मेरी आहत भावनाएँ


दुनिया मेरे आगे


मेरी आहत भावनाएँ




मंगलूर में पेयशाला में स्त्रियों के जाने और कोलकाता में धार्मिक रूढ़ियों की आलोचना से लोगों की भावनाएँ आहत हुईं। कोलकाता में पुलिस ने आहत भावनाओं को शांत करने के लिए संपादक और प्रकाशक को गिरफ्तार कर लिया, तो मंगलूर में जिनकी भावनाएँ आहत हो रही थीं, वे खुद हाथ-पैर चलाने लगे। यह देख कर मैं सोचने लगा कि मुझे भी अपनी आहत भावनाओं का कुछ करना चाहिए। ज्यादा कुछ नहीं कर सकता, तो उनकी सूची बना कर जनता जनार्दन के समक्ष पेश तो कर ही सकता हूँ।


सुबह उठते ही मेरी भावनाओं के आहत होने का सिलसिला शुरू हो जाता है। दिन की पहली चाय के साथ अखबारों का बंडल जब बिस्तर पर धमाक से गिरता है, तो तुरंत खयाल आता है कि सुबह-सवेरे मेरे घर के दरवाजे पर अखबार पहुँचाने के लिए लिए कितने लोगों को रात भर काम करना पड़ा होगा। सबसे ज्यादा अफसोस होता है अपने हॉकर पर। वह बेचारा चार-पाँच बजे तड़के उठा होगा, अखबारों के वितरण केंद्र पर गया होगा, वहाँ से अखबार उठाए होंगे और अपनी साइकिल पर रख कर उन्हें घर-घर पहुँचाता होगा। यहाँ तक कि साप्ताहिक अवकाश भी नहीं मिलता, जिसे दुनिया भर में मजदूरों का मूल अधिकार माना जाता है।


अखबार पढ़ने लगता हूं, तो कम से कम दो चीजें मुझे आहत करती हैं। पहली चीज हत्या और आत्महत्या के समाचार हैं। सभी हत्याओं को रोका नहीं जा सकता, लेकिन ऐसी हत्या-निरोधक संस्कृति तो बनाई ही जा सकती है जिसमें रोज इतनी मारकाट न हो। आत्महत्याओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे व्यक्ति की नहीं, समाज की विफलता के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। व्यवस्था को सुधार कर ये आत्महत्याएँ भी रोकी जा सकती हैं। जो दूसरी चीज मेरी भावनाओं को आहत करती है, वह है देशी-विदेशी सुंदरियों की सुरुचिहीन तसवीरें। यह देख कर मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं कि भगवान द्वारा दिए गए सौंदर्य के अद्भुत उपहार का कैसा भोंडा इस्तेमाल करने के लिए इन्हें प्रेरित और विवश किया जा रहा है।


जब तैयार हो कर काम पर निकलता हूँ, तो भावनाओं का आहत होना फिर शुरू हो जाता है। जब अपनी सोसायटी के सफाईकर्ता पर नजर उठती है, तो शर्मशार हो जाता हूँ। वह दिन भर घर-घर से कूड़ा-कचरा जमा करता है, सोसायटी की सीढ़ियों और सड़कों को झाड़ू से बुहारता है और बदले में उसे महीने में तीन-चार हजार भी नहीं मिलते। यही दुर्दशा चौकीदारों की है, जो सोसायटी में रहनेवाले परिवारों की सुरक्षा का खयाल रखते हैं। सोसायटी से बाहर आने पर गली में कई ऐसे बच्चे मिलते हैं जिन्हें देख कर कुपोषण की राष्ट्रीय समस्या का ध्यान आता है। वे कामवालियाँ भी दिखाई देती हैं जो एक ही दिन में कई घरों की साफ-सफाई, चौका-बरतन आदि करती हैं और हमारा जीवन आसान बनाती हैं, फिर भी जिन्हें देख कर लगता नहीं है कि इससे होनेवाली आमदनी से उनके परिवार का काम अच्छी तरह चल जाता होगा।


सड़क पर आने के बाद दाएँ-बाएँ कचरे के ढेर मेरी भावनाओं को आहत करते हैं। फिर मिलती हैं सिगरेट और गुटके की एक के बाद एक चार दुकानें। इन्हें देखते ही गुस्सा आ जाता है कि हमारा स्वास्थ्य मंत्री अपना काम क्यों नहीं कर रहा है। वह सिगरेट और गुटकों के कारखाने बंद नहीं करा सकता, तो कम से कम इतना तो कर ही सकता है कि इन दुर्पदार्थों की दो दुकानों के बीच कम से कम एक किलोमीटर का फासला रखे। दफ्तर जाने के लिए ऑटोरिक्शा लेने की कोशिश करता हूं, तो पाँच में से चार मीटर पर चलने से इनकार कर देते हैं। हर बार मेरी भावनाएँ बुरी तरह आहत होती हैं। तब तो होती ही हैं जब मैं देखता हूं कि पाँच-पाँच, छह-छह लाख की बड़ी-बड़ी गाड़ियों में लोग अकेले भागे जा रहे हैं और उनसे तीन गुना बड़े आकार की बसों में सौ-सौ आदमी-औरतें ठुंसे हुए हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब सड़क पर हफ्तों से नहाने के अवसर से वंचित, दीन-हीन चहरे कुछ बेचते हुए या सीधे भीख माँगते हुए न दिखाई पड़ते हों। फुटपाथ पर लेटी हुई ऐसी मानव आकृतियाँ भी दिखाई देती रहती हैं जिनका अहस्ताक्षरित बयान यह है कि इस दुनिया में हमारे लिए कोई जगह नहीं है।


क्या-क्या बयान करुँ। रास्ते में कई आलीशान होटल पड़ते हैं। इनके एक कमरे का एक दिन का किराया आठ-दस हजार रुपए है। यह याद कर मेरा खून खौलने लगता है। एक सरकारी अस्पताल भी पड़ता है। उसमें दाखिल रोगियों के हालात की कल्पना कर मन अधीर हो जाता है। कभी-कभी रास्ता कुछ देर के लिए बंद कर दिया जाता है, क्योंकि कोई वीआइपी गुजर रहा होता है। दफ्तर में कुछ लोगों को पाँच हजार रुपए महीना मिलता है, तो कुछ को पचास हजार। शाम को घर लौटता हूं, तो जगह-जगह जाम मिलता है। घर पहुँच कर टीवी खोलता हूँ तो फिर भावनाएँ आहत होने लगती हैं। इस बेईमान, बदमाश, अपराधी, फूहड़ और विज्ञापनी दुनिया में रहने के लिए हमें कौन बाध्य कर रहा है?


- राजकिशोर




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5 टिप्‍पणियां:

  1. ये आहत और क्षत-विक्षत भावनाएँ हर संवेदनशील नागरिक की भावनाएँ हैं.

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  2. जी हाँ हर सवेदनशील इंसान रोज कई बार आहत होता है

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  3. राजकिशोर जी, हर संवेदनशील व्यक्ति के दिल की बात कह दी आप ने.

    सस्नेह -- शास्त्री

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  4. इसी तरह आहत होते होते एक दिन संवेदनाएं मर जाती हैं आम आदमी की...फ़िर हम कहते हैं देखो इतना कुछ हो गया और कैसे तटस्थ चला जा रहा है.

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  5. मन को छूने वाला लेख। इसी का नाम दुनिया है....

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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