उसका कोई ठौर नहीं बचा है। उन जंगलों में भी वह कितने दिन छुपा रहेगा। मौत ने उसे चारों तरफ से घेर लिया है। लाखों तमिल लोग अपने-अपने गांव और कस्बे खाली करके भाग रहे हैं। लिट्टे के सैनिक उन्हें भागने नहीं दे रहे हैं। उनका इस्तेमाल वे कवच की तरह कर रहे हैं। लिट्टे के नेता खुद प्रभाकरन का कुछ पता नहीं। अंदेशा है कि वह भाग खड़ा होगा। उसकी जान के लाले पड़ गए हैं। भारत ने माँग की है कि अगर प्रभाकरन पकड़ा जाए तो उसे भारत के हवाले किया जाए। वह राजीव गाँधी की हत्या का मुख्य दोषी है। लगता नहीं कि प्रभाकरन पकड़ा जाएगा। पकड़े जाने की बजाय वह मरना पसंद करेगा। वह भागे या मरे, अब यह निश्चित है कि वह श्रीलंका की तमिल राजनीति का सूत्रधार नहीं रह पाएगा।


प्रभाकरन के अभाव में श्रीलंका के तमिलों के हितों की रक्षा अब कौन करेगा ? तमिलों के बड़े-बड़े नेताओं को तो लिट्टे ने ही मार गिराया। अब अमृतलिंगम और तिरूचेल्वम जैसे नेता कहाँ हैं ? फिर भी तमिलों की पार्टियों और संगठनों को आपस में मिलकर सामूहिक मोर्चा बनाना होगा। यदि इस मौके पर तमिल लोग एक नहीं हुए तो श्रीलंका की गुत्थी पहले से भी ज्यादा उलझ जाएगी। राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष का पलड़ा इतना भारी होता जा रहा है कि वे तमिलों की जायज मांगों को भी दरकिनार कर सकते हैं। वे स्वयं सिंहल अतिवाद के प्रतिनिधि रहे हैं। इसके अलावा मई 2008 के प्रांतीय चुनाव में उन्होंने तमिल क्षेत्र में अपनी सरकार बनाकर नया आत्म-विश्वास अर्जित किया है। प्रभाकरन के पुराने साथी करूणा से हाथ मिलाकर उन्होंने लिट्टे की कमर तोड़ दी है। अब जबकि लिट्टे के 8000 जवान मारे गए हैं और सिर्फ डेढ़-दो हजार जवान अपनी जान बचाने को छिपते फिर रहे हैं, राजपक्ष संपूर्ण श्रीलंका के एकछत्र सम्राट की तरह उभरने लगेंगे। फरवरी के दो प्रांतीय चुनावों और अप्रैल के आम चुनाव में वे प्रचंड बहुमत से जीतेंगे, इसमें जरा भी संदेह नहीं है। डर यही है कि वे अपनी मनमानी न करने लगें। उनका रवैया पूर्व प्रधानमंत्री प्रेमदास की तरह अतिवादी न हो जाए। इस मौके पर भारतीय विदेश सचिव शिवशंकर मेनन का कोलंबो पहुँचना बहुत ही सही है।

राजपक्ष और श्रीलंका के अन्य सिंहल नेता यह तो मानेंगे कि भारत ने उनके मार्ग में कोई रोड़े नहीं अटकाए। तमिल उग्रवादियों के विरूद्ध जोरदार सैन्य-अभियान चलाने के पहले सिंहल नेताओं के मन में कुछ घबराहट जरूर थी। उन्हें डर था कि भारत की तमिल पार्टियाँ दिल्ली सरकार पर जबर्दस्त दबाव डालेंगी। वे उनका सैन्य-अभियान रूकवाने की कोशिश करेंगी। उनका डर सही था। तमिल पार्टियों ने ही नहीं, तमिलनाडु सरकार ने भी केंद्र सरकार को दबाने की भरसक कोशिश की। केंद्र की गठबंधन सरकार डर सकती थी, क्योंकि उसमें तमिलनाडु की पार्टियाँ भी शामिल हैं लेकिन भारत सरकार ने श्रीलंका में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा। इसी संयत नीति का परिणाम है कि भारत के विदेश सचिव मेनन का कोलंबो में स्वागत हो रहा है। राजपक्ष-सरकार तथा श्रीलंका की सिंहल जनता को पूर्ण आश्वस्ति है कि भारत तमिल ईलम का समर्थन नहीं करता। वह श्रीलंका में 1947 को दोहराना नहीं चाहता। लेकिन भारत यह भी नहीं चाहता कि श्रीलंका के तमिलों के साथ अन्याय होता रहे। यदि श्रीलंका के तमिल वहाँ दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रहेंगे तो उसका कुछ दोष भारत के सिर जरूर आएगा।


श्रीलंका के सिंहल नेताओं और बौद्ध महानायकों के दिमाग से यह हव्वा हटाना बेहद जरूरी है कि शक्तियों का विकेंद्रीकरण करने से श्रीलंका का विघटन हो जाएगा। श्रीलंका-जैसा विविधतामय देश ग्रेट-ब्रिटेन की तरह केंद्रीकृत व्यवस्था के अंतर्गत तो नहीं चल सकता। यह बात समस्त सिंहल नेता समझते हैं लेकिन उनके दिल में भारत के तमिलनाडु की दहशत बैठी हुई है। उन्हें लगता है कि उत्तर और पूर्व के तमिल प्रांतों को एक कर दिया गया और उन्हें भारत के प्रांतों की तरह काफी अधिकार दे दिए गए तो उनके मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री बनने में कोई देर नहीं लगेगी, क्योंकि उनकी पीठ पर भारत के तमिलनाडु का हाथ होगा। यह सिंहल नेताओं की शुद्ध गलतफहमी है। हमारे तमिलों की सहानुभूति श्रीलंका के तमिलों के साथ हो, यह स्वाभाविक है लेकिन क्या ऐसा कभी हो सकता है कि हमारे करोड़ों तमिल तो `प्रांत' के रूप में रहें और श्रीलंका के 20-25 लाख तमिल `राष्ट्र' के रूप में रहें ? भारतीय तमिल कभी नहीं चाहेंगे कि श्रीलंका के तमिल उनसे एक बालिश्त ऊपर दिखें। एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आना एक बात है और दूसरे को अपने सिर पर बिठाना बिल्कुल दूसरी बात है। इसीलिए प्रभाकरन के तमिल ईलम (स्वतंत्र तमिल राष्ट्र) का समर्थन करनेवाले लोग तमिलनाडु में बहुत कम हैं। इसके अलावा राजीव गाँधी की हत्या करके प्रभाकरन ने `ईलम' की जड़ों को मट्ठा पिला दिया है। ईलम के प्रति जो थोड़ी-बहुत सुगबुगाहट पहले थी, वह भी खत्म हो गई है। खुद श्रीलंका के तमिलों में `ईलम' के प्रति कौनसा उत्साह है ? अगर वे `ईलम' के समर्थक होते तो प्रभाकरन को बंदूक क्यों उठानी पड़ती ? वे मतदान और सत्याग्रह के जरिए अब तक ईलम बना डालते। अगर हिंसा से ईलम बनता कभी नजर आया तो भारत उसका सक्रिय विरोध करेगा, क्योंकि यह विष-बीज भारत को ही भंग कर सकता है। सैद्धांतिक तौर पर भारत समस्त अलगाववादी तत्वों के विरूद्ध है। विदेश सचिव मेनन को ये तर्क श्रीलंका के सिंहल-समाज के गले उतारने होंगे, क्योंकि वे अभी तक यह नहीं भूले हैं कि भारत-सरकार ने ही श्रीलंका के हिंसक तमिल संगठनों को भरपूर प्रश्रय दिया था।


ऐसा नहीं है कि राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष अपनी भावी समस्याओं से बेखबर हैं। उन्होंने पहले से एक सर्वदलीय प्रतिनिधि कमेटी बना रखी है। इस कमेटी का उद्देश्य तमिलों की मांग पर विचार करना ही है। मुश्किल यह है कि इस कमेटी में सत्तारूढ़ दल और तमिल राष्ट्रीय गठबंधन के चारों दल तो हैं लेकिन श्रीलंका के प्रमुख विरोधी दल `युनाइटेड नेशनल पार्टी' और ÷जातीय विमुक्ति पेरामून' ने उसका बहिष्कार कर रखा है। `हेला उरूमया' के भिक्खु नेता भी इसके प्रति उत्साहित नहीं हैं। सभी सिंहली संगठन कहते है कि पहले लिट्टे का समूलोच्छेद हो, तभी कुछ बात हो सकती है। यह शर्त अव्यावहरिक है। हो सकता है कि वन्नी के जंगलों के लिट्टे अभी एक-दो साल तक और सांस लेती रहे। तब तक बातचीत बंद क्यों रहे ? इस 15 दलीय कमेटी में सर्वसम्मति से कुछ ठोस निर्णय करने का समय बस यही है। यदि अब भी बातचीत शुरू नहीं होगी तो बात बिगड़ जाएगी। प्रभाकरन को ना पसंद करनेवाली तमिल जनता का विश्वास भी समूचे श्रीलंका में से उठ जाएगा। ऐसा न हो, यह देखना भारत और श्रीलंका दोनों सरकारों का कर्त्तव्य है।

(लेखक, दक्षिण एशियाई राजनीति के विशेषज्ञ हैं)



कहीं भारत गच्चा न खा जाए

कहीं भारत गच्चा न खा जाए
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक





अमेरिका के नव-निर्वाचित उप-राष्ट्रपति जो बाइडन का शनिवार को अफगानिस्तान जाना और रविवार को अफगानिस्तान के राष्ट्रपति का अचानक भारत आना-ये दो अलग-अलग घटनाएँ नहीं हैं। यह अमेरिका की नई ओबामा-नीति का प्रथम चरण है। २० जनवरी को राष्ट्रपति की गद्दी पर बैठने के पहले ओबामा दक्षिण एशिया की पेचीदगियों को भली-भांति समझ लेना चाहते हैं। उनकी दुविधा यह है कि वे बुश की नीति को ही चलाए रखें या दक्षिण एशिया के लिए कोई नई नीति बनाएँ ? भारत और अफगानिस्तान जाने के पहले बाइडन पाकिस्तान गए थे। अभी तक ओबामा खेमे ने किसी नई नीति के संकेत नहीं दिए हैं लेकिन ओबामा के ताजा बयान से यह जाहिर होता है कि मुंबई का ताप अभी ठंडा नहीं हुआ है। उनका माथा अभी भी गर्म है। ओबामा ने कहा है कि जो मुंबई में हुआ, वह न्यूयार्क, वाशिंगटन और शिकागो जैसे शहरों में भी हो सकता है। इसके पहले वे कह चुके हैं कि भारत को आत्म-रक्षा का पूरा अधिकार है। नाटो-फौजों के कमांडर जनरल पेट्रेयस का कहना है कि अफगान-समस्या का हल भारत की सहायता के बिना नहीं हो सकता ! उन्होंने कहा है कि दक्षिण एशिया से आतंकवाद और हिंसा का खात्मा करने के लिए क्षेत्रीय समाधान' ढूंढ़ना बहुत जरूरी है। इस क्षेत्रीय समाधान' के लिए रूस और चीन के अलावा पाकिस्तान के अन्य पड़ौसी देशों को भी साथ लेना होगा।


अमेरिका ने अफगानिस्तान के क्षेत्रीय समाधान' की कोई योजना अभी तक पेश नहीं की है, सिवाय इसके कि अफगानिस्तान में वह ३० हजार जवान और भेज देगा। बुश प्रशासन के इस पुराने प्रस्ताव का क्षेत्रीय हल से कोई संबंध नहीं है। यह बासी जलेबी पर चाशनी की नई परत चढ़ाने-जैसा काम है। पश्चिमी फौज अफगानिस्तान में काफी कुर्बानी कर रही है लेकिन उसके मुकाबले उसकी सफलता बहुत कम है। काबुल स्थित पिछले नाटो राजदूत ने अपनी हताशा खुले-आम प्रकट भी कर दी थी। अमेरिकियों को पता है कि यदि नाटो-फौजों का यही हाल रहा तो अभी कम से कम १५ साल तक वे अफगानिस्तान में ही पड़ी रहेंगी। ये फौजें अफगान-जनता के बीच काफी अलोकप्रिय होती जा रही हैं। पिछले दिनों मुझे अफगानिस्तान के कई शहरों और गांवों में जाने का मौका मिला। अनेक अफगानों ने एक ही बात कही कि ये पश्चिमी जवान सोवियत जवानों से भी खराब हैं। ये हमारे घरों में घुसकर औरतों की तलाशी लेते हैं, बारातों और शादीघरों पर रॉकेट बरसाते हैं और हेलमंद घाटी में अफीम की तस्करी में भी हाथ बटाते हैं। पश्चिमी फौजों की अंधाधुंध कार्रवाई के कारण हामिद करज+ई सरकार भी बदनाम होती जा रही है। तालिबान का असर बढ़ता चला जा रहा है। सात साल बीत गए लेकिन करजई सरकार अपने पांव पर खड़ी नहीं हो सकी है। यदि नाटो फौजें वापस हो जाएँ तो काबुल पर कब्जा करने में तालिबान को चार-पाँच घंटे भी नहीं लगेंगे। अर्थात अफगानिस्तान का अमेरिका-समाधान विफल हो गया है। उसके मुकाबले अब क्षेत्रीय समाधान' की बात चल पड़ी है।


अफगानिस्तान के क्षेत्रीय समाधान' की बात मैंने पाँच-छह माह पहले उठाई थी (देखिए, न.भा.टा. ९ जुलाई २००८) ! जनरल पेट्रेयस ने मोटे तौर पर उन्हीं शब्दों को दोहराया है। गत माह ओबामा के विदेश नीति सलाहकारों के एक दल ने दिल्ली आकर तीन-चार दिन इसी सवाल पर काफी मगजपच्ची की। वे काफी हड़बड़ी में दिखाई पड़े। ऐसा लगा कि अमेरिका अफगानिस्तान खाली करने की फ़िराक में है। उसका हौसला पस्त हो रहा है। उसके फौजी थक रहे हैं, टूट रहे हैं। मंदी के दौर में करोड़ों डॉलर रोज खर्च हो रहे हैं। सात साल में वह लगभग ७० हजार करोड़ डॉलर बहा चुका है। पाकिस्तान उसे अलग नोच रहा है। उसे क्षेत्रीय समाधान ऐसा लगा जैसे डूबते को कोई तिनका दिखाई पड़ जाए। कोई आश्चर्य नहीं कि इसी क्षेत्रीय समाधान' के लिए यह कूटनीतिक दौड़-धूप हो रही हो।


क्षेत्रीय समाधान' का अर्थ अमेरिका यही लगा रहा है कि भारत अपनी फौजें अफगानिस्तान में डटा दे। अमेरिकी फौजें निकल आएँ और उनकी जगह भारतीय फौजें चली जाएँ। क्षेत्रीय समाधान' का यह बहुत ही बचकाना स्वरूप है। १९८१ में प्रधानमंत्री बबरक कारमल ने लगभग यही प्रस्ताव रखा था, जिसे मैंने तत्काल अव्यावहारिक बताया था। मुझे डर यह है कि हमारी सरकार कहीं इस अमेरिकी पुड़िया को बिना चबाए ही न निगल जाए। अमेरिका के साथ सामरिक साझेदारी', बुश की दोस्ती' और परमाणु-समझौते के मादक माहौल में कहीं हमारे सीधे-सादे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री गच्चा न खा जाएँ। हम यह न भूलें कि अफगानिस्तान ने पिछले डेढ़ सौ साल में तीन बार ब्रिटिश फौजों को धूल चटाई है और सोवियत फौजों को परास्त ही नहीं किया, सोवियत संघ को भंग करने में भी अपना योगदान किया है। भारत को इतिहास से सबक लेने होंगे।



भारत अपनी फौजें अफगानिस्तान जरूर भेजे, क्योंकि वह क्षेत्रीय महाशक्ति है और संपूर्ण दक्षिण एशिया, आर्यना', उसका अपना क्षेत्र है लेकिन उसका स्वरूप वैसा नहीं होना चाहिए, जैसा सोवियत या नाटो-फौजों का है। ये फौजें अफगानिस्तान पर लाद दी गईं जबकि अब जो नया प्रबंध हो, उसके अंतर्गत अफगानिस्तान की संसद से अनुमति ली जानी चाहिए। सिर्फ अफगान सरकार और ओबामा-प्रशासन की हरी झंडी काफी नहीं है। सिर्फ अफगानिस्तान ही नहीं, पाकिस्तान की संसद की सहमति भी आवश्यक है। पाकिस्तान के सहयोग के बिना अफगानिस्तान में किसी भी विदेशी फौज का सफल होना आसान नहीं है। मुंबई-हमले ने इस मूल परिदृश्य को बदल दिया है। पाकिस्तानी नेता जैसी हठधर्मी दिखा रहे हैं, उसके चलते पाकिस्तान अपने पिछवाड़े में भारतीय फौजों को किसी क़ीमत पर नहीं घुसने देगा। ऐसी स्थिति में भारतीय फौजों को काबुल ले जाने का अर्थ है, अमेरिका और पाकिस्तान का सीधा झगड़ा ! क्या अमेरिका इसके लिए तैयार है ? शायद ओबामा इतनी हिम्मत नहीं कर पाएँगे। क्या वे भारतीय फौज का खर्च उठाने को तैयार होंगे ? अमेरिकी फौज के मुकाबले वह बहुत कम होगा। भारतीय फौज नाटो-फौजों के मुकाबले काफी अधिक प्रभावशाली भी होगी। लेकिन ओबामा को ६० साल से चली आ रही अमेरिकी नीति को एकदम उलटना होगा। अभी तक वह सिर के बल खड़ी है। उसे पाँव के बल खड़ा करना होगा। दक्षिण एशिया में अमेरिका ने अब तक नक़ली शक्ति संतुलन की जो नीति अपना रखी है, उसे उसको कूड़ेदान के हवाले करना होगा। पाकिस्तान को भारत के समकक्ष खड़ा करना बंद करना पड़ेगा। यदि अमेरिका इस मौलिक परिवर्तन के लिए तैयार हो तो मुंबई-हमले का सच्चा प्रतिकार भी हो सकता है और अफगान-समस्या का हल भी ! यदि अमेरिका अपने पुराने ढर्रे पर चलता रहा और हमारी सरकार उसके क्षेत्रीय समाधान' के भुलावे में फँस गई तो भारत गच्चा खाए बिना नहीं रहेगा।

मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में (२०)


अबाध
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मित्रो!

लंबे अरसे बाद मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में के सार-अंशों के इस क्र को यहाँ पुन: पिछली कड़ी से आगे आरम्भ किया जा रहा है| इस बीच राष्ट्रीय विपदा की घड़ी में केवल तद्संबंधी विषयों पर केंद्रित सामग्री छापने के संकल्प के प्रति हम प्रतिबद्ध थेउसकी पूर्ति में कई सम्मानित लेखकों ने अपने तलस्पर्शी विशदचिन्तन-प्रधान लेखों के माध्यम से हमें सहयोग दियातदर्थ हम उनके आभारी हैंसाथ ही यहाँ उस सामग्री पर अपने मत और विचार देने वाले सहयोगी पाठकों के प्रति भी आभार व्यक्त करना चाहती हूँ, जिनके कहे शब्द हमें निरंतर बल देते रहे, जिनकी सराहना का एक एक वाक्य हमें हमारी प्रतिबद्धता के प्रति सचेत कराने का कार्य करता रहा हैउन विषयों पर यहाँ लेखन के क्रम को यद्यपि किंचित भी विराम नहीं दिया गया है, पुनरपि समानान्तर चलने वाले साहित्यिक क्रम को भी अनवरत बनाया जा रहा है (जो महीना- दो- महीना होल्ड पर था)|


आशा है, आपका स्नेह सहयोग पूर्ववत् मिलता रहेगा अपने विचारों से भी आप निरंतर अवगत करवाते रहेंगे


- कविता वाचक्नवी


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मणिपुरी
कविता : मेरी दृष्टि में

- डॉ. देवराज
[२०]




द्वितीय समरोत्तर मणिपुरी कविता : एक दृष्टि
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मणिपुर में एक ओर स्वतंत्रता का संग्राम चल रहा था तो दूसरी ओर समस्त विश्व भी युद्ध के व्यूह में फ़सा जा रहा था। दूसरे विश्व युद्ध ने न जाने कितने विनाशकारी संस्मरण मानव-मानस पटल पर छोडे़ हैं। समस्त मानव समाज एक जिजीविषा के दौर से गुज़र रहा था। मणिपुरी साहित्य भी इतिहास के इस मोड़ के साथ अंगडाई लेने लगा था। उस समय की साहित्यिक एवं राजनीतिक भूमिका पर दृष्टि डालते हुए डॉ. देवराज बताते हैं :-

"मणिपुरी भाषा की द्वितीय विश्वयुद्धोतर कविता को ‘आधुनिक कविता’ नाम दिया जाता है और मणिपुरी भाषा की कविता के आधुनिक काल का प्रारम्भ रोमानी मूड के कवि इ.नीलकान्त सिंह की सन १९४९ ई. में प्रकाशित कविता ‘मणिपुर’ से स्वीकार किया जाता है। इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत करना आवश्यक है। वह यह कि दिसम्बर, १९८७ में एच. इरावत सिंह का एक काव्य-संकलन ‘इमागी पूजा’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। एच. इरावत सिंह मणिपुर में कम्यूनिस्त पार्टी के संस्थापक हैं और उनका कहना है कि ‘इमागी पूजा’ की कविताएँ सन १९४२ के काल में रची गई थीं। यदि ये रचनाएँ उसी समय प्रकाश में आ जातीं , तो निश्चय ही मणिपुरी काव्येतिहास में आधुनिक कविता के पुरस्कर्ता का श्रेय एच. इरावत सिंह को दिया जाता। अब भी यह निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि मणिपुरी भाषा की कविता में सन ४२ के आस-पास ही वह व्याकुलता दिखाई देने लगी थी, जिसने आगे चल कर ‘मणिपुर’ जैसी युग-परिवर्तनकारी रचना का रूप लिया और सन १९४९-५० में आधुनिक कविता की नींव रखी।


"मणिपुरी भाषा की रचनात्मक स्थितियों को प्रभावित करने में सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन, राजनीतिक परिवर्तन कमोबेश एक साथ चालीस के दशक में आए। इस काल में अंग्रेज़ी पढे़-लिखे उन लोगों को सामाजिक सम्मान मिलना शुरू हो गया था जिन्हें इससे पहले अंग्रेज़ी पढ़कर घर लौटने पर पुस्तके एक निर्धारित स्थान पर रख कर स्नान करने के बाद ही गृह-प्रवेश की अनुमति मिलती थी। सामाजिक रूढि़यों को समाप्त करने के प्रयास भी इसी काल में ही और स्त्री-शिक्षा का औचित्य भी इसी काल में लोगों के गले उतरने लगा। और तो और, मणिपुर को शेष भारत से भावात्मक स्तर पर जोड़नेवाला हिन्दी-प्रचार आन्दोलन भी तीस के दश्क के अन्तिम वर्षों में शुरू होकर चालीस के दशक में फला-फूला। इसी काल में मणिपुर के राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित करने वाली संस्था मणिपुरी हिन्दू महासभा’का गठन हुआ जिसने बाद में ‘निखिल मणिपुर महासभा’ के नाम से कार्य किया। इस संस्था ने मणिपुर में ‘चरखा व्रत’ चलाया और इसके कार्यकर्ताओं ने महात्मा गांधी के सन्देशों तथा शिक्षाओं के सहारे विशाल राजनीतिक जागरण का अभियान चलाया।"



प्रस्तुति सहयोग : चंद्रमौलेश्वर प्रसाद

बैंकिंग उद्योग के लिए एक प्रस्ताव

रसांतर


बैंकिंग उद्योग के लिए एक प्रस्ताव

राजकिशोर





बैंकिग और बीमा, ये दो उद्योग ऐसे हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि ये अपनी पूँजी से नहीं, अने ग्राहकों की पूँजी से चलते हैं। जो कंपनी बीमा करती है, वह अपने पास से पैसा नहीं लौटाती। उसने जिनका बीमा किया हुआ है, उन्हीं के द्वारा जमा किए गए पैसे में से क्लेम निपटाती है। चूँकि हर साल जितने लोग क्लेम लेते हैं, उससे अधिक लोग बीमा करवाते हैं और किस्तें अदा करते हैं, इसलिए बीमा कंपनियों के पास अथाह पैसा जमा हो जाता है। बैंकों की अमीरी का रहस्य भी यही है। बैंक ऋण दे कर पैसा कमाते हैं। लेकिन यह ऋण वे अपनी जेब से नहीं देते। ग्राहकों द्वारा जमा किया गया पैसा उनकी पूँजी बन जाता है, जिससे उनमें ऋण देने की क्षमता आती है। इस तरह बैंक दूसरों के पैसे से अपना पैसा बनाते हैं। सीधे शब्दों में कहा जाए तो दोनों ही पाप करते हैं। यह निजी पूँजी नहीं है। सार्वजनिक पूँजी है, इसलिए इसका इस्तेमाल जन हित में ही होना चाहिए।


इस्लाम में सूद लेना हराम माना गया है। इसके लिए उसकी जितनी तारीफ की जाए, कम है। इसमें कोई शक नहीं कि पैसे से पैसा पैदा नहीं होता। अमरूद के पेड़ से अमरूद पैदा होता है, गाय के पेट से बछड़ा निकलता है और स्त्री बच्चा देती है। लेकिन लोहे से लोहा पैदा नहीं होता न लकड़ी से लकड़ी पैदा होती है। कागज का रुपया भी ऐसा ही एक निर्जीव पदार्थ है। उसमें वैसा ही कागज पैदा करने की क्षमता कहाँ ! फिर भी अगर सदियों से यह संभव होता रहा है, तो इसीलिए कि ऋण लेनेवाले की मजबूरी से फायदा उठाने की कोशिश की जाती रही है। उधार देना सहयोग करने की क्रिया होनी चाहिए न कि मुनाफा कमाने की।


जहाँ मुनाफा होता है वहीं नुकसान होने की संभावना होती है। यही कारण है कि बैंकों के डूबते रहने की घटना होती रहती है। आजादी के पहले हर साल कुछ बैंक डूबते थे और हजारों ग्राहकों का पैसा मारा जाता था। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने जब बैंकिंग उद्योग को रेगुलेट करना शुरू किया, तब बैंक डूबने की घटनाएँ बंद होने लगीं। अब यदा-कदा ही ऐसा होता है। उस स्थिति में रिजर्व बैंक आवश्यक कार्रवाई कर ग्राहकों के पैसे का इंतजाम कर देता है। लेकिन अमेरिका और कुछ अन्य देशों में ऐसा नहीं है। जहां बैंकों पर नियंत्रण नहीं होता, वे लालच में गलत सौदे करने लगते हैं और समय पर पैसे की वापसी नहीं होती, तो दिवालिया होने लगते हैं। बैंक ग्राहकों का पैसा डूब जाता है। इस बार अमेरिका में यही हुआ, जिससे वहाँ मंदी आ गई। अब अमेरिका की मंदी पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही है।


बड़ा सवाल यह नहीं है कि बैंकिंग उद्योग कैसे हमेशा फूलता-फलता रहे। मुनाफाखोरी के किसी धंधे में समाज की क्या रुचि हो सकती है। समाज का काम मुनाफाखोरी को रोकना है। बैंकिंग उद्योग अगर यह तय करे कि वह दस प्रतिशत सालाना से ज्यादा मुनाफा नहीं कमाएगा, तो यह उद्योग प्राइवेट हाथों में रह सकता है। अभी हालत यह है कि बैंक कई सौ गुना मुनाफा कमा रहे हैं। पैसा जमा करनेवालों को कम ब्याज देते हैं और ऋण लेनेवालों से ज्यादा ब्याज वसूल करते हैं। बीच का पैसा खा कर वे मोटाते जाते हैं। चूँकि ऋण देने के पीछे कोई सामाजिक लक्ष्य नहीं होता, इसलिए वे गरीबों को ऋण नहीं देते ताकि वे अपने जरूरी काम निपटा सकें, बल्कि अमीरों को (ताकि वे इस पैसे से और पैसा पैदा कर सकें) और मध्य वर्ग के लोगों को (क्योंकि इनके पास कुछ पैसा पहले से होता है) ऋण देते हैं। इस तरह बैंकिंग पैसे का खेल बन कर रह गई है, जिससे गरीबों का या वास्तविक जरूरतमंदों का कोई भला नहीं होता। गरीब भले ही ईमानदार हो और समय पर पैसा चुकाने की नीयत रखता हो, पर उसे ऋण नहीं मिलेगा, क्योंकि उसके पास जमानत देने के लिए कुछ नहीं होता।



इन सब बुराइयों का इलाज है। इलाज यह है कि पैसे पर सूद लेना और सूद देना, दोनों बंद कर दिए जाएँ। यह दलाली की कमाई है। दलाली की कमाई से कोई देश फूलता-फलता नहीं है। कायदे से होना यह चाहिए कि जो लोग बैंकों में पैसा जमा करते हैं, वे उसकी रखवाली के लिए एक निश्चित मात्रा में प्रबंधकीय शुल्क दें। यह बैंक की असली कमाई होगी। इस कमाई से जरूरतमंद लोगों को ऋण दिया जा सकता है। इस ऋण पर भी ब्याज न ले कर प्रशासनिक शुल्क लिया जाना चाहिए। इन दोनों शुल्कों की राशि से ही बैंकों को अपना कामकाज चलाना चाहिए। इस तरह बैंकिंग मुनाफे का उद्योग न रह कर जन सेवा का उपक्रम बन जाएगी। इसे जन बैंकिग कहा जा सकता है।


सवाल उठता है कि रुपया जमा करनेवालों के पैसे का क्या जाए। पैसे को अचल रखना ठीक नहीं है। उसका प्रवाह बने रहना चाहिए। नहीं तो अर्थव्यवस्था कुछ हद तक ठप हो जाएगी। लेकिन दूसरे के पैसे का इस्तेमाल बहुत सावधानी से होना चाहिए। इसलिए देश के अर्थशास्त्रियों को आपस में विचार करके इस विषय में अपना मत देना चाहिए। यह हो सकता है कि इस जमा राशि का एक हिस्सा छोटे उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने के लिए खर्च किया जाए और एक हिस्सा मध्य वर्ग तथा निर्धन लोगों को ऋण देने में खर्च किया जाए। इनसे किसी तरह की जमानत न ली जाए। जैसा कि उपर कहा गया है, ऋण की सभी रकमों पर सिर्फ प्रबंधकीय शुल्क लिया जाए। अमीर संस्थानों को ऋण देने की कोई जरूरत नहीं है। वे अपने शेयरहोल्डरों से जितना अधिक पैसा ले सकते हैं, लें और उसी से धंधा करें। जहाँ तक ऋण की अदायगी का सवाल है, यह जगजाहिर हो चुका है कि ज्यादातर बड़े ऋण प्राप्तकर्ता ही बैंकों को धोखा देते हैं और उनका पैसा डकार जाते हैं। जो छोटी रकमें लेते हैं, उनमें से ज्यादातर ऋण चुका देते हैं। नई व्यवस्था में जो लोग ऋण नहीं चुका पाते, उन्हें पुलिस, पंचायत आदि की सहायता से ऋण चुकाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। बदले में उन्हें दिवालिया घोषित कर (ताकि वे भविष्य में ऋण न ले सकें) उनसे विभिन्न कार्यक्रमों में मजदूरी भी कराई जा सकती है। यह भी हो सकता है कि उन्हें श्रम जेल में डाल दिया जाए और वहाँ काम करवाया जाए। जब उधार की पूरी रकम चुक जाए, तो उनकी दिवालिया वाली स्थिति खत्म की जा सकती है। फिर भी बैंकों को घाटा हो सकता है। चूंकि बैंक जन सेवा कर रहे हैं, इसलिए इस घाटे की पूर्ति सरकार को करनी चाहिए। सरकार को इसलिए कि वह मुनाफा कमाने के लिए नहीं, जनता का जीवन सुगम बनाने के लिए चुनी जाती है।


सीएनबीसी टीवी चैनल में काम करनेवाली और एक समय हमारे बगल में रहनेवाली एक लड़की को, जो बिजनेस समाचार देखती है, जब मैंने यह स्कीम सुनाई, तो उसने खट से कहा कि यह तो सोशलिस्टिक बैंकिंग है। वर्तमान बैंकिंग के लिए उसने कैपिटलिस्टिक बैंकिंग की संज्ञा का उपयोग किया। निश्चय ही वह एक क्षण में मेरी बात समझ गई। क्या मैं पाठक-पाठिकाओं से खूब सोच कर यह बताने का निवेदन कर सकता हूँ कि कौन-सी बैंकिंग समाज के ज्यादा हित में होगी - कैपिटलिस्टिक या सोशलिस्टिक?


(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं)

हिन्दी में दक्षिण भारतीय साहित्य


पुस्तक चर्चा : ऋषभ देव शर्मा


हिन्दी में दक्षिण भारतीय साहित्य*



सभी भारतीय भाषाओँ के बीच लेन -देन और आवाजाही की परम्परा बहुत पुरानी है.इस परम्परा के निर्माण में अनुवाद का बड़ा योगदान रहा है. आज़ादी के बाद हिन्दी को राजभाषा घोषित किए जाने के बाद से इस दिशा में सुनियोजित प्रयासों की श्रंखला आरम्भ होने के कारण विविध भारतीय भाषाओँ का इतना साहित्य हिन्दी में आगया है कि लंबे समय से उसके विधिवत इतिहास लेखन और मूल्यांकन की आवश्यकता अनुभव की जाती रही है.

इसी दृष्टि से दक्षिण भारतीय भाषाओँ के साहित्यिक अनुवादों के सूचीकरण और इतिहास लेखन का प्रशंसनीय प्रयास है डॉ. विजय राघव रेड्डी संपादित ''हिन्दी में दक्षिण भारतीय साहित्य [ अनूदित साहित्य के परिप्रेक्ष्य में] ''. डॉ. रेड्डी हिन्दी - तेलुगु अनुवादक के रूप में प्रतिष्ठित विद्वान हैं और अनुवाद्केंद्रित कई राष्ट्रीय आयोजनों के श्रेय भी उन्हें प्राप्त है. इसलिए उन्हें योजनाबद्ध ढंग से इस महत्कार्य को संपन्न करने में सफलता प्राप्त हो सकी है.उन्हें चारों दक्षिण भारतीय भाषाओँ के विद्वानों,अध्येताओं और अनुवादकों का सहयोग मिला है. स्वयं इस कार्य-क्षेत्र से ईमानदारी से जुड़े लेखकों के योगदान के कारण यह कृति सहज प्रामाणिक मानी जा सकती है.

संपादित पुस्तक में चार खंड है. एक-एक खंड में एक -एक भाषा [तमिल / तेलुगु / कन्नड़ / मलयालम ] के हिन्दी में अनूदित साहित्य को लिया गया है. हर खंड में सम्बंधित भाषा से अनुवाद के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर प्रकाश डालने के बाद प्राचीन काव्य से लेकर आधुनिक गद्य की विभिन्न विधाओं तक के हिन्दी अनुवाद-कार्यों का सर्वेक्षण अलग-अलग आलेखों में प्रस्तुत किया गया है.

तुलनात्मक साहित्य के अध्येताओं के लिए अनिवार्य इस ग्रन्थ का हिन्दी जगत में व्यापक स्वागत होना स्वाभाविक है.

[निस्संदेह मूल्य बहुत अधिक है !]

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हिन्दी में दक्षिण भारतीय साहित्य [ अनूदित साहित्य के परिप्रेक्ष्य में ] सम्पादक : डॉ. विजय राघव रेड्डी
वर्ष २००८
प्रकाशक अकादमिक प्रतिभा , ४२ , एकता अपार्टमेन्ट , गीता कालोनी , दिल्ली - ११००३१
मूल्य ४७५ रुपये


पृष्ठ २१६./ सजिल्द

ग्रीड इज गुड ?



तीन खतरनाक संस्थाएँ
राजकिशोर




हर संकट कुछ न कुछ सिखाता है। यह सीखनेवाले पर निर्भर है कि वह क्या सीखता है। एक ही घटना से अलग-अलग सबक सीखा जा सकता है। वर्तमान आर्थिक संकट से अमेरिका ने यह सीखा है कि सरकारी पैसे उड़ेल कर संकटग्रस्त संस्थाओं को बचाओ। भारत सरकार का खजाना उतना बड़ा नहीं है। इसलिए वह नोट पर नोट नहीं उड़ेल पा रही है। उसकी सारी कोशिश यह है कि ब्याज की दर घटा कर बाजार में अधिक से अधिक रुपया मुहैया कराया जाए। लेकिन न अमेरिका की हालत सुधर रही है, न भारत की। मंदी और उसका मनोविज्ञान दोनों के सिर पर हावी है। इससे यह सवाल पैदा होता है कि इस आर्थिक मंदी से क्या कुछ अलग भी सीखा जा सकता है। हमारा उत्तर है, हाँ।


अगर किसी के सिर में दर्द है, तो दर्द का इलाज करना चाहिए। सिर को धड़ से अलग कर देना कोई समाधान नहीं है। लेकिन अगर यह साबित किया जा सके कि मानव शरीर में सिर की कोई उपयोगिता नहीं है और वह शरीर पर बोझ है, तब क्या करना चाहिए? जब यह भी साबित हो जाए कि सिर कुछ देता नहीं है, बल्कि उसमें बार-बार दर्द होता रहता है, तो सिर दर्द का इलाज कराने में कौन-सी बुद्धिमानी है? इससे तो अच्छा है कि बेकार, अनुपयोगी और परेशानी पैदा करनेवाले सिर से ही छुटकारा पा लिया जाए। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।


आज की अर्थव्यवस्था में इस बेकार और मनहूस सिर की भूमिका कौन निभा रहा है? हमारा सोचा-समझा उत्तर है -- बैंकिंग, बीमा व्यवसाय और शेयर बाजार। ये तीनों ही खतरनाक संस्थाएँ हैं। जिस अर्थव्यवस्था में ये संस्थाएँ रहेंगी, उसके समस्याग्रस्त होते रहने को कोई रोक नहीं सकता। दावा किया जा रहा है कि वर्तमान विश्वव्यापी आर्थिक संकट से भारत ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ है, क्योंकि उसने अपनी अर्थव्यवस्था को पूरी तरह भूमंडलीकरण का अंग नहीं बनने दिया है। यह सफेद झूठ है। अगर हम भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से अपेक्षाकृत मुक्त हैं, तो हमारे यहाँ मंदी क्यों आई? सिर्फ डॉलर का पलायन इसका कारण नहीं हो सकता। फिर ये डॉलर हमारे शेयर बाजार में लगे हुए थे, जो जुआघर का आधुनिक पर्याय है। शेयरों के भाव गिरने से टिकाऊ उपभोक्ता सामान के व्यापार में गिरावट क्यों आनी चाहिए? सभी जानते हैं कि शेयरों का बाजार मूल्य उनका वास्तविक मूल्य नहीं होता। नहीं तो शेयरों की कीमतों में इतने बड़े पैमाने पर उतार-चढ़ाव नहीं आ सकता।


सचाई यह है कि भारत की तीन-चौथाई जनता इन तीनों खतरनाक संस्थाओं -- बैंक, बीमा और शेयर बाजार -- से बाहर है। इसलिए इन तीन क्षेत्रों में अगर संकट आता है, तो साधारण भारतीयों का साधारण जीवन प्रभावित नहीं होता। यहाँ तक कि भारत में जिन लोगों की नौकरियाँ जा रही हैं, उनमें भी ज्यादातर मध्य वर्ग के ही लोग हैं। कल अगर साधारण लोगों की नौकरियाँ भी जाने लगीं, तो संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों की संख्या इतनी कम है कि उससे देश की बुनियादी अर्थव्यवस्था प्रभावित नहीं होनेवाली है। हाँ, यह जरूर होगा कि बैंक, बीमा और शेयर बाजार के चक्र में फंसे हुए लोग अपने संकट को साधारण लोगों की तरफ अग्रसरित कर देंगे और गेहूँ के साथ घुन भी पिसेगा। वैसे, सच एकदम उलटा है : घुन के साथ गेहूँ भी पिसेगा। गेहूँ की रक्षा हम तभी कर सकेंगे जब घुन से छुटकारा पा सकें।


जिन्हें यहाँ खतरनाक संस्थाएँ कहा जा रहा है, उन तीनों के ही द्वारा कोई वास्तविक उत्पादन नहीं किया जाता। यही कारण है कि जब आधुनिक पूंजीवाद नहीं आया था, तब इनमें से किसी भी संस्था का अस्तित्व तक नहीं था। बैंक नहीं थे, साहूकार थे। पर वे ब्याज पर अपना पैसा चलाते थे -- किसी और का पैसा नहीं। बल्कि जरूरत पड़ने पर वे राजा-महाराजाओं और जमींदारों के अपने पास से पैसा उधार देते थे। आज के बैंकर अपना पैसा नहीं के बराबर लगाते हैं। वे शेयर जारी कर जनता से अपनी पूँजी जमा करते हैं और जरूरत पड़ने पर केंद्रीय बैंक यानी सरकार से उधार लेते हैं। लेकिन उनकी कमाई उनकी अपनी होती है, जिसका एक मामूली हिस्सा ही लाभांश के रूप में वितरित किया जाता है। बाकी कमाई बैंकों के संचालक और बाबू अपनी ऐयाशियों के लिए हड़प लेते हैं। पुराना साहूकार यही काम बहुत छोटे पैमाने पर करता था। इसलिए वह अर्थव्यवस्था पर बोझ नहीं था। आज का साहूकार शाखा पर शाखा खोलता जा रहा है, इसलिए उसे अपना कुनबा चलाने के लिए जनता की कमाई का बड़ा हिस्सा चाहिए। पहले वे लोग सुखी माने जाते थे जिन्हें साहूकार का मुँह देखने की जरूरत नहीं पड़ती थी। आज उसे बेहद पिछड़ा माना जाएगा जिसका किसी बैंक में खाता नहीं है या जिसने बैंक से लोन नहीं लिया है।


बीमा व्यवसाय का किस्सा कुछ अलग है, पर यहाँ भी कोई उत्पादन नहीं होता और मुफ्त की प्रचुर कमाई होती है। बीमा कंपनी भी अपने पैसे नहीं चलती, बीमाकृत व्यक्तियों के योगदान से चलती है। वह हर साल जितना उगाहती है, उससे बहुत कम का भुगतान करती है। इस तरह उसके पास पैसा जमा होता जाता है। यह हराम की कमाई है, जिस पर कोई सभ्य व्यक्ति गर्व नहीं कर सकता। फिर अमेरिका की बहुत बड़ी बीमा कंपनी एआईजी क्यों लड़खड़ाने लगी? इसका कारण वही है जो अमेरिकी बैंकों की लड़खड़ाहट का है। इस बीमारी का नाम है, लालच। पूँजीवाद के समर्थन में अभी हाल तक कहा जाता था कि ग्रीड इज गुड यानी लालच अच्छी चीज है। आज पूरी दुनिया इस सीख का नजारा देख रही है। अमेरिकी बैंकों ने लालच की गिरफ्त में आ कर ऐसे लोगों को लोन दिया जिनके पास चुकाने की सामर्थ्य नहीं थी और बीमा कंपनियों ने ऐसी संपत्तियों का बीमा किया जिनकी कीमत स्थिर थी। इसे ही सब-प्राइम संकट कहा जाता है यानी हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे। भारत के बैंक और बीमा संस्थान अभी अमेरिकी स्तर के लालच का शिकार नहीं हुए हैं। इसलिए वे बहती गंगा में डूबने से बचे हुए हैं। लेकिन भविष्य की गारंटी कौन ले सकता है? अगर लालच ही एकमात्र प्रेरक शक्ति रह गई है, तो इस समाज का खुदा ही मालिक है।


फिर भारत के बैंक संकट में क्यों पड़े? इसका एक कारण यह है कि उन्होंने काफी पैसा विदेशी, खासकर, अमेरिकी वित्तीय संस्थानों में निवेश कर रखा था। जब इन संस्थानों की संपत्तियों का मूल्य गिरने लगा, तो हमारे बैंक भी गरीब होने लगे। दूसरी ओर, शेयर बाजार में गिरावट से भी संपत्तियों का मूल्य गिरा तथा अंबानी, टाटा आदि की कुल आर्थिक वकत में भारी गिरावट आई। बैंकों ने भी शेयरों में रुपया लगा रखा था, सो उन्हें भी घाटा उठना पड़ा। यहाँ यह पूछना प्रासंगिक होगा कि बैंकों ने अपना रुपया बाहर क्यों लगा रखा था। जवाब यह है कि वे ब्याज की जिस दर पर ग्राहकों का पैसा जमा करते हैं, उससे ऊँची दर पर अपना पैसा नहीं खटाएँ, तो उनकी दुकान बंद नहीं हो जाएगी? पहले के साहूकार सिर्फ साहूकारी करते थे। इसलिए वे कभी आर्थिक संकट में नहीं पड़ते थे। आज के साहूकार रुपया जमा करने और लोन देने के साथ-साथ व्यापार भी करते हैं। वे रुपए से रुपया पैदा करने की कोशिश करते हैं। कौन नहीं जानता कि व्यापार में हमेशा जोखिम होता है? तब तो और भी ज्यादा जब व्यापार किसी ठोस चीज का न हो कर मुद्रा नाम की अत्यंत चंचल चीज का हो। रहीम के एक दोहे में कहा गया है कि चूंकि लक्ष्मी जैसी युवा स्त्री का विवाह विष्णु जैसे पुरुष पुरातन से हुआ है, जो उसे किसी भी तरह संतृप्त नहीं कर सकता, तो वह 'क्यों न चंचला होय?' आज की लक्ष्मी तो वार वनिताओं की तरह रोज जिस-तिस से ब्याह रचाती रहती है, अत: वह तो एक जगह या एक पुरुष के साथ स्थिर हो कर बैठ ही नहीं सकती।


इसका सबसे मजेदार नजारा शेयर बाजार में देखा जा सकता है। यह वह बाजार है जहाँ शेयरों की खरीद-बिक्री होती है। हर शेयर बार-बार खरीदा जाता है और बार-बार बेचा जाता है। कई बार एक ही दिन में उसकी खरीद-बिक्री कई-कई बार हो जाती है। दरअसल, शेयर बाजार के खिलाड़ी शेयर खरीदते ही इसलिए हैं कि उन्हें अच्छी कीमत पर बेचा जा सके। यहां विवाह संस्था की स्थिरता नहीं है, उच्छृंखल भोग-विलास की लालसा है, जिसमें कोई किसी का सच्चा मित्र नहीं होता और सभी एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी होते हैं। गाँधी जी के शब्दों में यह 'बेसवा बाजार' है। विडंबना यह है कि शेयर बाजार में भी कुछ पैदा नहीं होता -- सिर्फ जुआ खेला जाता है। जुए की महिमा से हम लोग युधिष्ठिर के समय से ही वाकिफ हैं। आज की खूबी यह है कि यह लत नहीं रही, एक प्रतिष्ठित व्यवसाय बन गई है। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है कि शेयर बाजार से रुपया कैसे खींचे। अखबारों में और टीवी पर रोज बताया जाता है कि कौन-सा शेयर कितना उछला और कितना लुढ़का -- साथ में यह एक्सपर्ट सलाह भी कि अपने शेयरों के साथ क्या करें। बहुत-से लोग तो सिर्फ यही जानने के लिए अखबार खोलते हैं और टीवी के सामने मुँह बाए बैठे रहते हैं।


हम तो यह मानते हैं कि शेयर बाजार की संस्था पूँजीवाद के विकास की दृष्टि से भी खतरनाक है। पूँजीवाद की स्थिरता और वास्तविक प्रगति के लिए यह आवश्यक है कि साबुन की खरीद-बिक्री की जाए -- झाग की नहीं। शेयर बाजार मूलत: झाग का व्यापार है। इसे ही बुलबुले का फैलना और फूटना कहते हैं। पूँजीपति लाभ-होने के मामले में बहुत सतर्क होता है, पर शेयर बाजार में उसके पाँव स्थिर नहीं रह जाते। वह कूदने लगता है, भागने लगता है, उछलने लगता है, एक कदम आगे और एक कदम पीछे चलने लगता है, जिसका नतीजा यह होता है कि वह समय-समय पर औंधे मुँह गिर पड़ता है। शेयर बाजारों के दरवाजों पर हमेशा के लिए ताला लगा दिया जाए, तो पूँजीवाद को कुछ सुरक्षा ही मिलेगी। जिस किराएदार को रोज घर बदलना पड़े, उसके सुखी होने की गारंटी कौन ले सकता है?


तो बैंकिंग, बीमा और शेयर बाजार को खत्म कर देने से वाणिज्य-व्यापार का क्या होगा? इसका उत्तर कठिन नहीं है, पर संतोषजनक वैकल्पक व्यवस्था करने के लिए हमें एक ऐसे समाज की कल्पना करनी होगी, जिसमें न तो सरकार जनता की दुश्मन हो और न उद्योग-धंधा चलानेवाले ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने की ख्वाहिश रखते हों। शेयर बाजार के विकल्प की तो जरूरत ही नहीं है। बैंकिग और बीमा को व्यवसाय न बना कर जन सेवा का माध्यम बनाया जाना चाहिए। दरअसल, बीमा की भी कोई जरूरत नहीं है, अगर सरकार या उसके द्वारा बनाई गई कोई संस्था सबकी आर्थिक सुरक्षा की जिम्मेदारी ले ले। जहाँ तक बैंकों का सवाल है, उन्हें सिर्फ रुपए-पैसे की सुरक्षा का काम करना चाहिए और इसके लिए ग्राहकों से प्रशासनिक शुल्क लेना चाहिए। मुद्दे की सबसे बड़ी बात यह है कि इन तीन संस्थाओं के रहने से जो लाखों लोग फालतू के अनुत्पादक कामों में लगे रहते हैं, वे चिड़ियाखाने से मुक्त होने के बाद अन्न, कपड़ा और इस्पात पैदा करेंगे, बच्चों को पदाएँगे और सड़कों तथा गलियों को साफ-सुथरा रखेंगे। तब उन्हें भी यह संतोष होगा कि हम कुछ सार्थक काम कर रहे हैं। दिन को उनका चेहरा खिला रहेगा और रात को नींद भी अच्छी आएगी।

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पाकिस्तान को घोषित करें आतंकवादी राष्ट्र



पाकिस्तान को घोषित करें आतंकवादी राष्ट्र

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

हमारे प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और गृह मंत्री के अब तक के बयानों ने भारत की क्या छवि पैदा की है ? उन्होंने उसी छवि को मजबूत किया है, जो 1947-48 में बनी थी। औसत पाकिस्तानियों को मैंने कई बार यह कहते सुना है कि भारत बनियों का देश है। आप लोग दब्बू और डरपोक हैं। देखिए मि. जिन्ना ने मि. गांधी को किस बुरी तरह छकाया था। अब भी यही हो रहा है। हमारे गृह मंत्री कह रहे हैं - अबकी बार मार, फिर बताता हूँ। हम जब भी पिटते हैं, यही कहते हैं, चाहे संसद हो, अक्षरधाम हो या मुंबई हो। विदेश मंत्री कहते हैं कि हमारे सारे विकल्प खुले हैं। इसका क्या मतलब ? क्या यह नहीं कि निकम्मे बने रहने का विकल्प भी खुला हुआ है ? मुंबई-हमले को डेढ़ माह बीत गया और भारत डेढ़ इंच भी आगे नहीं बढ़ा। वह सिर्फ जबानी जमा-खर्च में लगा हुआ है। प्रधानमंत्री कहते हैं कि युद्ध का नाम भी मत लो। उसका तो सवाल ही नहीं उठता। यह बात अपने आप में ठीक है लेकिन युद्ध का माहौल खड़ा करने की जिम्मेदारी किसकी है ? भारत के अपरिपक्व टीवी एंकरों की और सरकार की भी, जिसने कह दिया कि हमारे विकल्प खुले हैं। खुले हैं' का असली अर्थ भारत की जनता को पता है लेकिन पाकिस्तान की जनता मान बैठी कि अब युद्ध सिर पर आ गया है। इस समझ ने पाकिस्तान की फौज, सरकार, विपक्ष, तालिबान, आतंकवादियों और जनता सबको एकजुट कर दिया। आतंकवाद का मुद्दा हाशिए में चला गया और पाकिस्तान बचाओ', यही सबसे बड़ा मुद्दा बन गया।


पाकिस्तान तो बचा-बचाया ही है। पाकिस्तान भारत से छोटा है लेकिन छोटे मियाँ सुभानअल्लाह ! पाकिस्तान के नेताओं ने भारतीय नेताओं को ऐसी कूटनीतिक पटकनी मारी है कि उन्हें पल्ले ही नहीं पड़ रहा कि वे अब क्या करें ? पाकिस्तान ने मुंबई की गेंद अमेरिका के पाले में डाल दी है। अब हमारे चिदम्बरम वाशिंगटन जाएँगे और बुश की चिलम भरेंगे। बुश की चिलम पहले से ही भरी हुई है, पाकिस्तानी तंबाखू से ! पाकिस्तानियों ने अमेरिकियों को जितना बेवकूफ बनाया है, दुनिया के किसी भी राष्ट्र ने नहीं बनाया है। पिछले सात साल में 12 अरब डालर ढीले कर दिए अमेरिका ने ! पाकिस्तान के फौजियों ने इस पैसे से सबसे पहले अपनी जेबें भरीं, फिर भारत से लड़ने के लिए हथियार खरीदे और अमेरिका को अंगूठा दिखा दिया। आज तक न उसामा बिन लादेन पकड़ा गया और न ही मुल्ला उमर ! वजीरिस्तान, स्वात घाटी और सीमांत के अनेक क्षेत्रों में तालिबानी शिकंजा कसता चला जा रहा है। अफगानिस्तान में उसकी पहुंच अब काबुल तक हो गई है। पाक-अफगान सीमांत पर अमेरिकी मर रहे हैं। सारे पाकिस्तान में अमेरिकियों की थू-थू हो रही है और हमारी सरकार है कि उसने अपना गोवर्धन पर्वत अमेरिका की चिट्टी उंगली पर टिका दिया है। जो अमेरिका अपने मुँह पर भिनभिना रही मक्खियाँ नहीं उड़ा सकता, वह भारत के लिए शेर मारेगा, यह सोच कितना भोला है ? इस सोच पर कौन न मर जाए, या खुदा !

अमेरिकी सरकार का मुख्य लक्ष्य क्या है ? अमेरिका के हितों की रक्षा करना या भारत के हितों की रक्षा करना ? अमेरिका यह कदापि नहीं चाहेगा कि भारत पाकिस्तान के आतंकवादी अड्डों पर हमला करे। क्यों ? इसलिए कि फिर पाकिस्तान भारत से लड़ेगा। वह अपने पश्चिमी सीमांत से अपनी फौजें हटा लेगा। इसी पाक-अफगान सीमांत पर फौजें डटाए रखने के लिए ही तो अमेरिका पाकिस्तान को फिरौती (ब्लेकमेल मनी) चुका रहा है। अमेरिका अपने हितों की हानि क्यों होने देगा ? भारत में चल रहा आतंकवाद खत्म हो या न हो, इससे अमेरिका को क्या फर्क पड़ता है ? थोड़े-बहुत अमेरिकी दबाव के कारण पाकिस्तान यदि कुछ कदम उठा ले तो ठीक, वरना परनाला अपनी जगह बहता रहे। भारत रोता रहे, पाकिस्तान हँसता रहे।

यदि भारत सरकार को पूरा विश्वास है कि मुंबई हमले के लिए पाकिस्तान के गैर-सरकारी ही नहीं, सरकारी तत्व भी जिम्मेदार हैं तो अमेरिकी शरण में जाने से क्या फायदा है ? अमेरिका क्या कर लेगा ? क्यों वह अपनी थैली का मुँह बंद कर लेगा ? क्या वह पाकिस्तान को हथियार देने पर रोक लगा देगा ? ऐसा किए बिना वह पाकिस्तान पर रत्ती भर असर भी नहीं डाल सकता। चिदंबरम अपने प्रमाण किसको दिखाएँगे ? क्या प्रत्यक्ष को भी प्रमाण की जरूरत होती है ? मुंबई की सच्चाई क्या है, यह सबको पता है। ऐसी स्थिति में भारत सरकार को सीधे सुरक्षा परिषद में जाना चाहिए। संयुक्तराष्ट्र महासभा में जाना चाहिए। दुनिया के राष्ट्रों से घोषित करवाना चाहिए कि पाकिस्तान आतंकवादी राष्ट्र है। पाकिस्तान पर वे सारे प्रतिबंध लगवाना चाहिए, जो कभी मुअम्मर कज्जाफी के लीब्या पर, तालिबान के अफगानिस्तान पर और सद्दाम हुसैन के एराक़ पर लगाए गए थे।

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