आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिय देखो जरा ! (२ गीत )


गीत मैं गढ़ता रहा हूँ
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- सुरेन्द्रनाथ तिवारी






उम्र की इस उदधि के उस पार लहराता जो आँचल
रोज सपनों में सिमट कर प्रिय लजाती है जो काजल
दामिनी सी दमकती है दंत-पंक्ति जो तुम्हारी
जल-तरंगों सी छमकती छम-छमाछम-छम जो पायल।

उर्वशी-सी देह-यष्टि जो बसी मानस-पटल पर,
कल्पना के ये मणिक उस मूर्ति में मढ़ता रहा हूँ।
गीत मैं गढ़ता रहा हूँ।


अप्रतिम वह देह सौष्ठव, अप्रतिम तन की तरलता।
काँपती लौ में हो जैसे अर्चना का दीप बलता।
मत्त, मद, गजगामिनी सी गति तुम्हारी मदिर मोहक,
बादलों के बीच जैसे पूर्णिमा का चाँद चलता।

चेतना के चित्र-पट पर भंगिमा तेरी सजाकर,
हर कुँआरी लोच में प्रिय, रंग मैं भरता रहा हूँ।
गीत मैं गढ़ता रहा हूँ।


गीत तो हमने लिखे हैं ज्योति के नीविड़ अमा में।
इसलिए कि पढ़ सको तुम विरह यह उनकी विभा में।
है तो साजो-सोज कितने, कंठ पर अवरुद्ध सा है,
क्या सुनाऊँ गीत जब तुम ही नहीं हो इस सभा में।

पन्नों मे गुलाबों को छुपा तुम ने रखा था,
प्रणय के वे बन्द पन्ने, रात-दिन पढ़ता रहा हूँ।
गीत मैं गढ़ता रहा हूँ।







आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिये देखो ज़रा!
- सुरेन्द्रनाथ तिवारी







आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिये देखो ज़रा!


आज फिर यह झील सोने की नई गागर बनी है
फिर प्रतीचि के क्षितिज पर स्वर्ण की चादर तनी है
बादलों की बालिकाएँ, सिंदूरी चूनर लपेटे
उछलती उत्ताल लहरों पर, बजाती पैंजनी है।

यह पुकुर का मुकुर कितना हो रहा अभिराम? प्रिये देखो ज़रा!
आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिय देखो ज़रा!



कौंध यादों में गया है पुनः कालिन्दी का तट-बट
गोपियों की खिलखिलाहट, फागुनी ब्रज-ग्राम पनघट
रोज किरणों की नई पीताम्बरी चूनर पहन कर
खेलते यमुना के जल में श्याम वर्णी मेघ नटख

याकि कालिय पर थिरकते पीतपट घनश्याम ! प्रिये देखो जरा!
आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिय देखो ज़रा !



इन्द्रधनुषी क्षितिज के पथ सूर्य का रथ जा रहा है
चाँद पूरब की लहर पर डूबता उतरा रहा है।
स्निग्ध संध्या ने सितारों की नई साडी़ पहन ली
नया पुरवैया का झोंका झील को सहला रहा है

या व्योम पीने झील का सौंदर्य यह उद्दाम| प्रिया देखो ज़रा!
आज फिर ढलने लगी है शाम, प्रिय देखो ज़रा!



2 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसा लग रहा है , जैसे शब्दों के झरने के पास बैठा कल कल ध्वनि सुन रहा हूँ ! मंत्रमुग्ध करती रचना ! अनंत शुभकामनाएं !

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