परत-दर-परत : बुराई की बाढ़ : बिहार - राजकिशोर

परत-दर-परत
बुराई की बाढ़
- राजकिशोर



उत्तर बिहार की बाढ़ जितनी बड़ी खबर है, उससे बड़ी खबर यह है कि मुसीबतजदा लोगों को लूटा जा रहा है और औरतों को बेइज्जत किया जा रहा है। बाढ़ की आपदा से त्रस्त जो लोग अपने घरों को छोड़ कर जान बचाने की खातिर अनिश्चित भविष्य की ओर चल पड़े हैं, उनके घरों पर स्थानीय गुंडों और बदमाशों की कुदृष्टि है। घर में जो थोड़ा-बहुत सामान है -- लोटा-थाली, कपड़े, रोजाना के इस्तेमाल की चीजें, वे सब हथिया ली जा रही हैं तथा सूने घरों को और सूना बनाया जा रहा है। पहले हमारे परिवार को निकालो, यह मांग पहले भी हर बाढ़ में की जाती रही है और इस पर झगड़ा-फसाद भी होता रहा है। इस बार नावों पर जबरिया कब्जे की घटनाएं बढ़ रही हैं और 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' का सिद्धांत खुल कर खेल रहा है। इसी तरह, राहत सामग्री की लूट की प्रतिद्वंद्विता तीव्र गति से जारी है। सबसे बड़ा हादसा उन औरतों के साथ गुजर रहा है, जो मौत के खतरे को पार कर राहत-नावों में शरण प्राप्त करने में सफल हो जा रही हैं। प्रकृति के कोप से बच जाने के बाद इन्हें मनुष्य की वासना का शिकार होना पड़ रहा है। मानो ये 'नो मैन्स लैंड' हों और इनके साथ कुछ भी किया जा सकता हो। डरी हुई औरत को और ज्यादा डराना कितना आसान होता है!


क्या यही मूल मानव स्वभाव है? क्या मनुष्य हमेशा दूसरों की लाचारगी का फायदा उठाना चाहता है? किसी बड़ी सामूहिक आपदा के समय आदमी क्या हमेशा कुत्ता हो जाता है? इसका जवाब एक असंदिग्ध हां में नहीं दिया जा सकता। होता है, यह भी होता है। लेकिन हमेशा यही नहीं होता। भारत विभाजन के खूनी दिनों में भी, जब आदमी आदमी का दुश्मन हो रहा था, ऐसी अनंत घटनाएं हुई थीं जिनमें सक्षम लोगों ने असुरक्षित लोगों को अपनी जान पर खेल कर बचाया था और अपने घरों में शरण दी थी। यह भी मानव स्वभाव है। बिहार की इस भयावह बाढ़ में ऐसी भी अनेक घटनाएं हो रही होंगी। संभव है, इनकी रिपोर्ट बाद में छपे।


अभी जो सामने आ रहा है, वह मानव स्वभाव का एक दुखद पहलू है। लेकिन मानव स्वभाव कोई जड़ या अपरिवर्तशील चीज नहीं है। दक्षिण भारत में जब सुनामी का हमला हुआ था और लाखों जानें चली गई थीं और इनसे अधिक लोग बेघर हो गए थे, ऐसी एक भी घटना नहीं सुनी गई कि बेसहारा लोगों को लूट लिया गया या औरतों को बेइज्जत करने की कोशिश की गई। यह खबर जरूर आई थी कि देह व्यापार का धंधा चलानेवाले दुष्ट गिरोहों के लोग अकेली लड़कियों और औरतों को भगा कर ले जाने के लिए सुनामी-पीड़ित इलाकों में पहुंच गए थे। लेकिन यह तो धंधा है। यह कुछ इस तरह की घटना थी जैसे भोपाल गैस रिसाव कांड के बाद अमेरिका के बहुत-से लालची वकील भोपाल आ धंसे थे, ताकि गैस-पीड़ित लोगों को मुआवजे के रूप में ज्यादा से ज्यादा रकम दिलवाई जा सके और उसमें से अपने लिए ज्यादा से ज्यादा हिस्सा झटका जा सके। बिहार की इस बाढ़ में भी ऐसे गिरोह सक्रिय हो गए होंगे। जहां मुरदा पड़ा होता है, कौए और गिद्ध मंडराते ही हैं। हमारी चिंता का विषय यह है कि तमिलनाडु की तुलना में बिहार में लोगों की मुसीबत से फायदा उठाने का असंगठित उपक्रम इतना अधिक क्यों हो रहा है कि अखबारों की 'लीड' बन सके।


क्या यह कहा जा सकता है कि तमिलनाडु और बिहार में मानव स्वभाव की अलग-अलग परिभाषाएं सामने आ रही हैं? नृतत्वशास्त्र इसका समर्थन नहीं करता। मनुष्य सभी जगह एक जैसे होते हैं। यह उनकी परिस्थितियां हैं जो उनके चरित्र और व्यवहार में फर्क ले आती हैं। इसकी सचाई हम वर्तमान परिस्थिति में भी देख सकते हैं। बिहार और तमिलनाडु, दोनों राज्यों की आर्थिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थितियां अलग-अलग हैं। बिहार के अनेक हिस्सों में जैसी दरिद्रता दिखाई देती है, वह तमिलनाडु में नहीं है। बिहार जैसी अराजकता भी वहां दिखाई नहीं देती। शायद इतनी विषमता भी नहीं है। इसलिए तमिलनाडु में मुसीबत के समय दया-माया दिखाने की संस्कृति काफी हद तक बची हुई है। इसके विपरीत, बिहार प्रत्येक दृष्टि से आशाविहीन है। यह तथ्य उन्हें क्रूर और हिंसक बना रहा है जिनकी स्थिति में इसके लिए थोड़ी भी गुंजाइश है। बाढ़ के समय किसी नई नीचता का जन्म नहीं हुआ है। यह उसी नीचता का एक और प्रगटन है जो सामान्य दिनों में दिखाई देती है। नि:संदेह इसका एक वर्ग आधार भी है। जो दीन-हीन लोग सामान्य दिनों में लूटे-खसूटे जाते हैं, वे ही बाढ़ के समय भी आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों के शिकार हो रहे हैं। जो पहले कुछ हद तक सुरक्षित थे, वही आज भी सुरक्षित हैं।


आशाविहीनता से उत्पन्न विक्षोभ और स्वार्थपरता का एक रुाोत सरकार का बाढ़ प्रबंधन है। जो सरकार सामान्य दिनों में भी सामान्यलोगों की सुख-सुविधाओं का खयाल नहीं रख सकती, उनके लिए दो जून पौष्टिक खाने और चौबीस घंटों में बारह घंटे बिजली देने का इंतजाम नहीं कर सकती, उससे यह उम्मीद करना बेकार है कि वह एक विशाल प्राकृतिक आपदा के समय अचानक संवेदनशील, कार्य-कुशल और हो जाए। बेशक बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए सेना को भी उतारा गया है, पर काम जितना ज्यादा है, सैनिकों की संख्या उससे बहुत कम है। इसलिए बाढ़ पीड़ितों को यकीन नहीं है कि सभी के साथ न्याय होगा। सभी को बचाया जाएगा और सभी को राहत सामग्री मिलेगी। बंटवारे का यह अनिश्चय भी लोगों के दिलों को छोटा बना रहा है। यह लगभग वैसी ही स्थिति है जैसी भगदड़ के समय होती है। हर आदमी अपनी जान बचाने को उच्चतम वरीयता देता है। इसी कारण लोग इतनी तादाद में मरते हैं। बिहार की इस मुसीबत में केंद्र सरकार ने अपना खजाना खोलने में उदारता दिखाई है। बिहार के मुख्यमंत्री भी खासे चिंतित और सक्रिय हैं। लेकिन बिहार का हाल का इतिहास भी उसका पीछा कर रहा है। यह इतिहास अन्याय और जुल्म के छोटे-बड़े द्वीप बनाने का है। यही द्वीप बाढ़ के इस जानलेवा मौसम में भी जगह-जगह उभर रहे हैं।




2 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल सही लिखा है। इस तरह की संवेदनहीन और अमानवीय घटनाएं बिहार से ही आ रही है। कब मिटेगी पैसे की भूख?

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  2. बहुत अफ़सोस की बात है.
    एक अच्छी और जानकारीपूर्ण पोस्ट के लिए धन्यवाद.

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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