हिन्दी का दूसरा अखबार - राजकिशोर ( इस ईमानदार कोशिश पर... )

राग दरबारी

-'मेरे, मेरे मित्रों तथा हिन्दी भाषा भाषी लाखों पाठकों की ओर से बधाई कि नईदुनिया फिर से हिन्दी में निकलने लगा है।' अगले परिच्छेद में कहा गया था, 'जनसत्ता के बाद हिन्दी का ये दूसरा अखबार है जो हिन्दी में निकल रहा है। पुन: बधाई।'

प्रभु जोशी बहुत दिनों से हिन्दी के भविष्य को लेकर बहुत परेशान हैं। वे हिंग्लिश के खिलाफ बोलते हैं, लिखते हैं और हिन्दी के अखबार मालिकों को पत्र लिख कर अनुरोध करते हैं कि वे हिन्दी के साथ छेड़छाड़ न करें। प्रभु के अनुसार, किसी भी भाषा को बनने में सैकड़ों साल लगते हैं। उसे कुछ खास संस्थानों द्वारा कुछ ही वर्षों में हलाल करने का प्रयास असह्य है।


हिन्दी का दूसरा अखबार
- राजकिशोर

शहर इंदौर से एक मित्र का मेल आया -- कृपया आलस्य न करें और इस मेल को तुरंत नईदुनिया को भेजें। मैं घबरा गया। इस तरह के मेल आते ही रहते हैं जिसमें किसी अपील पर हस्ताक्षर करना होता है या किसी महत्वपूर्ण घटना को अपने सभी मेल-मित्रों के बीच प्रसारित करना होता है। पर किसी के भी शीर्षक में यह नहीं लिखा होता कि फौरन कार्रवाई करें। मेल के साथ दो संलग्नक थे (कम पढ़े-लिखे लोगों के लिए, अटैचमेंट) और दोनों का ही शीर्षक था -- बधाई-नईदुनिया। इससे थोड़ी तसल्ली हुई। जब बधाई की बात है, तो जरूर खुशखबरी होगी। मेरे मित्र उस नेता की तरह नहीं हैं जिसने मुहर्रम पर मुसलमानों को बधाई देते हुए एक विज्ञापन सभी स्थानीय पत्रों में छपवा दिया था।


एक संलग्नक खोला, तो बहुत बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था -- बधाई। उसके नीचे लिखा हुआ था --'मेरे, मेरे मित्रों तथा हिन्दी भाषा भाषी लाखों पाठकों की ओर से बधाई कि नईदुनिया फिर से हिन्दी में निकलने लगा है।' अगले परिच्छेद में कहा गया था, 'जनसत्ता के बाद हिन्दी का ये दूसरा अखबार है जो हिन्दी में निकल रहा है। पुन: बधाई।' दूसरे संलग्नक में बात को पूरी तरह स्पष्ट किया गया था --'प्रिय मित्रो, नईदुनिया फिर से हिन्दी को बचानेवाले योद्धा के संकल्प से फिर से हिंग्लिश को छोड़ कर हिन्दी की तरफ लौट आया है। कृपया आप लोगों से आग्रह है कि इस ईमानदार कोशिश पर अखबार को तहेदिल से बधाई दें ताकि वह हिन्दी को बचाने के संकल्प की लड़ाई में शक्ति अर्जित कर सके।' मेल इंदौर के शिवशंकर मालवीया ने भेजा था। वे इंदौर के ही मेरे मित्र प्रभु जोशी के मित्र हैं। प्रभु जोशी बहुत दिनों से हिन्दी के भविष्य को लेकर बहुत परेशान हैं। वे हिंग्लिश के खिलाफ बोलते हैं, लिखते हैं और हिन्दी के अखबार मालिकों को पत्र लिख कर अनुरोध करते हैं कि वे हिन्दी के साथ छेड़छाड़ न करें। प्रभु के अनुसार, किसी भी भाषा को बनने में सैकड़ों साल लगते हैं। उसे कुछ खास संस्थानों द्वारा कुछ ही वर्षों में हलाल करने का प्रयास असह्य है।


मेल में नईदुनिया के संपादक का ईमेल पता भी दिया गया था -- एडिटर @नईदुनिया
.कॉम। मैंने तुरंत नईदुनिया के संपादक को मेल के जरिए बधाई भेजी कि उन्होंने अपना अखबार फिर से हिन्दी में निकालना शुरू कर दिया है। मैंने यह उम्मीद भी कि नईदुनिया ने अपने लिए जो रास्ता बनाया है, वह निम्न कोटि की व्यावसायिकता के इस समय में एक बहुत बड़ी चुनौती है, लेकिन देश एक बार फिर से जगा, तो वह नईदुनिया का आभार मानेगा कि मौजूदा अंधड़ में मध्य प्रदेश में भी कोई था, जिसे अपना कर्तव्य साफ-साफ दिखाई पड़ रहा था। इतिहास भीड़ में चलनेवालों या भेड़ियाधंसान में बहनेवालों के नाम दर्ज नहीं करता। वह उनके नाम जरूर नोट करता है जो 'एकला चलो रे' का साहस दिखाते हैं।


हिन्दी के भविष्य को ले कर इस समय दो मत हैं। एक मत यह है कि हिन्दी खूब फूल-फल रही है तथा आगे और ज्यादा फूले-फलेगी, बशर्ते उसके पांवों में शुद्धतावाद की बेड़ियां न लगाई जाएं। 'हिन्दी-अंग्रेजी सिस्टर-सिस्टर' के समवेत नारे के साथ हिन्दी को अंग्रेजी शब्दों से इनरिच किया जाए और जनता की लैंग्वेज अपनाने के लिए उसे इनकरेज किया जाए। दूसरा मत निराशावादी है। इस मत के अनुसार, एक बड़ी साजिश के तहत हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को नष्ट किया जा रहा है तथा अंग्रेजी को आम जनता पर लादा जा रहा है। हिन्दी अगर बच भी गई, तो वह हिन्दी नहीं, हिंग्लिश होगी और हम सभी भाषाई दोगले बन जाएंगे। भविष्य की हिन्दी कैसी होगी, इसका एक नमूना प्रभु जोशी ने अपने एक सनसनाते हुए लेख में पेश किया है। यह नमूना भोपाल के एक स्थानीय दैनिक से अनेक वर्ष पूर्व लिया गया था : 'मार्निंग अवर्स के ट्रेफिक को देखते हुए, डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रेफिक रूल्स अपने ढंग से इमप्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफट्र्स किए हैं, वो रोड को एक्सीडेंट प्रोन बना रहे हैं। क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न लेकर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं। इस प्रॉब्लम का इमीडिएट सोल्यूशन मस्ट है।'


इंदौर की नईदुनिया को एक ऐतिहासिक पत्र माना जाता है। कुछ समय पहले उसने भी अपना प्रसार बढ़ाने के लिए हवा के रुख से समझौता किया और खरामा-खरामा हिंग्लिश की ओर बढ़ने लगा। इंदौर के सुरुचि-संपन्न पाठक तिलमिलाए। सभी के कंठ से यही निकल रहा था -- ' यू, टू ब्रूटस '। इसके बाद जन प्रतिवाद शुरू हुआ। लोगों ने पत्र स्वामी से मिल कर अपनी नई नीति पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया। अंतत: सद्बुद्धि की वापसी हुई और नईदुनिया फिर से हिन्दी का अखबार बन गया। इंदौर के सचेत लोगों और नईदुनिया के विचार-सक्षम स्वामियों को बधाई।


जो इंदौर मैं अभी हुआ, वैसा ही कुछ दिल्ली में आठेक साल पहले हो सकता था। जब यह खबर फैली कि एक चोटी के विद्वान को हिन्दी के एक बड़े दैनिक का अगला संपादक बनाया जा रहा है, तो मैंने दिल्ली के एक नामी लेखक-संपादक से निवेदन किया कि दिल्ली में बड़े-बड़े लेखक रहते हैं। अगर वे एक समूह में अखबार मालिक से मिलें और उन्हें समझाएं कि इस निर्णय पर पुनर्विचार करने की जरूरत है, तो हो सकता है, यह बला टल जाए। सभी
ने कहा कि विचार अच्छा है, पर किसी ने भी बहादुशाह जफर मार्ग की ओर रुख नहीं किया। मुझे लगता है कि अब शहर नहीं, कस्बा ही संभावना है।

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4 टिप्‍पणियां:

  1. tahe dil se badhai aur dhanywad bavjood iske ki yah apradh ham roz karten hein.

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  2. हिन्दी भाषा के सम्रद्धि के लिए यह आवश्यक है की जन्हा तक सम्भव हो अपनी बात हिन्दी मैं रखने की कोशिश की जानी चाहिए . वैसे भी हिन्दी इतनी सम्रद्ध है की उसे किसी दूसरी भाषा के सहारे के जरूरत नही होती है. बहुत बहुत बधाई हो जो आपने हिन्दी भाषा के लिए यह कदम उठाया . .

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  3. ye ek kadua sach hai vakai naidunia,indore ne hindi ko samajha hai aur hinglish ko nakarne ke ek eemandaar koshish ki hai

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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