मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - प्रो. देवराज [III]

मणिपुरी कविता मेरी दृष्टि में - प्रो. देवराज [III]
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प्राचीन और मध्यकालीन मणिपुरी कविता
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मणिपुरी भाषा के इतिहास को खोजते हुए डॉ. देवराज ने इस भाषा के विभिन्न पडा़वों पर प्रकाश डाला है। यह तो सामान्य बात होती है कि हर समाज अपनी भाषा और संस्कृति को ही प्राचीन मानता है। मणिपुर के लोग भी इसका अपवाद नहीं हैं। वे अपनी संस्कृति और भाषा के विषय में किंवदंतियां भी सुनाते हैं, कदाचित इन दंतकथाओं में कहीं न कहीं इतिहास भी छिपा होता है, परंतु यह कहना कठिन हो जाता है कि किसी कहानी का कितना अंश मिथक है और कितना इतिहास! मणिपुरी भाषा से जुडी़ एक किंवदंती से हमारी यात्रा शुरू होती है। प्रो. देवराज जी बताते हैं कि :-

"मणिपुरी भाषा को उसके वर्तमान नाम के पूर्व ‘मैतेरोल’, ‘मीतै लोन’, ‘मीतै लोल’ आदि नामों से पुकारा जाता रहा है। इस भाषा की प्राचीनता के विषय में एक किंवदन्ती का प्रचलन है। कहा जाता है कि अतिया गुरु शिदबा ने सृष्टि के प्रारम्भ में अपने पुत्रों - सनामही और पाखङ्बा - को ‘मैतैरोल’ के माध्यम से ज्ञान का प्रारम्भिक पाठ पढा़या था। लोक-विश्वास के अनुसार यह घटना हयिचक की है। मैतैरोल के प्रथम अक्षर का उच्चारण करते ही गुरु शिदबा के पुत्रों को सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया था। इसके पश्चात उनके अनुयायियों ने इसी भाषा में सम्पूर्ण विश्व के लिए ज्ञान का प्रकाश फ़ैलाया। इस विश्वास के आधार पर ज्ञान का प्रकाश सर्व प्रथम मणिपुर [जिसे प्राचीन काल में सना लैबाक्, चक्पा सङ्बा, मैत्रबाक, कङ्लैपाक, युवापलि, कत्ते, मेखले, मोगले आदि नामों से भी अभिहित किया जाता रहा है] में उत्पन्न हुआ था।"
भले ही मणिपुरी भाषा को विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक न भी मानें, तो भी इस भाषा का विकास ईसा की प्रथम शताब्दी से तो प्रारम्भ हो ही चुका था। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश की आजा़दी के ३०-३५ वर्ष तक भी इस भाषा की ओर सरकार का ध्यान नहीं गया, जबकि मणिपुरी के उद्भव और इतिहास का शोध-कार्य विदेशी विद्वानों का ध्यान आकर्षित कर चुका था। इस दयनीय स्थिति पर प्रकाश डालते हुए डॉ. देवराज बताते हैं -

"मणिपुरी भाषा के निर्माण एवं इतिहास को केन्द्र में रखकर प्रारम्भिक खोज-कार्य पश्चिमी विद्वानों ने किया। डॉ. जी.ए.ग्रियर्सन [लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इन्डिया] तथा टी. एस. हडसन [द मैतेज़] के नाम इस विषय में उल्लेखनीय हैं। भारतीय विद्वानों में मणिपुरी भाषा पर विचार करने वालों में सब से गम्भीर कार्य सुनीति कुमार चटर्जी का माना जाता है। स्वयं मणिपुरी लोगों को इस दिशा में ध्यान बहुत बाद में आया। सन् १९५० में जनतान्त्रिक संविधान आत्मार्पित करने वाले भारत की जनता का कितना बडा़ दुर्भाग्य है कि मणिपुर को एक विश्वविद्यालय पाने के लिए १९८० तक प्रतीक्षा करनी पडी़। उच्च शिक्षा के अभाव का दुष्परिणाम यह हुआ कि स्थानीय अध्येता अपनी भाषा और संस्कृति के विषय में शोधपूर्ण कार्य का अनुकूल वातावरण उपलव्ध नहीं कर सके। इस दिशा में युमजाओ सिंह [मैतैलोन व्याकरण], नन्दलाल शर्मा [मैतैलोन व्याकरण], कालाचाँद शास्त्री [व्याकरण कौमुदी], द्विजमणि देव शर्मा [मणिपुरी व्याकरण] आदि कुछेक उत्साही लोगों ने भाषायी अध्ययन की शुरुआत अवश्य की, किन्तु यह कोई गम्भीर प्रयास नहीं था। संयोगवश बाहर जाकर हिन्दी तथा भाषा-शास्त्र का अध्ययन करने वाले स्थानीय व्यक्तियों ने मणिपुरी भाषा को तुलनात्मक अध्ययन का विषय बनाया, जिसके अंतर्गत उन्होंने भाषा के विकास और विस्तार का अध्ययन भी किया। इन विद्वानों में डॉ. इबोहल सिंह काङ्जम [हिंदी - मणिपुरी क्रिया संरचना] और डॉ. तोम्बा सिंह [व्याकरणिक कोटियों का अध्ययन] का नाम महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में सर्वाधिक उल्लेखनीय कार्य एन. खेलचन्द्र सिंह [अरिबा मणिपुरी साहित्यगी इतिहास], राजकुमार झलजीत सिंह [ए हिस्ट्री ऑफ़ मणिपुरी लिटरेचर] और सी-एच. मनिहार सिंह [ए हिस्ट्री आफ़ मणिपुरी लिटरेचर] ने किया।"
( ....क्रमशः )
- प्रस्तुति: चंद्रमौलेश्वर प्रसाद

हिंदी भाषा के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का योगदान


हिन्दी भाषा के विकास में पत्र-पत्रिकाओं का योगदान




हिंदी पत्रकारिता का प्रश्न राष्ट्रभाषा और खड़ी बोली के विकास से भी संबंधित रहा है। हिंदी भाषा विकास की पूरी प्रक्रिया हिंदी पत्रकारिता के भाषा विश्लेषण के माध्यम से समझी जा सकती है। इस विकास में भाषा के प्रति जागरूक पत्रकारों का अपना अपना योगदान हिंदी को मिलता रहा है। ये पत्रकार हिंदी भाषी भी थे और हिंदीतर भाषा-भाषी भी। इनमें से कई बोली क्षेत्रों के थे, कुछ पहले साहित्यकार थे बाद में पत्रकार बने, तो कुछ ने पत्रकारिता से शुरू करके साहित्य जगत में अपना स्थान बनाया। इन सभी ने अखिल भारतीय स्तर पर बोली और समझी जाने वाली भाषा हिंदी के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित किया। इनके लिए हिंदी और राष्ट्रीयता एक दूसरे के पर्याय थे। क्योंकि ये पत्रकार भिन्न भाषा परिवेशों के थे इसलिए हिंदी पत्रकारिता में शैली वैविध्य अपनी चरम अवस्था में दिखाई देता है।

हिंदी पत्रकारिता का यह सौभाग्य रहा कि समय और समाज के प्रति जागरूक पत्रकारों ने निश्चित लक्ष्य के लिए इससे अपने को जोड़ा। वे लक्ष्य थे राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक उत्थान और लोकजागरण। तब पत्रकारिता एक मिशन थी, राष्ट्रीय महत्व के उद्देश्य पत्रकारिता की कसौटी थे और पत्रकार एक निडर व्यक्तित्व लेकर खुद भी आगे बढ़ता था और दूसरों को प्रेरित करता था। हिंदी के इन पत्रकारों ने न तो ब्रिटिश साम्राज्य के सामने घुटने टेके और न ही अपने आदर्शों से च्युत हुए इसीलिए समाज में इन पत्रकारों को अथाह सम्मान मिला।

हिंदी पत्रकारिता के विकासक्रम में कुछ पत्रकार प्रकाशस्तंभ बने जिन्होंने अपने समय में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और अनेक युवकों को लक्ष्यवेधी पत्रकारिता के लिए तैयार किया। वास्तव में वह पूरा शुरूआती समय हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। हिंदी के गौरव को स्थापित करने, हिंदी साहित्य को बहुमुखी बनाने, भारतीय भाषाओं की रचनाओं को हिंदी में लाने, हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के महत्व पर टिप्पणी करने तथा इन सबके साथ सामाजिक उत्थान का निरंतर प्रयत्न करने में ये सभी पत्रकार अपने अपने समय में अग्रणी रहे।

’हिंदी प्रदीप’ के संपादक बालकृष्ण भट्ट केवल पत्रकार ही नहीं, उद्‌भट साहित्यकार भी थे। विभिन्न विधाओं में उन्होंने रचनाएँ कीं जिन्हें पढ़ने पर यह पता चलता है कि भट्ट जी की शैली में कितना ओज और प्रभाव था। सरल और मुहावरेदार हिंदी लिखना उन्हीं से आगे अपने वाले पत्रकारों ने सीखा। हिंदी पत्रकारिता बालकृष्ण भट्ट की कई कारणों से ऋणी है। एक तो उन्होंने निर्भीक पत्रकारिता को जन्म दिया, दूसरे गंभीर लेखन में भी सहजता बनाए रखने की शैली निर्मित की, तीसरे हिंदी साहित्य की समीक्षा को उन्होंने प्रशस्त किया और चौथे हिंदी पत्रकारिता पर ब्रिटिश साम्राज्य के किसी भी प्रकार के अत्याचार का उन्होंने खुलकर विरोध किया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र (कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन, हरिश्चंद्र चंद्रिका, बालाबोधिनी) हिंदी पत्रकारिता के ही नहीं, आधुनिक हिंदी के भी जन्मदाता माने जाते हैं। भारतेंदु ने अपने पत्रों और नाटकों के द्वारा आधुनिक हिंदी गद्य को इस तरह विकसित करने का प्रयत्न किया कि वह जनसाधारण तक पहुँच सके। संस्कृत और उर्दू - दोनों की अतिवादिता से हिंदी को बचाते हुए उन्होंने बोलचाल की हिंदी को ही साहित्यिकता प्रदान करके ऐसी शैली ईजाद की जो वास्तव में हिंदी की केंद्रीय शैली थी और जिसे बाद में गांधी और प्रेमचंद ने ’हिंदुस्तानी’ कहकर अखिल भारतीय व्यवहार की मान्यता प्रदान की। भारतेंदु के लिए स्वभाषा की उन्नति ही सभी प्रकार की उन्नतियों का मूलाधार थी। ’बालाबोधिनी’ महिलाओं पर केंद्रित हिंदी की पहली पत्रिका है। इसमें महिलाओं ने लिखा और भारतेंदु की प्रेरणा से अनेक महिलाएँ हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में आई। ज्ञान विज्ञान की दिशा में हिंदी पत्रकारिता को समृद्ध करने का कार्य भी भारतेंदु ने ही पहली बार किया। इतिहास, विज्ञान और समाजोपयोगी सामयिक विषयों पर उनकी पत्रिकाओं में उत्कृष्ट सामग्र छपती थी।

प्रताप नारायण मिश्र (ब्राह्मण) आधुनिक हिंदी के सचेतन पत्रकार माने जा सकते हैं। उन्होंने हिंदी गद्य और पद्य दोनों को नया संस्कार दिया। इनके समय तक प्रचलित हिंदी या तो अरबी-फारसी निष्ठ थी, या संस्कृतनिष्ठ, अथवा उसमें भारतेंदु की तरह बोलियों का असंतुलित मिश्रण था। मिश्र जी ने ठोस हिंदी गद्य को जन्म दिया। देशज, उर्दू और संस्कृत का जितना सुंदर मिश्रित प्रयोग मिश्र जी में मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। वे हिंदी की प्रकृति को एक विशिष्ट शैली में ढालने वाले पहले पत्रकार थे।
महामना मदनमोहन मालवीय (हिंदोस्थान, अद्भुदय, मर्यादा) का हिंदी के प्रति दृष्टिकोण दृढ़ था। वे हिंदी के कट्टर समर्थक थे। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना उन्होंने अपने इसी हिंदी प्रेम के कारण की थी। वे समय-समय पर अनेक पत्रों से संबद्ध हुए। हिंदी के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत साफ था कि हिंदी भाषा और नागरी अक्षर के द्वारा ही राष्ट्रीय एकता सिद्ध हो सकती है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी हिंदू विश्वविद्यालय और हिंदी प्रकाशन मंडल की स्थापना करके उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति के उत्थान का रास्ता ही भारत के उत्थान का एक मात्र रास्ता है। मालवीय जी वाणी के धनी थे, जितना प्रभावशाली बोलते थे, उतना ही प्रभावशाली लिखते थे। हिंदी भाषा का ओज उनकी पत्रकारिता से प्रकाशित होता है।

मेहता लज्जाराम शर्मा (सर्वहित, वेंकटेश्वर समाचार) गुजराती भाषी थे, लेकिन हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया था। उनका दृढ़ विश्वास था कि ’एक-न-एक दिन पूरे भारत में हिंदी का डंका बजेगा, प्रांतीय भाषाएँ हिंदी की आरती उतारेंगी, बहन उर्दू इसकी बलैया लेगी तथा अंग्रेजी हतप्रभ होकर हिंदी के गले में फूलों की माला पहनाएगी।’

हिंदी और उर्दू, दोनों भाषाओं की पत्रकारिता को प्रतिष्ठित करने वाले बाबू बालमुकुंद गुप्त (अखबारे-चुनार, हिंदी बंगवासी, भारतमित्र) ने पत्रकारिता को साहित्य निर्माण और भाषा चिंतन का भी माध्यम बनाया। गुप्त जी ने ’भारत मित्र’ में महावीर प्रसाद द्विवेदी की ’सरस्वती’ में प्रयुक्त ’अनस्थिरता’ शब्द को लेकर जो लेखमाला लिखी, वह पर्याप्त चर्चा का विषय बनी। इसी तरह उन्होंने ’वेंकटेश्वर समाचार’ के मेहता लज्जाराम शर्मा द्वारा प्रयुक्त ’शेष’ शब्द पर भी खुली चर्चा की। उनकी ये चर्चाएँ उनकी भाषाई चेतना को व्यक्त करने वाली हैं। वे मूलतः उर्दू के पत्रकार थे इसलिए जब हिंदी की सहज चपलता में व्यवधान होता देखते थे तो विचलित हो जाते थे। उनकी व्यंग्योक्तियाँ अत्यंत प्रखर होती थीं। इससे हिंदी पत्रकारिता को नई शैली भी मिली और निर्भीकता, दृढ़ता और ओजस्विता के साथ विनोदप्रियता का अद्भुत सम्मिश्रण भी। वे वास्तव में राष्ट्रव्यापी साहित्यिक विवादों के जनक और व्यंग्यात्मक शैली के अग्रदूत पत्रकार थे। उर्दू भाषा के साथ वे हिंदी की हिमायत करते थे। उर्दू और हिंदी के विवाद में उन्होंने हमेशा हिंदी का पक्ष लिया।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (सरस्वती) हिंदी पत्रकारिता के शलाक पुरुष हैं। हिंदी के प्रति उनकी धारणा दृढ़ थी। वे उसे सुगठित, सुव्यवस्थित और सर्वमान्य स्वरूप प्रदान करना चाहते थे। ’सरस्वती’ के माध्यम से हिंदी को नई गति और शक्ति देने का जो कार्य द्विवेदी जी ने किया, उसका कोई सानी नहीं है। अपनी दृढ़ता के चलते ही उन्होंने अनेक पत्रकारों और साहित्यकारों को खड़ीबोली हिंदी में लिखने के लिए प्रेरित किया और ’सरस्वती’ में छापकर उन्हें स्थापित किया। द्विवेदी जी ने हिंदी भाषा के परिष्कार का अनथक प्रयत्न किया और हिंदी में लेखकों तथा कवियों की एक पीढी तैयार की। उनका यह दृढ़ मत था कि गद्य और पद्य की भाषा पृथक पृथक नहीं होनी चाहिए।

माधव राव सप्रे (छत्तीसगढ मित्र, कर्मवीर) रा्ट्रीयता की प्रतिमूर्ति थे। उनकी हिंदी निष्ठा अपराजेय थी। उनका कहना था, ’मैं महाराष्ट्रीय हूँ, परंतु हिंदी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है जितना किसी भी हिंदी भाषी को हो सकता है। मैं चाहता हूँ कि इस राष्ट्रभाषा के सामने भारतवर्ष का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को भूल जाए कि मैं महाराष्ट्रीय हूँ, बंगाली हूँ, गुजराती हूँ या मदरासी हूँ।’

हिंदी के मूर्धन्य कथाकार प्रेमचंद का एक प्रेरक स्वरूप उनके जागरूक पत्रकार का भी है। ’माधुरी’, ’जागरण’ और ’हंस’ का संपादन करके उन्होंने अपनी इस प्रतिभा का भी उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया और हिंदुस्तानी शैली को सर्वग्राह्य तथा लोकप्रिय बनाने का महत्व कार्य किया।

हिंदी के मासिक पत्रों के संपादन में जो ख्याति महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद की है वैसी ही ख्याति दैनिक पत्रों के संपादन में बाबूराव विष्णुराव पराड़कर (आज) की है। दैनिक हिंदी पत्रकारिता के वे आदि-पुरुष कहे जा सकते है। उन्होंने हिंदी भाषा का मानकीकरण ही नहीं, आधुनिकीकरण भी किया और हिंदी की पारिभाषिक शब्द संपदा की अभिवृद्धि की।

माखनलाल चतुर्वेदी (कर्मवीर, प्रभा, प्रताप) साहित्य, समाज और राजनीति, तीनों को अपनी पत्रकारिता में समेटकर चलते थे। उनकी साहित्य साधना भी अद्भुत थी। उनके भाषण और लेखन में इतना ओज था कि वे भावों को जिस तरह चाहते, प्रकट कर लेते थे। उनका यह स्वरूप भी उनके पत्रों के लिए वरदान साबित हुआ। उनका लेखन हिंदी भाषा के प्रांजल प्रयोग का उदाहरण है। उनका यह कहना था कि ’ऐसा लिखो जिसमें अनहोनापन हो, ऐसा बोलो जिस पर दुहराहट के दाग न पड़े हों।’

अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी (अभ्युदय, प्रताप) ने हिंदी पत्रकारिता में बलिदान और आचरण का अमर संदेश प्रसारित किया और हिंदी भाषा को ओजस्वी लेखन का मुहावरा प्रदान किया। इसी प्रकार शिवपूजन सहाय (मारवाड़ी सुधार, मतवाला, माधुरी) अकेले ऐसे पत्रकार हैं जिनका हिंदी की विविध शैलियों पर समान अधिकार था।

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी पत्रकारिता में अज्ञेय (प्रतीक, नया प्रतीक, दिनमान, नवभारत टाइम्स) ने साहित्यिक पत्रकारिता को नवीन दिशाओं की ओर मोड़ा। ’शब्द’ के प्रति वे सचेत थे इसलिए भाषा और काव्य भाषा पर ’प्रतीक’ में संपादकीय, लेख, चचाएँ, परिचर्चाएँ प्रकाशित होती रहती थीं। अज्ञेय ने ’दिनमान’ के माध्यम से राजनैतिक समीक्षा और समाचार विवेचन की शैली हिंदी में विकसित की। उन्होंने ’नवभारत टाइम्स’ के साहित्यिक- सांस्कृतिक परिशिष्ट को ऊँचाई प्रदान की जिससे कि दैनिक पत्र का पाठक भी इनके महत्व को समझने लगा।

धर्मवीर भारती (धर्मयुग) ने सर्वसमावेशी लोकप्रिय पत्रिका की संकल्पना साकार की जिसमें राजनैतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सामग्री के साथ ही फिल्म, खेल, महिला जगत, बालजगत जैसे स्तंभ सम्मिलित हुए। धर्मवीर भारती की जागरूक दृष्टि ने हिंदी रंगमंच व लोक कलाओं को भी महत्व दिया और नई नई विधाओं जैसे यात्रावृत्तांत, रिपोर्ताज, डायरी आदि में लेखन को भी। इससे हिंदी भाषा की अनेकानेक विधाओं और प्रयुक्तियों का बहुआयामी विकास हुआ।
आर्येंद्र शर्मा (कल्पना) मूलतः वैयाकरण थे। उनकी पुस्तक ’बेसक ग्रामर ऑफ हिंदी’ भारत सरकार ने प्रकाशित की जिसे आज भी हिंदी का मानक व्याकरण माना जाता है। भाषा के प्रति उनकी गंभीरता और अच्छी रचनाओं को पहचानने की विवेकी दृष्टि ने ’कल्पना’ को अपनी एक अलग जगह बनाने में मदद की।

छठे दशक से हिंदी में विभिन्न नए-नए क्षेत्रों की पत्रकारिता का उभार दिखाई देने लगता है। इसके लिए हिंदी को नई शब्दावली और अभिव्यक्तियों की आवश्यकता पड़ी। वास्तव में किसी भी भाषा से बाह्यजगत की संकल्पनाओं को अपनी भाषा में ले आना और फिर उन्हें स्थापित कर लोकप्रिय बनाना आसान काम नहीं है लेकिन पत्रकारिता हमेशा से इस कठिन कार्य को अपनी पूरी दक्षता और दूरदृष्टि से साधती रही है। फिल्म पत्रकारिता का ही उदाहरण लें तो फिल्मों का जन्म भारत में नहीं हुआ और फिल्म तकनीक से लेकर उसकी वितरण व्यवस्था तक की भाषाई उद्भावना हमारी भाषाओं में नहीं थी। जब भारत में फिल्में बनना शुरू हुईं और उन्हें अपार लोकप्रियता मिली तो पत्रकारिता ने बाह्यजगत के इस विषय क्षेत्र को स्थान दिया और इसकी अभिव्यक्ति का मार्ग बनाया। हिंदी पत्रकारिता में फिल्म पत्रकारिता लोकप्रियता के शिखर पर पहुँची तो इसीलिए कि उसने हिंदी भाषा को फिल्म-प्रयुक्ति की तकनीकी अभिव्यक्ति में भी समर्थ बनाया और पाठकों का ध्यान रखते हुए भाषा में रोचकता और मौजमस्ती की ऐसी छटा बिखेरी कि फिल्म पत्रकारिता की भाषा अपना एक निजी व्यक्तित्व लेकर आज हमारे सामने हैं।

छायांकन (फोटोग्राफी), ध्वनिमुद्रण (साउंड रिकार्डिंग), नृत्य निर्देशन (कोरियोग्राफी) जैसे पक्ष अनुवाद के माध्यम से पूरे किए गए तो शूटिंग, डबिंग, लोकेशन, आउटडोर, इनडोर, स्टूडियो को अंग्रेजी से यथावत ग्रहण करके हिंदी में प्रचलित किया गया। बॉक्स-आफिस के लिए टिकट-खिड़की जैसे प्रयोगों का प्रचलन हिंदी पत्रकारिता की सृजनात्मक दृष्टि और अंग्रेजी शब्द के संकल्पनात्मक अर्थ के भीतर जाकर हिंदी से नया शब्द ग्ढ़ने की क्षमता का स्वतः प्रमाण है। फिल्मोद्योग जैसे संकर शब्दों की रचना भी हिंदी पत्रकारिता ने बड़ी संख्या में की जो आज अपनी अनिवार्य जगह बना चुके हैं, या कहा जाए कि हिंदी फिल्म पत्रकारिता की प्रयुक्ति का आधार बन चुके हैं। इस संकरता को हिंदी फिल्म पत्रकारिता वाक्य स्तर पर भी स्वीकृति देती है - कैमरा फेस करते हुए मुझे दिक्कत हुई, एग्रीमेंट साइन करने के पहले मैं पूरी स्क्रिप्ट पढ़ता हूँ, न्यूड सीन अगर एस्थेटिक ढंग से फिल्माया जाए तो मुझे कोई उज्र नहीं, ’फ़िजा’ के प्रीमियर पर सभी स्टार मौजूद थे - इत्यादि।

इसका तात्पर्य यह है कि फिल्म पत्रकारिता ने हिंदी भाषा के माध्यम से नए अंग्रेजी शब्दों/संकल्पनाओं से भी क्रमशः अपने पाठकों को परिचित कराने का बड़ा काम किया है। वे थ्री-डायमेंशनल के साथ-साथ त्रि-आयामी का और ड्रीम-सीक्वेंस के साथ-साथ स्वप्न-दृश्य का प्रयोग करते चलते हैं। पाठक जिस शब्द को स्वीकृति प्रदान करता है, वह स्थिर हो जाता है और अन्य दूसरे शब्द बाहर हो जाते है। इससे यह भी पता चलता है कि पत्रकारिता किसी प्रयुक्ति-विशेष को बनाने या निर्मित करने का ही काम नहीं करती, बल्कि उसे चलाने, पाठकों तक ले जाकर उनकी सहमति जानने और लोकप्रियता की कसौटी पर इन्हें कसने का भी काम करती है।

ऐसा ही क्षेत्र खेलकूद पत्रकारिता का भी है। क्रिकेट और टेनिस जैसे जो खेल सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। उनकी संकल्पनात्मकता भारतीय नहीं है। पत्रकारिता ने ही इन्हें हिंदी में उजागर करने का प्रयत्न किया है। खेलकूद की हिंदी पत्रकारिता ने अंग्रेजी भाषा के कई मूलशब्दों को यथावत अपनाया क्योंकि ये शब्द उन्हें पाठकीय बोध की दृष्टि से बाह्य लगे और इसीलिए इनके अनुवाद का प्रयत्न नहीं किया गया। जैसे, स्लिप, गली, मिड ऑन, मिड ऑफ, कवर, सिली प्वाइंट - जैसे शब्द जो क्रिकेट के खेल की एक विशेष रणनीति के शब्द हैं, अतः इस रणनीति को किसी शब्द के अनुवाद द्वारा नहीं, बल्कि शब्द की संकल्पना को हिंदी में व्यक्त करते हुए पाठकों के मानस में स्थापित किया गया। इतना ही नहीं, इन आगत शब्दों के साथ एक और प्रक्रिया भी अपनाई गई जिसे ’हिंदीकरण’ की प्रक्रिया कहा जाता है अर्थात् इन अंग्रेजी शब्दों के साथ रूप-परिवर्तन के लिए हिंदी के रूपिमों को इस्तेमाल किया गया जैसे रन/रनों, पिच/पिचें, विकेट/विकेटों, ओवर/ओवरों इत्यादि। कहीं-कहीं तो इस रूप-परिवर्तन के साथ ही ध्वन्यात्मक परिवर्तन भी हिंदी की अपनी प्रकृति का रखा गया है जैसे कैप्टेन/कप्तान और कैप्टेंसी/कप्तानी। अनुवाद के दोनों स्तर खेलकूद पत्रकारिता की हिंदी में मिलते हैं - शब्दानुवाद और भावानुवाद। शब्दानुवाद के स्तर पर - टाइटिल/खिताब, सेंचुरी/शतक, सिरज/शृंखला, वन-डे/एकदिवसीय आदि को देखा जा सकता है तो भावानुवाद के स्तर पर - एल.बी.डब्ल्यू/पगबाधा, कैच/लपकना आदि को।

इसका तात्पर्य यह है कि नई प्रयुक्तियों के निर्माण में हिंदी पत्रकारिता सृजनात्मकता को साथ लेकर चलती है। सृजन के अभाव में लोकप्रिय प्रयुक्ति निर्मित नहीं हो सकती। इस अभाव ने ही प्रशासनिक हिंदी को जटिल और अबूझ बना दिया है। इस सृजनात्मकता का हवाला उन अभिव्यक्तियों के जरिए भी दिया जा सकता है जो हिंदी की खेल पत्रकारिता ने विकसित की हैं। इन्हें हम हिंदी की ’अपनी अभिव्यक्तियाँ’ भी कह सकते हैं, जैसे - पूरी पारी चौवन रन पर सिमट गई। तेंदुलकर ने एक ओवर में दो छक्के और तीन चौके जड़े। भारतीय टीम चौवन रन बनाकर धराशायी हो गई। इनके साथ ही हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेजी की अभिव्यक्तियों को लोकप्रिय बनाने की प्रक्रिया भी दिखाई देती है - द्रविड़ अपने फॉर्म में नहीं थे। शोहैब अख्तर की गेंदबाजी में किलिंग इंस्टिक्ट दिखाई दिया। रन लेते समय पिच की डेफ्थ नहीं समझ पाए।

खेलकूद पत्रकारिता ने अंग्रेजी के तकनीकी शब्दों को अपने पाठकों में स्वीकार्यता दिलाई है और वाक्यों के बीच इनका प्रयोग करके धीरे-धीरे इन्हें हिंदी पत्रकारिता की शब्दावली के रूप में स्वीकार्य बना दिया है। नो बॉल, वाइड बॉल, बाउंड्री लाइन, ओवर द पिच, लेफ्ट आर्म, राइट आर्म - जैसे शब्द अब हिंदी पाठक के लिए अनजाने नहीं रह गए हैं। पत्रकारिता ने ये शब्द ही नहीं, इनके संकल्पनात्मक अर्थ भी अपने पाठकों तक पहुँचा दिए है। शब्द गढ़ना एक बात है और शब्दों को लोकप्रिय करके किसी प्रयुक्ति का अंग बना देना दूसरी बात है। हिंदी पत्रकारिता ने इस दूसरी बात को संभव करके दिखाया है। अतः आज यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि बाह्य जगत से संबंधित विभिन्न प्रयुक्तियों/उपप्रयुक्तियों के निर्माण, स्थिरीकरण और प्रचलन में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका स्तुत्य है।

पत्रकारिता के माध्यम से आज खेल-तकनीक, खेल-प्रशिक्षण पर भी सामग्री प्रकाशित की जाती है। खिलाड़ियों और खेल संगठनों के पदाधिकारियों के साक्षात्कार इसे एक नया आयाम दे रहे हैं। यदि संचार के अन्य माध्यमों को भी यहाँ जोड़ लें तो रेडियो पर कमेंट्री और टीवी पर सीधे प्रसारण में जब से हिंदी को स्थान मिला है, एक विशेष प्रकार की खेलकूद की मौखिक प्रयुक्ति अस्तित्व में आई है। इस पर कुछ शोधकार्य भी हुए हैं जिन्हें और आगे ले जाने की जरूरत है।

संक्षेप में कहा जाए तो हिंदी पत्रकारिता ने समय के साथ चलते हुए और नवीनता के आग्रह को अपनाते हुए सामाजिक आवश्यकता के तहत हिंदी भाषा विकास का कार्य अत्यंत तत्परता, वैज्ञानिकता और दूरदृष्टि से किया है। सहज संप्रेषणीय भाषा में नई संकल्पनाओं को व्यक्त करने के लिए भाषा-निर्माण या कहें प्रयुक्ति-विकास का जैसा आदर्श बिना किसी सरकारी सहयोग या दबाव के हिंदी पत्रकारिता ने बनाकर दिखाया है, उसे भाषाविकास अथवा भाषानियोजन में सामग्री नियोजन (कॉर्पस डेवलेपमेंट) की आदर्श स्थिति कहा जा सकता है।

पुनश्च - यह तो हुई हिंदी के ’विकास’ में पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका की चर्चा। लेकिन इधर के कुछ वर्षों में संचार माध्यम (मुद्रित और इलेक्ट्रानिक, दोनों) जिस प्रकार हिंदी को विकृत करते रहे हैं वह अत्यंत चिंतनीय है। अतः कभी अवसर मिलने पर हिंदी के ’विनाश’ में संचार माध्यम की भूमिका पर अलग से विस्तृत चर्चा करेंगे।

रंगों की सीपी से निकला यह प्यार-भरा झिलमिल मोती (रंग परिशिष्ट)




भारत सदा से ही कृषिप्रधान व धरती पुत्रों का देश रहा है, जिसकी अपनी एक विराट् गौरवशाली व समृद्ध आदि-संस्कृति है। नवान्न आने पर नवसस्येष्टियज्ञ की परिपाटी व इसके साथ साथ ऋतु परिवर्तन का काल, उत्साह, उल्लास, उमंगों को दोलायमान करने को काफ़ी होता है। बहुत सारी कथाएँ समानांतर चलती आई हैं।

साहित्य की धारा में रंगों की गुनगुन-रुनझुन कई लहरों पर गीत गाती चलती आई है। उनमें से होली के बहाने कुछ रंग हम सभी के, मानवमात्र के ललाट पर शुभकामनाओं की भाग्य रेखा बन दमकें,इस शुभकामना के साथ प्रस्तुत हैं कुछ रंगों के झिलमिलाते मोती. निराला के कुछ रंग-चित्र टुकड़ों -टुकड़ों में बाँटने का लोभ इस अवसर पर सम्वरण नहीं करना चाहिए, सो उनकी कविता के रंगो की छटा के साथ कुछ अन्य कविताओं का आनन्द भी बाँट रही हूँ।
-------------------------------------------------------(कविता वाचक्नवी)









निराला : कुछ रंग-चित्र


१)

तिल नीलिमा को रहे स्नेह से भर
जग कर नई ज्योति उतरी धरा पर
रंग से भरी हैं, हरी हो उठी हर
तरु की, तरुण-तान शाखें

२)
खिली चमेली देह-गन्ध मृदु
अम्धकार शुचि केश कुटिल ऋजु
सहन-शीत-सित यौवन अविचल
मानव के मन की चिर कारा

३)
हँसता हुआ कभी आया जब
वन में ललित वसन्त
तरुण विटप सब हुए, लताएँ तरुणी
और पुरातन पल्लव-दल का
शाखाओं से अन्त

४)
पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल
कहीं पड़ी है उर में
मंद-गंध-पुष्प-माल
पाट-पाट शोभा श्री
पट नहीं रही है

५)
फिर नवल-कमल-वन फूलें
फिर नयन वहाँ पथ भूलें
फिर फूलों नव वृन्तों पर
अनुकूलें अलि अनूकूलें





**********************






होली: रंग और दिशाएँ
[एक एब्स्ट्रेक्ट पेंटिंग]


=========== ...(शमशेर बहादुर सिंह)


१.
जँगले जालियाँ,
स्तम्भ
धूप के संगमर्मर के,
ठोस तम के।
कँटीले तार हैं
गुलाबी बाडि़याँ।
दूर से आती हुई
एक चौपड़ की सड़क
अंतस में
खोई जा रही।

धूप केसर आरसी
......बाहें।
आँख अनझिप
खुलीं
वक्ष में।
स्तन
पुलक बन
उड़ते और
मुँदते।

पीले चाँद
खिड़कियाँ
आत्मा की।

गुलाल
धूल में
फैली
सुबहें।
मुख
सूर्य के टुकडे़
सघन घन में खुले-से,
या ढके
मौन,
अथवा
प्रखर
किरणों से।

जल
आइना।
सड़कें
विविध वर्ण:
बहुत गहरी।
पाट चारों ओर
दर्पण-
समय के अगणित चरण को।

घूमता जाता हुआ-सा कहीं, चारों ओर
वह
दिशाओं का हमारा
अनंत
दर्पण।



२.
चौखटे
द्वार
खिड़कियां:
सघन
पर्दे
गगन के-से:
हमीं हैं वो
हिल रहे हैं
एक विस्मय से:
अलग
हर एक
अपने आप:
[हँस रहे हैं
चौखटे द्वार
खिड़कियाँ जँगले
हम आप।]
केश
लहराते हैं दूर तक
हवा में:
थिरकती है रात
हम खो गए हैं
अलग-अलग
हरेक।


३.
कई धाराएं
खडी़ है स्तंभवत
गति में:
छुआ उनको,
गए।
कई दृश्य
मूर्त्त द्वापर
और सतयुग
झांकते हैं हमें
मध्ययुग से
खिल-खिलाकर
माँगते हैं हमें:
हमने सर निकाला खिड़कियों से
और हम
गए।
सौंदर्य
प्रकाश है।

पर्व
प्रकाश है
अपना।
हम मिल नहीं सकते:
मिले कि
खो गए।
आँच है रंग
तोड़ना उनका
बुझाना है
कहीं अपनी चेतना को।
लपट
फ़ूल हैं
कोमल
बर्फ़ से:
हृदय से उनको लगाना
सींझ देना है
वसंत बयार को
सांस में:
वो हृदय है स्वयं।
़ ़
एक ही ऋतु हम
जी सकेंगे,
एक ही सिल बर्फ़ की
धो सकेंगे
प्राण अपने।
[कौन कहता है?]

यहीं सब कुछ है।
इसी ऋतु में
इसी युग में
इसी
हम में। [१९५८]

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फिर लौट आया है बसन्त
( नरेन्द्र पुण्डरीक)


तुम्हें मालूम हो या न हो
लेकिन कलियों के जिस्म में
रंगों की धकापेल मचाता हुआ
फिर लौट आया है बसन्त,
पहले से कहीं ज्यादा !
गदराकर साफ़ हो गई है नदी,
धुल गया है आकाश,
हर तरफ़ पड़ रही है -
गुदगुदा रही है सूरज की रोशनी
जाड़े की सर्द,मादक
थपकियों से
धरती को धीरे-धीरे
गर्म करती हुई,
भरती हुई उसके जिस्म में एक चमक,
और हमारे खूनों में
वक्त के खिलाफ़ एक बेचैनी !

फिर लौट आया है बसन्त
पूरे साल की रोटी के सवाल को
अपनी गर्माहट से पकाता हुआ,
हमारी बेकल इच्छाओं की ओर,
हमारे सपनों के राग में
फिर लौट आया है बसन्त ।

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रंगों की परिभाषा

(डॊ. देवराज)


मुझ से मेरे मन ने पूछा
होली की क्या परिभाषा है
मैं बोला - केवल मादकता
बस इतना अर्थ जरा-सा है।


रंगों की सीपी से निकला
यह प्यार-भरा झिलमिल मोती
हम ज्यों ही गले मिले हँस दी
वह आँख अभी थी जो रोती
छंदों की भाषा मौन यहाँ
पलकों की मधुमय भाषा है।


गेहूँ की बाली का यौवन
सरसों के पग की बन पायल
लय- ताल साधता बेसुध हो
सबका अन्तर करता घायल
दीवारें सब बह जाती हैं
रंगों का अजब तमाशा है ।।

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धुआँ और गुलाल

( डॊ.ऋषभदेव शर्मा)



सिर पर धरे धुएँ की गठरी
मुँह पर मले गुलाल
चले हम
धोने रंज मलाल !



होली है पर्याय खुशी का
खुलें
और
खिल जाएँ हम;
होली है पर्याय नशे का -
पिएँ
और
भर जाएँ हम;
होली है पर्याय रंग का -
रँगें
और
रंग जाएँ हम;
होली है पर्याय प्रेम का -
मिलें
और
खो जाएँ हम;
होली है पर्याय क्षमा का -
घुलें
और
धुल जाएँ गम !

मन के घाव
सभी भर जाएँ,
मिटें द्वेष जंजाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !




होली है उल्लास
हास से भरी ठिठोली,
होली ही है रास
और है वंशी होली
होली स्वयम् मिठास
प्रेम की गाली है,
पके चने के खेत
गेहुँ की बाली है
सरसों के पीले सर में
लहरी हरियाली है,
यह रात पूर्णिमा वाली
पगली
मतवाली है।

मादकता में सब डूबें
नाचें
गलबहियाँ डालें;
तुम रहो न राजा
राजा
मैं आज नहीं कंगाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !




गाली दे तुम हँसो
और मैं तुमको गले लगाऊँ,
अभी कृष्ण मैं बनूँ
और फिर राधा भी बन जाऊँ;
पल में शिव-शंकर बन जाएँ
पल में भूत मंडली हो।


ढोल बजें,
थिरकें नट-नागर,
जनगण करें धमाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !

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होली के दो छंद
( योगेन्द्र मौदगिल )


)
होली के बहाने करें गोरियों के गाल लाल
अंग पे अनंग की तरंग आज छाई सी
बसंत की उमंग मन होली के बहाने चढी
भंग की तरंग रंग ढंग बल खाई सी
सजना मलंग हुए सजनी मॄदंग हुई
रास रति रंग रत हवा लहराई सी
दंग हुए देख लोग प्रेम के प्रसंग आज
छुइ मुइ जोडियां भी कैसी मस्ताई सी

२)
मीठी मीठी बोलियों के भीगी भीगी चोलियों के
होली के नजारे सब आंखों को सुहाते हैं
रस रंग भाव रंग लय रंग ताल रंग
देख के उमंग को अनंग मुस्काते हैं
सारे मगरूर हुए भंग के नशे में चूर
प्रेम के पुजारी हो मलंग इठलाते हैं
लाग ना लपेट कोई ईर्ष्या ना द्वेष कोई
प्रेम के त्यौहार ही प्रसंग सुलझाते हैं




आगमन वसन्त का
( येव्गेनी येव्तुशंको )
सहयात्रा, मास्को हिन्दी महोत्सव-स्मारिका-२००७



धूप खिली थी
और रिमझिम वर्षा
छत पर ढोलकी-सी
बज रही थी
लगातार
सूर्य ने फैला रखी थी बाँहें अपनी
वह जीवन को आलिंगन में भरे
कर रहा था प्यार



नव अरुण की
ऊष्मा से
हिम सब पिघल गया था
जमा हुआ
जीवन सारा तब
जल में बदल गया था
बसन्त कहार बन
बहँगी लेकर
हिलत-डुलता आया ऐसे
दो बाल्टियों में
भर लाया हो
दो कम्पित सूरज जैसे ।

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त्रिलोचन पर श्रद्धांजलि पुस्तक `क्षण के घेरे में घिरा नहीं` का लोकार्पण


`क्षण के घेरे में घिरा नहीं` का लोकार्पण




हैदराबाद, 8 मार्च 2008


दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के खैरताबाद परिसर में डॉ. देवराज और अमन द्वारा संपादित पुस्तक `क्षण के घेरे में घिरा नहीं` के लोकार्पण समारोह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में उपस्थित `स्वतंत्र वार्ता` के संपादडॉ. राधेश्याम शुक्ल ने पुस्तक का लोकार्पण करते हुए कहा कि `कवि त्रिलोचन शब्दों के मर्मज्ञ थे। वे शब्दों पर अंतहीन चर्चा करते थे। शब्दों पर अपने अधिकार के कारण वे ऐसी कविताएँ रच सके, जो देखने में अत्यंत सहज प्रतीत होती हैं, परंतु उनमें लोक और वेद दोनों एक हो गए हैं। इसलिए त्रिलोचन की कविता का समग्र पाठ अभी खुलना शेष है।` उन्होंने कहा कि श्रद्धांजलि के रूप में होते हुए भी `क्षण के घेरे में घिरा नहीं` शीर्षक पुस्तक त्रिलोचन की कविता के समग्र पाठ की दिशा में एक सार्थक प्रयास है। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में देश के विविध क्षेत्रों के कविता प्रेमियों और विद्वानों ने अपने अनुभव, दृष्टिकोण और विचार प्रकट किए हैं। डॉ. शुक्ल ने आगे कहा कि अपने संक्षिप्त कलेवर के बावजूद यह कृति दो पंक्ति के अनुष्टुप की भांति प्रभाव उत्पन्न करने वाली है, क्योंकि इसमें संवेदना का प्राणतत्व विद्यमान है और संवेदना के स्तर पर हमें महाग्रंथों की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। कविता को एक भावक्षण बताते हुए उन्होंने कहा कि त्रिलोचन न तो क्षण के घेरे में कैद हो सकते हैं और न ही युग के घेरे में। उन्होंने त्रिलोचन को अननुकरणीय बताते हुए यह भी जानकारी दी कि वे अवधी के अपनी तरह के इकलौते गद्यकार हैं।

मुख्य वक्ता के रूप में संबोधित करते हुए कवि पत्रकार डॉ . रामजी सिंह `उदयन` ने कहा कि लोकार्पित पुस्तक त्रिलोचन को वादमुक्त दृष्टि से देखे जाने की एक नई शुरूआत करती है। इस पुस्तक के हवाले से उन्होंने साहित्यकारों, समीक्षकों व आलोचकों से त्रिलोचन की रचनाओं में मीन-मेख न निकालते हुए उन्हें अपनी अवधूत साहित्यिक परंपरा में जीवित रखने की बात कही।

विशिष्ट अतिथि के रूप में केंद्रीय विश्वविद्यालय के डॉ. आलोक पांडेय ने त्रिलोचन की इस मान्यता की ओर ध्यान दिलाया कि वे कविता की पूरी पंक्ति लिखने के पक्षधर थे और खोखला होता जा रहा आज का आदमी उनकी चिंता का मुख्य विषय था, क्योंकि वे यह समझ चुके थे कि यह युग कबंध युग है जिसमें सबका सिर पेट में धंसा हुआ है।

पुस्तक का परिचय देते हुए समीक्षक चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने बताया कि `क्षण के घेरे में घिरा नहीं` में 27 आलेख, एक साक्षात्कार, एक रिपोर्ट और त्रिलोचन की बारह कविताएँ तथा कुछ चित्र सिम्मलित हैं। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक के माध्यम से त्रिलोचन के बारे में हिंदी ही नहीं, हिंदीतर भाषी कई साहित्यकारों के भी मार्मिक विचार सामने आ सके हैं।

लोकार्पित पुस्तक के प्रकाशन की योजना का परिचय देते हुए इसकी परामर्श समिति की संयोजक डॉ. कविता वाचक्नवी ने बताया कि उत्तर प्रदेश के स्थान नजीबाबाद से प्रकाशन का यह कार्य विविध प्रकार की तकनीकी असुविधाओं के कारण दुष्कर रहा, तथापि संपादक मंडल के उत्साह और त्रिलोचन के प्रति हार्दिकता के भाव के सहारे उन सबका निराकरण भी हो गया।

आरंभ में कुंकुम, अक्षत, उत्तरीय, पुस्तक तथा लेखनी समर्पित करके अतिथियों का स्वागत किया। डॉ.विनीता सिन्हा, डॉ. मृत्युंजय सिंह, सुनीता, शिवकुमार राजौरिया, शक्ति द्विवेदी, डॉ. घनश्याम , आर. संजीवनी, वंदना शर्मा, सुरेश इंगले, के. नागेश्वर राव, सी. नरसिंह मूर्ति, निर्मल सुमिरता, वी. एल. शारदा, शीला, डॉ. सुनीता सूद, अनुराधा जैन, आशा देवी सोमाणी तथा श्रीनिवास सोमाणी ने पुस्तक पर हुई चर्चा को जीवंत बनाया।

अध्यक्ष के रूप में संबोधित करते हुए वरिष्ठ कवि और कथाकार डॉ. किशोरी लाल व्यास ने कहा कि सॉनेट परंपरा का हिंदीकरण और भारतीयकरण करने वाले महान कवि त्रिलोचन की स्मृति को समर्पित `क्षण के घेरे में घिरा नहीं` केवल श्रद्धांजलि भर की पुस्तक नहीं, बल्कि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की विराटता का ऐसा सूत्रलेख है जिससे आगामी शोधकर्ताओं को नई दिशा और दृष्टि मिल सकती है।

इस अवसर पर आयोजित कवि गोष्ठी में डॉ.किशोरी लाल व्यास, डॉ. ऋषभदेव शर्मा, डॉ. कविता वाचक्नवी, डॉ. रामजी सिंह `उदयन`, चंद्र मौलेश्वर प्रसाद, सुषमा बैद, बी.बालाजी, तेजराज जैन, गुरुदयाल अग्रवाल, डॉ. एस. दत्ता, मालती, वसंत जीत सिंह, सत्यादेवी हरचंद, कन्हैयालाल अग्रवाल, मनोज कुमार चकोर, वीरप्रकाश लाहोटी सावन, गोविंद मिश्र, भंवर लाल उपाध्याय, आशा मिश्रा, विजय मिश्रा, सूरज प्रसाद सोनी और सविता सोनी ने विविध विधाओं की कविताएँ प्रस्तुत कीं। कवि गोष्ठी का संचालन बी. बालाजी ने त्रिलोचन शास्त्री की काव्य पंक्तियों के सहारे किया। संयोजक डॉ. ऋषभदेव शर्मा के धन्यवाद प्रस्ताव के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ।

मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ.देवराज -[२]

मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ.देवराज -[२]


डॉ. देवराज के लेखन की ओर बढ़ने से पहले लेखक की जीवनी पर एक नज़र डाल लें तो शायद कृति को समझने में भी सुविधा होगी।

डॉ. देवराज का जन्म १९५५ ई. में उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद में हुआ। हिंदी में एम. ए. करने के बाद ‘नई कविता में रोमानी और यथार्थवादी अवधारणाओं की भूमिका’ को अपना विषय बनाकर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। यहाँ से उनकी साहित्य यात्रा शुरू हुई।

सन् १९८५ से उन्होंने भारत के सीमान्त राज्य मणिपुर के साथ-साथ सम्पूर्ण पूर्वोत्तर भारत में हिंदी प्रचार आन्दोलन, हिंदी साहित्य और् हिन्दी पत्रकारिता के विकास में सक्रिय भाग लिया और मणिपुर हिन्दी परिषद्, इम्फाल के आजीवन सदस्य बने। इस परिषद् से निकलनेवाली त्रैमासिक ‘महिप पत्रिका’ का सम्पादन १९९१ से लेकर २००१ तक किया। हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु हिन्दी लेखक मंच, मणिपुर की स्थापना की और उसके संस्थापक एवं प्रथम सचिव रहे। इसी क्रम में उन्होंने हिंदीतरभाषी हिन्दी कवि सम्मेलन की परम्परा का प्रारम्भ किया। डॉ. देवराज कई साहित्यिक संस्थाओं के आजीवन सदस्य भी हैं जिनमें मणिपुर संस्कृत परिषद् - इम्फ़ाल, नागरी लिपि परिषद्- नई दिल्ली, तथा राष्ट्रीय हिन्दी परिषद्- मेरठ उल्लेखनीय हैं

अपनी कृतियों के माध्यम से भी डॉ. देवराज का हिंदी साहित्य में बडा़ योगदान रहा। चिनार, तेवरी[कविता संग्रह], नई कविता, नई कविता की परख, संवेदना का साक्ष्य, तेवरी चर्चा, मणिपुरी लोककथा संसार, नोंदोननु[लोककथा संग्रह ], संकल्प और् साधना [जीवन साहित्य] जैसी कृतियों के वे रचयिता हैं। उन्होंने कई पुस्तकों का सम्पादन भी किया है; जैसे,मीतै चनु, मणिपुर: विविध संदर्भ , मणिपुर - भाषा और् संस्कृति, नवजागरण कालीन मणिपुरी कविताएँ, आधुनिक मणिपुरी कविताएँ, प्रतिनिधि मणिपुरी कहानियाँ, फ़ागुन की धूल, माँ की आराधना, जित देखूँ, तुझे नहीं खेया नाव, आन्द्रो की आग, शिखर-शिखर , कमल- संपूर्ण रचनाएँ, बीहड़ पथ के यात्री, पाञ्चजन्य आदि।

अस्सी के दशक में डॉ. देवराज ने डॉ. ऋषभदेव शर्मा के साथ मिलकर गज़ल को एक नया आयाम दिया जिसे उन्होंने ‘तेवरी’ का नाम दिया। गज़ल को प्राय: प्रणय से जोडा़ जाता है जबकि हिंदी में इसी विधा में आक्रोश की रचनाएँ रची जा रही थी। ऐसी गज़ल जिसमें प्रेम नहीं आक्रोश और आंदोलन झलकता हो, उसे ‘तेवरी’ कहा गया और आज के साहित्यकार उस रेखा का सम्मान भी करते हैं जो गज़ल और तेवरी के बीच खींची गई है।

आचार्य, हिंदी विभाग एवं अधिष्ठाता, मानविकी संकाय, मणिपुर विश्वविद्यालय, इम्फ़ाल के पद पर रहते हुए आज भी प्रो. देवराज स्थानीय भाषा मणिपुरी को राष्ट्रभाषा हिंदी से जोड़ने का कार्य अपनी कलम के माध्यम से चला रहे हैं। इसी संदर्भ में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद की उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान के अध्यक्ष व प्रोफ़ेसर ऋषभ देव शर्माजी [जो तेवरी काव्यान्दोलन के प्रवर्तकों में से एक हैं] बताते हैं :-
"...प्रो. देवराज पिछले दो द्शकों से मणिपुर में कार्यरत हैं और वहाँ हिन्दी प्रचार-प्रसार आन्दोलन तथा मणिपुरी साहित्य से निकट से जुडे़ हैं। उनके प्रयास से विपुल परिमाण में मणिपुरी साहित्य हिन्दी में आ चुका है और् हिंदी की अनेक कृतियाँ मणिपुरीभाषी पाठकों को उपलब्ध हो चुकी हैं। स्वाभाविक रूप से मणिपुरी साहित्य के विविध पक्षों के सम्बन्ध में उनकी दृष्टि अधिक पैनी और तटस्थ है।"
- चंद्रमौलेश्वर प्रसाद

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