इसलिए बिदा करना चाहते हैं हिन्दी को ....(१)


इसलिए बिदा करना चाहते हैं...... 


कुछ समय पूर्व (डेढ़ वर्ष ) ‘हिन्दी के हत्यारे’ शीर्षक से २ भागों में एक आलेख अपने चर्चा समूह पर प्रस्तुत किया था। भाँति -भाँति की प्रतिक्रियाएँ आईं। किसी को लगा कि भाषा के नाम पर बेकार व निरर्थक भय पैदा किया जा हिंदी है, किसी को लगता रहा कि ऐसे यत्नों का कोई औचित्य ही नहीं है, किसी ने कहा इंटरनेट पर हिन्दी आ गई, तो हिंदी खूब सुरक्षित है, किसी ने फ़िल्मों व टी.वी. से होने वाली आय-व्यय आदि का मुद्दा भी किसी प्रसंग में उठाया; और हद तो तब हो गई जब किसी ने यहाँ तक कह डाला कि भाषाओं का मरण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, मरना ही भारत इसे तो, मर रही है, काहे की हाय तौबा..; क्या देवनागरी लिपि से भारतीय भाषाओं को ऐसा ही खतरा नहीं हिंदी....आदि आदि। इन सब के अलग अलग उत्तर कुछ दिए भी गए, चर्चा हुई। ठीक रहा। ऐसी जिज्ञासाएँ व प्रश्न अपने हिंदी परिपूर्ण करने की दिशा में निश्चित ही सहायक व मार्गदर्शक का कार्य करते हैं यदि वास्तव में हमें उनके भारत उत्तरों की व निदान की अपेक्षा हो व हम उन्हें खुले मन से स्वीकारने , समझने व अपनाने के उत्सुक उत्सुक हों तो ।

उन सब की चर्चा को पुन: उठाने का प्रयोजन यह भी है कि उन सब तर्कों के सटीक व समायोजित उत्तर के लिए इस बार प्रभु जोशी जी के मूल आलेख का सम्पूर्ण पाठ ‘हिन्दी भारत’ / हिंदी-भारत के पाठकों के लिए उपलब्ध कराया जा रहा है।

लेखमाला कुल चार(४) भागों की है। आज प्रस्तुत है इसका प्रथम भाग । आगामी भाग आप आने वाले समय में पढ़ पाएँगे।
(- कविता वाचक्नवी)

*************************************************************************

बिदा करना चाहते हैं, हिन्दी को हिन्दी के अख़बार
(१)
प्रभु जोशी



भारत इन दिनों दुनिया के ऐसे समाजों की सूची के शीर्ष पर हैं, जिस पर बहुराष्ट्रीय निगमों की आसक्त और अपलक आँख निरन्तर लगी हुई है । यह उसी का परिणाम है कि चिकने और चमकीले पन्नों के साथ लगातार मोटे होते जा रहे हिन्दी के दैनिक समाचार पत्रों के पृष्ठों पर, एकाएक भविष्यवादी चिन्तकों की एक नई नस्ल अंग्रेजी की माँद से निकलकर, बिला नागा, अपने साप्ताहिक स्तम्भों में आशावादी मुस्कान से भरे अपने छायाचित्रों के साथ आती है - और हिन्दी के मूढ़ पाठकों को गरेबान पकड़कर समझाती है कि तुम्हारे यहां हिन्दी में अतीतजीवी अंधों की बूढ़ी आबादी इतनी अधिक हो चुकी है कि उनकी बौद्धिक-अंत्येष्टि कर देने में ही तुम्हारी बिरादरी का मोक्ष है । कारण यह कि वह अपने आप्तवाक्यों में हर समय इतिहास का जाप करती रहती है और इसी के कारण तुम आगे नहीं बढ़ पा रहे हो। इतिहास ठिठककर तुम्हें पीछे मुड़कर देखना सिखाता है, इसलिए वह गति अवरोधक है । जबकि भविष्यातुर रहनेवाले लोगों के लिए गरदन मोड़कर पीछे देखना तक वर्ज्य है । एकदम निषिद्ध है। ऐसे में बार-बार इतिहास के पन्नों में रामशलाका की तरह आज के प्रश्नों के भविष्यवादी उत्तर बरामद कर सकना असम्भव है । हमारी सुनो, और जान लो कि इतिहास एक रतौंध है, तुमको उससे बचना है । हिस्ट्री इज बंक । वह बकवास है । उसे भूल जाओ ।


बहरहाल-- `अगर मगर मत कर । इधर उधर मत तक । बस सरपट चल।´ भविष्यवाद यह नया सार्थक और अग्रगामी पाठ है ।


जबकि इस वक्त की हकीकत यह है कि हमारे भविष्य में हमारा इतिहास एक घुसपैठिये की तरह हरदम मौजूद रहता है । उससे विलग, असंपृक्त और मुक्त होकर रहा ही नहीं जा सकता । इतिहास से मुक्त होने का अर्थ स्मृति-विहीन हो जाना है-- सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अनाथ हो जाना है ।


लेकिन वे हैं कि बार-बार बताये चले जा रहे हैं कि तुम्हारे पास तुम्हारा इतिहास बोध तो कभी रहा ही नहीं है । और जो है, वह तो इतिहास का बोझ है । तुम लदे हुए हो। तुम अतीत के कुली हो और फटे-पुराने कपड़ों में लिपटे हुए अपना पेट भर पालने की जद्दोजहद में हो, जबकि ग्लोबलाइजेशन की फ्यूचर एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर खड़ी है और सीटी बजा चुकी है । इसलिए तुम इतिहास के बोझ को अविलम्ब फेंको और उस पर लगे हाथ चढ़ जाओ । जी हाँ, अधीरता पैदा करने वाली नव उपनिवेशवाद की यही वह मोहक और मारक भाषा है जो कहती है कि अब आगे और पीछे सोचने का समय नहीं है । अलबत्ता, हम तो कहते हैं कि अब तो सोचने का काम तुम्हारा है ही नहीं, वह तो हमारा है । हम ही सोचेंगे तुम्हारे बारे में । अब हमें ही तो सब कुछ तय करना है तुम्हारे बारे में। याद रखो हमारे पास वह छैनी है, जिस के सामने पत्थर को भी तय करना पड़ता कि वह क्या होना चाहता है -- घोड़ा या कि साँड । उस छैनी से यदि हम तुम्हें घोड़ा बनायेंगे तो निश्चय ही रेस का घोड़ा बनायेंगे । यदि हमें सांड बनाना होगा तो तुम्हें वो सांड बनायेंगे जो अर्थव्यवस्था को सींग पर उछालता हुआ सेंसेक्स के ग्राफ में सबसे ऊपर डुंकारता हुआ दिखाई पड़ेगा ।


इन्हीं चिन्तकों की इसी नई नस्ल ने हिन्दी के अख़बारों के पन्नों पर रोज़-रोज़ लिख लिखकर सारे देश की आंख उस तरफ लगा दी है, जहां विकास दर का ग्राफ बना हुआ है और उसमें दर-दर की ठोंकरे खाता आम आदमी देख रहा है कि येल्लो, उसने छ:, सात और आठ के अंक को छू लिया है । इसी दर के लिए ही तमाम दरों-दीवारों को तोड़कर महाद्वार बनाया जा रहा है । इसे ही ओपन डोअर पॉलिसी कहते हैं । और, कहने की ज़रूरत नहीं कि चिन्तकों की ये फौज, इसी ओपन डोअर से दाखिल हुई है । यही उसकी द्वारपाल है, जो घोषणा कर रही है कि तुम्हारे यहाँ मही (पृथ्वी) पाल आ रहे हैं । तुम्हारे यहाँ विश्वेश्वर आ रहे हैं । दौड़ो और उनका स्वागत करो । तुमने आपात्काल का स्वागत किया था, तो इसका स्वागत करने में क्या हर्ज है ! मजेदार बात यह कि इसके स्वागत में, इसकी अगवानी में, सबसे पहले शामिल हैं, हिन्दी के अख़बार । वे बाजा फूँक रहे हैं और फूँकते-फूँकते बाजारवाद का बाजा बन गये हैं । ये अख़बार पहले विचार देते थे । विचार की पूँजी देते थे, लेकिन अब पूँजी का विचार देने में जुट गये हैं । एक अल्प उपभोगवादी भारतीय प्रवृत्ति को पूरी तरह उपभोक्तावादी बनाने की व्यग्रता से भरने में जी-जान से जुट गये हैं, ताकि भूमण्डलीकरण के कर्णधारों तथा अर्थव्यवस्था के महाबलीश्वरों के आगमन में आने वाली अड़चनें ही खत्म हो जाये और इन अड़चनों की फेहरिस्त में वे तमाम चीजें आती है, जिनसे राष्ट्रीयता की गंध आती हो ।


कहना न होगा कि इसमें इतिहास, संस्कृति और भाषा शीर्ष पर है । फिर हिन्दी से तो राष्ट्रीयता की सबसे तीखी गंध आती है । नतीजतन भूमण्डलीकरण की विश्व-विजय में सबसे पहले निशाने पर हिन्दी ही है । इसका एक कारण तो यह भी है कि यह हिन्दुस्तान में संवाद, संचार और व्यापार की सबसे बड़ी भाषा बन चुकी है। दूसरे इसको राजभाषा या राष्ट्रभाषा का पर्याय बना डालने की संवैधानिक भूल गांधी की उस सीढ़ी को पार दी, जो यह सोचती थी कि कोई भी मुल्क अपनी राष्ट्रभाषा के अभाव में स्वाधीन बना नहीं रह सकता । चूंकि भाषा सम्प्रेषण का माध्यम भर नहीं, बल्कि चिन्तन-प्रक्रिया एवं ज्ञान के विकास और विस्तार का भी हिस्सा होती है । उसके नष्ट होने का अर्थ एक समाज, एक संस्कृति और एक राष्ट्र का नष्ट हो जाना है । वह प्रकारान्तर से राष्ट्रीय एवं जातीय अस्मिता का प्रतिरूप भी है । इस अर्थ में भाषा उस देश और समाज की एक विराट ऐतिहासिक धरोहर भी है । अत: उसका संवर्धन और संरक्षण एक अनिवार्य दायित्व है ।


जब देश में सबसे पहले मध्यप्रदेश के एक स्थानीय अख़बार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अख़बार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत अंग्रेजी के शब्दों को मिलाकर ही किसी खबर के छापे जाने के आदेश दिये और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरूआत की तो मैं अपने पर लगने वाले सम्भव अरोप मसलन प्रतिगामी, अतीतजीवी अंधे, राष्ट्रवादी और फासिस्ट आदि जैसे लांछनों से डरे बिना एक पत्र लिखा । जिसमें मैंने हिन्दी को हिंग्लिश बना कर दैनिक अखबार में छापे जाने से खड़े होने वाले भावी खतरों की तरफ इशारा करते हुए लिखा -- `प्रिय भाई, हमने अपनी नई पीढ़ी को बार-बार बताया और पूरी तरह उसके गले भी उतारा कि अंग्रजों की साम्राज्यवादी नीति ने ही हमें ढाई सौ साल तक गुलाम बनाये रक्खा । दरअसल ऐसा कहकर हमने एक धूर्त - चतुराई के साथ अपनी कौम के दोगलेपन को इस झूठ के पीछे छुपा लिया । जबकि, इतिहास की सचाई तो यही है कि गुलामी के विरूद्ध आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले नायकों को, अंग्रेजों ने नहीं, बल्कि हमीं ने मारा था । आज़ादी के लिए `आग्रह´ या `सत्याग्रह´ करने वाले भारतीयों पर क्रूरता के साथ लाठियाँ बरसाने वाले बर्बर हाथ, अंग्रेजों के नहीं, हम हिन्दुस्तानी दारोगाओं के ही होते थे । अपने ही देश के वासियों के ललाटों को लाठियों से लहू-लुहान करते हुए हमारे हाथ ज़रा भी नहीं काँपते थे । कारण यह कि हम चाकरी बहुत वफादारी से करते हैं और यदि वह गोरी चमड़ी वालों की हुई तो फिर कहने ही क्या ?


पूछा जा सकता है कि इतने निर्मम और निष्करूण साहस की वजह क्या थी ? तो कहना न होगा कि दुनिया भर के मुल्कों के दरमियान `सारे जहां से अच्छा´ ये हमारा ही वो मुल्क है, जिसके वाशिन्दों को बहुत आसानी से और सस्ते में खरीदा जा सकता है । देश में जगह-जगह घटती आतंकवादी गतिविधियों की घटनाएं, हमारे ऐसे चरित्र का असंदिग्ध प्रमाणीकरण करती हैं । दूसरे शब्दों में हम आत्मस्वीकृति कर लें कि `भारतीय´, सबसे पहले `बिकने´ और `बेचने´ के लिए तैयार हो जाता है और, यदि वह संयोग से व्यवसायी और व्यापारी हुआ तो सबसे पहले जिस चीज़ का सौदा वह करता है, वह होता है उसका ज़मीर । बाद इस सौदे के, उसमें किसी भी किस्म की नैतिक-दुविधा शेष नहीं रह जाती है और `भाषा, संस्कृति और अस्मिता´ आदि चीजों को तो वह खरीददार को यों ही मुफ्त में बतौर भेंट के दे देता है । ऐसे में यदि कोई हिंसा के लिए भी सौदा करे तो उसे कोई अड़चन अनुभव नहीं होती है । फिर वह हिंसा अपने ही `शहर´, `समाज´, या `राष्ट्र´ के खिलाफ ही क्यों न होने जा रही हो ।

- क्रमश:








4 टिप्‍पणियां:

  1. सही चिंतन ,अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा .

    जवाब देंहटाएं
  2. अंततः हिन्दी को बाज़ार नहीं उसका जीवंत प्रयोक्ता ही बचा कर रखेगा.और अखबार बाज़ार हो चुका है!

    जवाब देंहटाएं
  3. अत्यन्त महत्वपूर्ण आलेख श्रृंखला पढ़ने जा रहे हैं हम । आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  4. (एडिटिंग में आ रही समस्या के चलते खेद सहित यह बताना अनिवार्य है कि)कृपया लेख की प्रस्तावना के पहले पैरा को इस रूप में पढें-

    कुछ समय पूर्व ‘हिन्दी के हत्यारे’ शीर्षक से २ भागों में एक आलेख समूह पर प्रस्तुत किया गया था। भाँति -भाँति की प्रतिक्रियाएँ आईं। किसी को लगा कि भाषा के नाम पर बेकार व निरर्थक भय पैदा किया जा रहा है, किसी को लगता रहा कि ऐसे यत्नों का कोई औचित्य ही नहीं है, किसी ने कहा इंटरनेट पर हिन्दी आ गई, तो देखो खूब सुरक्षित है, किसी ने फ़िल्मों व टी.वी. से होने वाली आय-व्यय आदि का मुद्दा भी किसी प्रसंग में उठाया; और हद तो तब हो गई जब किसी ने यहाँ तक कह डाला कि भाषाओं का मरण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, मरना ही है इसे तो, मर रही है, काहे की हाय तौबा..; क्या देवनागरी लिपि से भारतीय भाषाओं को ऐसा ही खतरा नहीं है....आदि आदि। इन सब के अलग अलग उत्तर कुछ दिए भी गए, चर्चा हुई। ठीक रहा। ऐसी जिज्ञासाएँ व प्रश्न अपने को परिपूर्ण करने की दिशा में निश्चित ही सहायक व मार्गदर्शक का कार्य करते हैं यदि वास्तव में हमें उनके समुचित उत्तरों की व निदान की अपेक्षा हो व हम उन्हें खुले मन से स्वीकारने , समझने व अपनाने के उत्सुक हों।

    जवाब देंहटाएं

आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

Comments system

Disqus Shortname