आत्मविश्वास और ऊपर उठाएँ








   आत्मविश्वास और ऊपर उठाएँ 


ब्रिगेडियर चितरंजन सावंत
विशिष्ट सेवा मैडल





मेरे अनेक मित्र मुझ से अक्सर पूछते हैं कि मेरे चेहरे पर मुस्कान सदैव कैसे बनी रहती है. मैं उनका उत्तर केवल एक और मीठी मुस्कान से देता हूँ. वे और भी चकित हो जाते हैं. आँखों ही आँखों में पुनः प्रश्न करते हैं - प्रभु, कुछ तो बताएँ. आत्म श्लाघा का दोष लगने के डर से मैं कुछ कह नहीं पाता. मेरे मौन को जिज्ञासु मेरा कोरा अभिमान न समझें, इस कारण कुछ स्वर स्फुटित होते हैं.

लक्ष्य क्षमता से परे न हो


मुझे पाकिस्तान का भारत के विरोध में विष वमन बिलकुल पसंद नहीं है. मैं अक्सर सोचता हूँ कि उनकी ईंट का जवाब पत्थर से दूँ. उनके ऊपर चढाई कर दूँ. लक्ष्य अच्छा है किन्तु उसे पाना मेरी क्षमता के बाहर है. यदि मैं अकेले ही वाघा सीमा की ओरे चल दूँ तो पहले तो अपने देश की पुलिस ही मुझे एक सिरफिरा समझ कर पकड़ लेगी. यदि उनसे बचते -बचाते सीमा पार कर लूँ तो पाकिस्तानी पुलिस पकड़ लेगी. मेरा लक्ष्य एक तरफ धरा रह जाएगा और दूसरी तरफ उनकी गालियाँ सुनने और लात-घूँसा खाने को मिलेगा. पुलिस तो सीमा के आर पार एक सामान है - क्रूर, असभ्य तथा विवेक शून्य. इस लिए मैं अपने को ही दोष दूँगा कि मैंने ऐसा लक्ष्य क्यों चुना जो केवल बुद्धिहीन ही चुन सकते थे. नित्य दो बार संध्या करते समय - "धियो यो नः प्रचोदयात" कहने से क्या लाभ?
यह हवा की चक्की के ऊपर भाले से आक्रमण करना हुआ जो विवेकी मनुष्य नहीं करते. इस काम से मेरा मनोबल नीचे गिरा और हताशा ने आ घेरा.


हताशा और निराशा ऐसे दो राक्षस हैं जिनका हनन करने के लिए राम बाण की आवश्यकता पड़ती है. ये दोनों जुड़वाँ भाई हैं. साथ-साथ रहते हैं और यदि कभी अलग हुए तो आस-पास ही मंडराते रहते हैं. इन्हें भगाना लोहे के चने चबाने सामान है. यह एक अलग प्रश्न है जिस पर और कभी विस्तार से चर्चा होगी . अभी तो हमें केवल इतना सोचना चाहिए कि हम ऐसा उल्टा-सीधा लक्ष्य न चुन लें जो सर दर्द बन जाए .


अपने सामर्थ्य के अनुसार लक्ष्य चुन कर उसे पाने के लिए प्रयास करें. यदि ज्ञान पाने की बात है तो पुस्तकालय जा कर मौलिक पुस्तके पढ़ कर जानकारी लें. यदि शारीरिक काम है तो अपने शारीर को हृष्ट-पुष्ट बनायें जिससे निर्धारित काम को पूरा करने में सफलता अवश्य मिले. हमारा प्रयास यह होना चाहिए की हमें कभी असफलता मिले ही नहीं. यदि मिले, तो हम पुनः प्रयास करके असफलता को सफलता में बदल दें.


एक सफल व्यक्ति के लिए सतत रूप से प्रयास करते रहना अनिवार्य है. प्रश्न यह उठता है कि प्रयास के बावजूद हम कभी कभी असफल हो जाते हैं तो क्या अपने भाग्य को दोष दें? बिलकुल नहीं. "देव देव आलसी पुकारा " और एक विवेकी एवं सफल मानव कभी आलसी नहीं हो सकता है. असफलता का कारण प्रयास में कमी हो सकता है.

असफलता की समीक्षा करते समय यह देखना आवश्यक है कि न्यूनता कहाँ रह गयी. अगले प्रयास में उसे दूर
करके सफलता प्राप्त करें. महाराणा प्रताप कई बार युद्घ हार गए किन्तु निराश नहीं हुए. दानवीर भामाशाह द्वारा दिए गए धन से पुनः सेना संगठित की और मुग़ल किले पर धावा बोल दिया. सभी दुर्ग वापस जीत लिए, केवल चित्तौड़गढ़ नहीं ले सके.

परिवार समर्थन


जीवन में सफलता पाने के लिए हमें परिवार और मित्रों का समर्थन भी प्राप्त करना चाहिए. जीवन में कोई सम्बन्ध एकतरफा नहीं होता. यदि हम सगे-सम्बन्धियों के लिए कुछ करते रहे तो वे भी हमारे लिए कुछ अवश्य करेंगे. - पति-पत्नी के प्रेम सम्बन्ध प्रगाढ़ होने के बावजूद, सांसारिक आराम और सुख-सुविधा के लिए पति और पत्नी को एक दूसरे के लिए नित्य काम करना चाहिए. इस से प्रेम प्रगाढ़ होगा और पति-पत्नी के बीच "वो" कभी भी नहीं आ सकेगा. द्वार पर दस्तक भी नहीं दे सकेगा. इस से हम निश्चिंत हो कर अपना काम कर सकेंगे और सफलता के सहारे अपना मनोबल और अपना आत्मा-विश्वास आकाश की ऊँचाइयों तक पहुँचा सकेंगे . छोटी-मोटी सफलता भी आत्म विश्वास बढ़ने के मार्ग पर एक मील का पत्थर है. हर सफलता एक सोपान है जो हमें आत्मविश्वास को ऊँचाई तक ले जाने में सहायता करती है.


आत्म विश्वास ऊँचा उठाने में तन-मन-आत्मा; इन सभी का योगदान रहता है, स्वस्थ तन में स्वस्थ मन और स्वस्थ आत्मा तथा सशक्त सोच. जब आप अच्छी तरह सोच कर योजना बनाएँगे तो सफलता आप के हाथ चूमेंगी. मार्ग में बाधाएँ  आएँगी, उन्हें पार करते रहे. यदि कहीं गिर पड़ते हैं तो फिर से उठिए और अपने मार्ग पर चलते रहिये. छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुग़लों की ताक़त को तलवारों पर तोला था और हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की थी, एक बार मुग़ल बादशाह के बंदी भी बने. निराश नहीं हुए. मुक्ति-मार्ग की खोज करते रहे. अंततः उन्हें और उनके पुत्र संभाजी को मुक्ति मिली. आगरा से वापस महाराष्ट्र लौट कर छत्रपति शिवाजी महाराज ने पुनः अपना राज्य मुग़ल सेनापति से वापस जीत लिया. यह छत्रपति के ऊँचे आत्म विश्वास के कारण ही संभव हो सका, स्वामी दयानंद सरस्वती ने जब पहली बार कुम्भ मेले में वेद प्रचार आरम्भ किया तो सुन ने वालों की संख्या नहीं के बराबर थी. वे निराश नहीं हुए. स्वाध्याय किया, प्रवचन शैली में सुधार लाये और सरल हिंदी में प्रचार कार्य किया . महती सफलता मिली. आर्य समाज की स्थापना मुंबई में १८७५ में हुयी. फिर उन्हें मुड़ कर नहीं देखना पड़ा.



अंत में यह याद रखिये की विषम परिस्थिति में ईश्वर को याद करें. जैसा पहले अन्य लेखों में मैंने कहा है, आप और हम सदैव प्रार्थना एवं पुरुषार्थ का संगम करें. दोनों हमारे साथ हैं तो हमारे यज्ञ में राक्षस नहीं आएँगे. यदि राक्षस आ भी गए तो हमारे यज्ञ का विध्वंस नहीं कर पाएँगे. प्रार्थना और पुरुषार्थ से मिली शक्ति हमारे शस्त्रागार का ब्रह्मास्त्र है जो न केवल राक्षस को अपितु राक्षसी प्रभाव को भस्म कर देगी. फिर हमारा आत्म विश्वास आकाश को छूने लगेगा. तमस को, अन्धकार को हम अपने आत्म विश्वास से भेद कर प्रकाश का संचार कर सकेंगे और कहेंगे - तमसो मा ज्योतिर्गमय  










4 टिप्‍पणियां:

  1. व्यक्ति और समाज दोनों को इस आलेख से काफी शिक्षा प्राप्त हो सकती है.

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  2. सार्थक आलेख!

    सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
    दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
    खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
    दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

    -समीर लाल ’समीर’

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  3. यह दिया है ज्ञान का, जलता रहेगा।
    युग सदा विज्ञान का, चलता रहेगा।।
    रोशनी से इस धरा को जगमगाएँ!
    दीप-उत्सव पर बहुत शुभ-कामनाएँ!!

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  4. डूबते को तिनके का जिस प्रकार सहारा होता है, उसी प्रकार निराश व्यक्ति के लिए ईश्वर ही तो अंतिम आसरा होता है, और उसी आस्था के बल पर कठिन परिस्थिति से उबरा जा सकता है। बढिया लेख- आभार॥

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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