माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही

राग दरबारी


माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही





वरुण गांधी की गिरफ्तारी के बाद मायावती और मेनका गांधी के वाग्युद्ध के बारे में पढ़ने के बाद से ही मैथिलीशरण गुप्त के प्रबंध काव्य 'साकेत' की यह पंक्ति बार-बार याद आ रही है -- माता न कुमाता पुत्र कुपुत्र भले ही। यह पंक्ति कैकेयी ने राम को अयोध्या वापस लौट आने की मनुहार करते हुए कही थी। कैकेयी भी उ अयोध्या वासियों में थीं जो राम के वन गमन को रोकने के लिए उनके पीछे-पीछे गए थे। कैकेयी ने आत्मभर्त्सना करते हुए कहा कि 'माता न कुमाता' की मान्यता सदा से ही चली आई है, पर मेरे मामले में उलटा हो गया है। कुमाता मैं हूँ, भरत तो सुपुत्र है। जाहिर है, भरत को गद्दीनशीन करने की जिद के कुपरिणाम कैकेयी ने देख लिए था। सबसे पहले तो वह दो अन्य रानियों के साथ विधवा हुईं, फिर भरत ने उन्हें ऐसा झाड़ा कि उनके होश उड़ गए। इस तरह, पति गए, पुत्र हाथ में न रहा और पूरी अयोध्या में कैकेयी की ऐसी बदनामी हुई जैसी रघुकुल में किसी और स्त्री की कभी नहीं हुई थी। लालच का शिकार हो कर मूर्खता सभी करते हैं, विपत्ति सब पर आती है, लेकिन बुद्धिमान उन्हें कहते हैं जो विपत्ति से सीख लेते हैं। कैकेयी को स्वयं द्वारा आमंत्रित विपत्ति से सबक लेते हुए दिखा कर मैथिलीशरण गुप्त ने बड़ा काम किया है, वरना पूरी रामकथा में न तो कोई अपने किए पर पछताता है और न अपना परिमार्जन करता है। समुद्र का मामला अलग है, क्योंकि वह राम को लंका तक जाने का उपाय तब बताता है जब क्रुद्ध राम उसे सुखाने के लिए तीर उठा लेते हैं।


मेनका गांधी कुछ वर्षों से उस पार्टी में हैं जो हिन्दू धर्म और संस्कृति का नाम लेते हुए नहीं थकती। इस पार्टी ने अपने इस बार के चुनाव घोषणापत्र में फिर दावा किया है कि हम अयोध्या में भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं। मेरे मन में सवाल उठता है कि भाजपा और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सिर्फ राम का मंदिर चाहिए या राम के चरित्र जैसे व्यक्ति भी। राम को मर्यादा इतनी प्रिय थी कि उनके लिए अयोध्या का सिंहासन संभालने और वनवास करने में कोई फर्क नहीं जान पड़ा। यहाँ भाजपा के वयोवृद्ध नेता कई महीनों से चीख रहे हैं कि मुझे प्रधानमंत्री बनाओ। प्रधानमंत्री बनने की अपनी इच्छा को इतने बलवान ढंग से प्रगट करनेवाली दूसरी नेता उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती हैं। मायावती को राम की कथा या राम की परंपरा में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनकी सहानुभूति होगी तो रावण के साथ होगी, राम के साथ नहीं। फिर भी उन्होंने मातृत्व की परिभाषा को व्यापक कर कई महीनों में पहला अच्छा काम किया है। मगर अफसोस, माता और पुत्र के रिश्ते पर उनकी टिप्पणी भूल भरी और अवैज्ञानिक है।


सबसे पहले वरुण की माँ मेनका गांधी की मानसिकता पर विचार करना चाहिए। मेनका को भारतीय संस्कृति का ज्ञान नहीं तो कुछ जानकारी होनी चाहिए। वे मायावती पर लांछन लगाती हैं कि मायावती माँ होती, तो उन्हें माँ की वेदना का पता होता। एक मायने में यह सच है। कहा गया है, जाके पैर न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। लेकिन बिवाई फटना एक बात है और विपथगामी पुत्र द्वारा किए गए गलत कार्य के परिणामस्वरूप पुत्र को और उसके नतीजे में माँ को मिलनेवाला कष्ट दूसरी बात। मेनका अच्छी माँ होतीं, तो वे सबसे पहले अपने बेटे को ही डांटतीं कि वरुण, यह तुमने क्या कह डाला? हम लोग एक पढ़े-लिखे परिवार के हैं, मैं संजय गांधी की पत्नी और इंदिरा गांधी की बहू हूँ। जवाहरलाल नेहरू का वंश वृक्ष बनाया गया, तो उसमें मेरा और तुम्हारा दोनों का नाम होगा। चुनाव जीतने के लोभ में तुमने यह सब भुला दिया और मुसलमानों के लिए ऐसे अपशब्द कह डाले जो हत्यारी मानसिकता का आदमी ही कह सकता है! वरुण बेटे, मुझे तुमसे इसकी कतई उम्मीद न थी।


मेनका गांधी के मन में ये अथवा इस तरह के विचार आए होते, तो आज उनकी जयजयकार हो रही होती। इन दिनों लोगों में पुत्र या पुत्री मोह इतना ज्यादा दिखाई देता है कि लोग अपने हत्यारे और बलात्कारी बेटे तथा पति या प्रेमी की हत्या करनेवाली बेटी को अपराध-मुक्त कराने के लिए बड़े-बड़े वकीलों को नियुक्त करते हैं। यह हो रहा है उस देश में जहाँ रानी कैकेयी सबके सामने अपना अपराध स्वीकार करते हुए अपने बेटों भरत और राम से करुणा की भीख माँगती हैं। फिर भी भारत की जनता ने कैकेयी को उसके अंध पुत्र प्रेम के लिए माफ नहीं किया है। वरुण के प्रति मेनका का प्रेम ऐसा ही है। पुत्र प्रेम में अंधी हो कर वे अपनी वेदना तो प्रगट करती हैं, पर अपने पुत्र का कोई दोष नहीं देख पातीं।


पर मायावती का यह कहना भी पूरा तरह सही नहीं है कि मेनका ने वरुण को अच्छे संस्कार दिए होते, तो वरुण गांधी ने पीलीभीत में ऐसे विनाशकारी बयान नहीं दिए होते। दुनिया में कौन-सी माँ अपने पुत्र को विपथगामी बनाना चाहती है? फिर भी बेटे कुपथगामी हो जाते हैं तो इसलिए कि उनके व्यक्तित्व पर और भी अनेक चीजों का असर पड़ता है। इसका सबसे ज्यादा चर्चित उदाहरण हरिलाल थे, जो महात्मा गांधी जैसे पिता और कस्तूरबा जैसी माँ के बेटे थे। हरिलाल ने क्या नहीं किया -- वे लोगों से रुपया उधार ले कर लौटाते नहीं थे, जीविकोपार्जन नहीं करते थे, शराब पीते थे, वेश्यागमन करते थे, एक बार तो अपना धर्म छोड़ कर वे मुसलमान भी हो गए! क्या इस सबके लिए उनकी माँ कस्तूरबा ही जिम्मेदार थीं? अगर ऐसा था, तो उनका कुप्रभाव उनके अन्य बेटों पर क्यों नहीं पड़ा? उनका एक ही बेटा नालायक क्यों निकला? इसलिए पुत्र या पुत्री के विपथगामी हो जाने की सारी जिम्मेदारी उसकी माँ पर थोप देना सही नहीं है।


मायावती का यह कहना वाजिब है कि किसी का दर्द समझने को लिए उसकी माँ होना जरूरी नहीं है। मदर टेरेसा कभी माँ नहीं बनीं, पर उनके लिए सभी उनकी संतान की तरह थे। बहुत ठीक। इस तर्क से मायावती को चाहिए कि वे वरुण गांधी को अपने बेटे के समान ही मानें। अगर वे वरुण गांधी की माँ होतीं और वरुण ने वैसा अपराध किया होता जैसा उन्होंने किया, क्या तब भी वे वरुण को रासुका में गिरफ्तार करवा कर जेल में डाल देतीं? अभी तक तो किसी राजनेता ने ऐसा किया नहीं है। इसका उलटा जरूर होता रहा है। मायावती में मदर टेरेसा के व्यक्तित्व का जर्रा भर भी अंश होता, तो वे सबसे पहले वरुण से मिलतीं और उसे प्रेम से समझातीं कि बेटे, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। उसके बाद कहतीं कि राजधर्म निभाने के लिए तुम्हें गिरफ्तार करवाना मेरा फर्ज है, पर तुम्हें इसका बुरा नहीं मानना चाहिए, बल्कि इस बात पर गर्व करना चाहिए कि तुम्हारी माँ निष्पक्ष प्रशासक है। तुम्हें भी एक दिन ऐसा ही बनना है।


जाहिर है, यह सब मेरी खुशखयाली है। लेकिन यथार्थ और खुशखयाली के बीच मीलों की दूरी होने लगे, तो यह दुनिया कितने दिन चल सकती है?

- राजकिशोर

4 टिप्‍पणियां:

  1. द्वेष की राजनीति चल रही है।
    ममता झुलस रही है।

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  2. बहुत सटीक पोस्ट लिखी है।लेकिन जो काम वर्य़्ण ने किया ऐसा ही बयान कभी राजीव ने भी दिया था शायद आपको पता हो......कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो.......।उस समय मारे गऎ लोगो के परिवारो पर मरहम लगाने के बदले नमक-मिर्च छिड़का गया था। उस समय कोई विरोध ना हुआ .....जैसा आज हो रहा है।मै वरूण के बयान को सही नही ठहरा रहा। बल्कि राजनीति मे करनी और कथनी का अंतर बता रहा हूँ।इसे अन्यथा न ले।

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  3. राज किशोर जी, आपने इस आलेख को इस धारणा पर आधारित किया है कि वरुण ने एक गम्भीर आपराधिक कृत्य कर दिया है और उसे जेल में बन्द करके मायावती ने बड़ा पुनीत कार्य किया है। मुझे आप जैसे मूर्धन्य पत्रकार/लेखक से इतने सतही विश्लेषण की उम्मीद नहीं थी।

    वरुण ने जो कथित भड़काऊ भाषण दिया है उस प्रकार की बातें मस्जिदों, गुरुद्वारों, आर.एस.एस. की शाखाओं और चर्चों के बन्द दरवाजों के पीछे सामान्य तौर पर की जाती हैं। यहाँ अपने धर्म की रक्षा के लिए हर प्रकार से तैयार रहने, बाहरी हमलावरों को मार डालने, अपने धर्म के विरुद्ध हाथ उठाने वालों को कड़ा जवाब देने, हाथ काट लेने की बातें तो होती ही हैं, धार्मिक कट्टरता के नायक खुलेआम साम्प्रदायिक आधार पर रैली और आन्दोलन भी चलाते हैं और दबाव समूह बनाकर राजनीति की रोटी भी सेंकते हैं। जब केवल हिन्दू धर्म वाले आत्मरक्षा की बात करते हैं तो इसे साम्प्रदायिक करार दिया जाता है।

    वरुण की गलती यह है कि उन्होंने अपने मन की बात शातिर ढंग से नहीं कही बल्कि सीधे और सपाट तरीके से वह सब कुछ कह गये जो बाकी लोग मन में तो रखते हैं लेकिन सामाजिक मर्यादा के डर से सामने नहीं आते। भले ही छिपछिपाकर इससे भी खतरनाक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं। वरुण के बयान को एक सीमा तक ईमानदार अभिव्यक्ति ही कहना होगा।

    मायावती ने जिस प्रकार के माफिया अपराधियों और बाहुबलियों को अपनी पार्टी से टिकट दिया है वे इस समाज में ज्यादा जहर घोलने वाले हैं। वरुण ने तो खुलकर अपनी सोच उजागर कर दी है। जिसे पसन्द आये वो साथ दे और जिसे पसन्द न आये वो इसके खिलाफ़ वोट डाले। झूठे आश्वासन के बजाय साफगोई से अपनी बात रखने का काम तो प्रशंसनीय है। जनता अपना फैसला आगामी चुनावों में जरूर सुनाएगी।

    मायावती ने एक शातिर नेता की भाँति वरुण को रोकने के लिए जिस प्रकार सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया है वह निन्दनीय है। भ्रष्टाचार के सारे पिछले रिकार्ड ध्वस्त करते हुए सरकारी मशीनरी को धन लूटने का जैसा औंजार इस मुख्य मन्त्री ने बना दिया है वह अभूतपूर्व है। फिर भी अपनी तुलना मदर टेरेसा से करके निर्लज्जता और ढिठाई का जो नमूना बहन जी ने पेश किया है, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलने वाली है।

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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