अपने आपसे पूछिए : कुछ दिन बाद ही सही (How dare China...)

एक दिन बाद ही सही
प्रभाष जोशी



पंद्रह अगस्त के दिन मैं अपने से पूछता रहा कि अपना देश और अपनी आज़ादी क्या इतनी भुरभुरी और रेतीली है कि चीन जैसा पडोसी देश चाहे तो हमें तीस-पैंतीस टुकड़ों में तोड़ के रख दे? हम क्या सचमुच मिट्टी के माधो हैं कि जो चाहे हमें बनाए-बिगाड़े और हम उसके हाथों में लोंदे बने पड़े रहें? बहुत चाहकर भी अपने को ऐसा दयनीय मैंने तो नहीं पाया। फिर क्यों मान लेते हैं कि हमारी एकता-अखंडता में कोई दम नहीं है। हम यों ही सवा सौ करोड़ लोग एक भौगोलिक परिस्थितियों में साथ रह रहे हैं। भूमि,संस्कृति,इतिहास और परंपराएँ हमें बाँधती नहीं। जैसे हम निरीह पशुओं के समूह हों और जिसके पास ताक़त हो हमें हंकाल कर ले जाए। अपने बाड़े में बाँधे या चरने को छुट्टा छोड़ दे। इधर-उधर हुए भी तो हम फिर एक रेवड़ में आ खड़े होंगे।



हम राष्ट्र नहीं हैं और हमारे पास ऐसा कुछ नहीं है जो हमें एक बनाकर रखे, ऐसा कभी अँग्रेज़ माना करते थे। अपने मानने को सही साबित करने के लिए हमारे अंदर के भेदों को वे तिल का ताड़ बनाकर दिखाते थे। इससे कुछ तो उनका संतोष होता था और कुछ यूरोपीय दंभ का कि उनके सवाय सभ्यता और संगठित-व्यवस्थित मानव समाज संभव नहीं है। यूरोप के इन देशों ने दूसरों को सभ्य करने के नाम पर एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका में अपने साम्राज्य कायम किए और उन्हें लूटकर विकसित और समृद्ध देश बने। फिर भारत में एक नंगा फकीर खड़ा हुआ और निहत्थे ही उसने बलशाली साम्राज्यों को यूरोप में सिमटने को मजबूर कर दिया। वे फिर भी मानते रहे कि कब तक भारत आज़ाद और एक रहेगा। बिखरेगा और हमें फिर बुलाया जाएगा। और हम फिर उसके लोगों का उद्धार करेंगे।


बासठ साल हो गए उनकी इच्छा पूरी नहीं हुई। अब चीन की इच्छा जगी है कि वह पुराने साम्राज्यवादियों की जगह ले। भारत को खंड-खंड करने में सहायक हो और इतिहास को क्रम पूरा करते देखे। चीन बेचारा साम्यवादी देश है। यूरोप के पूँजीवादी-साम्राज्यवादी देशों की तरह विस्तारवादी नहीं है। लेकिन ऐतिहासिक प्रक्रिया के अनवरत् और अटूट चलते रहने के मार्क्सवादी सिद्धांत को मानता है। हमेशा ही इतिहास का निमित्त बनने के लिए तैयार रहता है। अब उसे लग रहा है कि भारत तीस से पैंतीस टुकड़ों में बिखरने को बेताब है। हिमालय के पार से उसे धक्का भर देना है। इतिहास अपना काम करेगा। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, बर्मा, श्रीलंका आदि से भी छोटा हो जाएगा। तब फिर पूरे एशिया और फिर संसार में इतिहास चीन की इच्छा पूरी करेगा। जो इतिहास की इच्छा पूरी करता है उस देश की मनोकामना पूरी करने का जिम्मा खुद इतिहास लेता है। महाकाल अपने सेवक को कभी निराश नहीं करता।


चीन ने सन बासठ में जब भारत से लगी अपनी सीमाओं को ठीक करने की शांतिपूर्ण कार्रवाई की थी तो अपने यहाँ ऐसे सच्चे कम्युनिस्ट हुआ करते थे जिनके लिए अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद भारत नामक राष्ट्र से ज़्यादा ज़रूरी और महत्वपूर्ण था। वे मानने को तैयार थे कि आक्रामक तो भारत है जिसने चीन की पवित्र लाल पुण्यभू पर नाजायज़ कब्ज़ा कर लिया है। साम्राज्यवादी अँग्रेज़ों ने जो सीमाएं मनमाने ढंग से खींच रखी थीं उन्हें आज़ाद होते ही भारत को खुद ठीक कर देना चाहिए था। नहीं की तो चीन ने उन्हें सुधारकर भारत पर उपकार ही किया है। वे सच्चे कम्युनिस्ट सोवियत संघ के विघटन और चीन के नवउदार पूँजीवादी कम्युनिस्ट तानाशाही के साथ इतिहास की शरण में चले गए हैं। इसलिए वेबसाइट पर प्रकट हूई चीन की मनोकामना का स्वागत करने वाला भारत में कोई नहीं है। माओवादी अब भी भारत के आदिवासी इलाकों में सशस्त्र क्रांति करने में लगे हुए हैं, पर उन्हें विश्वास नहीं है कि चीन में माओ को मानने वाला कोई बचा है या नहीं। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का राज पश्चिम बंगाल में अब भी चल रहा है और वे अब भी चीन को अपना चेयरमैन नहीं तो सहोदर तो मानते ही हैं. लेकिन अकेली ममता बनर्जी ने उनकी नाक में दम कर रखा है इसलिए विदेशी मामलों पर ध्यान देने की उन्हें फुरसत नहीं है। चीन की मनोकामना इसलिए बिना समर्थन के भारत के दरवाज़े पर भय की तरह लटकी हुई है।


लेकिन अब दूसरे किस्म के भयवादी भारत में सक्रिय हैं। इन लोगों को तालिबान भारत के माथे पर चढ़े हुए दिख रहे हैं। श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर लाहौर में हमला हुआ तो ये लोग बताने लगे कि अमृतसर से लाहौर कितनी दूर है। तालिबान जब लाहौर पहुँच गए तो वाघा सीमा पार करने में उन्हें कितना वक्त लगेगा? जैसे जिस तरह पाकिस्तान की सेना और खुफिया एजंसी आईएसआई तालिबान और अलकायदा की मददगार है वैसे ही भारत की सेना और उसके लोग तालिबान का स्वागत करने को उठ खड़े होंगे। तब भारत को कौन बचाएगा? अमेरिका बचाएगा और कौन? उसी ने इराक की जनता को सद्दाम हुसैन से बचाया और अफगानिस्तान को तालिबान से। वही पाकिस्तान को तालिबान और अल कायदा से बचा रहा है। भारत को भी सबसे बड़ा ख़तरा पाकिस्तान और उसके बनाए आतंकवादी संगठनों से नहीं, तालिबान से है। वही पाकिस्तान को एक राष्ट्र के नाते नष्ट करने पर तुले हुए हैं। पाकिस्तान के बाद वे भारत को पाकिस्तान का साथ देकर तालिबान को ख़त्म करने में अमेरिका के साथ होना चाहिए।


यानी हमारे देखते-देखते और हमारे अणुशक्ति संपन्न देश होते हुए भी तालिबान हमारा सबसे बड़ा शत्रु हो गया। वह हमारे माथे पर पाकिस्तानी पंजाब और सिंध में आकर बैठ गया है। उसे रोकने में हम अगर पाकिस्तान की मदद नहीं करेंगे तो वह हमें भी लील जाएगा। जैसे हम अफगानिस्तान और पाकिस्तान से भी गए गुज़रे हों। किसने हमें समझा दिया कि हम पाकिस्तान से निपट नहीं सकते? पाकिस्तान ने? वह हमें क्या समझाएगा? हम उसे तीन बार समझा चुके हैं। फिर किसने हमें समझा दिया कि तालिबान हम पर पाकिस्तान से भी बड़ा ख़तरा है? अमेरिका ने? वही कमज़ोर देशों का रक्षक है और आतंकवाद से उसने विश्वयुद्ध छेड़ रखा है। तालिबान अल कायदा के बाद सबसे बड़ा और आतंकवादी संगठन है। भारत पर लगातार हमले करने वाले आतंकवादी संगठन पाकिस्तान के किए में नहीं हैं। वे तालिबान और अल कायदा के कहे भारत पर हमले करते हैं। पाकिस्तान तो खुद इन आतंकवादियों का शिकार है। भारत से भी बड़ा शिकार। इसलिए भारत को आतंकवादी हमलों के लिए पाकिस्तान को ज़िम्मेदार मानने के बजाय तालिबान और अल कायदा को मानना चाहिए। जिस तरह पाकिस्तान इन आतंकवादियों से निपटने में अमेरिका की मदद कर रहा है, वैसे ही भारत को भी करनी चाहिए। आतंकवादी हमलों से उसे छुटकारा अमेरिका ही दिलवाएगा।


जैसे सन बासठ में सच्चे भारतीय कम्युनिस्ट चीन के साथ थे वैसे ही आतंकवाद के सच्चे शत्रु भारतीय अमेरिका के साथ हैं। दूसरे महायुद्ध में फासीवाद के विरुद्ध असली लड़ाई स्तालिन का रूस लड़ रहा था इसलिए भारतीय कम्युनिस्ट-भारत छोड़ो-आंदोलन के खिलाफ़ अँग्रेंज़ो की मदद कर रहे थे। तब फासीवाद से यूरोप की लड़ाई उनके लिए भारतीयों की अँग्रेज़ों से लड़ाई से ज़्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण थी। आज अपने देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो आतंकवाद से अमेरिका के विश्वयुद्ध को भारत की पाकिस्तान प्रेरित आतंकवादी लड़ाई से ज़्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। चूँकि अमेरिका को पाकिस्तान का पूरा सहयोग चाहिए, ये लोग भारत को कहते हैं कि पाकिस्तान से फालतू का झगड़ा छोड़ो और दोनों मिलकर अमेरिका की मदद करो। अमेरिका की नज़र में और हित में तालिबान से लड़ाई सबसे महत्वपूर्ण है इसलिए वह चाहता है कि भारत पाकिस्तान आपस में लड़ने के बजाय एक होकर अमेरिका के साथ तालिबान से लड़ें। इसलिए भारत ने भले ही घोषणा कर रखी हो कि जब तक पाकिस्तान मुंबई पर हमला करने और करवाने वालों को सज़ा नहीं देता, हम उससे बात नहीं करेंगे। अमेरिका भारत से कहता है कि मुंबई के हमलावरों को हम सज़ा दिलवाएंगे, आप पाकिस्तान से बात करो।


भारत ने न सिर्फ पाकिस्तान से बात करना शुरू किया, अमेरिका के पाकिस्तान को मनाने की कोशिशों में मददगार होना भी मान लिया है। शर्म-अल-शेख़ में बलूचिस्तान पर बात करने को भी भारत राज़ी हो गया, क्योंकि पाकिस्तान कह रहा था कि मुंबई के हमलों में हमारा हाथ होना आपने मनवाया है तो बलूचिस्तान में भारत का हाथ मनवाइए ताकि हम अपनी जनता को कह सकें कि वहाँ भारत उपद्रव करवा रहा है। भारत बलूचिस्तान में उपद्रव करवा रहा है कि नहीं इसे भारतवासी नहीं जानते। लेकिन अमेरिका के दबाव में उसने बलूचिस्तान का जिक्र करना मान लिया। तीन दिन संसद में हंगामा होता रहा. मनमोहन सिंह बार-बार बयान देते रहे। लेकिन वे देश के गले नहीं उतार सके कि शर्म-अल-शेख़ में उनने बलूचिस्तान का ज़िक्र साझा बयान में क्यों आ जाने दिया। भारत का अगर बलूचिस्तान में कोई हाथ नहीं है तो वहाँ के उपद्रव पर पाकिस्तान से हम बात क्यों करेंगे? सरकार की एक भी बात देश के गले नहीं उतरी। सब मानते हैं कि बलूचिस्तान का पत्थर अमेरिका ने नाहक भारत के गले में लटकवा दिया है क्योंकि वह भारत से बराबरी के पाकिस्तानी आग्रह को मानता है।


बलूचिस्तान का ज़िक्र तो खुद मनमोहन सिंह ने होने दिया,जो आपके-मेरे सामूहिक सौभाग्य से भारत के प्रधानमंत्री हैं। मनमोहन सिंह अमेरिकी हितों और रवैये की अनदेखी नहीं कर सकते। अमेरिका से अणु सहयोग संधि करते हुए उनने अमेरिका का स्ट्रेटजिक पार्टनर भारत को बना दिया है। अमेरिकी अफ-पाक रणनीति में पाकिस्तान अमेरिका के लिए भारत से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। अमेरिका उसे तालिबान के विरूद्ध लड़ाए रखना चाहता है और पाकिस्तान इसकी कीमत भारत से बराबरी करने में वसूल कर रहा है। बलूचिस्तान का जिक्र इसी का परिणाम है। अमेरिकी हित के लिए मनमोहन सिंह भारत के हित की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। कम्युनिस्टों ने रूस के लिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अंतिम लड़ाई से दगा किया और सन बासठ में चीनी हमले को भारत के हमले का जवाब मान लिया। कम्युनिस्टों को हम भारतीय इनके लिए माफ नहीं करते। अमेरिकी हितों के लिए भारत के स्वायत्त हितों को कुरबान करने वालों को आप कैसे माफ कर सकते हैं।


चीन को क्यों लगता है कि वह कोशिश करे तो भारत के तीस से पैंतीस टुकड़े किए जा सकते हैं? क्या इसलिए कि उस मालूम है कि भारत में अंतरराष्ट्रीय हितों के लिए भारतीय हितों को कुरबान करने वाले उदार चरित लोगों की कमी नहीं है। आज के दिन अपने आपसे पूछिए।

(देशकाल )




2 टिप्‍पणियां:

  1. Very thought provoking . Joshi ji pls say it more bluntly . It is no sin to call a spade spade . If we have China supporters in India they must be exposed .People born after 1970 have no knowledge of their involvement in pro-china activities of 1962.

    जवाब देंहटाएं
  2. प्रभाष जी के आर्टिकल पर टिप्पणी करना सूरज को दिए दिखाने के समान है। फिर भी आपको पढ़ते ही आगे बढ़ रहे हैं...मार्गदर्शन करते रहिएगा

    जवाब देंहटाएं

आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

Comments system

Disqus Shortname