आतंकवाद और गांधी का रास्ता

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आतंकवाद और गांधी का रास्ता
- राजकिशोर


बहुत-से लोग पूछते हैं कि आतंकवाद की समस्या का समाधान करने के लि क्या गांधीवाद के पास कोई कार्यक्रम है? काश, इस प्रश्न के पीछे किसी प्रकार की जिज्ञासा होती! समाधान वहीं निकलता है जहाँ जिज्ञासा होती है। जब मजाक उड़ाने के लिए कोई सवाल किया जाता है, तो समाधान होता भी है तो वह छिप जाता है। यह ट्रेजेडी गांधीवाद के साथ अकसर होती है। ज्ञात गांधीवादियों ने भी ऐसी कोशिश नहीं की है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि गांधीवाद की झोली में हर समस्या का कुछ न कुछ इलाज जरूर है। दरअसल, वही विचारधारा व्यापक तौर पर स्वीकार्य हो सकती है जिसमें जीवन के अधिकांश प्रश्नों का हल निकालने की संभावना हो। लेकिन किसी को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि जीवन कभी भी समस्यारहित हो सकता है। कोई भी विचारधारा यह जादू कर दिखाने का दावा नहीं कर सकती। इसलिए गांधीवादी भी अपने को सत्य का अन्वेषक ही मानता है -- सत्य का गोदाम नहीं।


जब सामना प्रत्यक्ष हिंसा -- चाहे व्यक्ति द्वारा चाहे हिंसक समूह द्वारा -- से हो, उस वक्त क्या करना चाहिए, इसका कोई तसल्लीबख्श जवाब किसी के भी पास नहीं है। तनी हुई बंदूक के सामने दिमाग फेल हो जाता है। उस वक्त मैदान संवेग के हाथ में आ जाता है। संवेगों को भी प्रशिक्षित करने की सख्त जरूरत है। अन्यथा वे अपने आदिम, अराजक रूप में प्रकट होते हैं और कई लाख वर्ष पुराना हुक्म दुहराते हैं कि ईंट का जवाब पत्थर है। क्या यह सुझाव सफलता का आश्वासन देता है? संवेग को इससे कोई मतलब नहीं। वह तो उबल रहे खून की आवाज होती है, जिसे भविष्य की कोई फिक्र नहीं होती। अगर हर मामले में र्इंट का जवाब पत्थर से देने की थोड़ी भी संभावना होती, तो र्इंट उठाने का चलन ही मिट जाता। गांधी का रास्ता अहिंसक प्रतिरोध का है, जिसमें आक्रमणकारी के प्रति भी प्रेम रहता है। अगर मानवता का अधिकांश हिस्सा इस जीवन प्रणाली को स्वीकार कर लें, तो हिंसा को मिलनेवाली सफलता का अनुपात बहुत कम हो जाएगा।


जब लोग आतंकवाद के गांधीवादी समाधान के बारे में पूछते हैं, तो उनका आशय यह होता है कि सारी वर्तमान व्यवस्था यूं ही चलती रहे और तब बताओ कि गांधीवाद आतंकवाद को खत्म करने का क्या तरीका सुझाता है। यह कुछ इसी तरह का पूछना है कि मैं यही सब खाता-पीता रहूं, मेरी जीवन चर्या में कोई परिवर्तन न आए और मेरी बीमारी ठीक हो जाए। यह कैसे हो सकता है? जिन परिस्थितियों के चलते आतंकवाद पनपा है, उन परिस्थितियों के बरकरार रहते आतंकवाद से संघर्ष कैसे किया जा सकता है? गांधीवाद तो क्या, किसी भी वाद के पास ऐसी गोली या कैप्सूल नहीं हो सकता जिसे खाते ही हिंसा के दानव को परास्त किया जा सके। जब ऐसी कोशिशें नाकाम हो जाती है, तो यह सलाह दी जाती है कि हमें आतंकवाद के साथ जीना सीखना होगा।


आतंकवाद के दो प्रमुख उत्स माने जा सकते हैं। एक, किसी समूह के साथ अन्याय और उसके जवाब में हिंसा की सफलता में विश्वास। दो, आबादी की सघनता, जिसका लाभ उठा कर विस्फोट के द्वारा जानमाल की क्षति की जा सके और लोगों में डर फैलाया जा सके कि उनका जीवन कहीं भी सुरक्षित नहीं है। गांधीवादी मॉडल में जीवन की व्यवस्था इस तरह की होगी कि भारी-भारी जमावड़ेवाली जगहें ही नहीं रह जाएंगी। महानगर तो खत्म ही हो जाएंगे, क्योंकि वे बसावट का उचित मॉडल नहीं हैं। लोग छोटे-छोटे आधुनिक गाँवों में रहेंगे जहां सब सभी को जानते होंगे। स्थानीय उत्पादन पर निर्भरता ज्यादा होगी। इसलिए बड़े-बड़े कारखाने, बाजार, व्यापार केंद्र वगैरह अप्रासंगिक हो जाएंगे। रेल, वायुयान आदि का चलन भी बहुत कम हो जाएगा, क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में लोग हर समय परिवहन के तहत रहे, यह पागलपन के सिवाय और कुछ नहीं है। वर्ष में एक-दो बार लाखों लोग अगर एक जगह जमा होते भी हैं जैसे कुंभ के अवसर पर या कोई राष्ट्रीय उत्सव मनाने के लिए, तो ऐसी व्यवस्था करना संभव होगा कि निरंकुशता और अराजकता न पैदा हो। इस तरह भीड़भाड़ और आबादी के संकेंद्रण से निजात मिल जाएगी, तो आतंकवादियों को प्रहार करने के ठिकाने बड़ी मुश्किल से मिलेंगे।


लेकिन ऐसी व्यवस्था में आतंकवाद पैदा ही क्योंकर होगा? बेशक हिंसा पूरी तरह खत्म नहीं होगी, लेकिन संगठित हिंसा की जरूरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि किसी भी समूह के साथ कोई अन्याय होने की गुंजाइश न्यूनतम हो जाएगी। राज्य न्यूनतम शासन करेगा। अधिकतर नीतियां स्थानीय स्तर पर बनाई जाएंगी, जिनका आधार सामाजिक हित या सर्वोदय होगा। मुनाफा, शोषण, दमन आदि क्रमश: इतिहास की वस्तुएं बनती जाएंगी। जाहिर है, सत्य और अहिंसा पर आधारित इस व्यवस्था में सांप्रदायिक, नस्ली या जातिगत विद्वेष या प्रतिद्वंद्विता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा। हिंसा को घृणा की निगाह से देखा जाएगा। कोई किसी के साथ अन्याय करने के बारे में नहीं सोचेगा। अभी तक के अनुभवों को देखते हुए यह उम्मीद करना मुश्किल है कि इस तरह का समाज कभी बन सकेगा या नहीं। शायद नहीं ही बन सकेगा। लेकिन हमें इसकी आशा भी नहीं करनी चाहिए। पूर्णता की कामना ही मनुष्य की किस्मत में है, पूर्णता नहीं। लेकिन इतिहास की गति अगर हिंसा से अहिंसा की ओर, अन्याय से न्याय की ओर तथा एकतंत्र या बहुतंत्र से लोकतंत्र की ओर है, जो वह है, तो कोई कारण नहीं कि ऐसा समाज बनाने में बड़े पैमाने पर सफलता न मिले जो संगठित मुनाफे, संगठित अन्याय और संगठित दमन पर आधारित न हो। केंद्रीकरण -- सत्ता का, उत्पादन का और बसावट का -- अपने आपमें एक तरह का आतंकवाद है, जिसमें अन्य प्रकार के आतंकवाद पैदा होते हैं। आतंकवाद सिर्फ वह नहीं है जो आतंकवादी समूहों द्वारा फैलाया जाता है। आतंकवाद वह भी है जो सेना, पुलिस, कारपोरेट जगत तथा माफिया समूहों के द्वारा पैदा किया जाता है, जिसके कारण व्यक्ति अपने को अलग-थलग, असहाय और समुदायविहीन महसूस करता है।


ऐसा नहीं मानना चाहिए कि जिन समाजों में आतंकवाद की समस्या हमारे देश की तरह नहीं है, वे कोई सुखी समाज हैं। एक बड़े स्तर पर आतंकवाद उनके लिए भी एक भारी समस्या है, नहीं तो संयुक्त राज्य अमेरिका आतंकवाद के विरुद्ध विश्वयुद्ध नहीं चला रहा होता। लेकिन जिस जीवन व्यवस्था से आतंकवाद नाम की समस्या पैदा होती है, उससे और भी तरह-तरह की समस्याएं पैदा होती हैं, जिनमंे पारिवारिक तथा सामुदायिक जीवन का विघटन एवं प्रतिद्वंद्विता का निरंतर तनाव प्रमुख हैं। इसलिए हमें सिर्फ आतंकवाद का ही समाधान नहीं खोजना चाहिए, बल्कि उन समस्याओं का भी समाधान खोजना चाहिए जिनका एक रूप आतंकवादी हिंसा है। इस खोज में गांधीवाद सर्वाधिक सहायक सिद्ध होगा, ऐसा मेरा अटल विश्वास है।

6 टिप्‍पणियां:

  1. सही चिंतन। जब तक हम पुनः गांव की ओर नहीं लौटेंगे, मानव में मनुष्यता नहीं आएंगी। शहर में आदमी मशीन हो जाता है और मशीन की जीवन मूल्यों के प्रति कोई संवेदना नहीं होती है। क्या हम गांव की ओर लौटने के लिए तैयार हैं?

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  2. गांधीवादी माडल की सार्थकता तो है पर इस त्वरित गति-समाज में यह माडल अस्तित्व में आ पायेगा?

    आतंकवाद बहुत कुछ विचार से जुडा़ मामला है, तो जाहिर है कि विचार का परिवर्तन किया जाना आवश्यक है, माड्ल कोई भी हो .

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  3. अन्तत: हमे अपने पुराने कल्चर की तरफ़ लौटना ही होगा ! cmpershad साहब से पूरी तरह सहमत !

    राम राम !

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  4. सिद्धान्त रूप में आपकी अवधारणा बिलकुल सही है। लेकिन मेरा मानना है कि इस देश में गान्धी का कत्ल हो चुका है। सिर्फ़ ३० जनवरी १९४८ को नहीं बल्कि उसके बाद भी शनैः शनैः गान्धी को उनके आधुनिक वंशजों द्वारा स्वयं अपने हाथों मारकर तिरोहित किया जा चुका है।

    यदि ऐसा नहीं होता तो जिस धर्म को गान्धी ने अच्छी जीवन शैली का अधार और सभी को जोड़ने वाला बताया था, इसके महत्व को अपनी प्रार्थना सभाओं में बार-बार दुहराया था, उसी धर्म ने आज आपसी वैमनस्य और दुराग्रह का विकराल रूप नहीं धारण किया होता।

    इसलिए अब गान्धी को याद भले ही कर लीजिए लेकिन उन्हें वापस लाएंगे कहाँ से?

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  5. समाज को बदलने की अपेक्षा, व्यक्ति को बदलना आसान है और अधिक लम्बे समय तक लाभकारी भी… लेकिन भौतिकता की आँधी में आज के व्यक्ति को लालच, भ्रष्टाचार, अनैतिकता से विमुख कर पाना सम्भव है? मेरे खयाल से तो नहीं, क्योंकि यदि ऐसा होना होता तो रोजाना चल रहे विभिन्न बाबाओं के लाखों प्रवचन अब तक करोड़ों व्यक्तियों को सुधार चुके होते… उल्टे आम लोगों की संगत में आने से बाबा-संत ही भ्रष्ट हो गये हैं…

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  6. TERRORISM IS ACTUALLY OUTCOME OF UNJUST SOCIAL & POLITICAL SYSTEM WHICH IS PREVAILING UNDER FEUD O- CAPITALIST SYSTEM. MAHATMA ASKED FOR THE DECENTRALIZATION OF ECONOMIC POWER WHICH GRADUALLY CONCENTRATED IN FEW HANDS. IN MODERN MODE OF PRODUCTION GANDHI' IDEA & METHODOLOGY IS NOT RELEVANT BUT HIS NOTION OF EQUALITY IS GRAND. SCIENTIFIC SOCIALISM ALONG WITH LIBRAL DEMOCRATIC NORMS MIGHT HAVE SUCCESS TO CONTROL TERRORISM.

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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