मेरे रोम- रोम से तुम्हारी कस्तूरी फूटती है




मेरे रोम- रोम से तुम्हारी कस्तूरी फूटती है
- कविता वाचक्नवी







आप
में से जो लोग कविता पढ़ने (लिखने-भर नहीं) में रुचि रखते हैं उन्होंने गहरी संवेदनात्मक से लेकर विचार-प्रखर तक और आग लगा देने वाली से लेकर नथुने फड़काने वाली तक कई प्रकार की कविताएँ सुनी - पढ़ी होंगीवैसे जो लोग साहित्य वालों को दोयम दर्जे का समझते हैं उन्होंने भी कम से कम अपने मिडिल स्कूल तक भाषा वाले विषयों में कविताएँ अवश्य पढ़ी ही होंगीइन अर्थों में प्रत्येक मिडिल क्लास तक पढ़ा व्यक्ति भी उसकी शक्ति से परिचित होता है, उसकी धार से परिचित होता है उसके स्वरूप से परिचित होता ही हैऔर, एक मजे की बात और है कि युवावस्था के कच्चे प्रेम में पड़ कर लगभग सभी ने कविता का आश्रय लिया होगा, भले ही अपनी लिखी हों या किसी दूसरे की शायरी, कविताई या कलाम से काम चलाया होगायहाँ एक रोचक तथ्य और है ( लिंग विभाजन वाले माफ़ करें) कि आयु के उस दौर में श्रृंगाररस ( संयोग और वियोग दोनों ही) में डूबे लोगों का यदि सर्वेक्षण किया जाए तो युवतियों से अधिक युवक कविता का सहारा लेते हैं, भले ही राज--दिल बयान करना हो या दर्द--दिलदिल के टुकड़े दिखाने हों या चाक--जिगरयह तथ्य जाने किस इंगित की ओर इशारा करता है कि लड़कियों की अपेक्षा ऐसी स्थिति में अकवि से अकवि युवक अधिक संख्या में कविताई को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में प्रयोग करते है



यह तो रही प्रस्तावना, मुद्दा यह है कि आख़िर कविता की आवश्यकता है क्यों, क्या करती है कविता, कैसी होती है या क्या छिपा रहता है उसमें कि हर देश, हर भाषा में कवि को अत्यन्त श्रेष्ठ स्थान प्राप्त होता है, ...और भी सम्बद्ध कई तथ्य, ! आप भारत में हिन्दी के कवि की स्थिति का उदाहरण देकर मेरी बात काटने की दिशा में मत जाइए क्योंकि जो तर्क आप देने जा रहे हैं वही तर्क इसे प्रमाणित करता है कि हिन्दी के कवि की दुर्गत जैसी स्थिति के बावजूद भी यहाँ कवि वर्षा में कुकुरमुत्तों की मानिंद क्षण- क्षण और- और प्रकट होते रहते हैं, कुछ भी लिख कर कवि कहलाने के लोभ में त्रस्त होने ( `करने' पढ़ा जाए) की सीमा तक व्यस्त रहते हैं और दूसरों की रचनाओं पर हाथ साफ़ करने तक का परहेज भी वे नहीं मानते| ये सब तथ्य इसी बात का तो प्रमाण हैं कि कवि होना कोई बहुत ही बड़ी उपलब्धि की बात है, और कविता, वह कोई अत्यन्त विशिष्ट कौशलबात वहीं आती है कि कविता की आवश्यकता ही रहे तो ये सारे जंजाल मिटें। नित नए नए ज्ञान-विज्ञान के युग में क्या जरूरत है इसकी ?




झंडा और डंडा उठाने वाले लोग मेरी ओर लपकने को तैयार हो रहे होंगे कि अरे हमारी कुछ प्रविष्टियों को लिंकित करो और जाओ यहाँ सेलिंक को हायपर लिंक बना उसको दुहराते दिखाना भर ही तो चर्चाकार का काम है, इस से आगे वह यहाँ क्यों लिखने लगे हैं ? अपने मत देने का आपका अधिकार है, पर हमारा उस से विमत होने का भी अधिकार बना रहने की स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए मुझे आगे बढ़ना होगा




तो, फिर आते हैं कविता परमुझे लगभग वर्ष -भर पूर्व कि एक घटना याद रही ही । श्री उदय प्रताप सिंह, (वरिष्ठ साहित्यकार एवं राजनेता) के सान्निध्य में एक कवि गोष्ठी हुई, उनके साथ कुछ अरब देश के अधिकारी भी थे तो उर्दू हिन्दी के गिने - चुने कवियों को आमंत्रित किया गया था काव्यपाठ के लिएसंभवतः मैं अकेली महिला रचनाकार रही हूँगीउर्दू के कई बड़े शायर मुम्बई से भी आए थेमैंने उस दिन रिश्तों पर अपनी गज़लें पढींकार्यक्रम के अंत में जब उन राजनयिक के वक्तव्य का समय आया तो उन्होंने एक बहुत मार्के की बात की, जिस से कविता की आवश्यकता का सही सही अनुमान हो जाता हैउन्होंने कहा कि सायंस, गणित, भौतिकी, रसायन या अभियांत्रिकी के किसी भी विद्यार्थी को सारा ज्ञान -विज्ञान पा लेने के बाद भी साहित्य के अतिरिक्त कोई विषय ऐसा नहीं जो यह बताता हो कि, भले मानुष ! संसार में सम्बन्धों और रिश्तों की क्या जरूरत हैमनुष्य से मनुष्य के सम्बन्ध की सीख कोई नहीं देता, दे सकतारिश्ते वाली ग़ज़लों का उदाहरण देकर उन्होंने इसे इतने पारदर्शी तरीके से बताया कि रिश्तों की यह समझ और उनकी जरूरत केवल काव्य और साहित्य ही बयान कर सकता है, सिखला सकता है, समझा सकता हैसाहित्य में स्नातकोत्तर और उस से आगे शिक्षा पाने वाले विद्यार्थियों को भारतीय पाश्चात्य काव्यशास्त्र ( पोएटिक्स ) भी पढ़ाया जाता हैउसमें आरंभिक स्तर पर काव्य के तत्व से लेकर काव्य के प्रयोजन भी सम्मिलित होते हैंमुझे कई बार लगता है कि नैसर्गिक प्रतिभा से इतर कवि बनने के अभ्यासियों को कम से कम इतना तो अवश्य पढ़ना चाहिएताकि वे अपनी कविताओं का मूल्यांकन कर सकें और बेहतर योगदान दे सकें




जो लोग पाठकीय रुचि वाले कभी नहीं रहे, ब्लॉग प्रणाली ने उन्हें कुछ कुछ पढ़ने को विवश कर दिया है, भले ही इसलिए कि दूसरों का पढ़ कर टिप्पणी करेंगे तो बदले में टिप्पणी आएगी भीऔर साथ ही, पुस्तक को खरीद कर पढ़ना सभी के लिए उतना सुगम नहीं है, जितना नेट ने तात्क्षणिकता सुगमता से पाठकीयता को प्रसरित किया है। नेट पर कविताओं की संख्या में दिनों दिन, दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हो रही है। बहुत अच्छी कविताएँ भी देखने पढ़ने को उपलब्ध हो रही हैं और बहुत दोयम दर्जे की भी। मुझे याद है, अपने विद्यार्थी जीवन के वे दिन जब एक कविता को इसलिए पढाया जाता था कि विद्यार्थियों को उदाहरण दिया जा सके कि ऐसी निरर्थक कविता भी क्या कविता। उस कविता को वर्षों पुरानी स्मृति से छाँट कर याद करुँ तो एकाध पंक्ति याद है -

" काश अगर मैं तोता होता
तोता होता तो क्या होता
........
.......
........
तो-तो-तो-तो
ता-ता-ता-ता
तोता होता
तो क्या होता "


तो अच्छी कविताओं और काव्य-भ्रष्ट कविताओं का अम्बार हिन्दी के सौभाग्य व दुर्भाग्य दोनों की कहानी कहता है। लोगों को यही नहीं पता कि कविता होती क्या है, उसके तत्त्व क्या हैं। उसकी देह क्या है व आत्मा क्या है। किसी ने देह को साध लिया तो किसी ने उसे भी साधने की जरूरत न समझी और अपने को कविराज मानते-मनवाते रहे।
इसी प्रकार का एक उदाहरण है, जहाँ एक ख्यातनाम कवि ( ...) ने अपनी माँ पर केंद्रित कविता में काफ़िया मिलाने के चक्कर में कमाल कर दिया। यह रचना भी पूरी मुझे स्मरण नहीं, किंतु उसमें संभवत: जीवन के द्वंद्वों की डोर पर संतुलन साधे चलने वाली माँ बताते हुए `नटनी' का काफ़िया प्रयोग किया गया था - "नटनी जैसी माँ" । इतने तक तो ठीक था, अब उसके आगे की पंक्ति में माँ की उपमा रोटी पर " चटनी जैसी माँ" कह कर बयान कर दी गयी। हद्द हो गयी भई यह तो। काव्यभाषा का संस्कार कहाँ से लाइयेगा?




माँ पर ऐसी ऐसी मार्मिक कवितायेँ लिखी गयी हैं कि संवेदना और श्रेष्ठता की दृष्टि से हिन्दी में इनका आँकड़ा सर्वाधिक होगा, इससे अगला स्थान संभवतः बेटियों पर केंद्रित कविताओं का निकलेगा। तो, सर्वाधिक सबल सम्बन्ध पर ऐसे चलताऊ ढंग से लिखना कभी कभी कितना घातक हो सकता है। यह ध्यान देने की बात है।अस्तु !




आज हिन्दी ब्लॉग जगत में इधर पढने को मिलीं माँ पर केंद्रित कविताओं में से कुछ को इस बार बाँटा जाए |




गत दिनों बोधिसत्व जी की माँ पर केंद्रित कविता माँ का नाच पढ़ने को मिली थी, कविता में माँ की पीड़ा का चित्र देखिए -



मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाच रही थी माँ
पैरों में बिवाइयां थीं गहरे तक फटी
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर
पर जैसे भंवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है
नाच रही थी माँ

आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में

अचानक ही हुआ माँ का गाना बंद
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि परबस
घुमती जा रही थी
फिर गाने कि जगह उठा
विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान

वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे थे उसकी नाच की धमक से
सब में समाया था उसका बिलखता हुआ गान ।



आप ने किसी एक फ़िल्म के `मेरे पास माँ है' वाले संवाद की तो खूब चर्चा सुनी होगी, अब ज़रा इन पंक्तियों पर ध्यान दें -

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई,
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई




माँ के जीवन क्रम का एक चित्र यह, यहाँ भी देखें

माँ की डिग्रियाँ


घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक
जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीजों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
माँ की डिग्रियों का एक पुलिन्दा

बचपन में अक्सर देखा है माँ को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
मरे हुए चूहे सी एक ओर कर देतीं
वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी
और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों सा
देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिंदा



माँ की डिग्रियों वाली कविता के बरक्स इस कविता को भी रख कर देखें कि माँ का मातृत्व इन औपचारिकताओं से कहीं परे की चीज है -

अनपढ़ माँ

चूल्हे-चौके में व्यस्त
और पाठशाला से
दूर रही माँ
नहीं बता सकती
कि ''नौ बाई चार'' की
कितनी ईंटें लगेंगी
दस फीट ऊँची दीवार में
...लेकिन अच्छी तरह जानती है
कि कब, कितना प्यार ज़रूरी है
एक हँसते-खेलते परिवार में।

त्रिभुज का क्षेत्रफल
और घन का घनत्व मापना
उसके लिए स्यापा है
...क्योंकि उसने मेरी छाती को
ऊनी धागे के फन्दों
और सिलाइयों की
मोटाई से नापा है

वह नहीं समझ सकती
कि 'ए' को 'सी' बनाने के लिए
क्या जोड़ना या घटाना होता है
...लेकिन अच्छी तरह समझती है
कि भाजी वाले से
आलू के दाम कम करवाने के लिए
कौन-सा फॉर्मूला अपनाना होता है।

मुद्दतों से खाना बनाती आई माँ ने
कभी पदार्थों का तापमान नहीं मापा
तरकारी के लिए सब्ज़ियाँ नहीं तौलीं
और नाप-तौल कर
ईंधन नहीं झोंका
चूल्हे या सिगड़ी में
...उसने तो बस ख़ुशबू सूंघकर बता दिया
कि कितनी क़सर बाकी है
बाजरे की खिचड़ी में।

घर की
कुल आमदनी के हिसाब से
उसने हर महीने राशन की लिस्ट बनाई है
ख़र्च और बचत के अनुपात निकाले हैं
रसोईघर के डिब्बों,
घर की आमदनी
और पन्सारी की रेट-लिस्ट में
हमेशा सामन्जस्य बैठाया है
...लेकिन अर्थशास्त्र का एक भी सिध्दान्त
कभी उसकी समझ में नहीं आया है।

वह नहीं जानती
सुर-ताल का संगम
कर्कश, मृदु और पंचम
सरगम के सात स्वर
स्थाई और अन्तरे का अन्तर
....स्वर साधना के लिए
वह संगीत का
कोई शास्त्री भी नहीं बुलाती थी
...लेकिन फिर भी मुझे
उसकी लल्ला-लल्ला लोरी सुनकर
बड़ी मीठी नींद आती थी।

नहीं मालूम उसे
कि भारत पर कब, किसने आक्रमण किया,
और कैसे ज़ुल्म ढाए थे
आर्य, मुगल और मंगोल कौन थे,
कहाँ से आए थे?
उसने नहीं जाना
कि कौन-सी जाति
भारत में अपने साथ क्या लाई थी
लेकिन हमेशा याद रखती है
कि नागपुर वाली बुआ
हमारे यहाँ कितना ख़र्चा करके आई थी।

वह कभी नहीं समझ पाई
कि चुनाव में
किस पार्टी के निशान पर मुहर लगानी है
लेकिन इसका निर्णय हमेशा वही करती है
कि जोधपुर वाली दीदी के यहाँ
दीवाली पर कौन-सी साड़ी जानी है।

मेरी अनपढ़ माँ
वास्तव में अनपढ़ नहीं है
वह बातचीत के दौरान
पिताजी का चेहरा पढ़ लेती है
झगड़े की सम्भावनाओं को भाँप कर
बात की दिशा मोड़ सकती है
काल-पात्र-स्थान के अनुरूप
कोई भी बात
ख़ूबसूरत मोड़ पर लाकर छोड़ सकती है

दर्द होने पर
हल्दी के साथ दूध पिला
पूरे देह का पीड़ा को मार देती है
और नज़र लगने पर
सरसों के तेल में
रूई की बाती भिगो
नज़र भी उतार देती है

अगरबत्ती की ख़ुशबू से
सुबह-शाम सारा घर महकाती है
बिना काम किए भी
परिवार तो रात को
थक कर सो जाता है
लेकिन वो सारा दिन काम करके भी
परिवार की चिन्ता में
सो नहीं पाती है।

सच!
कोई भी माँ अनपढ़ नहीं होती
सयानी होती है
क्योंकि
कई-कई डिग्रियाँ बटोरने के बावजूद
बेटियों को उसी से सीखना पड़ता है
कि गृहस्थी कैसे चलानी होती है।


माँ को तलाशती रतन चौहान की एक छोटी-सी कविता के मर्म तक पहुँच कर मौन के सिवा कुछ नहीं सूझेगा -


माँ के लगाए गए सहजन में
फूल आ गए हैं

उसकी नर्म टहनियाँ
वसन्त हो गई हैं

अब अब कुछ ज़्यादा काँपने
लग गए माँ के हाथों ने
इसे अपनी सहोदर धरती
की कोख में रोपा था दो एक ऋतु पहले

झुर्रियों से भरी माँ की उंगलियों को छूकर
धरती आर्द्र हो गई थी

सहजन बूढ़ी माँ का बेटा
है
ग्रीष्म की लू लपट में
माँ की स्मृतियों को छाँह देता हुआ

सहजन में फूल आ गए हैं
माँ नहीं है


समीरलाल जी की इस कविता में निहित वेदना को भी गत दिनों आप ने अवश्य अनुभव किया होगा -



मेरी माँ लुटेरी थी...

माँ!!

तेरा
सब कुछ तो दे दिया था तुझे
विदा करते वक्त
तेरा
शादी का जोड़ा
तेरे सब जेवर
कुंकुम,मेंहदी,सिन्दूर
ओढ़नी
नई
दुल्हन की तरह
साजो
सामान के साथ
बिदा
किया था...

और हाँ
तेरी छड़ी
तेरी एनक,
तेरे नकली दांत
पिता
जी ने
सब कुछ ही तो
रख दिये थे
अपने हाथों...
तेरी
चिता में

लेकिन
फिर भी
जब से लौटा हूँ घर
बिठा कर तुझे
अग्नि रथ पर
तेरी छाप क्यों नजर आती है?

वह धागा
जिसे तूने मंत्र फूंक
कर दिया था जादुई
और बांध दिया था
घर
मोहल्ला,
बस्ती
सभी को एक सूत्र में

आज
अचानक लगने लगा है
जैसे टूट गया वह धागा
सब कुछ
वही तो है
घर
मोहल्ला
बस्ती
और वही लोग
पर घर की छत
मोहल्ले का जुड़ाव
और
बस्ती का सम्बन्ध
कुछ ही तो नहीं
सब कुछ लुट गया है न!!

हाँ माँ!

सब कुछ
और ये सब कुछ
तू ही तो ले गई है लूट कर
मुझे पता है
जानता हूं न बचपन से
तेरा लुटेरा पन.
तू ही तो लूटा करती थी
मेरी पीड़ा
मेरे दुख
मेरे सर की धूप
और छोड़ जाती थी
अपनी लूट की निशानी
एक मुस्कान
एक रस भीगा स्पर्श
और स्नेह की फुहार
अब सब कुछ लुट गया है!!

स्तम्भित हैं
पिताजी तो
यह भी नहीं बताते
आखिर
कहां लिखवाऊँ
रपट अपने लुटने की
घर के लुटने की
बस्ती और मोहल्ले के लुटने की

और सबसे अधिक
अपने समय के लुट जाने की....





ऐसे ही माँ की कमी महसूसती एक पुकार यहाँ भी है -

माँ


माँ !
तुम्हारी लोरी नहीं सुनी मैंने,
कभी गाई होगी
याद नहीं
फिर भी जाने कैसे
मेरे कंठ से
तुम झरती हो।


तुम्हारी बंद आँखों के सपने
क्या रहे होंगे
नहीं पता
किंतु मैं
खुली आँखों
उन्हें देखती हूँ ।



मेरा मस्तक
सूँघा अवश्य होगा तुमने
मेरी माँ !
ध्यान नहीं पड़ता
परंतु
मेरे रोम- रोम से
तुम्हारी कस्तूरी फूटती है ।



तुम्हारा ममत्व
भरा होगा लबालब
मोह से,
मेरी जीवनासक्ति
यही बताती है ।




और
माँ !
तुमने कई बार छुपा-छुपी में
ढूँढ निकाला होगा मुझे
पर मुझे
सदा की
तुम्हारी छुपा-छुपी
बहुत रुलाती है;

बहुत-बहुत रुलाती है ;
माँ !!!





माँ की स्मृति में ऋषभदेव जी की लिखी इस कविता में संबंधों कि तरलता के साथ लोक में रमे माँ के चित्र विभोर कर देते हैं -


बनाया था माँ ने वह चूल्हा


चिकनी पीली मिट्टी को
कुएँ के मीठे पानी में गूँथ कर
बनाया था माँ ने वह चूल्हा
और पूरे पंद्रह दिन तक
तपाया था जेठ की धूप में
दिन - दिन भर



उस दिन
आषाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा,
हमारे घर का बगड़
बूँदों में नहा कर महक उठा था,
रसोई भी महक उठी थी -
नए चूल्हे पर खाना जो बन रहा था.



गाय के गोबर में
गेहूँ का भुस गूँथ कर
उपले थापती थी माँ बड़े मनोयोग से
और आषाढ़ के पहले
बिटौड़े में सजाती थी उन्हें
बड़ी सावधानी से .



बूँदाबाँदी के बीच बिटौड़े में से
बिना भिगोए उपले लाने में
जो सुख मिलता था ,
आज लॉकर से गहने लाने में भी नहीं मिलता.



सूखे उपले
भक्क से पकड़ लेते थे आग
और
उँगलियों को लपटों से बचाती माँ
गही में सेंकती थी हमारे लिए रोटी
- फूले फूले फुलके.



गेहूँ की रोटी सिंकने की गंध
बैठक तक ही नहीं , गली तक जाती थी.
हम सब खिंचे चले आते थे
रसोई की ओर.



जब महकता था बारिश में बगड़
और महमहाती थी गेहूँ की गंध से रसोई -
माँ गुनगुना उठती थी
कोई लोकगीत - पीहर की याद का.



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.



बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं.
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न !
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.



आग बढ़ती है
तो रोटी जलने लगती है.
तेरे बहनोई को जली रोटी पसंद नहीं रे!
रोटी को बचाती हूँ तो उँगली जल जाती है.



माँ की उँगलियाँ छालों से भर जाती थीं
पर पिताजी की रोटी पर एक भी काला निशान कभी नहीं दिखा!



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.



बारिश में बना रही हूँ रोटियाँ,
भीगे झोंके भीतर घुसे आते हैं.
मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न !
बड़े बदमाश हैं ये झोंके ,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.



आग बुझती है
तो रोटी फूलती नहीं
तेरा भानजा अधफूली रोटी नहीं खाता रे!
बुझी आग जलाती हूँ तो आँखें धुएँ से भर जाती हैं.



माँ की आँखों में मोतियांबिंद उतर आया
पर मेरी थाली में कभी अधफूली रोटी नहीं आई!



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी.



रोटी बनाना सीखती मेरी बेटी
जब तवे पर हाथ जला लेती है,
आँखें मसलती
रसोई से निकलती है.
तो लगता है
माँ आज भी गुनगुना रही है .



मेरे बीरा ! इन झोंकों को रोक दे न!
बड़े बदमाश हैं ये झोंके,
कभी आग को बढ़ा देते हैं
कभी बुझा देते हैं आग को.



माँ के गीतों में प्यार बहुत था
पर पीड़ा और शिकायत भी थी
.
गत दिनों आई माँ पर केंद्रित इन कुछ कविताओं के क्रम को विराम देते हुए मैं चर्चा परिवार की ओर से योगेन्द्र कृष्ण जी की माँ को भावांजली देती हूँ व उनकी आत्मा की सद्‍गति की प्रार्थना करती हूँ.

माह पूर्व एक संगोष्ठी में पटना जाने पर भाई योगेन्द्र कृष्ण से सपत्नीक मिलने का अवसर मिलाउनके सौजन्य ने प्रभावित कियागत दिनों उनकी माता जी का स्वर्गवास हो गया उन्होंने अपनी पीड़ा को सबसे बाँटते हुए जो लिखा उसके बाद कुछ कहने को नहीं रह जाता -


श्मशान में माँ

30 मार्च को मेरी माँ का निधन हो गया। दुःख इसलिए भी अधिक है कि माँ बहुत लंबे समय तक हमारे साथ रहीं और कभी यह मह्सूस करने का शायद अवसर ही नहीं दिया कि वे हमें छोड़कर चली भी जायेंगी। जबकि वे हम पांच भाइयों, एक बहन और दर्जनों पोता-पोतियों, नाती-नातिनों के बीच अंतिम समय तक अपने स्नेह और प्यार में बंटती रहीं। मृत्यु के समय उनकी आयु लगभग 95 वर्ष थी।
उसी दिन रात्रि में पटना के गुलबी घाट में उनका दाह-संस्कार कर दिया गया।

गंगा के इस श्मशान घाट के अपने कुछ ताज़ा ग़मग़ीन अनुभवों को भी आपसे साझा करने का मन है।

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उनका भी निष्काम देखो
जो तुम्हें नहीं जानतीं
फिर भी तुम्हारे लिए
तुम्हारे साथ जलकर राख हो रही हैं
वे ढेर सारी लकड़ियां
अंत तक तुम्हारी देह से
मिलकर एक हो रही हैं
राख में राख
क्या अलग कर पाएंगे हम
लकड़ी और देह की राख
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धू-धू कर जलती चिताएं हैं
आकाश में उठता काला धुआं
और रात्रि की भयावह नीरवता
को चीरती घाट की सीढियों से
नीचे उतरतीं कुछ आवाज़ें हैं

असमय एक युवा देह को
तलाश है मिट्टी की…

और फिर
सफ़ेद कपड़े में लपेटे
एक शिशु को दोनो हाथों मे उठाए
उतरता है एक युवक
साथ में और भी कई लोग
पर उतने भी नहीं
जितने कि होने चाहिए
दुःख की इस बीहड़ घड़ी में

और घाट की सीढियों से
उतरता है पीछे-पीछे
भारी पत्थर का एक बड़ा-सा टुकड़ा
बिलकुल अंधेरे में
गंगा तट की तरफ़…

पानी के बड़े बुलबुले छूटने-सी आवाज़
अर्द्ध-रात्रि की बीहड़ बेबस खामोशी को
हल्के से हिलाती है…

छोड़ दिए गए हैं
पत्थर और शिशु देह
कुछ दिनों के लिए
एक दूसरे के साथ
निबद्ध रहने के करार पर…
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श्मशान घाट तक आने में
कितना वजन था
हमारे कंधों पर
लेकिन नहीं था
फिर भी कोई भार

और अब जबकि लौट रहा हूं
लेकर मुट्ठी भर तुम्हारी राख
क्यों दब रहा है मन इसके भार से…

जैसे कि पत्थर हो कोई
बंधा हुआ मेरी ही देह से…

कल कई दिन बाद उन्होंने लिखा -

बारह दिनों के बाद आज ही सारे अनुष्ठान संपन्न कर वापस घर लौटा हूं। फ़र्श पर और सभी जगह धूल की मोटी परतें हैं पर उन परतों पर नहीं हैं कहीं अब उन नंगे पैरों के निशान……




और अंत में एक बात -

माँ के प्रति इतनी गहरी व इतनी सारी संवेदनाएँ हमारे भीतर विद्यमान रहती हैं, यदि ये संवेदनाएँ किसी भी जीवित माँ का वार्धक्य और जीवन संवार सकने में सफल हो जाएँ तो जाने कितनी माँओं को इन संवेदनाओं की पहुँच सुख दे सकती है। वरना तो ये कागद के लेखे बन कर रह जाती हैं बस.......




गत टिप्पणियाँ

2 टिप्‍पणियां:

  1. क्या कहूँ...कुछ कहने की स्तिथि में नहीं हूँ.... माँ पर आपने जो लेख लिखा है वो अद्वितीय है...बेमिसाल...और हर रचना बेजोड़...माँ जैसी...
    नीरज

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  2. मां की संवेदनाओं पर कई कवियों की रचनाओं को एकत्रिक करके इस चर्चा में लाने के सार्थक कार्य पर डॊ. कविता वाचक्नवी जी को धन्यवाद। कविताएं पढ़ कर न जाने कितने विचार, कितनी भावनाएं मन में उठती रहीं, उमड़ती रहीं। बस,....कहने को कुछ नहीं बचा...मौन स्वीकारें!!!!

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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