देवी सरस्वती के चरणों में

परत-दर-परत


देवी सरस्वती के चरणों में
- राजकिशोर









बंगाल में सरस्वती पूजा के दिन जो खास बात देखने में आती है, उसका संबंध छात्राओं के उत्साह से है।
दिल्ली में रहते हुए वसंत का तो कभी-कभी पता चलता है, पर वसंत पंचमी का बिलकुल नहीं। इस दिन पश्चिम बंगाल में देवी सरस्वती की पूजा होती है। यह विद्यार्थियों के लिए खास दिन होता है। वे सरस्वती की मिट्टी की मूर्ति खरीद कर लाते हैं और पूजा करते हैं। पूजा के समय मूर्ति के समय अपनी किताबें -- ज्यादातर टेक्स्ट बुक्स -- रखते हैं। मैं भी बचपन में अपने घर की गली में सरस्वती पूजा का छोटा-सा निजी आयोजन किया करता था। मेरे बेटे ने भी कई वर्षों तक किया। लेकिन बेटी को इसकी कोई याद नहीं है, क्योंकि जब तक वह समझने-बूझने लायक हुई, हम दिल्ली आ चुके थे। यहाँ सरस्वती का वास है, पर सरस्वती की पूजा कोई नहीं करता।


बंगाल में सरस्वती पूजा के दिन जो खास बात देखने में आती है, उसका संबंध छात्राओं के उत्साह से है। सबेरे से ही पढ़नेवाली लड़कियाँ नहा-धो कर पीली साड़ी में और मुक्त केशराशि लहराते हुए सड़कों पर चलते हुए दिखाई पड़ने लगती हैं। उनका सौंदर्य अद्भुत होता है। इस कोमल और अवयस्क सुंदरता के आगे रमणियों का सौंदर्य साल भर पानी भरता रहता है। ये ही लड़कियाँ जब दुर्गा पूजा के अवसर पर सज-धज कर पूजा देखने निकलती हैं, तो उनका रूप बदल जाता है। तब वे सेक्सी दिखाई पड़ने की कोशिश करती हैं। पर सरस्वती पूजा के दिन उनके अस्तित्व के हर आयाम से पवित्रता छलकती रहती है। वे स्वयं छोटी-छोटी सरस्वतियाँ नजर आती हैं। मुझे लगता है, देवी सरस्वती का साहचर्य उन्हें कुछ पवित्र बना जाता है। इससे पता चलता है कि दुनिया में कोई भी चीज निरपेक्ष नहीं है -- हमारा आसंग तय करता है कि हम क्या होंगे और कैसा दिखेंगे। इस दृष्टि से सरस्वती पूजा की निर्मलता और पवित्रता अनोखी है। ऐसी ऊँचाई किसी और पर्व में दिखाई नहीं देती।


पर्व-त्यौहारों में अब मुझे कुछ खास आनंद नहीं आता। शायद यह उम्र का असर है। लेकिन पहले भी कुछ विशेष आनंद आता था, ऐसा याद नहीं पड़ता। इसका एक कारण शायद यह है कि पर्वों के साथ जो भावनाएँ जुड़ी हुई होनी चाहिए, वे नदारद हो चुकी हैं। सिर्फ होली अपने समस्त रंगों के साथ जारी है। हालाँकि उसे निरंतर अश्लील बनाने का सिलसिला जारी है। वसंतोत्सव या रंगोत्सव के रूप में उसकी जो मधुर सांस्कृतिक कल्पना की जा सकती है, उसके लिए समाज में कोई जगह नहीं देती। बहरहाल, अगर किसी एक हिन्दू त्यौहार को बचाए रखने के मामले में मेरी राय माँगी जाए, तो मैं सरस्वती पूजा के पक्ष में वोट दूँगा।


सरस्वती सिर्फ ज्ञान की देवी नहीं हैं। वे साहित्य और कला की भी देवी हैं। वे वाग्देवी भी हैं। इस तरह वे रचनात्मकता के सभी पहलुओं का प्रतिबिंबन करती हैं। हमें ज्ञान चाहिए, क्योंकि अज्ञानी रह कर न अपना भला कर सकते हैं न किसी और का। पर ज्ञान को शुष्क नहीं होना चाहिए -- उसके साथ भावना भी जुड़ी होनी चाहिए। इससे साहित्य तथा विभिन्न कलाओं की नदियाँ फूटती हैं। अंत में, सरस्वती का वाहन कहीं कमल का फूल और कहीं हंस दिखाई देता है। दोनों ही इस बात के प्रतीक हैं कि जो ज्ञान की आराधना करता है, वह धीरे-धीरे धवलबुद्धि, नीर-क्षीर विवेकी तथा नि:संग होता जाता है। इस प्रशांत अवस्था को हासिल किए बिना ज्ञान-कला-साहित्य की उपासना व्यर्थ है। इस लक्ष्य तक पहुंचने का एक रास्ता अध्यात्म से भी हो कर जाता है, पर जीवन के इस गुह्र आयाम तक सबकी गति नहीं हो सकती। इसलिए इसे आपवादिक मान कर चलना ही उचित और सुरक्षित है।


कहा जा सकता है कि यह ज्ञान का युग है। भक्ति मार्ग बहुत पीछे छूट चुका है। ज्ञान मार्ग प्रशस्त हो रहा है। हर आधुनिक व्यक्ति के पास जो न्यूनतम ज्ञान होता है, वह पहले बड़े-बड़े ज्ञानियों को नसीब नहीं होता था। यह आपत्ति आधारहीन नहीं है कि यह ज्ञान नहीं, सूचना है। इस युग को भी सूचना युग ही कहा जाना चाहिए। बात काफी हद तक सही है। लेकिन ज्ञान वह फूल है जो सूचनाओं के पेड़ पर ही खिलता है। वह जमाना चला गया जब लोग आँख बंद करके साधना करते थे और सहसा एक दिन ज्ञानी हो जाया करते थे। ऐसे ज्ञान से आज हमारा काम नहीं चल सकता। आज हमें वह ज्ञान चाहिए जो खुली आँखों से देखने पर हासिल होता है। बल्कि सिर्फ देखने से ही नहीं, बल्कि प्रयोगशाला में परीक्षण करके, क्योंकि आँखों को धोखा हो सकता है। सामाजिक विज्ञानों की अपनी प्रयोगशालाएँ हैं।


दुःख की बात यह है कि ज्ञान या सूचना जो कहिए, उसके विस्फोट ने हमारे जीवन बोध को किसी उल्लेखनीय पैमाने पर नहीं बदला है। हमारी जीवन शैली मोटे तौर पर वैसी ही है जैसी तब थी जब हम अपेक्षाकृत कम जानकार थे। शोषण, अन्याय, युद्ध, हिंसा आदि की समस्याएँ बनी हुई हैं। स्त्रियों और बच्चों का जीवन अभी भी असुरक्षित है। तरह-तरह के भेदभाव कायम हैं। पर्यावरण पर खतरा रोज बढ़ता जाता है। हम आज जिस पृथ्वी को जानते हैं, वह सौ साल बाद भी इसी रूप में मिलेगी? कोई नहीं जानता। नदियाँ, भूजल, वायु -- सब प्रदूषण का शिकार होते जा रहे हैं। इसी तरह हमारी भावनाएँ और व्यवस्थाएँ भी। समाजवाद अब फिर एक स्वप्न हो गया है। सुबह का अखबार पढ़ कर कहीं से क्या ऐसा लगता है कि यह ज्ञानी या जानकार लोगों की सभ्यता है?

इसका एक कारण शायद यह है कि पर्वों के साथ जो भावनाएँ जुड़ी हुई होनी चाहिए, वे नदारद हो चुकी हैं।



ऐसी सभ्यता में ही वह चीज फूल-फल सकती है जिसे ज्ञान का उद्योग (नॉलेज इंडस्ट्री) कहा जाता है। यह एक नया उद्योग है जिसका आधार सूचनाओं का आदान-प्रदान है। वैसे तो हर उद्योग का आधार ज्ञान ही है, पर इस उद्योग में ज्ञान स्वयं ही खरीद-बिक्री की चीज बन जाता है। ज्ञान का यह व्यापारीकरण हमारी सभ्यता के बुनियादी चरित्र की ओर संकेत करता है। यहाँ कोई भी चीज तुरंत व्यापार बना दी जाती है - कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे? यह ज्ञान की उपासना नहीं, ज्ञान का भक्षण है। ऐसे माहौल में ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा और ज्यादा उपयोगी तथा मूल्यवान हो जाती है। आराधक में विनम्रता होती है। ज्ञान की खोज में लगे लोगों में भी विनम्रता होनी चाहिए -- अहंकार नहीं। आराधक सभी के कल्याण की कामना करता है। ज्ञान के क्षेत्र में काम करनेवालों को भी नहीं भूलना चाहिए कि उनका लक्ष्य निजी या राष्ट्रीय लाभ नहीं, बल्कि मानव मात्र का कल्याण है। देवी सरस्वती निश्चय ही एक मिथक हैं -- पर एक ऐसा मिथक, जो हमारे समस्त यथार्थ बोध का मानदंड बन सकता है।

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3 टिप्‍पणियां:

  1. नवीन सोच पर आधारित आलेख स्तरीय है.
    -विजय

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  2. अनुपम, विचारणीय और ज्ञानबर्द्धक पोस्ट। साधुवाद।

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  3. देवी सरस्वती पर यह लेख बसंत पंचमी के त्योहार का उपहार लगा। क्यों न इस उत्सव पर एक प्रण लें कि इस दिन कोई नई पुस्तक खरीदी जाय जिससे हमार ज्ञान भी बढे और लेखक का प्रोत्साहन भी हो। ऐसा इसलिए भी कि यह देखा जा रहा है कि पुस्तकें नहीं बिक रही हैं - तो सरस्व्ती वंदना का माध्यम इस ओर लोगों को प्रेरित करता है। त्योहारों पर तो नए कपडे, पठाके आदि पर पैसे लगते हैं तो पुस्तकों पर क्यों नहीं?

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