मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज (१०)

मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज
=======================
नवजागरणकालीन मणिपुरी कविता - १०
-------------------------------------
उन्नीसवीं शताब्दी की राजनीतिक उथल-पुथल से जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक संक्रमण उत्पन्न हुआ, उससे सहित्य भी नहीं बच सका। बीसवीं सदी तक आते-आते राजनीतिक नवजागरण की लहर चली तो साहित्यकार भी उसमें बह चले। इस नवजागरणकाल में मणिपुरी कविता का प्रभाव भी देखा जा सकता है। इस इतिहास के परिवेश में नवजागरणकालीन मणिपुरी कविता की भूमिका के बारे में डॉ। देवराज बताते हैं कि सन १८३३ में ब्रिटिश सरकार ने अपने प्रस्तावॊं को महाराज गम्भीर सिंह से स्वीकृत करा कर मणिपुर की स्वतन्त्र-सत्ता को आघात पहूँचाया। इसके दो वर्ष बाद ही अंग्रेज़ों ने अपना पोलिटिकल एजंट भी मणिपुर में बिठा दिया। इन घटनाऒं का सामाजिक एवं साहित्यिक क्षेत्रों में जो असर पडा़, उसका विवरण डॉ. देवराजजी इस प्रकार देते हैं :
"नवजागरण मूल रूप से राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के गर्भ से जन्मा था, इसीलिए वह विचारधारा पहले था, साहित्य बाद में। भारत में ही नहीं, अन्य देशों में भी नवजागरण विचारधारा बनकर ही आया। यदि वह विचार के रूप में न आता तो साहित्य में युगान्तरकारी परिवर्तन उपस्थित न कर पाता और न काव्य को जन-चेतना का वाहक ही बना पाता।"

"यद्यपि ख्वाराक्पम चाओबा की गद्य रचनाओं [ कान्नबा वा -१९२४, फ़िदम -१९२५, बाखल - १९२६] में नवजागरण की हलचल अनुभव होने लगी थी, किन्तु सन १९२९ में कमल [डॉ। लमाबम कमल सिंह] के काव्य-संग्रह ‘लै परेङ’ [पुष्प-माला] में नवजागरणकालीन काव्य-सौंदर्य एवं तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक चिन्ताओं का विस्फ़ोट हुआ। कमल अपनी कविताओं के माध्यम से बराबर इस आवश्यकता पर बल देते हैं कि हम अपनी उन दुर्बलताओं पर ध्यान दें, जिनके कारण मातृभूमि मणिपुरी श्रीहीन हो गई है और उस पर विदेशी लोगॊं का आधिपत्य स्थापित हो गया है। कमल की यह चेतना हिंदी के भारतेन्दु की चेतना से मेल खाती है। कमल की कविताओं में अभिव्यक्ति की विलक्षणता तो है ही, साथ ही अंग्रेजी साम्राज्यवाद का तीक्ष्ण-विरोध भी है।"
(प्रस्तुति : चंद्रमौलेश्वर प्रसाद)

कथाकथन : सूरज प्रकाश : २१जून २००८ (स्लाइड शो) - भारत से

हैदराबाद, २२ जून(प्रेस विज्ञप्ति).

"जब कोई अनुभव रचनाकार को गहराई तक व्यथित करता है या विचलित करता है तो उसकी यह तीव्रता उसे रचना के रूप में अभिव्यक्त करने के लिए विवश करती है। रचनाकार प्रशिक्षण द्बारा नहीं इस रचनात्मक बैचैनी द्बारा ही लिखना सीखता है. रचना के रूप का निर्धारण भी अनुभव के रूप के आधार पर ही होता है. कई बार कुछ अनुभव बड़ी रचना में नहीं आ पाते. परन्तु रचनाकार को तंग करते रहते हैं. ऐसे अनुभवों को लघु कथाओं में अधिक पैनेपन के साथ व्यक्त किया जा सकता है. लेखक विचिलित अनुभवों को ग्रहण और संप्रेषित करता है. वह कोई संदेश दे ऐसा ज़रूरी नहीं है. इतना ही नहीं किसी कहानी को जहाँ लेखक ख़त्म करता है वहाँ से पाठक की कहानी शुरू होती है." ये विचार हैदराबाद में २१ जून, शनिवार को उच्च शिक्षा और शोध संसथान, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के व्याख्यान कक्षा में आयोजित 'कथा कथन' कार्यक्रम में पुणे से पधारे वरिष्ट कथाकार सूरज प्रकाश ने अपनी कहानियो के वाचन और उन पर चली लम्बी चर्चा के बाद अपना मत प्रकट करते हुए व्यक्त किए. 'कथा कथन' कार्यक्रम की अध्यक्षता उच्च शिक्षा और शोध संस्था के आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने की.

आरम्भ में अनुराधा जैन ने वन्दना प्रस्तुत की तथा चन्द्र मौलेश्वर प्रसाद ने अतिथि कथाकार का परिचय देते हुए बताया कि सूरज प्रकाश के दो उपन्यास, दो कहानी संग्रह और एक व्यंग्य संग्रह के अतिरिक्त अनेक अनुदित ग्रन्थ प्रकाशित हैं।

कथा कथन के अंतर्गत सूरज प्रकाश ने 'महानगर की कथाएं' शीर्षक से पाँच तथा 'दंगा कथाएं' शीर्षक से सात लघु कथाओं का पाठ करने के अलावा टेलीफोन वार्ता के शिल्प में रचित एक पूर्णाकार कहानी 'दो जीवन समांतर' का पाठ किया।

रचना पाठ के उपरांत कार्यक्रम के दूसरे चरण 'लेखक से संवाद' में हैदराबाद के लेखकों, प्राध्यापकों और शोधार्थियों ने पठित कहानियों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने के साथ साथ लेखक से उनकी रचना प्रक्रिया, प्रयोजनीयता, पक्ष धरता, शिल्प विधान और भाषा के सम्बन्ध में जिज्ञासाएं प्रकट की। जिनका समाधान कथाकार ने उत्साह पूर्वक किया। चर्चा-परिचर्चा में डॉ। मीना आहूजा, डॉ, अहिल्या मिश्र, डॉ. शुभदा वांजपे डॉ. रामजी सिंह उदयन, डॉ. राम कुमार तिवारी, डॉ. किशोरी लाल व्यास, डॉ. बी सत्यनारायण, डॉ. जी नीरजा, डॉ. करण सिंह उटवाल, डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. मोहन लाल निगम, भगवान दास जोपट, गोविन्द मिश्रा.अवनीश, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, पवित्रा अग्रवाल, गुरुदावाल अग्रवाल, संजीवनी, भंवर लाल उपाध्याय, श्रीनिवास सोमानी, अभिषेक दाधीच, शिवकुमार राजौरिया, अनुराधा जैन, शक्ति कुमार द्विवेदी, चंद्र मौलेश्वर प्रसाद, द्वारका प्रसाद मायाच तथा कोटा से पधारे शशि प्रकाश चौधरी ने गहन विचार विमर्श किया. डॉ. राधे श्याम शुक्ला और डॉ. एम. वन्कतेश्वर ने चर्चा का समाहार करते हुए कथाकार को शुभकामनाएं दी.कार्यक्रम का संचालन डॉ. बी बालाजी ने किया.

डॉ। ऋषभ देव शर्मा ने अंग वस्त्र प्रदान कर कथाकार सूरज प्रकाश का सम्मान किया तथा नगर के साहित्यकारों की ओर से उन्हें पुस्तके, पत्रिकाएं और लेखनी समर्पित की गई. अतिथि कथाकार ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए संयोजकों को अपने उपन्यास 'देस बिराना' की ऑडियो सी डी समर्पित की.

तीन घंटे तक चले कार्याक्रम का समपान चंद्र मौलेश्वरप्रसाद के धन्यवाद प्रस्ताव के साथ हुआ




..पर लक्ष्मीबाई की पहचान से दूर है झांसी (18 जून - वीरगति दिवस)

....पर लक्ष्मीबाई की पहचान से दूर है झांसी

(18 जून 1857 को ग्वालियर में वीरगति)
झांसी।
रानी लक्ष्मीबाई और झांसी एक-दूसरे के पर्याय है, क्योंकि एक के बिना दूसरा अधूरा है। लेकिन जंग-ए-आजादी में अपनी जान न्यौछावर कर देने वाली झांसी की रानी की अंतिम पहचान तलवार, राजदंड और ध्वज अब भी झांसी से दूर है। रानी की इन निशानियों को झांसी लाने की चर्चाएं तो बहुत हुई, मगर बात कोशिशों की हद को अब तक पार नहीं कर पाई है।

आजादी की पहली लड़ाई की नायिका रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए 18 जून 1857 को ग्वालियर में वीरगति को प्राप्त हुई थी। देश को आजाद हुए छह दशक गुजर चुके है मगर रानी से जुड़ी सामग्री अब तक झांसी नहीं आ पाई है। कहने के लिए तो झांसी में रानी का किला है, महल है और वह गणेश मंदिर भी है जहां रानी परिणय सूत्र में बंधी थी। परंतु रानी ने जिस तलवार से अंग्रेजों का मुकाबला किया था वह झांसी में नहीं है।

राजकीय संग्रहालय के निदेशक एके पांडे बताते है कि रानी की तलवार और बख्तरबंद ग्वालियर में है। इसे झांसी लाने के कई बार प्रयास हुए परंतु सफलता नहीं मिल पाई है। पांडे के अनुसार ये सारी चीजें सरकार के फैसलों से जुड़ी हुई हैं। कभी सेना में मेजर रहे राम मोहन बताते है कि रानी का राजदंड अब भी कुमाऊं रेजीमेंट के पास है। अंग्रेजों ने रानी से युद्ध के दौरान यह हासिल कर लिया था जो बाद में कुमाऊं रेजीमेंट के पास पहुंच गया था। राम मोहन के पास उस राजदंड की तस्वीर भी है। राज मोहन के अनुसार रानी का ध्वज लंदन में है।

बुंदेलखंड के इतिहास विद हरगोविंद कुशवाह रानी को लेकर हो रही राजनीति से व्यथित है। उनका कहना है कि राजनैतिक दल हों अथवा प्रशासनिक अमला सभी के लिए रानी की विरासत दुकान बनकर रह गई है। जैसे ही बलिदान दिवस करीब आता है रानी पर बहस छिड़ जाती है। इतना ही नहीं चुनाव के दौरान तो रानी की विरासत को मुद्दा बना दिया जाता है। वक्त गुजरते ही सब भूल जाते है। वे सवाल करते है कि वाकई में कभी तलवार, राजदंड और ध्वज झांसी आ पाएगा? अथवा राजनीति का वही खेल चलता रहेगा जो अब तक होता आया है।


Courtesy: www.jagran.com

कीर्ति चौधरी : कुछ कविताएँ

बरसते हैं मेघ झर-झर
कीर्ति चौधरी

बरसते हैं मेघ झर-झर
भीगती है धरा
उड़ती गंध
चाहता मन
छोड़ दूँ निर्बंध
तन को, यहीं भीगे
भीग जाए
देह का हर रंध्र
रंध्रों में समाती स्निग्ध रस की धार
प्राणों में अहर्निश जल रही
ज्वाला बुझाए
भीग जाए
भीगता रह जाए बस उत्ताप!

बरसते हैं मेघ झर-झर
अलक माथे पर

बिछलती बूँद मेरे
मैं नयन को मूँद
बाहों में अमिय रस धार घेरे
आह! हिमशीतल सुहानी शांति
बिखरी है चतुर्दिक
एक जो अभिशप्त
वह उत्तप्त अंतर
दहे ही जाता निरंतर
बरसते हैं मेघ झर-झर
******************
केवल एक बात थी
कीर्ति चौधरी


केवल एक बात थी
कितनी आवृत्ति
विविध रूप में करके तुमसे कही
फिर भी हर क्षण
कह लेने के बाद
कहीं कुछ रह जाने की पीड़ा बहुत सही
उमग-उमग भावों की
सरिता यों अनचाहे
शब्द-कूल से परे सदा ही बही
सागर मेरे ! फिर भी
इसकी सीमा-परिणति
सदा तुम्हीं ने भुज भर गही, गही ।
************
मुझे फिर से लुभाया
कीर्ति चौधरी


खुले हुए आसमान के छोटे से टुकड़े ने,
मुझे फिर से लुभाया
अरे! मेरे इस कातर भूले हुए मन को
मोहने,
कोई और नहीं आया
उसी खुले आसमान के टुकड़े ने मुझे
फिर से लुभाया

दुख मेरा तब से कितना ही बड़ा
हो वह वज्र सा कठोर,
मेरी राह में अड़ा हो पर उसको बिसराने का,
सुखी हो जाने का
साधन तो वैसा ही छोटा सहज है

वही चिड़ियों का गाना
कजरारे मेघों का
नभ से ले धरती तक धूम मचाना
पौधों का अकस्मात उग आना
सूरज का पूरब में चढ़ना औ
पच्छिम में ढल जाना
जो प्रतिक्षण सुलभ,
मुझे उसी ने लुभाया
मेरे कातर भूले हुए मन के हित
कोई और नहीं आया
दुख मेरा भले ही कठिन हो
पर सुख भी तो उतना ही सहज है
मुझे कम नहीं दिया है
देने वाले ने
कृतज्ञ हूँ
मुझे उसके विधान पर अचरज है
***************

आगत का स्वागत
कीर्ति चौधरी

मुँह ढाँक कर सोने से बहुत अच्छा है,
कि उठो ज़रा,
कमरे की गर्द को ही झाड़ लो।
शेल्फ़ में बिखरी किताबों का ढेर,
तनिक चुन दो।
छितरे-छितराए सब तिनकों को फेंको।
खिड़की के उढ़के हुए,
पल्लों को खोलो।
ज़रा हवा ही आए।
सब रौशन कर जाए।
... हाँ, अब ठीक
तनिक आहट से बैठो,
जाने किस क्षण कौन आ जाए।
खुली हुई फ़िज़ाँ में,
कोई गीत ही लहर जाए।
आहट में ऐसे प्रतीक्षातुर देख तुम्हें,
कोई फ़रिश्ता ही आ पड़े।
माँगने से जाने क्या दे जाए।
नहीं तो स्वर्ग से निर्वासित,
किसी अप्सरा को ही,
यहाँ आश्रय दीख पड़े।
खुले हुए द्वार से बड़ी संभावनाएँ हैं मित्र!
नहीं तो जाने क्या कौन,
दस्तक दे-देकर लौट जाएँगे।
सुनो,
किसी आगत की प्रतीक्षा में बैठना,
मुँह ढाँक कर सोने से बहुत बेहतर है।
***********
*****************

('कविताकोश' से साभार)


वैश्वीकरण और हिन्दी की भूमिका



वैश्वीकरण और हिन्दी की भूमिका
=चंद्र मौलेश्वर प्रसाद

वैश्वीकरण पर अपने विचार व्यक्त करते हुए वेट्टे क्लेर रोस्सर ने कहा था कि यह प्रक्रिया अचानक बीसवीं सदी में नहीं उत्पन्न हुई। दो हज़ार वर्ष पूर्व भारत ने उस समय विश्व के व्यापार क्षेत्र में अपना सिक्का जमाया था जब वह अपने जायकेदार मसालों, खुशबूदार इत्रों एवं रंग-बिरंगे कपडों के लिए जाना जाता था। भारत का व्यापार इतना व्यापक था कि एक बार रोम की सांसद ने एक विधेयक के माध्यम से अपने लोगों के लिए भारतीय कपडे़ का प्रयोग निषिद्ध करार दिया ताकि वहां के सोने के सिक्कों को भारत ले जाने से रोका जा सके। तभी से भारत की उक्ति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‌’ प्रचलित रही और इसीलिए आज भी भारत के लिए ‘वैश्वीकरण’ का मुद्दा कोई नया नहीं है।
प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक नोम चॉमस्की का मानना है कि ‘वैश्वीकरण’ का अर्थ अंतरराष्ट्रीय एकीकरण है। इस एकीकरण में भाषा की अहम्‌ भूमिका होगी और जो भाषा व्यापक रूप से प्रयोग में रहेगी, उसी का स्थान विश्व में सुनिश्चित होगा। नोम चॉमस्की के अनुसार जब विश्व एक बडा़ बाज़ार हो जाएगा तो बाज़ार में व्यापार करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग होगा उसे ही प्राथमिकता दी जाएगी और वही भाषा जीवित रहेगी। इस संदर्भ में यह भी भविष्यवाणी की जा रही है कि वैश्वीकरण के इस दौर में विश्व की दस भाषाएं ही जीवित रहेंगी जिनमें हिन्दी भी एक होगी। जिस भाषा के बोलनेवाले विश्व के कोने-कोने में फैले हों, ऐसी हिन्दी का भविष्य उज्जवल तो होगा ही।
हिन्दी का महत्व वैश्वीकरण एवं बाज़ारवाद के संदर्भ में इसलिए भी बढे़गा कि भविष्य में भारत व्यवसायिक, व्यापारिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से एक विकसित देश होगा। भाषावैज्ञानिकों को इस दिशा में अधिक ध्यान देना होगा कि हिन्दी की तक्नीकी शब्दावली विकसित करें और इसके लिए विज्ञान तथा भाषा में परस्पर संवाद बढें, जिससे हिन्दी तक्नीकी तौर पर भी एक सम्पूर्ण एवं समृद्ध भाषा बन सके।

भाषा को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक तो वह भाषा जो स्थान-स्थान पर कुछ देशज शब्दों और लहजे के साथ कही जाती हैं और दूसरी साहित्य की भाषा जो सारे देश में मानक की तरह लिखी व पढी़ जाती है। वैसे तो, अब साहित्य में भी बोलियों का प्रयोग स्वागतीय बन गया है ताकि कथन में मौलिकता बनी रहे और देशज शब्दावली जीवित रहे।
वैश्वीकरण के बाद भाषाओं को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है। विश्वस्तर पर छः भाषाओं को सरकारी काम-काज के लिए अंतरराष्ट्रीय भाषाओ का दर्जा दिया गया है। ये भाषाएं हैं - अंग्रेज़ी, फ्रे़च, स्पेनिश, चीनी, रूसी और अरबी। और दूसरी -वो भाषाएं जो व्यापार में संपर्क भाषाओं [ग्लोबल लेंग्वेजस] के रूप में प्रयोग में आतीं है।

आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में जोर से माँग उठाई गई कि हिन्दी को भी संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता दी जाय। वैसे, यह एक राजनीतिक मुद्दा है, जिसके लिए न केवल राजनीतिक इच्छा- शक्ति की आवश्यकता है बल्कि अपार धन व्यय की व्यवस्था भी करनी पडेगी। शायद इसीलिए हमारी सरकार का ध्यान इस ओर अभी नहीं गया है। परन्तु हिन्दी की उपयोगिता को विश्व का व्यापारिक समुदाय समझ चुका है और इसे अन्तरराष्ट्रीय वैश्विक भाषा [ग्लोबल लेंग्वेज] का दर्जा मिला है।

हिन्दी को वैश्विक दर्जा दिलाने में कई कारक हैं जो व्यवसाय और व्यापार को बढावा देने में सहायक होंगे। भारत एक बडा़ बाज़ार है जहाँ के सभी लोग हिन्दी में सम्प्रेषण कर सकते है। इसीलिए हिन्दी का महत्व व्यापारी के लिए बढ़ जाता है। निश्चय ही मीडिया और फिल्मों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार मे एक मुख्य भूमिका निभाई है। हिंदी का विरोध कर रहे कुछ क्षेत्रों में भी हिन्दी फिल्मों की मांग बढ़ रही है। देश में ही नहीं, विदेशों में भी टेलिविजन पर सबसे अधिक हिन्दी चैनल ही प्रचलित एवं प्रसिद्ध हैं और यह इस भाषा की लोकप्रियता व व्यापकता का प्रमाण है।

पत्रकारिता के क्षेत्र में भी हिन्दी का स्थान प्रथम है। भूमंडलीकरण, निजीकरण व बाज़ारवाद ने नब्बे के दशक में हिन्दी पत्रकारिता में क्रांति लाई। रंगीन एवं सुदर साज-सज्जा ने श्वेत-श्याम पत्रकारिता को अलविदा कहा। अब दैनिक पत्र भी नयनाभिराम चित्रों के साथ प्रकाशित होते हैं। इसके साथ ही यह भी हर्ष का विषय है कि इन पत्रों के संस्करण कई स्थानों से एक साथ निकल रहे हैं। यह जानकर सुखद आश्चर्य भी होता है कि भारत में सब से अधिक बिकनेवाले समाचार पत्र हिन्दी के ही हैं जबकि अंग्रेज़ी के सबसे अधिक बिकनेवाले पत्र का स्थान दसवें नम्बर पर आता है। ‘दैनिक भास्कर’ समाचार पत्र की रोज़ १ करोड ६० लाख प्रतियां छपती हैं जबकि सर्वाधिक बिकनेवाले अंग्रेज़ी पत्र ‘टाइम्स आफ़ इण्डिया’ की ७५ लाख प्रतियां छपती हैं और वह दसवें स्थान पर है। इसी से हिन्दी के प्रभाव, प्रचार,प्रसार और फैलाव का पता आंका जा सकता है।

वैश्वीकरण की एक और देन होगी अनुवाद के कार्य का विस्तार। जैसे- जैसे विश्व सिकुड़ता जाएगा, वैसे-वैसे देश-विदेश के विचार, तक्नीक, साहित्य आदि का आदान-प्रदान अनुवाद के माध्यम से ही सम्भव होगा। आज अनुवाद की उपयोगिता का सबसे अधिक लाभ फिल्मों को मिल रहा है। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि हिन्दी अनुवाद के माध्यम से अंग्रेज़ी फिल्म ‘द ममी रिटर्न्स’ को सन्‌ २००१ में २३ करोड़ रुपयों का लाभ हुआ जबकी २००२ में ‘स्पैडरमैन’ को २७करोड़ का और २००४ में ‘स्पैडरमैन-२’ को ३४करोड का लाभ मिला। ये आंकडे एक उदाहरण है जिनसे अनुवाद की उपयोगिता प्रमाणित होती है।

कंप्युटर युग के प्रारंभ में यह बात अक्सर कही जाती थी कि हिन्दी पिछड़ रही है क्योंकि कंप्युटर पर केवल अंग्रेज़ी में ही कार्य किया जा सकता है। अब स्थिति बदल गई है। अंतरजाल के माधयम से अब हिन्दी के कई वेबसाइट, चिट्ठाकार और अनेकानेक सामग्री उपलब्ध है। य़ूनिकोड के माध्यम से कंप्युटर पर अब किसी भी भाषा में कार्य करना सरल हो गया है। गूगल के मुख्य अधिकारी एरिक श्मिद का मानना है कि भविष्य में स्पेनिश नहीं बल्कि अंग्रेज़ी और चीनी के साथ हिंदी ही अंतरजाल की प्रमुख भाषा होगी।

कंप्युटर युग में विश्व और सिकुड़ गया है। अब घर बैठे देश-विदेश के किसी भी कोने से संपर्क किया जा सकता है, वाणिज्य सम्बंध स्थापित किये जा सकते है। ऐसे में सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा को प्राथमिकता मिलेगी ही क्योंकि बाज़ार में जाना है तो वहीं की भाषा के माध्यम से ही अपनी पैठ बना सकते हैं। ईस्ट इन्डिया कम्पनी के अंग्रेज़ भी आये तो हिन्दी सीख कर ही आये थे।

भारत की जनसंख्या को देखते हुए और यहाँ के बाज़ार को देखते हुए, विश्व के सभी व्यापारी समझ गए हैं कि हिन्दी के माध्यम से ही इस बाज़ार में स्थान बनाया जा सकता है। इसीलिए यह देखा जाता है कि अधिकतर विज्ञापन हिन्दी में होते हैं, भले ही देवनागरी के स्थान पर रोमन लिपि का प्रयोग किया गया हो। रोमन लिपि का यह प्रयोग भी धीरे-धीरे नागरी को इसलिए स्थान दे रहा है कि विश्व का व्यापारी समझ चुका है कि व्यापार बढा़ना है तो उन्हीं की भाषा और लिपि के प्रयोग से ही अधिक जनसंख्या तक पहुँचा जा सकता है। वैज्ञानिक तौर पर भी नागरी अधिक सक्षम है और अब कंप्यूटर पर भी सरलता से प्रयोग में आ रही है।

वैश्वीकरण का जो प्रभाव भाषा पर पड़ता है, वह एकतरफा नहीं होता। विश्व की सभी भाषाओं पर एक-दूसरे का प्रभाव पड़ता है और यह प्रभाव पिछले दो हज़ार वर्षों के भाषा-परिवर्तन में देखा जा सकता है। विगत में यह प्रभाव उतना उग्र नहीं दिखाई देता था और यह मान लिया जाता था कि कोई भी शब्द उसकी ही भाषा का मूल शब्द है। ऐसे कई हिन्दी शब्द अंग्रेज़ी में भी पाए जाते हैं; जैसे, चप्पु-शेम्पु, दांत-डेंटल, पैदल-पेडल, सर्प-सर्पेंट आदि। लेकिन आज हमें पता चल जाता है कि किस शब्द को किस भाषा से लिया गया है।

अंततः यह कहा जा सकता है कि जो लोग पाश्चात्य संस्कृति के आक्रमण से आतंकित हैं, उन्हें यह देखना चाहिए कि वैश्वीकरण के इस युग में भारतीय संस्कृति विश्व पर हावी हो रही है। आज के मानसिक तनाव को देखते हुए विश्व की बडी़ कंपनियां अपने कर्मचारियों के लिए योग एवं ध्यान के प्रशिक्षण के उपाय कर रहीं हैं। हमारे गुरू आज देश-विदेश में फैले हुए हैं और भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं जिनसे विदेशी समुदाय लाभान्वित हो रहे है। विदेशी कंपनियां व्यवसायिक लाभ के लिए हिन्दी का अधिकाधिक प्रयोग करके अपने उत्पादन को बढा़वा दे रहे हैं। भारत की सदियों पुरानी उक्ति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‌’ एक बार पुनः चरितार्थ हो रही है और वैश्वीकरण व बाज़ारवाद के इस युग में हिन्दी अपना सम्मानित स्थान पाने की ओर अग्रसर है।

*******

मणिपुरी कविता - मेरी दृष्टि में : डॉ. देवराज (९)


मणिपुरी कविता - मेरी दृष्टि में : डॉ. देवराज
======================


प्राचीन और मध्यकालीन मणिपुरी कविता- [९]
-------------------------------------------




लोकगीतों में लोक-साहित्य, दंतकथाएं, इतिहास आदि का समावेश होता है। मणिपुर के उत्तर-मध्य काल से ही इन गीतों में इतिहास के पन्नों को उकेरा गया है, जिसमें वीर पुरुषों की गाथा, उनके रणकौशल का वर्णन आदि मिलता है जिससे उस समय के इतिहासकार, गीतकार और साहित्यकार के व्यापक फ़लक का पता चलता है। डॉ. देवराज जी बताते हैं:


"मणिपुरी काव्येतिहास का उत्तर-मध्य काल अनेक दृष्टियों से व्यापकता भरा और वैविध्यपूर्ण है। इसके मूल में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण हैं।"

"इस युग में चराइरोङ्बा [पीताम्बर],पामहैबा गरीबनवाज़ [गोपाल सिंह] , गौरश्याम, जयसिंह [राजर्षि भाग्यचंद] जैसे इतिहास प्रसिद्ध राजा हुए। इन्हीं शासकों के कार्यकाल में म्यांमार, त्रिपुरा आदि के साथ हुए युद्धों में मणिपुरी वीरता का गौरवशाली पक्ष सामने आया। साथ ही अनेक राजनीतिक उतार-चढाव भी इस काल में देखने को मिले, किंतु यह देखकर आश्चर्य होता है कि कई बार अभूतपूर्व राजनीतिक संकट उपस्थित होने पर भी मणिपुर के इन राजाओं ने अपना विवेक और कूटनीति-कौशल नहीं खोया।"


"उत्तर मध्य युग में प्रब्रजन तथा धार्मिक - सांस्कृतिक परिवर्तन का नया दौर आया। राजकुमार झलजीत सिंह ने प्रब्रजन का ब्यौरा देते हुए इस तथ्य का उल्लेख किया है कि सत्रहवीं शताब्दी के मध्य [सन १६५२ के लगभग] में म्य़ाँमार की दिशा से प्रब्रजन अचानक बन्द हो गया, जबकि भारत के विभिन्न क्षेत्रों से लोगॊं का आना बढ़ गया।इनमें लाहौर, बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल, असम आदि से आनेवाले लोगों की संख्या बढ़ गई। इन प्रब्रजकों में अधिसंख्य ब्राह्मण थे। परिणाम यह हुआ कि मणिपुरी भाषा, संस्कृत, बङला, असमिया तथा हिंदी की प्राचीन बोलियों के अनेक शब्दों से परिचित हुई।"

"यह युग धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से मणिपुरी इतिहास के सबसे महत्त्वपूर्ण युगों में से एक है। यह एक इतिहास-सिद्ध तथ्य है कि इस काल तक आते-आते मणिपुरी जनता अपने धार्मिक चिंतन, कर्मकांड और संस्कृति की पुष्ट परम्परा का निर्माण कर चुकी थी। देवी-देवताओं, नृत्य , संगीत, चित्रकला, स्थापत्य-कला, कृषि-व्यवस्था, युद्ध कला, शिष्ट साहित्य, लोक साहित्य आदि की समृद्ध परम्परा ने इस क्षेत्र की जनता को प्रभावित करने का प्रयास किया।"


"वैष्णवी-काव्य के अन्तर्गत रामायण का मणिपुरी भाषा में रूपान्तरण एक महान घटना है। किंवदन्ती है कि महाराजा गरीबनवाज़ मानव-जीवन के उद्धार के लिए रामकथा का श्रवण आवश्यक मानते थे, इसीलिए उन्होंने अपने एक स्वामिभक्त सेवक क्षेमसिंह को आदेश दिया कि वह रामायण का रूपान्तरण मणिपुरी भाषा में करे। उसने प्रेमानंद खुमनथेम्बा, मुकुन्दराम मयोइसना, लक्ष्मीनारायण इरोइबा, रामचरण नोङ्थोन्बा और लक्ष्मीनारायण साइखुबा की सहायता से यह कार्य सम्पन्न किया। रूपान्तरण की आधार-सामग्री के रूप में बङला भाषा की ‘कृतिवासी-रामायण’ का चयन किया गया।"

"अपनी प्रजा के उद्धार और धार्मिक - आदर्श के प्रचार की भावना से सन १७२५ के लगभग पामहैबा गरीबनवाज़ ने ‘परीक्षित’ नामक काव्य को गंगदास सेन के बङ्ला महाभारत से रूपान्तरित किया था। महाराजा जयसिंह के शासन-काल में भारत के महान काव्य महाभारत का ‘विराट पर्व’ मणिपुरी में रूपान्तरित किया गया। इसके आधार स्त्रोत के रूप में बङ्ला भाषा में रामकृष्णदास द्वारा रचित महाभारत की कथा को स्वीकार किया गया। बङ्ला भाषा के जानकार युवराज नवानन्द ने रामकृष्णदास का महाभारत मणिपुरी में मौखिक अनुवाद के सहारे प्रस्तुत किया और उस आधार पर दो अन्य व्यक्तियों ने उसका एक अंश लिपिबद्ध किया। सुनी हुई सामग्री को लिपिबद्ध करने के कारण ही विराट पर्व [विराट सन्थुप्लोन] में कुछ तथ्य उलट गये। रूपांतरकर्ताओं ने सहदेव के स्थान पर नकुल को सबसे छोटा पांडव माना है। नकुल को अश्व-विशेषज्ञ के स्थान पर गो-विशेषज्ञ बताया है।"

"उस काल में रचा गया युद्ध तथा मणिपुरी राजाओं की वीरता प्रदर्शित करने वाला काव्य-साहित्य भी उल्लेखनीय है। ऐसे ग्रन्थों में ‘सम्फ़ोकङमूबा’ गरीबनवाज़ के युद्ध कौशल, म्याँमार के समजोक राज्य पर उनकी विजय तथा तत्कालीन राजनीतिक इतिहास को दर्शानेवाली कृति है। ऐसी कृतियों का साहित्यिक-दृष्टि से भी धार्मिक ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक महत्व है, क्योंकि इनमें कवि-कल्पना को अपनी भूमिका निभाने के अनेक अवसर सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।"

"उत्तर मध्य काल के पश्चात भी मणिपुरी भाषा में धार्मिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक एवं अन्य विषयों को केन्द्र में रखकर काव्य-सृजन के प्रयास होते रहे। उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे-चौथे दशक से ही मणिपुर में राजनीतिक हलचलें तेज होने लगी थीं। इसके कुछ दिनों बाद तो मणिपुर के राजदरबार में ब्रिटिश पोलिटिकल एजेंट की उपस्थिति ने न केवल राजनीतिक, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन को पूरी तरह पक्का कर ही दिया। इस संक्रमण-काल का अध्ययन उपर्युक्त पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में ही किया जाना चाहिए...।"


इस प्रकार हमने प्राचीन और मध्य्कालीन कविता की यात्रा कुछ पडा़वों में तय की है। विदेशी ताकतों के राजनीतिक उठा-पटक में निश्चय ही साहित्यिक संक्रमण भी उत्पन्न हुआ। इस संक्रमण से जूझते हुए मणिपुरी कविता कैसे आगे बढी़, इसे हम नवजागरणकालीन कविता के माध्यम से देखेंगे।

...........क्रमशः


(प्रस्तुति : चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद)

Comments system

Disqus Shortname