ईंट का जवाब .....

रसांतर

ईंट का जवाब पत्थर से नहीं
- राजकिशोर



समस्या पैदा करनेवाला और समाधान देनेवाला, दोनों नेता जब एक जैसे हों या एक जैसा होने की कोशिश कर रहे हों, तब निश्चित मानिए कि समस्या और पेचीदा होने जा रही है। मुंबई के राज ठाकरे की चुनौती का जो जवाब बिहार के लालू प्रसाद यादव ने खोज निकाला है, उससे स्वयं रेल मंत्री को चाहे जितना फायदा हो, महाराष्ट्र में रहने वाले उत्तर भारतीयों का जीवन कठिनतर हो जाएगा। ' ईंट का जवाब पत्थर से देना' मुहावरा कितना भी आकर्षक हो, यह एक संगीन दुष्चक्र पैदा करता है, जिससे दोनों पक्षों को नुकसान होता है। गांधी जी की सीख याद करें तो आँख के बदले आँख के सिद्धांत पर लोग चलने लगें, तो सारी दुनिया अंधी हो जाएगी।

यह तो तय ही है कि राजद नेता के आह्वान पर बिहार के सभी सांसद और विधायक संसद तथा विधान सभा से इस्तीफा देने वाले नहीं हैं। अगर वे ऐसा करने के लिए, किसी तरह, सहमत हो जाते हैं, तो मुठभेड़ के इस रास्ते पर अनर्थ ही अनर्थ प्रतीक्षा कर रहा होगा। समस्या महाराष्ट्र में है, उसका उत्तर बिहार में नहीं खोजा जा सकता। उत्तर पूरी तरह से दिल्ली में भी नहीं है। बिहार के सांसदों और विधायकों से इस्तीफा दिलवा कर लालू प्रसाद केंद्र सरकार पर दबाव डालना चाहते हैं कि वह महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे। जहां तक मुंबई में एक खास समुदाय पर सांप्रदायिक किस्म का हमला करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने का सवाल है, केंद्र के कहने पर यह संभव है। कुछ कार्रवाई हुई भी है। कुछ और कार्रवाई की जा सकती है। लेकिन क्या मात्र इतने से मुंबई की अपने ही देश में प्रवासी भारतीयों की समस्या सुलझ जाएगी? मेरा अनुमान है कि समस्या और भड़क सकती है।

इसका एक बड़ा कारण यह है कि हमारे देश में किसी खास समुदाय के खिलाफ आग उगलनेवालों और उस पर हमला करवानेवालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने की कोई परंपरा नहीं रही है। इसका एक उदाहरण राज ठाकरे के चाचा बाल ठाकरे ही हैं। कायदे से उन्हें अब तक कई वर्ष तक जेल में रह आना चाहिए था। इस सजा के लिए आवश्यक दस्तावेज महाराष्ट्र का कोई मामूली हवलदार भी जुटा सकता है। लेकिन हुआ यहाँ तक है कि महाराष्ट्र की विधान सभा इस निष्कर्ष पर पहुँची कि बाल ठाकरे ने विधायिका की मानहानि की है, तब भी वह उन्हें दंडित नहीं कर पाई। यही बात उन हिन्दू सांप्रदायिकों के बारे में कही जा सकती है जिन्होंने हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव को नष्ट करने में कुछ भी उठा नहीं रखा, फिर भी उनका कोई बड़ा नेता जेल में नहीं है और एक सज्जन तो भावी प्रधानमंत्री होने का ख्वाब भी देख रहे हैं। इसी स्थिति का लाभ राज ठाकरे को मिल रहा है। वे आपराधिक कृत्य करते रहने के बाद भी निर्भय हैं। विडंबना तो यह है कि महाराष्ट्र के अनेक विधायकों और महाराष्ट्र सरकार के कई मंत्रियों ने भी राज ठाकरे की मांगों का समर्थन किया है। इसलिए राज ठाकरे को गिरफ्तार करने और उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे चलाने का निर्णय तभी सफल और परिणामदायी हो सकता है, जब यह बात सदा के लिए साफ कर दी जाए कि आज से हम समाज कंटकों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई करने के लिए कृतसंकल्प हैं। इसके साथ ही मुंबई के माफिया गिरोहों और छोटे-बड़े गुंडों के खिलाफ भी कार्रवाई करनी होगी। जब तक सामान्य गुंडों की अनदेखी की जाती रहेगी, सांप्रदायिक गुंडों के खिलाफ की गई कार्रवाई राजनीतिक रंग में लिपटी नजर आएगी और परिणाम उलटे होंगे। कारण यह है कि सामान्य गुंडे और माफिया गिरोह अपने स्वार्थों की खातिर दादागीरी करते हैं, जब कि सांप्रदायिक गुंडई किसी जन समूह की भावना जुड़ी हुई होती है। इस गुंडागर्दी का एक धार्मिक, भाषाई या सांस्कृतिक चेहरा बन जाता है।

मेरा निवेदन है कि मुंबई की समस्या से पूरे देश की धड़कन तेज हो जानी चाहिए और सबको सोचना चाहिए कि देश भर में बिखरे विभिन्न समुदायों के बीच सद्भाव को कैसे बढ़ाया जाए, लेकिन मुंबई की समस्या का समाधान तो खास मुंबई में ही निकाला जा सकता है। एक बात समझ कर रखनी चाहिए और वह यह है कि यदि मुंबई के मराठी भाषी समाज में उत्तर भारतीयों या किसी भी अन्य समुदाय के प्रति हिंरुा भावना है, तो सिर्फ पुलिस और अदालत के जरिए इस स्थिति को बदला नहीं जा सकता। दबाव या दमन से प्रेम पैदा नहीं होता। इसी के साथ जुड़ी हुई दूसरी बात यह है कि भले ही प्रत्येक भारतीय का यह संवैधानिक अधिकार हो कि वह देश में कहीं भी आ-जा सकता है और वहां बस तथा नौकरी और व्यापार कर सकता है, लेकिन इस अधिकार का उपयोग स्थानीय समुदाय के सहयोग के बिना नहीं किया जा सकता। इसलिए सिर्फ अधिकार वाले पक्ष पर जोर देना ठीक नहीं है। ऐसे कदम भी उठाए जाने चाहिए जिससे स्थानीय स्तर पर सद्भाव पैदा होता हो। इसके लिए एक ऐसा स्थानीय नेतृत्व विकसित करना होगा जो दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास गांधी की तरह लोगों को लामबंद करे और उन्हें अन्याय के विरुद्ध तथा न्याय के लिए अहिंसक संघर्ष के लिए प्रेरित तथा प्रशिक्षित करे।

यह नेतृत्व क्या करेगा? वह पहले तो महाराष्ट्र में कार्यरत सभी उत्तर भारतीयों में यह दृढ़ता भरने की कोशिश करेगा कि हम अपमानित होंगे, मार खाएंगे, जान भी दे देंगे, लेकिन किसी से डर करके महाराष्ट्र नहीं छोड़ेंगे। इस तरह की दृढ़ता का प्रदर्शन किए बिना यही बार-बार साबित होता रहेगा कि उत्तर भारतीय कायर हैं। कायर ही गीदड़भभकी से डरते हैं या जरा-सा खतरा महसूस होते ही भाग निकलते हैं। चाहे सौ-दो सौ जानें चली जाएं, तब भी भारतीय होने के नाते महाराष्ट्र में या देश के किसी भी हिस्से में बसने और रोजगार करने के अधिकार को मान्यता दिलानी चाहिए। यह संघर्ष विनीत हो कर ही चलाया जा सकता है, पलट गुंडागर्दी करके नहीं। महाराष्ट्र के लोगों के सामने उत्तर भारतीयों को अपना आदर्श चेहरा पेश करना चाहिए। तभी वहां उनकी प्रशंसा होगी और उन्हें सहर्ष स्वीकार किया जाएगा।

दूसरी ओर, हिन्दी भाषियों का यह नेतृत्व विभिन्न स्तरों पर संवाद चलाने की कोशिश करेगा कि मुंबई या महाराष्ट्र का कोई भी शहर राज्य से बाहर के कितने लोगों को खुशी-खुशी स्वीकार कर सकता है। इस बारे में सिर्फ शिव सेना या नवनिर्माण सेना के प्रतिनिधियों से बातचीत करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। उनकी मांगें तर्कसम्मत नहीं होंगी। इसलिए किसी भी बातचीत में सरकार और राज्य के सभी ऐसे दलों और संगठनों के प्रतिनिधियों को शामिल करना जरूरी होगा जिनमें मराठी लोगों की बहुतायत है। मराठी बुद्धिजीवियों तथा लेखकों-कवियों को भी बुलाया जाना चाहिए। आगे की गतिविधियां इस पर निर्भर होंगी कि इस तरह की बैठकों से क्या निष्कर्ष निकलता है। मेरा अनुमान है कि कोई सर्वसम्मत निष्कर्ष निकलेगा ही नहीं। इस अनुमान का आधार यह है कि महाराष्ट्र में ही नहीं, मुंबई में भी राज ठाकरे और उनके अनुयायी अल्पसंख्यक हैं। जरूरत इस बात की है कि तार्किक प्रयासों के माध्यम से इस सचाई को प्रकाश में लाया जाए। राज ठाकरे का तर्क एक भूत है और भूत अंधेरे में ही काम करता है -- प्रकाश से वह दूर भागता है, कई बार इतनी दूर कि भागते-भागते उसकी सांस उखड़ जाती है और वह चल बसता है।

जाहिर है, यह कोई स्थायी समाधान नहीं है। टिकाऊ समाधान निकालने के लिए क्षेत्रीय विषमता को दूर करना होगा। मुंबई, कोलकाता और असम में हिन्दी भाषियों का संकेंद्रण अंग्रेजी राज में ही शुरू हो चुका था। अंग्रेज शासकों को इससे क्या मतलब हो सकता था कि भारत के कुछ हिस्सों का तीव्र विकास हो और बाकी हिस्से अंधेरे में गुमसुमाते रहें। दुर्भाग्यवश यही नीति स्वतंत्र भारत में भी अभी तक चली आती रही है। लालू प्रसाद ने बिहार पर पंद्रह साल तक शासन किया। इस दौरान अन्य राज्यों और बिहार के बीच ही नहीं, बिहार के ही विभिन्न हिस्सों के बीच भी विषमता बढ़ी। इसी का एक नतीजा था कि बिहार दो टुकड़ों में बंटा और बिहार का अत्यंत उपेक्षित हिस्सा झारखंड बिहार से अलग हो गया। ऐसा नेता अगर महाराष्ट्र की हिन्दी भाषी समस्या को अपना समाधान पेश करता है, तो उस पर आलोचनात्मक दृष्टि ही डाली जा सकती है। लालू प्रसाद से यह पूछना चाहिए कि वे बिहार के आर्थिक विकास के लिए कोई सर्वदलीय कार्रवाई क्यों नहीं करते? बिहार और उत्तर प्रदेश के नेता, कुर्सीशाह, उद्योगपति और बुद्धिजीवी अपने-अपने राज्य को संभाल लें, तो इन राज्यों के लोगों को अपने राज्य से बाहर जा कर अपमानित क्यों होना पड़े?


(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं)

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी साईट पर बंद करते समय ढ़ेरों पन्ने खुल जाते हैं, फिर क्म्प्यूटर बंद करने के बाद ही निजात मिलती है. देखिये न जाने कौन सा प्रोग्राम परेशान कर रहा है. बस सोचा आपकी जानकारी में ला दूँ.

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  2. समीर जी, मैं समझ नहीं पाई हूँ व न ही मुझे इस बात की कोई जानकारी है कि यह क्या है, क्योंकि मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ यहाँ। मैंने २-३ मित्रों को भी अभी कॊल कर के देखने को कहा. परन्तु इस पर ऐसा अनुभव अब भी कोई नहीं कर पाया। मैं स्वयम् नहीं समझ पा रही कि क्या समस्या है और ऐसा क्यों हुआ या सबके सातह् ऐसा न होने का क्या कारण है। किसी तकनीक के जानकार से इसका कारण व निदान जानना होगा।मुझे तो अधिक पता नहीं। ध्यान दिलाने के लिई आभारी हूँ। आप को कुछ हल पता हो तो बताएँ।

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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