अभी न होगा मेरा अंत




प्रभाष जोशी- एक युग का अवसान


 


गुरुवार की रात और रातों जैसी नहीं थी। इस रात जो हुआ उसके बाद आने वाली कोई भी रात अब वैसे नहीं हो पाएगी। रात एक बजे के कुछ बाद फोन बजा और दूसरी ओर से एक मित्र ने कहा, बल्कि पूछा कि प्रभाष जी के बारे में पता है?आम तौर पर इस तरह के सवाल रात के इतनी देर में, जिस मकसद से किए जाते हैं वह जाहिर होता है। मित्र ने कहा कि प्रभाष जी को दिल का दौरा पड़ा और वे नहीं रहे।



काफी देर तो यह बात मन में समाने में लग गई कि प्रभाष जी अतीत हो गए हैं। अभी तीन दिन पहले तो उन्हें स्टूडियो में बुलाने के लिए फोन किया था तो पता चला था कि वे पटना जा रहे हैं- जसवंत सिंह की किताब का उर्दू संस्करण लोकार्पित करने। पटना से वे कार से वाराणसी आए और कृष्णमूर्ति फाउंडेशन में रूके। वहाँ से हमारे मित्र और मूलत: वाराणसी वासी हेमंत शर्मा को फोन किया और कहा कि गेस्ट हाउस में अच्छा नहीं लग रहा। हेमंत ने गाड़ी भेज कर उन्हें घर बुला लिया। घर पर उन्हें इतना अच्छा लगा कि एक दिन और रूक गए। इसके बाद लखनऊ मे गोष्ठी थी। हिंद स्वराज को ले कर, उसमें भी गोविंदाचार्य के साथ कार से गए। वहाँ से जहाज से दिल्ली लौटे थे और बहुत थके हुए थे।




मेरे गुरु प्रभाष जोशी क्रिकेट के दीवाने थे। इतने दीवाने कि क्रिकेट के महापंडित भी कहते थे कि अगर पेशेवर क्रिकेट खेलते तो भारत की टीम तक जरूर पहुँच जाते। क्रिकेट का कोई महत्वपूर्ण मैच चल रहा हो तो प्रभाष जोशी को फोन करना अपनी आफत बुलाने जैसा था। गुरुवार की रात भी क्रिकेट का मैच ही था और भारत आस्ट्रेलिया से सीरीज छीनने के लिए खेल रहा था। सचिन तेंदुलकर ने वनडे क्रिकेट में 17000 रन का रिकॉर्ड बना लिया था और प्रभाष जी उत्साहित थे मगर तभी विकेट गिरने शुरू हो गए और भारत हार की ओर बढ़ने लगा। प्रभाष जी बेचैन हुए। ब्लड प्रेशर की गोली खाई। टीम हार गई तो बेचैनी और बढ़ी और आखिरकार और दवाई लेने से भी लाभ नहीं हुआ तो बेटा संदीप उन्हें पास में गाजियाबाद के नरेंद्र देव अस्पताल में ले गया। मगर वहां तक पहुँचते पहुँचते काया शांत हो चुकी थी। प्रभाष जी के प्रिय, कुमार गंधर्व के गाए निगुर्णी भजन से शब्द उधार लें तो हंस अकेला उड़ गया था।



प्रभाष जी के सारे प्रिय जन एक एक कर के संसार से जा रहे थे और प्रभाष जी हर बार उन पर रुला देने वाला लेख लिखते थे। सिर्फ एक बार रामनाथ गोयनका के निधन पर उनका लेख नहीं आया और जब पूछा तो उन्होंने कहा कि मेरे मन में अब तक समाया नहीं हैं कि आरएमजी नहीं रहे। उनके हर लेख में एक तरह का आत्मधिक्कार होता था कि सब जा रहे हैं तो मैं क्यों जिंदा हूँ। बार बार यह पढ़ कर जब आपत्ति का एक पत्र लिखा तो उन्होंने बाकायदा कागद कारे नाम के अपने कॉलम में इसका जवाब दिया और कहा कि राजेंद्र माथुर, राहुल बारपुते, शरद जोशी, कुमार गंधर्व और सगे छोटे भाई की मौत में मुझे अपना एक हिस्सा मरता दिखता है और जो प्रतीत होता है वही मैं लिखता हूँ।



प्रभाष जी के कई चेहरे थे। एक क्रिकेट को भीतर से / बाहर से जानने वाला और कपिल देव को देवीलाल से पहली बार दो लाख रुपए का इनाम दिलवाने वाला, कपिल, सचिन, अजहर, गावस्कर, विशन सिंह बेदी से दोस्ती के बावजूद रणजी और काउंटी खेल चुके बेटे संदीप को भारत की टीम में शामिल करने की सिफारिश नहीं करने वाला, एक्सप्रेस समूह की प्रधान संपादकी ठुकरा कर जनसत्ता निकालने वाला, जनसत्ता को समकालीन पत्रकारिता का चमत्कार बना देने वाला, सरोकारों के लिए लड़ने वाला, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी से दोस्ती के बावजूद उनकी धर्म ध्वजा छीनने वाला, कुमार गंधर्व के भजनो में डूबने वाला, अपने हाथ से दाल वाफले बना कर दावत देने वाला, पूरे देश में घूम कर पत्रकारिता में आई खोटों के खिलाफ अलख जगाने वाला, जय प्रकाश आंदोलन में शामिल होने वाला और उसके भी पहले बिनोवा भावे के भूदान आंदोलन में घूम घूम कर रिपोर्टिंग करने वाला, हाई स्कूल के बाद पढ़ाई बंद करने के बावजूद लंदन के एक बड़े अखबार में काम करने वाला, धोती कुर्ता से ले कर तीन पीस का सूट पहन कर खाटी ब्रिटिश उच्चारण में अंग्रेजी और शुद्व संस्कृत में गीता के श्लोक समझाने वाला, प्रधान संपादक होते हुए डेस्क पर सब एडिटर बन कर बैठ जाने वाला, अनवरत यात्रा करने वाला, एक्सप्रेस समूह के मालिक को पत्रकारिता की आचार संहिता याद दिलाने वाला और सबसे अलग घर परिवार वाला एक चेहरा जिसमें यह भी शामिल है कि मेरे लिए लड़की माँगने लड़की वालों के घर वे पत्नी के साथ मिठाई का डिब्बा ले कर खुद पहुँचे थे।



प्रभाष जी के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है और बहुत कुछ खुद उन्होंने लिखा है। लेकिन आदि सत्य यह है कि हिंदी पत्रकारिता के ऋषि कुल के वे आखिरी संपादक थे। संपादक और सफल संपादक अब भी हैं मगर अब प्रभाष जोशी कोई नहीं है। प्रभाष जी की माँ अभी हैं और कल्पना कर के कलेजा दहलता है कि अपने यशस्वी बेटे की देह को वे देखेंगी तो कैसा लगेगा? याद आता है कि कागद कारे कॉलम कभी स्थगित नहीं हुआ। याद यह भी आता है कि बांबे हास्पीटल में ऑपरेशन के बाद प्रभाष जी इंटेसिव केयर यूनिट से बाहर आए थे और डॉक्टरों के लाख विरोध के बावजूद बोल कर मुझसे अपना कॉलम लिखवाया था। उस कॉलम में उन्होंने निराला की पक्ति लिखवाई थी- अभी न होगा मेरा अंत। आज वह पक्तिं याद आ रही है।



प्रभाष जी का जाना एक युग का अवसान है। एक ऐसा युग जहाँ सरोकार पहले आते थे और बाकी सब बाद में। उनके सिखाए पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी हैं और बड़े बड़े पदों पर बैठी है। उनमें से ज्यादातर को प्रभाष जी के दीक्षा में मिले संस्कार और सरोकार याद हैं। तिहत्तर साल की उम्र बहुत होती है लेकिन बहुत ज्यादा भी नहीं होती। प्रभाष जी कहते थे कि वे गांधीवाद पर एक किताब लिखना चाहते हैं और एक और किताब भारत की समकालीन राजनीति के विरोधाभासों पर लिखना चाहते हैं। काल ने उन्हें इसका अवसर नहीं दिया।



लिखना प्रभाष जी का शौक नहीं था। शानदार हिंदी और शानदार अंग्रेजी लिखने वाले प्रभाष जी ने सरोकारो की पत्रकारिता की और कई बार ऐसा भी हुआ कि सरोकार आगे चले गए और पत्रकारिता पीछे रह गई। जनसत्ता के प्रभाव के कम होने की एक वजह यह भी थी कि प्रभाष जोशी का ज्यादातर समय विश्वनाथ प्रताप सिंह की तथाकथित गैर कांग्रेसी सरकार बनाने में लग रहा था और वे कभी देवीलाल तो कभी चंद्रशेखर तो कभी अटल बिहारी वाजपेयी को साधने में जुटे हुए थे।



प्रभाष जी जैसा अब कोई नहीं है। ईश्वर करे कि मेरा यह विश्वास गलत हो कि उन जैसा कोई और नहीं होगा। लेकिन प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। घर फूँक कर निकलने की हिम्मत चाहिए। जो सच है उस पर अड़े रहने की जिद चाहिए। इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रभाष जी ने हिंदी पत्रकारिता को भाषा के जो संस्कार दिए, एक नया व्याकरण दिया और सबसे आगे बढ़ कर पत्रकारिता की प्रतिष्ठा से कोई समझौता नहीं होने दिया। वैसा करने वाला फिलहाल कोई नजर नहीं आता। बहुत पहले प्रभाष जी के साठ साल पूरे होने पर राहुल देव और मैंने एक किताब संपादित की थी और उसके आखिरी वाक्य से यहाँ विराम देना चाहूँगा। मैंने लिखा था कि प्रभाष जी समुद्र थे और उन्होंने खुल कर रत्न बाँटे मगर मैं ही अंजुरी बटोर कर उन्हें समेट नहीं पाया।
- आलोक तोमर

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7 टिप्‍पणियां:

  1. पत्रकारिता का युग समाप्त हो गया प्रभास जी के जाने से। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।

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  2. सहमत हूँ - "प्रभाष जोशी जैसा बनने के लिये कलेजा चाहिये । घर फूँक कर निकलने की हिम्मत चाहिये । जो सच है उस पर अड़े रहने की जिद चाहिये ।"

    विनम्र श्रद्धांजलि ।

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  3. प्रभाष जोशी जी का कभी अंत नहीं हो सकता। विचारों के रूप में वे सदा मन और मानस में बसे रहेंगे।

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  4. "स्वतंत्र वार्ता" दैनिक के सम्पादक डॉ राधेश्याम शुक्ल की ईमेल द्वारा प्रेषित टिप्पणी -


    प्रभाष जोशी आज की हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में नैतिकता, आदर्श तथा प्रतिबद्धता के एक प्रतीक पुरुष थे। स्वभाव से गांधीवादी लेकिन चिंतन से समाजवादी जोशी जी ने हिंदी पत्रकारिता को एक नई भाषा, एक नई शैली और एक नया तेवर देने के साथ एक नया सामाजिक आयाम भी दिया था। उनकी नैतिकता के प्रति निष्ठा व सच्चाई के प्रति दृढ़ता आज की पत्रकारिता में अत्यंत दुर्लभ है। उन्होंने पत्रकारिता केसर्वश्रेष्ठ मूल्यों को जीने की कोशिश की, उनके साथ कभी कोई समद्ब्राौता नहीं किया।पत्रकारिता के साथ-साथ उनकी खेलों तथा शास्त्रीय संगीत में गहरी रुचि थी। क्रिकेट के साथ तो उन्हें जुनून के स्तर तक लगाव था। वह भीतर से एक अत्यंत जुनूनी खिलाड़ी थे। उन्होंने स्वयं कभी कोई खेल खेला या नहीं यह नहीं पता, लेकिन वह ख्ेल शास्त्र के पंडित थे। खेलों का विश्लेषण वह किसी राजनीतिक विश्लेषण से कम गंभीरता से नहीं करते थे। इसी तरह शास्त्रीय संगीत के भी वह असाधारण प्रेमी थे। यात्राओं के दौरान प्राय: हर समय उनका टेप रिकार्डर साथ रहता था और साथ में रहते थे उनके प्रिय गायकों के कैसेट।प्रभाष जोशी के व्यक्तित्व की एक असाधारण बात यह भी थी कि वह एक अद्ïभुत श्रोता थे। अपनी ओर से अधिक बोलना उनकी आदत में कभी नहीं था। वे किसी की भी पूरी बात ध्यान से सुनते थे और फिर जरूरी होने पर ही अपनी राय देते थे। उनका यह गुण उनकी पत्रकारिता में भी मुखर था। उन्होंने अपने स्तर पर पाठकों को अपने अखबार से जोडऩे की जितनी और जैसी कोशिश की वैसी शायद ही किसी ने कभी की हो। 1983 में उन्होंने जब जनसत्ता शुरू किया, तो उसका शायद सर्वाधिक लोकप्रिय स्तम्भ चौपाल था, जो पाठकों के पत्र का कॉलम था। शुरू में इन पत्रों का चयन व संपादन वे स्वयं करते थे।प्रभाष जी किसी राजनीतिक दल की तरफ कभी नहीं द्ब्राुके। भारतीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा के कारण प्राय: उन्हें लोग दक्षिणपंथी करार दिया करते थे, लेकिन वह इन भावनाओं की राजनीति करने वालों के साथ कभी नहीं रहे। उनकी विशिष्टïता थी जीवन के प्रति एक समग्र दृष्टि। जनसत्ता में नियमित प्रकाशित होने वाला उनका साप्ताहिक स्तम्भ 'कागदकारेÓ इसका प्रमाण रहा है। मुद्दा राजनीति का हो या समाज का, उनसे असहमत रहने वालों की कभी कमी नहीं रही, लेकिन कभी किसी ने उनकी समाज निष्ठïा या राजनीतिक ईमानदारी पर उंगली नहीं उठाई। जनसत्ता से संपादक के रूप में सेवा मुक्त होने के बाद भी वे अंत तक उसके सलाहकार संपादक बने रहे और उनका 'कागदकारेÓ स्तम्भ प्रकाशित होता रहा, लेकिन 1995 में सेवानिवृत्ति केबाद उनके पत्रकार जीवन में एक नया आयाम जुड़ा टीवी विश्लेषक का। टीवी चैनलों पर राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक के तौर पर उन्होंने एक अलग ही पहचान बनायी। बिना किसी लाग लपेट के दो टूक टिप्पणी का उनमें साहस भी था और कौशल भी।उनका निधन भी एक अजीब क्षण में हुआ। ऐसा लगता है कि क्रिकेट का असाधारण 'पैशनÓ ही उनकी जान का गाहक बन गया। भारत-आस्ट्रेलिया का हैदराबाद में हो रहा मैच अभी खत्म ही हुआ था कि उन्हें सीने में कुछ दर्द सा उठता महसूस हुआ और जब तक अस्पताल पहुंचते, कालचक्र ने उन्हें अपने आगोश में ले लिया था। जोशी जी अब नहीं है, लेकिन हिंदी पत्रकारिता शायद अपने इस अत्यंत मनस्वी व्यक्तित्व को कभी भुला नहीं सकेगी।

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  5. वरिष्ठ भाषाविद् प्रो. सुरेश कुमार जी ईमेल से लिखते हैं -

    प्रभाष जी का चले जाना और यों जाना मन को गहरी पीडा दे गया अब रविवारी जनसत्ता में ’कागद कोरे’ पढने को नही मिलेगा. श्री आलोक तोमर का संस्मरण हृदयस्पर्शी है ओम‌‍ शम्‌.

    सुरेश कुमार

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  6. समांतर कोष के प्रणेता अरविन्द जी का सन्देश -


    आलोक तोमर को बधाई--मेरे सामने उन का एक नया रूप उजागर हुआ

    Arvind Kumar

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  7. प्रभाषजी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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