अँगरेजी की चक्की में क्यों पिसें बच्चे - डॉ. वेदप्रताप वैदिक



ँगरेजी की चक्की में क्यों पिसें बच्चे

- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

बीबीसी हिंदी से साभार

(लेखक भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष हैं।)


भारत में अँगरेजी के वर्चस्व को बढ़ाने में अँगरेजी के अखबार विशेष भूमिकानिभाते हैं। भारत में अँगरेजी के जितने अखबार निकलते हैं, उतने दुनिया केकिसी भी गैर-अँगरेजीभाषी देश से नहीं निकलते। दिल्ली के एक अँगरेजी अखबारने कुछ ऐसे आँकड़े उछाले हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि अँगरेजी सुरसा केबदन की तरह निरंतर बढ़ती चली जा रही है।


एक सर्वेक्षण के मुताबिक पिछले तीन वर्षों में अँगरेजी माध्यम के छात्रोंकी संख्या में 74 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। उनकी संख्या 54 लाख से बढ़कर95 लाख हो गई है। हिन्दी माध्यम के छात्रों की संख्या में सिर्फ 24प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यानी हिन्दी के मुकाबले अँगरेजी तीन गुना तेजदौड़ रही है।

ऐसा कहने का आशय क्या है? आशय यह है कि हिन्दी वालो जागो, आँखें खोलो।अपने बच्चों को अँगरेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाओ। दुनिया के साथ कदमसे कदम मिलाकर चलो। विदेशों में बड़ी-बड़ी नौकरियाँ हथियाना हो तो अपनेबच्चों को अभी से अँगरेजी की घूटी पिलाना शुरू करो। वैश्वीकरण के इस युग में मातृभाषा से चिपके रहने में कोई फायदा नहीं है। इस खबर में आंध्र,तमिलनाडु और महाराष्ट्र की इसलिए विशेष तारीफ की गई है कि उनके 60प्रतिशत बच्चे अँगरेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं।


इस खबर में संख्या का जो खेल खेला गया है, पहले हम उसकी खबर लें। यह ठीकहै कि अँगरेजी माध्यम के छात्र 54 लाख से बढ़कर 95 लाख हो गए, लेकिन हम यहक्यों भूल गए कि हिन्दी माध्यम के छात्र 6 करोड़ 31 लाख से बढ़कर 7 करोड़ 73लाख हो गए। हिन्दी का प्रतिशत 49।5 से बढ़कर 52.2 हो गया, जबकि अँगरेजी का4.3 से बढ़कर 6.3 ही हुआ। यह कुल 15 करोड़ छात्रों की संख्या में से निकला हुआ प्रतिशत है।


इस संख्या को इस कोण से भी देखें कि कुल 15 करोड़ छात्रों में से अँगरेजीमाध्यम वाले छात्र एक करोड़ भी नहीं हैं। अँगरेजी माध्यम के छात्रों केमुकाबले सिर्फ हिन्दी माध्यम के छात्रों की संख्या 8-9 गुना बढ़ी है।पिछले 200 साल से पूरी सरकारी मशीनरी और भारतीय भद्रलोक ने अपनाखून-पसीना एक कर लिया। भारतीय भाषाओं के विरुद्ध जो भी साजिश संभव थी, वहभी कर ली।


इसके बावजूद क्या नतीजा सामने आया? 110 करोड़ लोगों के भारत में सिर्फ 95लाख बच्चे अँगरेजी माध्यम से पढ़ रहे हैं। यानी पूरे भारत में अँगरेजीमाध्यम से पढ़ने वालों की संख्या एक प्रतिशत भी नहीं है। ये एक प्रतिशतबच्चे बड़े होकर कैसी अँगरेजी लिखते-बोलते हैं, यह सबको पता है। नोबेलपुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने अपनी नई पुस्तक 'आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन'की भूमिका में उनकी अँगरेजी सुधारने वाली एक अँगरेजी लड़की का बड़ा आभारमाना है। यह उनकी सचाई और विनम्रता का प्रमाण है। जब अमर्त्य बाबू का यहहाल है तो अँगरेजी के अखाड़े में दंड पेलने वाले नौसिखियों का क्या कहना?


भारत में एक करोड़ बच्चे अँगरेजी यानी विदेशी भाषा की चक्की में पिस रहेहैं। ऐसी पिसाई दुनिया में कहीं नहीं होती। दुनिया के किसी भी शक्तिशालीया मालदार देश में उनके बच्चों की गर्दन पर ऐसी छुरी नहीं फेरी जाती।वहाँ गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र तथा कला के विभिन्न विषय विदेशी माध्यमसे नहीं पढ़ाए जाते। ये सारे विषय अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चीन,जापान और रूस जैसे देशों में स्वदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाए जाते हैं।इसीलिए सारे विषयों को सीखने में बच्चों को विशेष सुविधा होती है। सीखनेकी रफ्तार तेज होती है। उनके नंबर भी ज्यादा आते हैं। वे फेल भी कम होतेहैं। उन्हें विदेशी भाषा से कुश्ती नहीं लड़नी पड़ती।


अपनी भाषा वे सरलता से सीख लेते हैं। उनकी सारी शक्ति विषयों को सीखनेमें लगती है। भारत में इसका उल्टा होता है। बच्चों को मार-मारकर विदेशीभाषा रटाई जाती है। जितना समय वे अन्य पाँच विषयों को सीखने पर लगातेहैं, उससे ज्यादा उन्हें अकेली अँगरेजी पर लगाना होता है। फिर भी, सबसेज्यादा बच्चे अगर किसी विषय में फेल होते हैं तो अँगरेजी में होते हैं।यही कारण है कि बीए तक पहुँचते-पहुँचते 15 करोड़ में से 14 करोड़ 40 लाखबच्चे पढ़ाई से मुँह मोड़ लेते हैं।


सिर्फ 4-5 प्रतिशत बच्चे कॉलेज तक पहुँच पाते हैं। हमारे देश के पिछड़ेपनका एक मूल कारण यह भी है कि हमारे यहाँ सुशिक्षित लोगों की संख्या 15प्रतिशत भी नहीं है। साक्षर लोग यानी अपने हस्ताक्षर कर सकने वाले लोग 70प्रतिशत हो सकते हैं, लेकिन क्या साक्षरों को सुशिक्षित कह सकते हैं?दूसरे शब्दों में अँगरेजी के कारण बच्चे शिक्षा से ही पिंड छुड़ा लेतेहैं। इस तरह अँगरेजी शिक्षा के प्रसार में सबसे बड़ी बाधा बनती है।


जिन बच्चों को अँगरेजी अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाती है और जिनका माध्यमअँगरेजी है, उन बच्चों की कितनी दुर्दशा होती है, उसका गंभीर अध्ययन करनेकी जरूरत है। ये बच्चे निरंतर दबाव और तनाव की जिंदगी जीते हैं। वे अपनीभाषा, अपने संगीत, अपनी कला, अपनी परंपरा और अपने मूल्यों से बेगाने होतेचले जाते हैं। वे कहीं भी गहरे उतरने के लायक नहीं रहते। उनकामन-मस्तिष्क चमगादड़ की तरह हो जाता है। वे उल्टे होकर लटकने लगते हैं।उन्हें बताया जाता है कि पश्चिम ही छत है। अमेरिका और ब्रिटेन ही सबसेऊपर हैं। उनसे ही जुड़ो।


वे उनसे इतने जुड़ जाते हैं कि बड़े होकर वे इन्हीं पश्चिमी देशों में रहनेके लिए उतावले हो जाते हैं। इसीलिए हमारे अँगरेजी माध्यम से लोग पश्चिमकी गटर में बह जाते हैं। इसे ही 'ब्रेन-ड्रेन' कहा जाता है। इन लाखोंछात्रों की पढ़ाई और लालन-पालन पर यह गरीब देश करोड़ों-अरबों रुपए खर्चकरता है और जब फल पककर तैयार होता है तो गिरने के लिए वह अमेरिकी झोलीतलाशता है। इससे बढ़कर भारत की लूट क्या हो सकती है?


जो लोग पढ़-लिखकर विदेशों में बस जाते हैं, वे भारत के लिए क्या करते हैं?भारत की बात जाने दें, अपने परिवारों के लिए भी खास कुछ नहीं करते। उनसेज्यादा पैसा तो वे बेपढ़े-लिखे मजदूर भेजते हैं, जो खाड़ी के देशों में कामकरते हैं। ये कमाऊ पूत हैं और वे उड़ाऊ पूत हैं। अँगरेजी की पढ़ाई देश मेंउड़ाऊ-पूत पैदा करती है। यदि अमेरिका जाकर हमारे 10-15 लाख नौजवानों नेनौकरियाँ हथिया लीं तो इसमें फूलकर कुप्पा होने की क्या बात है?


इसमें शक नहीं है कि अगर वे अँगरेजी नहीं जानते तो उन्हें ये नौकरियाँनहीं मिलतीं, लेकिन जरा सोचें कि इन 10-15 लाख लोगों के लिए हम अपने देशका कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं? 15 लाख लोगों को विदेशों में नौकरी मिलजाए, इसलिए हम 15 करोड़ बच्चों को अँगरेजी की चक्की में पीसने को तैयारहैं? हम कितने बुद्धू और क्रूर राष्ट्र हैं?


इतना ही नहीं, अँगरेजी के मोह के कारण हम चीनी, जापानी, रूसी, फ्रांसीसी,जर्मन और हिस्पानी जैसी भाषाएँ भी अपने बच्चों को नहीं सिखाते। हमने अपनासंसार बहुत छोटा कर लिया है। यदि हम हमारे बच्चों को अँगरेजी के साथ-साथअन्य प्रमुख विदेशी भाषाएँ सीखने की छूट दे देते तो भारत अपने व्यापार औरकूटनीति में अब तक संसार का अग्रणी देश बन जाता।


जरा ध्यान दीजिए! यहाँ मैंने छूट देने की बात कही है, थोपने की नहीं!भारत में अनेक विदेशी भाषाएँ जमकर पढ़ाई जानी चाहिए, जैसी कि आजकल चीन मेंपढ़ाई जा रही हैं। चीनी लोग अँगरेजी की गुलामी नहीं कर रहे हैं। उसे अपनागुलाम बनाकर उससे अपना काम निकाल रहे हैं। अमेरिका में चीनियों की संख्याभारतीयों से भी ज्यादा है। उनके लिए अँगरेजी महारानी नहीं, नौकरानी है।हमने अँगरेजी को महारानी बना रखा है।


इसीलिए 15 करोड़ बच्चों पर हम उसे थोप देते हैं और एक करोड़ बच्चों से कहतेहैं कि तुम्हें जो कुछ सीखना हो, वह अँगरेजी के माध्यम से ही सीखो। किसीभी विदेशी भाषा को पढ़ाई का माध्यम बनाना अक्ल के साथ दुश्मनी है। इस परसंवैधानिक प्रतिबंध लगना चाहिए। कौन लगाएगा यह प्रतिबंध? हमारे सारे नेतागण तो कुर्सी और पैसे के खेल में पगला रहे हैं।


उन्हें इन बुनियादी सरोकारों से कुछ लेना-देना नहीं है। यह काम देश केप्रबुद्धजन को ही करना होगा। अगर वे कोई जबर्दस्त जन-अभियान चला दें तोअपने देश के बच्चों का बड़ा कल्याण होगा और नेतागण तो अपने आप उसके पीछेचले आएँगे।

2 टिप्‍पणियां:

  1. वेद प्रताप वैदिक का चिन्तन एक आत्मविश्वासी व्यक्ति का चिन्तन है। ऐसे विचार किसी रट्टु/नकलची को समझ में नहीं आ सकते। भारत का दुर्भाग्य है कि पूरे देश में अंग्रेजी के रट्टुओं की फौज खड़ा की जा रही है। बचपन से ही उन्हे गुलामी की घुट्टि पिलायी गयी है। वे असली भारत के बारे में कैसे सोच सकते हैं?

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  2. अनुनाद जी,
    वैदिक जी के सन्दर्भ में आपने सटीक कहा.अपनी भाषा में विशेषज्ञत्ता पाए बिना विदेशी भाषा से मोह लगाने का हश्र यही होना है क्यॊंकि विदेश की भाषा देश से प्रेम कैसे सिखा सकती है भला? अपनी भाषा के बाद भले ही कितनी भाषाएँ सीखें.

    आप तो स्वयम् सक्रिय कार्य कर रहे हैं. अच्छा लगा कि आप ब्लॊग पर आए. आपके लेखन व टिप्पणियों का सदा स्वागत है

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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